श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम तीन अध्याय हैं जिनमें सम्पूर्ण गीता का सार है। जो बात अर्जुन को कहनी थी वह प्रथम अध्याय में कह दी, और जो बात कृष्ण अर्जुन को समझाना चाह रहे थे वह द्वितीय और तृतीय अध्याय में कह दी; बाकी के पंद्रह अध्याय इन्हीं दो के विस्तार हैं। ये तीनों अध्यायों को समझना हमारे लिए अति-महत्वपूर्ण है क्योंकि हम भी निरंतर अर्जुन की तरह द्वंद्व में ही हैं। हमने भी 'वास्तविक हित' के बदले 'व्यक्तिगत हित' को चुन रखा है। हम नीचाइयों में न रह जाएँ, हारे हुए न रह जाएँ, इसीलिए तो गीता है। प्रथम अध्याय इसलिए है ताकि हम स्वयं में अर्जुन को देख पाएँ; हम देख पाएँ कि वो अर्जुन नहीं हम हैं, जो देह से आसक्त है और देह से सम्बन्धित लोगों को ही 'अपना' कहता है। इसी प्रकार दूसरा अध्याय इसलिए है ताकि हम समझ पाएँ कि हमारा वास्तविक 'मैं' कौनसा है और हमारा झूठा 'मैं' कौनसा है। और कृष्ण के इसी आत्मज्ञान से फिर हमारे लिए क्या करना उचित है, यह निर्धारित होगा। आपकी संस्था इन तीनों अध्यायों का संगम आपके लिए लायी है इसी आशा के साथ कि आप अपने भीतर के अर्जुन और कृष्ण को एक ही साथ देख पाएँ।