डर [Hardbound]

डर [Hardbound]

समझें और बढ़ें निडरता की ओर
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hindi Language
192 Print Length
Description
जीवन दो ही तरीकों से जिया जाता है: या तो डर में या प्रेम में। हमने प्रेम कभी जाना नहीं है और डर से हमारा बड़ा गहरा नाता है।

डर का जन्म होता है अपूर्णता के विचार से, यह विचार कि हम में कुछ अस्तित्वगत कमी है। इसी विचार को सत्य मानकर हम संसार द्वारा प्रदत्त वस्तुओं पर आश्रित हो जाते हैं, चाहे वो हमारे रिश्ते-नाते हों, चाहे रुपये-पैसे अथवा पद-प्रतिष्ठा।

यदि हम अपने केवल शारीरिक ज़रूरतों के लिए ही संसार पर निर्भर होते तो कोई समस्या नहीं थी पर हम अपने अस्तित्व को ही, अपने होने के भाव को ही संसार पर टिका देते हैं। इसी कारण बाहर की कोई छोटी-सी घटना भी हमें भीतर तक हिला देती है। और चूँकि संसार निरन्तर परिवर्तनशील है अतः हमारा सम्पूर्ण जीवन ही भय और दुःख के साये में व्यतीत होता है।

आचार्य प्रशांत जी इन संवादों के माध्यम से इस अपूर्णता के विचार को ही नकार देते हैं। आचार्य जी हमें हमारे उस 'मैं' से परिचित कराते हैं जो असली है और जो अमृतस्वरूप है।

कृपया इस पुस्तक का भरपूर लाभ लें और अपने जीवन के केंद्र से डर को विस्थापित कर प्रेम को लाएँ ।
Index
CH1
डर (भाग-१): डर की शुरुआत
CH2
डर (भाग-२): डर, एक हास्यास्पद भूल
CH3
डर (भाग-३): डर से मुक्ति
CH4
मन नये से डरता है
CH5
संचय और डर
CH6
निर्णय के लिए दूसरों पर निर्भरता
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