ज़िन्दगी प्यार से नहीं समझाती || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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ज़िन्दगी प्यार से नहीं समझाती || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: ख़ासतौर पर आप अगर आज की पीढ़ी को देखें — मैं बात को ज़रा व्यापक तौर पर ले रहा हूँ सबके लिए — तो ये डाँट खाने को राज़ी नहीं हैं। जिन्हें आप मिलेनियल्स (सहस्त्राब्दी) बोलते हैं, इन्हें आप डाँट के देख लीजिए। अब क्या ये सिर्फ़ संयोग है कि मेंटल डिज़ीज़ का प्रिवेलेंस (विशेषाधिकार) भी सबसे ज़्यादा मिलेनियल्स में ही है। ये सिर्फ़ संयोग मात्र है क्या।

जब आप अपने शुभचिंतकों से डाँट खाने को राज़ी नहीं होते तो फिर ज़िन्दगी आपको लात मारती है। या तो उनसे डाँट खाना बर्दाश्त कर लो जो तुम्हारे भले के लिए तुमको चार बातें बता रहे हैं या फिर सीधे-सीधे ज़िन्दगी जब हथौड़ा मारेगी, तोड़ेगी, तब झेल लेना।

सातवीं-आठवीं के लड़कों को आप कुछ बोलिए, तो कहेंगे कि दिस इज़ नॉट चिल, यू आर बुलींग मी। (ये सही नहीं है, आप मुझे धमका रहे हैं।) वो सातवीं का लड़का है, उसको एक बात बतायी जा रही है और वो क्या बोल रहा है, 'यू आर बुलींग मी।' (आप मुझे धमका रहे हैं।)

सबसे बडे़ बुली (डराने-धमकाने वाले) तो फिर हमारे संत लोग थे। वो तो जीवनभर बातें बताते ही रहे और उन्होंने कभी चाशनी में लपेट कर नहीं बतायीं, जस का तस सामने रख दीं। तो तुम बोलो फिर कि कृष्ण बुली थे, अष्टावक्र बुली थे। वो बोलेंगे भी कैसे, इनका उनसे कुछ सम्बन्ध ही नहीं, कभी पढ़ा ही नहीं; और पढ़ेंगे भी इसीलिए नहीं।

आज जो पूरी हमारी संस्कृति खड़ी हुई है, आज का कल्चर (संस्कृति), उसके तीन स्तंभ हैं — मैं कहा करता हूँ — हैप्पीनेस, कंज़म्प्शन, मोटिवेशन (ख़ुशी, भोग, प्रेरणा)। इन तीन चीज़ों पर चल रही है हमारी संस्कृति। और तीनों एक-दूसरे से, समझ ही रहे होंगे आप कि परस्पर सम्बन्धित हैं। और तीनों का कुल नतीजा वही सामने है कि हम भयानक रूप से बीमार होते जा रहे हैं।

शरीर स्वस्थ दिखते हैं और मन बहुत-बहुत बीमार होते हैं, बहुत-बहुत बीमार। और मन की बीमारी को नापने वाला कोई मीटर नहीं होता तो ये छुपाए रहना भी आसान होता है कि व्यक्ति बीमार है। वो तब तक अपनी बीमारी को छुपाए रखता है जब तक कि बीमारी उसके रेशे-रेशे से फूट ही नहीं पड़ती। अच्छा और उसमें मज़ेदार बात है, अगर दस जने बीमार हों तो उसमें जो बीमार है वो भी क्या हो जाएगा — सामान्य, नॉर्मल।

तो बीमारी की परिभाषा भी बदल जानी है। और अगर बीमारी की परिभाषा बदल गयी तो खौफ़नाक बात आप समझ रहे हैं, क्या बोलने वाला हूँ मैं? बीमारी की अगर आपने परिभाषा ही पलट दी तो फिर बीमार कौन कहलाएगा — जो स्वस्थ है, वो बीमार कहलाएगा। ये हो रहा है इस युग में — परिभाषाएँ ही पलट दी जा रही हैं।

