जातिप्रथा एक जन्मगत भेद है व्यक्ति और व्यक्ति के बीच; जिसमें माना जाता है कि जन्म से ही एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अलग है। यह भेद और अधिक वीभत्स रूप ले लेता है जब माना जाता है कि एक श्रेष्ठ है और दूसरा निम्न।
हम इसे मात्र एक कुरीति की तरह देखते हैं और हमारी मान्यता यही रहती है कि शिक्षा का स्तर बढ़ा देने से और इसके विरुद्ध कानून पारित कर देने से यह समस्या सुलझ जाएगी। पर ऐसा है नहीं। पढ़े-लिखे लोग भी जातिवादी मानसिकता रखते हैं, और समानता के पक्ष में कानून होने के बावजूद जातिप्रथा कायम है। तो निश्चित ही यह एक गहरी समस्या है।
आचार्य प्रशांत प्रस्तुत पुस्तक में इस विषय को गहराई से विश्लेषित करते हैं। आचार्य प्रशांत इसे एक सामाजिक समस्या से पहले एक भीतरी समस्या बताते हैं। वे कहते हैं कि जाति हमारी अज्ञानता की उपज है; दूसरे को दूसरा समझना ही मूल समस्या है।
आचार्य प्रशांत इसके समाधान के लिए हमें उपनिषद् और वेदान्त की ओर ले चलते हैं। वे कहते हैं — चूँकि जाति शारीरिक और मानसिक तल पर ही होती है, इसलिए जाति तब तक रहेगी जब तक हम उसे मान्यता देंगे जो जन्मा है, जो जात है। वेदान्त उसकी बात करता है जो अजात है, और मात्र उसी तल पर एकत्व है। पर उस अजात को समझा नहीं जा सकता जब तक हम जात को न समझें।
इस पुस्तक में उस जात को ही गहराई से समझाया गया है। और इस जात की समझ से ही जाति का उन्मूलन संभव है।
Index
CH1
हिन्दू धर्म में जातिवाद का ज़िम्मेवार कौन?
CH2
क्या भगवद्गीता जातिवाद का समर्थन करती है?
CH3
जातिवाद का मूल कारण क्या? समाधान क्या?
CH4
शूद्र कौन? शूद्र को धर्मग्रन्थ पढ़ने का अधिकार क्यों नहीं?
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Naishadh (PAF)
1mo
An Eye Opener
This book is the need of the our to unite the country and the whole world. This book addresses the core reason behind the existence of the divide. It addresses all the issues which our country has been facing due to this divide. Its refreshing to know that our scriptures are one of the first anti caste movements ever existed. A must read for everyone.