Acharya Prashant Books @99 [Free Delivery]
content home
Login
अष्टावक्र गीता भाष्य (तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा प्रकरण)
मुनि अष्टावक्र और राजा जनक संवाद
Book Cover
Already have eBook?
Login
eBook
Available Instantly
Suggested Contribution:
₹50
REQUEST SCHOLARSHIP
Book Details
Language
hindi
Description
भोग से हम जो अव्यवहारिक और असम्भव आशा करते हैं, वही भोग को उच्छृंखल बना देती है। किसी भी विषय के साथ जब आत्मिक संतोष की आशा जुड़ जाती है, तो जीव उस विषय का अमर्यादित सेवन करने लगता है। कि जैसे आपके सामने पानी रखा हो, आप पानी उतना ही पिएँगे जितने की शरीर को आवश्यकता है — इससे अधिक कोई नहीं पीता, थोड़ा कम, थोड़ा ज़्यादा। लेकिन सब जीव उतना ही पानी लेते हैं जितना उनके शरीर को चाहिए।
Index
1. जिससे बन्धन मिले हों, वो मुक्ति नहीं देगा 2. जो जैसा है, उसे वैसा ही देखो 3. तुम जगत से नहीं, जगत तुमसे है 4. क्यों चुनते हो अंधेरे से और अंधेरे की ओर जाना? 5. जब सबकुछ जान लेने के बाद भी आसक्त हो 6. आत्म-अवलोकन अनिवार्य है
View all chapters