ज़िन्दगी आपको लगातार सिखाने के लिए तैयार है ही। जो छोटे-छोटे संकेत वो कदम-कदम पर देती है, रोज़ाना देती है, उनकी अवहेलना मत किया करिए। चीज़ों की तह तक जाया करिए।

आप अपनी नौकरी से परेशान हैं — कल इसको लेकर के यहाँ काफ़ी चर्चा हुई। आप अपनी नौकरी से परेशान हैं, ये बात यूँही नहीं है। क्योंकि नौकरी में जाने का आपका निर्णय और उस नौकरी में बने रहने का आपका निर्णय आपके जीवन के बाक़ी सारे निर्णयों से सम्बन्धित है बाबा! ऐसा थोड़ी है कि आप नौकरी का निर्णय करते समय भूल कर बैठे और बाक़ी सारे निर्णय जो आप कर रहे थे वो आपने बड़ी समझदारी में किये — व्यक्ति तो एक ही है न।

तो आप अपने दफ़्तर में बैठे हुए हो, दोपहर का तीन बजा है और आपका सिर दर्द हो रहा है। एसी चल रहा है फिर भी पसीना सा आ रहा है, और आप ऐसे बैठे हुए हो सिर पकड़कर बैठने का अभिनय करते हुए)। ये वक़्त है कि आप कहो कि मुझे अब झटका लगना चाहिए।

बात ये नहीं है कि आज सुबह-सुबह क़लीग (सहकर्मी) से या बॉस से तकरार हो गयी। बात ये नहीं है कि क्लाइंट (ग्राहक) को जो चीज़ मुझे बोलनी चाहिए थी उसकी जगह मैं कुछ और बोल आया। बात गहरी है, आज की घटना कोई संयोगभर नहीं है। आज की घटना लक्षणभर है किसी बहुत गहरी बात का, बीमारी का। मुझे वो बात समझनी पड़ेगी।

लेकिन हम समझना नहीं चाहते क्योंकि अगर समझने जायेंगे तो क़ीमत चुकानी पड़ेगी। देखिए, एक बार आप स्वीकार कर लें कि आपने कोई निर्णय ग़लत करा है, उसके बाद ईमानदारी का तकाज़ा ये होता है न कि सुधार लायें। स्वीकार के बाद सुधार भी तो चाहिए होता है और सुधार में लगती है मेहनत, वो मेहनत हम करना नहीं चाहते। तो इससे अच्छा ये है कि स्वीकारो ही मत कि कुछ ग़लत है।

समझ रहे हो न हम झटका खाने से इन्कार क्यों करते हैं। ये हम अपनेआप को क्यों इस तरीक़े से एक्लीमेटाइज़ और कंडीशन कर लेते हैं कि हमें झटके लगें ही नहीं। वो हम इसीलिए करते हैं क्योंकि हम सुधरने की क़ीमत नहीं अदा करना चाहते।

ये नहीं होना चाहिए।

इसमें भी और गहरे जाना चाहेंगे? हम सुधरने की क़ीमत इसलिए नहीं अदा करना चाहते क्योंकि हमको स्वीकार है बस किसी भी तरह जिये जाना, बजाय कि क़ीमत अदा करके एक ऊँचा जीवन जीना; भले ही उस ऊँचा जीवन जीने में शारीरिक तौर पर कष्ट होता हो और शारीरिक आयु भी कम हो जाती हो।

समझो इस बात को — आपके पास ऊर्जा है, ऊर्जा संसाधन है। आपके पास बुद्धि है, बल है, सोच है, तमाम तरीक़े के आपके पास संसाधन हैं। मैं कहा करता हूँ — समय सबसे बड़ा संसाधन है। धन संसाधन है, जो आपने मेहनत करी है, वो सब आपका संसाधन है। उसका इस्तेमाल दो तरीक़ों से हो सकता है बल्कि दो आयामों में हो सकता है।

