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अष्टावक्र गीता भाष्य 2023 प्रकरण (3-6)

मुनि अष्टावक्र और राजा जनक संवाद

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Book Details

Language
hindi
Print Length
221

Description

भोग से हम जो अव्यवहारिक और असम्भव आशा करते हैं, वही भोग को उच्छृंखल बना देती है। किसी भी विषय के साथ जब आत्मिक संतोष की आशा जुड़ जाती है, तो जीव उस विषय का अमर्यादित सेवन करने लगता है। कि जैसे आपके सामने पानी रखा हो, आप पानी उतना ही पिएँगे जितने की शरीर को आवश्यकता है — इससे अधिक कोई नहीं पीता, थोड़ा कम, थोड़ा ज़्यादा। लेकिन सब जीव उतना ही पानी लेते हैं जितना उनके शरीर को चाहिए।

Index

1. जिससे बन्धन मिले हों, वो मुक्ति नहीं देगा (श्लोक 3.1) 2. जो जैसा है, उसे वैसा ही देखो (श्लोक 3.2) 3. तुम जगत से नहीं, जगत तुमसे है (श्लोक 3.3) 4. क्यों चुनते हो अंधेरे से और अंधेरे की ओर जाना? (श्लोक 3.4) 5. जब सबकुछ जान लेने के बाद भी आसक्त हो (श्लोक 3.5) 6. आत्म-अवलोकन अनिवार्य है (श्लोक 3.6)
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