भारत की समस्त दार्शनिक विचारधाराओं का स्रोत वेदान्त ही है। वैदिक काल के पश्चात् जब धर्म का केंद्र वेदान्त से हटकर मात्र कर्मकांड रह गया था, तब वेदान्त को पुनर्जागृत गुरु आदि शंकराचार्य ने किया।
आदि शंकराचार्य ने वेदान्त के सभी ग्रथों पर टीकाएँ लिखीं और कई ग्रथों की रचना भी की। 'आत्मबोध' आदि शंकराचार्य द्वारा रचित उन ग्रथों में से है जो एक शुरुआती साधक को आत्म-साक्षात्कार के पथ पर आगे बढ़ने में मदद करता है।
आत्मबोध का शाब्दिक अर्थ होता है 'स्वयं को जानना'। हमारे सारे कष्टों और दुःखों के मूल में यही कारण है कि हम स्वयं से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। हम अपनेआप को वही मान बैठे होते हैं जो पहचान हमें समाज और परिस्थिति से मिली होती है।
वेदान्त सत्य के अन्वेषण हेतु अभी तक की सर्वश्रेष्ठ रचना है, पर वह हमारे लिए उपयोगी हो सके इसके लिए आवश्यक है कि उसकी व्याख्या भी हमारे काल और स्थिति अनुसार हो। यह पुस्तक मूल 'आत्मबोध' के केंद्रीय श्लोकों पर आचार्य प्रशांत द्वारा किये गए भाष्यों का संकलन है। यह पुस्तक आत्म को बोध की ओर उन्मुख करने का एक प्रयास है।
Index
1. मुक्ति डरावनी नहीं, बड़ी हार्दिक होती है2. आत्मज्ञान कैसे हो? (श्लोक 2)3. कर्म नहीं, बोध (श्लोक 3)4. मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य5. जहाँ दूरी है, वहाँ कल्पना है6. डर कुछ कहना चाहता है