पुरुषार्थ (Purushartha) [नवीन प्रकाशन]

पुरुषार्थ (Purushartha) [नवीन प्रकाशन]

बाहर से प्रकृतिस्थ, भीतर से आत्मस्थ
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पुरुषार्थ शब्द से आशय होता है वह जो पुरुष के लिए करणीय है और प्राप्तव्य है। यहाँ पुरुष से आशय होता है साधारण चेतना। चाहे नर हो चाहे नारी, मनुष्य मात्र के जीवन का जो उद्देश्य है उसे पुरुषार्थ कहा जाता है। चार पुरुषार्थ हमें बताए गए हैं — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

अब चूँकि आम जनमानस वेदांत की मूल शिक्षा से वंचित रहा है और आत्मज्ञान से कोई सरोकार नहीं रखता, तो वह खुद को नहीं जानता और इसलिए जीवन के सही उद्देश्य को भी नहीं जानता (जीवन के सही उद्देश्य से भी अनभिज्ञ रहता है)। तो हम पुरुषार्थ शब्द के भ्रामक और बंधनकारी अर्थों को पकड़कर पूरा जीवन बिता देते हैं और खूब श्रम करते हुए भी अपनी उच्चतम संभावना को साकार नहीं कर पाते।

प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से आचार्य प्रशांत हमें पुरुषार्थ और उसके चार अंगों के वेदांतिक अर्थ से अवगत कराते हैं। आचार्य जी ने बड़ी सहजता से ये स्पष्ट किया है कि पुरुषार्थ और उसके चार अंगों के केंद्र में आतंरिक जागरुकता है जो व्यक्ति को उसके जीवन के सही उद्देश्य तक पहुँचने में मदद करता है।

यह पुस्तक हर उस व्यक्ति के लिए अनिवार्य है जो अपनी जीवन यात्रा को सही मायनों में एक सफल और सार्थक दिशा देना चाहते हैं।
Index
CH1
पुरुषार्थ माने क्या?
CH2
पुरुषार्थ या प्रारब्ध?
CH3
चार पुरुषार्थ कौन से हैं? इनमें से तीन को व्यर्थ क्यों कहा गया?
CH4
मोक्ष प्राप्ति नहीं, प्राप्ति से मुक्ति
CH5
तुम उसे नहीं भोग रहे, वो तुम्हें भोग रहा है
CH6
जिनसे कुछ नहीं मिलना, हम उन्हीं के पीछे बार-बार क्यों भागते हैं?
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