प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं बहुत ज़्यादा क्यों सोचती हूँ?
आचार्य प्रशांत: “टू मच थिंकिंग” तब होती है, विचार का अतिरेक, वो तब होता है जब आप कर्म का स्थान विचार को दे देते हैं; कर्म का विकल्प बना लेते हैं विचार को। चार कदम चलना है, चल रहे नहीं - डर के मारे या आलस के मारे, या धारणा के मारे, जो भी बात है - तो जो भीतर कमी रह गई, उसकी क्षति पूर्ति कैसे करते हैं फिर? चलने के बारे में सोच-सोच कर। करिए न! सोचिए मत। और जो कर्म में डूबा हुआ है, उसको सोचने का अवकाश नहीं मिलेगा। अगर आप जान ही गए हैं, पूर्णतया नहीं, मान लीजिए आंशिक भी; अंशतया भी यदि आपको पता है कि क्या करणीय है, क्या उचित है तो उसको करने में क्यों नहीं उद्यत हो जातीं?
जितनी ऊर्जा, जितना समय सोच को दे रही हैं, वो सब जाना किस तरफ़ चाहिए था? कर्म की ओर! और ऐसा नहीं है कि आपको बिलकुल नहीं पता कि उचित कर्म क्या है, पता तो है। और उसका प्रमाण है आपकी बेचैनी। आप यदि बिलकुल ही ना जानती होतीं कि क्या उचित है तो बेचैन नहीं हो सकती थीं। बेचैनी उठती ही तब है जब सत्य को जान-बूझ कर स्थगित किया जाता है। पता है पर टला हुआ है। तब बेचैनी उठेगी। क्यों टालती हैं? कर डालिए। जो करने में लग गया, वो सोचेगा कैसे? और जो कर नहीं रहा है वो दिन रात बैठे-बैठे क्या करेगा? दिमाग चलाएगा। मैं तो सीख ही यही देता हूँ, 'सर मत चलाओ, हाथ चलाओ। सर झुकाओ, हाथ चलाओ।' और जिसका सर झुका नहीं हुआ है, उसका सर खूब चलेगा, चकरघिन्नी की तरह दौड़ रहा है, दौड़ रहा है। पहुँच कहाँ रहा है? कहीं नहीं। पर दौड़ खूब रहा है।
हाथ चलाइए न! आप जानती हैं भली-भाँति कि आप जीवन के जिस मुक़ाम पर खड़ी हैं, वहाँ पर क्या करणीय है। कूदिए उसमें। जो कर्म में उतर गया, उसको फिर ये सोचने का भी समय नहीं रहता कि कर्म का अंजाम क्या होगा!
प्रश्नकर्ता: काम भी करूँगी तो उसमें भी थकूँगी, पर जो चीज़ें अनसुलझी हैं वो चलती रहती हैं।
आचार्य प्रशांत: जो अनसुलझे हैं उनमें ऐसा तो नहीं कि आपको रेज़ोल्यूशन का, समाधान का, बिलकुल अंदाज़ा नहीं।
प्रश्नकर्ता: मतलब, एक विचार आता है कि क्या करना है, फिर दूसरा विचार आता है उसको ख़त्म करने के लिए।
आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी आता है, जितनी भी रोशनी है, उस पर आगे क्यों नहीं बढ़तीं? मान लीजिए जिस दिशा बढ़ीं, वो ग़लत भी सिद्ध हुई, तो भी आप बढ़ीं तो, प्रयोग तो किया! इतना तो पता चला कि दिशा अब अनुकरणीय नहीं है। कुछ तो उन्नति हुई। बैठे-बैठे, खोपड़ा घुमाने से क्या होगा?
