प्रकृति से ही अहम् का उद्गम है और प्रकृति से ही इसकी हस्ती है। मनुष्य के जीवन का यही यथार्थ है — उसकी प्रकृति है प्राकृतिक गुणों के पाश में ही बँधे रहना और स्वभाव है आकाशवत आत्मा में मुक्त उड़ान भरना। यही द्वन्द्व मनुष्य के निरन्तर दुख का कारण है और दुख से मुक्ति का सिर्फ एक ही उपाय है कि वह प्रकृति से तादात्म्य तोड़कर उसका साक्षी हो जाए और अपने निज स्वरूप में स्थित हो जाए।
अधिकांश मनुष्य शरीर, समाज और संयोग के हाथों की कठपुतली होते हैं, जो प्रकृति के बहाव में ही बहते रहते हैं। इन्हें अपने बन्धनों से कोई शिकायत नहीं होती, बल्कि एक सामंजस्य का रिश्ता होता है।
पर एक अहम् ऐसा भी होता है जिसे आत्मा से विलग होना मंजूर नहीं, उसके भीतर अपने बन्धनों के विरुद्ध ज्वाला दहक रही होती है और विरोध की उसी ज्वाला से उठता है एक विद्रोही मन। ये भीतर की अपनी वृत्तियों से और बाहर हर उस चीज़ से विद्रोह करता है जो इसे बन्धन में जकड़े।
ये विद्रोह विध्वंसात्मक नहीं होता, बल्कि व्यक्ति के लिए मुक्ति के रास्ते खोलता है और संसार का नवनिर्माण कर संसार को एक आनन्दपूर्ण जगह बनाता है। आचार्य प्रशांत की यह पुस्तक हमें इस सार्थक विद्रोह की ओर अग्रसर करने में सहायक सिद्ध होगी।
Index
1. मन: हज़ार जुनून, एक सुकून2. ज़िन्दगी ऐसी होनी ज़रूरी है?3. दुनिया की सबसे गन्दी आदत, और उसे छोड़ने का तरीक़ा4. जीवन में दुख है ही क्यों?5. तीन धर्म जिन पर कभी नहीं चलना (स्वधर्म पहचानिए)6. जब कोई हृदय बन बैठे तुम्हारा