एक तो ये कि आप उसका इस्तेमाल करें चीज़ें जैसी चल रही हैं उनको लंबा खींचने में। ‘लंबा, लंबा; मैं मरने नहीं दूँगा, मैं मरने नहीं दूँगा’, ठीक है? मरने नहीं दूँगा माने जो जैसा चल रहा है वो चलता रहे। जैसा शरीर चल रहा है तो चलता रहे, मरे नहीं। रिश्ते चल रहे हैं, चलते रहें, मरें नहीं। व्यापार चल रहा है, चलता रहे, मरे नहीं। मेरी विचारधारा है कुछ, वो क़ायम रहे, उस पर कोई चोट न पहुँचे, वो मरे नहीं। मेरी धारणाएँ हैं, मेरी मान्यताएँ हैं, वो चलती रहें, मरें नहीं। ठीक है? शारीरिक तल पर, मानसिक तल पर जो कुछ भी है वो यथास्थिति एक स्टेट्स को बना रहे।

एक तो ये तरीक़ा है अपनी ऊर्जा को लगाने का कि चलता रहे-चलता रहे-चलता रहे-चलता रहे, रेलगाड़ी चलती रहे। और दूसरी जो दिशा होती है, दूसरा जो आयाम होता है जिसमें लगाई जाती है ऊर्जा, वो ये है कि मैं बेहतर बनूँ। मामला लंबा खिंचे न खिंचे, मामला बेहतर होना चाहिए।

अब ज़ाहिर सी बात है कि जब आप इस दूसरे आयाम में अपनी ऊर्जा लगाओगे, तो पहले वाले के लिए ऊर्जा कम हो जाएगी। नहीं समझे? बेहतर बनने में ऊर्जा लगाओगे तो वही ऊर्जा जो मिलनी चाहिए थी पुरानी चीज़ को चलायी रखने में, उसमें तो जाएगी नहीं, तो पुरानी चीज़ की उम्र कम हो जाएगी। पुरानी चीज़ को पोषण कम मिलेगा, पुरानी चीज़ टूटेगी, मिटेगी — वो हम करना नहीं चाहते।

दो चीज़ें आड़े आ जाती हैं, ऊपर है मेहनत और नीचे है मोह। दोनों फँसा लेते हैं। नीचेवाले से मोह है, उसको छोड़ कैसे दें! और छोड़ भी दें तो ऊपर जाने के लिए लगेगी मेहनत। मोह छोड़ा नहीं जाता, मेहनत करी नहीं जाती। नतीजा — जो जैसा चल रहा है, चलने दो। और जीवन जब तुम्हें समझाने की कोशिश भी करे कि जो चल रहा है, ग़लत चल रहा है, तो उसको अनदेखा, अनसुना कर दो। और जीवन आपको कैसे समझाता है, झटका देकर के ही।

तुम्हारी आँखें ख़राब हैं, जीवन तुम्हें कैसे समझाएगा — एक झटका ये देगा कि कुछ देख रहे हो, दिखायी नहीं देगा, लेकिन तुम अपनेआप को बोल दोगे, ‘नहीं, मुझे तो दिख रहा है, मुझे तो दिख रहा है।’ तो फिर जीवन ये करेगा कि आप चल रहे हो, चल रहे हो, सामने पत्थर है दिखायी नहीं दिया, गिरोगे, चोट लगेगी। जीवन ऐसे समझाता है, चोट दे-देकर समझाता है।

लेकिन आप उसके ख़िलाफ़ भी कोई व्यवस्था बना सकते हो कि मैं गिरूँ ही न! भले ही मेरी आँखें ख़राब हैं पर फिर भी मैं कोई ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित कर लूँगा कि ख़राब आँखों के साथ भी काम चलता रहे। तो आँखें और ज़्यादा ख़राब होती जाएँगी, होती जाएँगी, होती जाएँगी।

समझ रहे हो न बात को?

