अष्टावक्र गीता भाष्य (तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा प्रकरण)
मुनि अष्टावक्र और राजा जनक संवाद
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Language
hindi
Description
भोग से हम जो अव्यवहारिक और असम्भव आशा करते हैं, वही भोग को उच्छृंखल बना देती है। किसी भी विषय के साथ जब आत्मिक संतोष की आशा जुड़ जाती है, तो जीव उस विषय का अमर्यादित सेवन करने लगता है। कि जैसे आपके सामने पानी रखा हो, आप पानी उतना ही पिएँगे जितने की शरीर को आवश्यकता है — इससे अधिक कोई नहीं पीता, थोड़ा कम, थोड़ा ज़्यादा। लेकिन सब जीव उतना ही पानी लेते हैं जितना उनके शरीर को चाहिए।
Index
1. जिससे बन्धन मिले हों, वो मुक्ति नहीं देगा2. जो जैसा है, उसे वैसा ही देखो3. तुम जगत से नहीं, जगत तुमसे है4. क्यों चुनते हो अंधेरे से और अंधेरे की ओर जाना?5. जब सबकुछ जान लेने के बाद भी आसक्त हो6. आत्म-अवलोकन अनिवार्य है
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भोग से हम जो अव्यवहारिक और असम्भव आशा करते हैं, वही भोग को उच्छृंखल बना देती है। किसी भी विषय के साथ जब आत्मिक संतोष की आशा जुड़ जाती है, तो जीव उस विषय का अमर्यादित सेवन करने लगता है। कि जैसे आपके सामने पानी रखा हो, आप पानी उतना ही पिएँगे जितने की शरीर को आवश्यकता है — इससे अधिक कोई नहीं पीता, थोड़ा कम, थोड़ा ज़्यादा। लेकिन सब जीव उतना ही पानी लेते हैं जितना उनके शरीर को चाहिए।
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1. जिससे बन्धन मिले हों, वो मुक्ति नहीं देगा2. जो जैसा है, उसे वैसा ही देखो3. तुम जगत से नहीं, जगत तुमसे है4. क्यों चुनते हो अंधेरे से और अंधेरे की ओर जाना?5. जब सबकुछ जान लेने के बाद भी आसक्त हो6. आत्म-अवलोकन अनिवार्य है