राम निरंजन न्यारा रे,
अंजन सकल पसारा रे!
अंजन माने प्रकृति; ये शरीर, हमारे विचार, हमारी मान्यताएँ, सुख-दुख, रिश्ते-नाते, कल्पनाएँ, आकांक्षाएँ—सब अंजन का ही विस्तार है, सब अंजन का ही पसार है। तो निरंजन क्या है? राम हैं निरंजन — वो जो इस पूरे विस्तार से न्यारे हैं, विशिष्ट हैं।
क्या आपके जीवन में भी कुछ ऐसा है जो इस प्रकृति के फैलाव से अलग है? क्या आपके जीवन में कुछ ऐसा है जो आपको उस निरंजन राम से मिलवा सके?
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य जी कबीर साहब के इस भजन का वेदान्तिक अर्थ कर रहे हैं और एक-एक शब्द के माध्यम से हमारे जीवन के अंजन की परतों को खोल रहे हैं। पूरी चर्चा में आचार्य जी बता रहे हैं कि कैसे अंजन से घिरे रहकर भी कोई उसी अंजन को माध्यम बना सकता है निरंजन तक पहुँचने का। आशा है इस पुस्तक के माध्यम से आप भी अंजन से निरंजन की ओर बढ़ पाएँगे।
Index
1. ‘मैं’ विशेष नहीं, प्रकृति की धूल भर है2. ओम्: शान्त से अनन्त की यात्रा3. साधन को पकड़े रहना सबसे बड़ा बन्धन4. जिसे पूजोगे, उसी को पा जाओगे5. सच या संसार, किसे चाहे अहंकार?6. असली चोर बाहर नहीं, भीतर है