प्रश्नकर्ता: अंदर से बहुत साफ-साफ पता चलता है, पर बहुत सारे डर हैं शायद।
आचार्य प्रशांत: वो भी तभी तक हैं जब तक आगे नहीं बढ़ रहीं। कदम बढ़ा दीजिए, दहलीज़ लाँघ जाइए, उसके बाद सोचना-विचारना अपने-आप ख़त्म हो जाएगा। जब तक यहाँ किनारे खड़े हो तब तक कितना भी सोचो, कूद गए एक बार गंगा में…
फ़ुर्सत नहीं मिलनी चाहिए सोचने की! फिर, सोचिए सिर्फ़ तब, जब जो राह चुनी है उसमें अँधेरा छाने लगे। तब ठिठक कर रुकिए, तब सोचिए! पर सोचना हमेशा सावधिक होना चाहिए। समय-बद्ध। अनंतकालीन नहीं होना चाहिए। अनिश्चितकालीन नहीं होना चाहिए, सदा सीमाबद्ध होना चाहिए। सोचना अपने-आप में कोई पेशा तो नहीं हो सकता, ना जीवन का प्रयोजन हो सकता है। और कारण है उसका, कारण ये है कि सोच हमेशा अपनी सीमाओं में चलती है। सोच-सोच कर उस सीमा से आगे थोड़े ही जा पाओगे! उससे आगे तो, जीवन में उतर कर ही जाओगे!
करिए, कर डालिए। ख़्याल से काम नहीं चलेगा। कर डालने से जो विचारक है वही बदल जाता है। जब विचारक बदलेगा तो विचार बदल ही जाएँगे। और विचार करते रहने से विचारक सुदृढ़ होता है, बदलता नहीं। सुदृढ़ होने में और बदल जाने में अंतर समझते हो न? सोच-सोच कर आप अपने-आप को और मोटा, और पुख्ता, और स्थायी बना लेते हो। लेकिन कहाँ पर? वहीं पर जहाँ आप हो। वैसे ही जैसे आप हो। और कर्म आपको बदल सकता है; उचित कर्म। क्योंकि उचित कर्म का अर्थ ही होता है अपनी सीमाओं को चुनौती देना, उनसे आगे जाना। विचारक बदल जाएगा, विचारक की सीमाएँ टूटेंगी, वो कुछ नया हो जाएगा। वो कुछ नया हो जाएगा, उसके विचार स्वतः ही बदलेंगे। ये इंतजार मत करो कि तुम सोचते रहोगे और सोच बदल जाएगी। ना! सोचते रहने से सोच नहीं बदलती। करने से, जीने से सोच बदलती है।
(श्रोता को देखते हुए) तनाव में हैं, कुछ भीतर संघर्ष चल रहा है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं एक बड़ा लक्ष्य बना लेता हूँ किसी को देख कर के और उसके बाद जब उस लक्ष्य को पूरा करने निकलता हूँ तो बीच में ही मैं बहुत डर जाता हूँ और उसे छोड़ देता हूँ।
आचार्य प्रशांत: तुम राफ़्टिंग करो। ये सारी खुराफात दिमाग से अपने आप झड़ जाएगी। कौन आगे, कौन पीछे! तुम क्या उखाड़ लोगे, कोई और क्या उखाड़ लेगा? किन चक्करों में फंसे हुए हो? माहौल ठीक नहीं है, वहाँ पर इस तरह की बातें तैर रही हैं। वो तैरती हैं तो तुम्हारे भी दिमाग में घुस जाती हैं।
मैं वास्तव में नहीं जानता कि उत्तर क्या दूँ? ये उत्तर देने के लिए मुझे कुछ और होना पड़ेगा। अभी तो मैं सिर्फ ये कह सकता हूँ, 'अप्रासंगिक। बात अप्रासंगिक है, बात का कोई मूल्य ही नहीं है।' क्या जवाब दूँ?
तो जैसे ये बच्चा है, पूछे कि, 'पत्थर चबाऊँ कि रेत?' इसको बोलो, 'ठंड लग रही है तू कोट पहन ले। तुझे ठंड ज़्यादा लग गई है, तू बहकी-बहकी बातें करने लगा है। तुझे जवाब नहीं, कोट चाहिए।'
क्या करना है?