गाड़ी इतनी बढ़िया है, इतनी बढ़िया है और मैंने देखा है ये। गाड़ी इतनी बढ़िया है कि टायर में हवा नहीं है तो भी ड्राइवर (चालक) को पता नहीं चल रहा, गाड़ी चलती जा रही है। ड्राइवर का पहले का अनुभव था कोई रफ़ (कठोर) गाड़ी चलाने का। उसमें सड़क पर छोटी सी गिट्टी भी होती थी तो बिलकुल पिछवाड़े में पता चलती थी। दूसरी गाड़ी मिल गयी, वो इतनी बढ़िया है कि टायर में हवा कम है ज़्यादा है, पता ही नहीं चलता, एकदम स्मूद (चिकना)।

और ये असली वाक्या है, मेरे ही साथ हुआ है, मैं नहीं चला रहा था पर गाड़ी मेरी थी। हवा ही नहीं है टायर में और चलाने वाले को पता ही नहीं है। चलाने वाले जब तक घर पहुँचे तब तक टायर हो चुका है. . .?

श्रोतागण: ख़राब

आचार्य: चिथड़े। ख़राब ही नहीं, तीन-चार जगह से फट चुका है और चलाने वाले को तब भी नहीं पता चल रहा है, गाड़ी इतनी बढ़िया। तो हमने टेक्नोलॉजी विकसित कर ली है झटका खाने के ख़िलाफ़। और उनमें से काफ़ी सारी टेक्नोलॉजी मटीरियल टेक्नोलॉजी नहीं है, स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) टेक्नोलॉजी है; थर्रा जाइए, ख़ौफ़ की बात है।

कुछ तो मटीरियल टेक्नोलॉजी है जो आपको ज़िन्दगी में झटका खाने नहीं देती और उसके साथ-साथ हमने स्पिरिचुअल टेक्नोलॉजी भी विकसित कर ली है जो आपको झटका खाने नहीं देती।

बहुत सारा जो आप मेडिटेशन (ध्यान) वग़ैरा करते हो, वो वही है, जो आपको झटका नहीं खाने देती। ज़िन्दगी बर्बाद चल रही है, सबकुछ आपका ग़लत है लेकिन सुधरने की कोई ज़रूरत नहीं है। आधे-एक घंटे बैठकर के गाइडेड मेडिटेशन कर लो, वहाँ तुमको गुरुजी कान में बता देंगे कि तुम एक सरोवर के किनारे बैठे हो, उसमें पूर्णिमा के चाँद की छवि झलक रही है और अप्सराएँ अपना वहाँ नृत्य कर रही हैं और प्रकृति का अप्रतिम सौंदर्य है, और आप सुन रहे हो और ऐसे-ऐसे झूम रहे हो (झूमने का अभिनय करते हुए)। सब थकान उतर गयी; ये टेक्नोलॉजी है।

और कई संस्थाएँ तो अब खुलेआम बोल रही हैं कि हम टेक्नोलॉजी ही देते हैं तुमको। अंदरूनी वेलबींग (स्वास्थ्य) की टेक्नोलॉजी दी जा रही है और तुम्हें समझ में भी नहीं आता कि ये टेक्नोलॉजी तुम्हारे साथ क्या करेगी। ये टेक्नोलॉजी तुम्हारे टायर के चिथड़े-चिथड़े कर देगी। क्योंकि ये टेक्नोलॉजी बदलाव की टेक्नोलॉजी नहीं है, ये टेक्नोलॉजी स्थायित्व की, कॉन्टिनुएशन की टेक्नोलॉजी है कि जो जैसा चल रहा है, चलता रहे। हम उसी में फँसे हैं।

अब बताओ, तुम बदलोगे कैसे?

