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आत्मज्ञान
मैं और मेरा संसार
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Book Details
Language
hindi
Print Length
219
Description
क्या है आत्मज्ञान? आत्म माने 'मैं'। हम जीते जाते हैं, कर्म करते जाते हैं बिना कर्म की पूरी प्रक्रिया को ग़ौर से देखे। कर्म कहाँ से हो रहे हैं, कर्मों के पीछे क्या है, कर्मों का कर्ता कौन है, इस पर ग़ौर करने की हम न ज़रूरत समझते हैं न हमें अवकाश मिलता है, क्योंकि कर्मों की एक अविरल श्रृंखला है। आत्मज्ञान का मतलब हुआ कि आपको साफ़ पता हो कि कर्म के पीछे कौन है। आत्मज्ञान का मतलब होता है ठीक तब जब जीवन की गति चल रही है, आप उसके प्रति जागरूक हो जाएँ।‌ और तब आप बिना उस गति को रोके भी उस गति से बाहर हो सकते हैं। इस पुस्तक के माध्यम से आचार्य जी ने इस तथ्य पर रोशनी डाली है कि आत्मज्ञान का मतलब यह नहीं होता कि तुम आत्मा को जान गये, आत्मा के ज्ञान को आत्मज्ञान नहीं कहते। आत्मज्ञान का मतलब है अहंकार का ज्ञान। आत्मा का ज्ञान नहीं होता, आत्मा की अनुकम्पा से आत्मज्ञान होता है। आत्मज्ञान आपको बताता है कि आप वृत्तियों के, गुण-दोषों के, अहंकार के पुतले मात्र हो। तो फिर अपने लिए कोई कामना करना व्यर्थ हो जाता है, तब आप निष्काम हो पाते हो। तो आत्मज्ञान से ही फिर निष्काम कर्म भी फलित होता है।
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