प्रश्नकर्ता: वैसे लाइफ़ नार्मल चल रही होती है, लेकिन…
आचार्य प्रशांत: ये नॉर्मल नहीं है। तुम जिस दुनिया में हो, वहाँ ऐसे ही सवाल आएँगे। तुम्हें सवालों का उत्तर नहीं चाहिए, तुम्हें उस दुनिया से ही बाहर आना होगा। तुम जिस दुनिया में हो वहाँ सब कुछ वैसा ही होता है जैसी अभी तुम्हारी हालत है। इतना बड़ा मुँह हो गया है तुम्हारा! वो देखो, शर्ट के बटन टूट रहे हैं। देखो! और सवाल तुम पूछ रहे हो कि कोई मुझसे आगे है, मैं उसकी टाँग खींच दूँगा, गिरा दूँगा, आगे निकल जाऊँगा, निकल नहीं पाया, मैं चोक हो गया! तोंद नहीं देख रहे? क्यों?
इसीलिए जीवन है? इस तरह की बातें करने के लिए? पूरा संदर्भ ही, जिस संदर्भ में तुम सवाल कर रहे हो न, वही गड़बड़ है। जिस केंद्र से तुम सवाल पूछ रहे हो, वही गड़बड़ है। वहाँ से जो भी सवाल उठेगा वो ऐसा ही होगा, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, डर, हीनता, उपलब्धि, छटपटाहट, परिग्रह। बस। अभी भी तुम्हारे माथे पर शिकन है। तुम न जाने किस बारे में इतने गंभीर हो! मन कर रहा है मेरा, मैं कैलेंडर थोड़ा उल्टा चला दूँ और तुमको वैसा ही सत्कार दूँ, जैसा एक बार दिया था।
एक बार हम लोग आ रहे थे, तो मैं बाइक पर था, जनाब गाड़ी पर थे। पाँच, सात साल पहले की बात होगी। इधर ही आ रहे थे, ऋषिकेश तरफ़ ही, शिवपुरी में ही था शिविर। तो मैं अपना बाइक चला रहा हूँ, बुलेट; और उसकी पिछली सीट वैसी ही जैसी बुलेट की होती है, मैंने उसको बदलवाया नहीं है। तो रात भर मैं चलाता रहा, तब तो ये आए नहीं। जब भोर हो गई तो इनको शौक चढ़ा, बोलते हैं, 'हम भी बुलेट पर बैठेंगे।' मैंने कहा, 'रात में जब ठंड खा रहा था मैं, तब तुम नहीं आए, आओ बैठो।' ये बैठे। अब तो रोड (सड़क) बन गई है, आज से पाँच, सात साल पहले रोड कैसी होती थी? याद है? अरे! रोड ही नहीं होती थी। तो इनको बैठाया, और सिर्फ गड्ढों में चलायी। खोजा गड्ढे कहाँ हैं, जहाँ होता था उसी में, तो उससे फिर थोड़े ये समाधिस्त हुए।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
उससे दिमाग का फितूर थोड़ा शांत हुआ। अब लेकिन पिछले रेचन को पाँच साल बीत गए हैं। तो अब फिर से दिमाग पर बहुत सारी चीज़ें आ गईं हैं। वैसे ही, फिर से इनको सत्कार दोबारा देना होगा।
वो देखो वहाँ, साज़िश तैयार हो रही है तुम्हारे लिए।
और उससे भी पहले गए थे एक बार कनातल, तो वहाँ पहाड़ को काट-काट कर रेसॉर्ट बने थे। तो हम जिस में रुके थे वो तीन तलों पर था। एक तल, दूसरा तल, और फिर उससे भी नीचे वाला तल था एक और। तो लोगों ने सबसे ऊपर वाले तल पर क्रिकेट खेलना शुरू किया, और वहाँ से वो गेंद मार दें, नीचे। और उसके बाद इनकी नियुक्ति की, कि तुम गेंद ले कर के आओगे।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
और ये जितनी बार नीचे जाएं उतनी बार नारा लगे, 'हमारा नेता कैसा हो? नवीन भाई जैसा हो!' तो इस तरह का उपचार इनको हर साल-दो-साल मिलता रहता था तो ये ठीक रहते थे। अभी इधर हुआ नहीं है। अब आज रात कुछ प्रबंध होना चाहिए। देखो जो भी करना है! पर ज़रूरी है बहुत। नहीं तो ये ऐसे ही सवाल पूछेंगे कि, 'कोई आगे निकल गया उसको पकड़ें कैसे!'