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ऐसे प्रकटते हैं कृष्ण [नवीन प्रकाशन]

ऐसे प्रकटते हैं कृष्ण [नवीन प्रकाशन]

श्लोक 4.7-4.11
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Book Details

Language
hindi
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132

Description

यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

भगवद्‌गीता के चौथे अध्याय के प्रसिद्ध श्लोकों में से हैं श्लोक क्रमांक 7 से 11। इन श्लोकों ने आमजन के बीच जितनी प्रसिद्धि पाई है, उतना ही इनके अर्थ को विकृत भी किया गया है।

प्रचलित अर्थ कहता है कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म सिर चढ़कर नाचता है, तब-तब कृष्ण प्रकट होते हैं। जिसका अर्थ हमने ये कर लिया है कि कोई हमसे ऊँचा, हमसे अधिक सामर्थ्यवान कहीं बाहर से आएगा हमारे जीवन से अधर्म को मिटाने के लिए। ऐसा मानकर हमने स्वयं को अपने जीवन के प्रति ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया है।

वेदांत कहता है — कोई नहीं है बाहर; तुम्हारा जीवन, तुम्हारी ज़िम्मेदारी, तुम्हारा चुनाव। तुम चाहो तो कृष्ण प्रकट होंगे, लेकिन बाहर से नहीं, तुम्हारे ही भीतर से। किसी बाहरवाले की प्रतीक्षा करने का एक ही कारण है — बाहरी और आंतरिक, दोनों रूप से सही ज्ञान का अभाव।

अधर्म तो चारों तरफ़ पसरा हुआ है, मूल बात है — क्या हमें दिखाई देता है?

हमारे भीतर ये आत्मज्ञान का अभाव है या कहें कि अज्ञान का अंधकार है कि सामने इतना अधर्म होते हुए भी हमें कुछ दिखाई नहीं देता। वेदांत ‘मैं’ की बात करता है, हमारे भीतर के इसी अज्ञान के अंधकार को मिटाने के लिए हमें इन श्लोकों के वेदांत सम्मत अर्थ को समझना बहुत आवश्यक है। प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से आचार्य प्रशांत इन श्लोकों के सही व उपयोगी अर्थ को वेदांत के प्रकाश में समझा रहे हैं जो कि हम सबको समझना बहुत आवश्यक है।

Index

1. दुनिया में इतना अधर्म है, कृष्ण कब प्रकट होंगे? (श्लोक 4.7) 2. कृष्ण इसलिए हैं ताकि तुम स्वयं कृष्ण हो पाओ (श्लोक 4.8) 3. महानता को बाहर खोजना अपने विरुद्ध ही चाल है (श्लोक 4.9) 4. कृष्ण की खोज नहीं करनी, अपना यथार्थ देखना है (श्लोक 4.10) 5. जो चाहोगे, वही पाओगे (श्लोक 4.11)
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