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माया [नवीन प्रकाशन]

जो मन से न उतरे, माया काहिए सोय

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Book Details

Language
hindi
Print Length
222

Description

चाहे सामान्य जनों की सामान्य चर्चाएँ हों या विद्वानों की मंडली, 'माया' शब्द सबकी ज़ुबान पर होती है और माया को एक अबूझ पहेली की तरह समझा जाता है। माया क्या? वो जो हमें प्रतीत होता है, जिसकी हस्ती के बारे में हमें पूरा विश्वास हो जाता है, पर कुछ ही देर बाद या किसी और जगह पर, किसी और स्थिति में हम पाते हैं कि वो जो बड़ा सच्चा मालूम पड़ता था, वो या तो रहा नहीं या बदल गया, ऐसे को माया कहते हैं। तो देखने वाला ग़लत, देखने का उसका उपकरण सीमित, अनुपयुक्त, और जिस विषय को वो देख रहा है वह विषय छलावा और छद्म — इन तीनों ग़लतियों को मिलाकर के जो निकलता है उसको माया कहते हैं। आचार्य प्रशांत की यह पुस्तक हमें बताती है कि माया एक तल है, अनन्त ऊँचाई नहीं है माया। एक सीमित तल है माया, और हम उससे नीचे हैं। पर उससे ऊपर जाया जा सकता है, माया का दास होने की जगह माया का स्वामी हुआ जा सकता है। और माया का स्वामी जो हो गया, मात्र वही नमन करने योग्य है; उसी का नाम सत्य है, उसी का नाम परमात्मा है। आप भी यदि माया के इस सीमित तल से ऊपर उठकर आत्मा की अनन्त ऊँचाई को पाना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपके लिए है।

Index

1. माया क्या है? (पूरी बात) 2. गुरु से मन हुआ दूर, बुद्धि पर माया भरपूर 3. अहंकार और माया में क्या सम्बन्ध है? 4. सब मोह-माया है, बच्चा! 5. अहंकार का आख़िरी दाँव क्या होता है? 6. कुविचार और सुविचार में अन्तर कैसे करें?
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