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Book Details
Language
hindi
Print Length
224
Description
बीसवीं शताब्दी के विख्यात वेदान्ती, रमण महर्षि, कहा करते थे – भक्ति ज्ञान की माता है। ज्ञानी नेति-नेति की प्रक्रिया में सांसारिक विषयों को नकारता चलता है, और अन्त में उसे स्वयं को भी नकारना पड़ता है। सच्चा भक्त यह काम यात्रा की शुरुआत में ही कर देता है। उसे यह बोध शुरू में ही हो जाता है कि उसका केन्द्र ही ग़लत है, इसलिए वह अपने आराध्य को ही अपने जीवन का केन्द्र बना लेता है।
भक्ति के विषय में यह मान्यता रही है कि यह बस अल्प बुद्धि वालों के लिए उपयुक्त मार्ग है, जबकि वास्तव में बिना बोध के भक्ति बस अन्धविश्वास और मूर्खता बनकर रह जाती है। आमतौर पर यह धारणा होती है कि भक्ति का अर्थ है कुछ क़िस्से-कहानियों को बिना तर्क किये मान लेना। हम इन भ्रामक परिभाषाओं से बच सकें, इसलिए आवश्यक है कि हम इसका अर्थ उनसे सीखें जिन्होंने भक्ति की ऊँचाइयों को छुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य प्रशांत हमें अनेक सन्तों से परिचित करवाते हैं और यह समझने में मदद करते हैं कि भक्ति वास्तव में क्या है और क्या नहीं है। कबीर साहब, बाबा बुल्लेशाह, मीरा और न जाने कितने सन्त हमें भक्ति रस में डूबने के लिए आमन्त्रित करते हैं। हम भक्ति की छवियों में फँसकर ख़ुद को भक्त तो कहते हैं, लेकिन मन को उस स्थिति तक नहीं ला पाते जहाँ वो अपने असली प्रेम से एक हो सके।
कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, हम किसी भी मार्ग पर हों, भक्ति हमारी आध्यात्मिक यात्रा को सुगम बना देती है।
Index
1. भक्ति माने क्या?2. झूठी भक्ति को कैसे पहचानें?3. श्रद्धा और अंधविश्वास में क्या अंतर है4. पूजा-पाठ से कुछ लाभ होता भी है या नहीं?5. भजन का आनंद हमेशा साथ क्यों नहीं रहता?6. भजन को गहराई से समझे बिना गाने से क्या होगा?
बीसवीं शताब्दी के विख्यात वेदान्ती, रमण महर्षि, कहा करते थे – भक्ति ज्ञान की माता है। ज्ञानी नेति-नेति की प्रक्रिया में सांसारिक विषयों को नकारता चलता है, और अन्त में उसे स्वयं को भी नकारना पड़ता है। सच्चा भक्त यह काम यात्रा की शुरुआत में ही कर देता है। उसे यह बोध शुरू में ही हो जाता है कि उसका केन्द्र ही ग़लत है, इसलिए वह अपने आराध्य को ही अपने जीवन का केन्द्र बना लेता है।
भक्ति के विषय में यह मान्यता रही है कि यह बस अल्प बुद्धि वालों के लिए उपयुक्त मार्ग है, जबकि वास्तव में बिना बोध के भक्ति बस अन्धविश्वास और मूर्खता बनकर रह जाती है। आमतौर पर यह धारणा होती है कि भक्ति का अर्थ है कुछ क़िस्से-कहानियों को बिना तर्क किये मान लेना। हम इन भ्रामक परिभाषाओं से बच सकें, इसलिए आवश्यक है कि हम इसका अर्थ उनसे सीखें जिन्होंने भक्ति की ऊँचाइयों को छुआ है।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य प्रशांत हमें अनेक सन्तों से परिचित करवाते हैं और यह समझने में मदद करते हैं कि भक्ति वास्तव में क्या है और क्या नहीं है। कबीर साहब, बाबा बुल्लेशाह, मीरा और न जाने कितने सन्त हमें भक्ति रस में डूबने के लिए आमन्त्रित करते हैं। हम भक्ति की छवियों में फँसकर ख़ुद को भक्त तो कहते हैं, लेकिन मन को उस स्थिति तक नहीं ला पाते जहाँ वो अपने असली प्रेम से एक हो सके।
कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, हम किसी भी मार्ग पर हों, भक्ति हमारी आध्यात्मिक यात्रा को सुगम बना देती है।
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1. भक्ति माने क्या?2. झूठी भक्ति को कैसे पहचानें?3. श्रद्धा और अंधविश्वास में क्या अंतर है4. पूजा-पाठ से कुछ लाभ होता भी है या नहीं?5. भजन का आनंद हमेशा साथ क्यों नहीं रहता?6. भजन को गहराई से समझे बिना गाने से क्या होगा?