जो तुमको विज्ञान ने दे दिया है और इकॉनोमिक्स (अर्थशास्त्र) ने दे दिया है, वो भी इसीलिए है कि तुमको दुख का अनुभव न हो, ठीक है न? अभी हम जो भी चीज़ें यहाँ लेकर के बैठे हुए हैं, वो सब इसी दृष्टि से तो बनाई गयी हैं न कि हमें दुख का अनुभव न हो। कुर्सियाँ बढ़िया नरम हैं न, और अभी गर्मी लगेगी तो एसी चल जाएगा, है न? कपड़े भी पहन रखे हैं तो बढ़िया हैं एकदम, मौसम के हिसाब से। सब ठीक है, खाने-पीने की भी व्यवस्था है शहर में, कोई आपको तकलीफ़ नहीं।

तो विज्ञान ने भी पूरी व्यवस्था कर दी है कि आपको दुख का अनुभव न हो; कुछ बदले नहीं। दुख का अनुभव होता है तो चीज़ें बदलती हैं। समाज ने भी ऐसी व्यवस्था कर दी है कि कुछ बदले नहीं! चाहे वो परिवार की संस्था हो, चाहे धार्मिक मान्यताएँ हों, उनको बदलने की आज़ादी है आपको? बोलिए, परिवार की संस्था हो, चाहे धर्म की संस्था हो, उसमें से कुछ भी बदल सकते हो? बदल सकते हो पर बड़ी मेहनत लगेगी।

पुरानी रूढ़ियों में, रीति-रिवाज़ों में परिवर्तन लाना कितना मुश्किल होता है, जानते हो न। सती प्रथा आसानी से तो नहीं मिट गयी थी और आज भी कई कुप्रथाएँ हैं, लोग लगे हुए हैं उनको मिटाने में, कहाँ मिट रही हैं? तो वहाँ भी कोशिश यही की जा रही है कि कुछ बदले नहीं। परिवार में भी यही खेल है। शादी करना ज़्यादा आसान है या शादी तोड़ना ज़्यादा आसान है? करना।

जो लोग कभी सोचे हों तोड़ने की, उनसे पूछो कितना मुश्किल है; सौ तरह के झमेले होते हैं — सामाजिक भी, पारिवारिक भी और सबसे ख़तरनाक, कानूनी भी। हर तरफ़ खेल यही चल रहा है कि जो जैसा चल रहा है, चलता रहे। और अध्यात्म इसलिए है कि तुम जैसे पैदा हुए हो और जैसे चल रहे हो, वो पूरे तरीक़े से बदल जाए। कैसे बदलेगा? सबकुछ अंदर का, बाहर का, इसी कोशिश में है कि कुछ न बदले, तो बदलेगा कैसे?

एक उम्मीद होती थी, संतों की, साधुओं की, वो आकर के साफ़-साफ़ तुमको बताते थे जीवन की व्यर्थता के बारे में — जीवन माने जैसा जीवन हम आमतौर पर जीते हैं, वैसा जीवन। वैराग्य शब्द, त्याग शब्द, समर्पण शब्द, अनासक्ति शब्द इनको सामने लेकर के आते थे, अब वो संभावना भी ख़त्म हो गयी।

आज का अध्यात्म वैराग्य की बात करता है? बताओ कब आख़िरी बार तुमने ये शब्द सुना था — वैराग्य? अब तो वैराग्य का कोई मतलब ही नहीं है। आज तो सबसे ज़्यादा राग के और भोग के जो पोस्टर बॉयज़ हैं, वो गुरुदेव ख़ुद हैं। वैराग्य की बात हटा दो।

पर्सनल हेलीकॉप्टर तुम रखना चाहते हो, देखो गुरुदेव के पास पहले से है। दस देशों में संपत्ति तुम रखना चाहते हो, देखो गुरुदेव के पास पहले से है। जो भी तुम्हारी सामान्य, लौकिक इच्छाएँ हैं, मटीरियल डिज़ायर्स (पदार्थ की इच्छा), गुरुदेव उन सब पर चढ़कर पहले से ही बैठे हुए हैं; तो वैराग्य की क्या बात है।

ये शब्द गये सब — वैराग्य गया, त्याग गया, समर्पण गया, निर्मोह गया, अनासक्ति गयी, निर्ममता गयी, सब गये। आज के अध्यात्म में ये शब्द बचे ही नहीं।

आज का अध्यात्म भी अब क्या काम कर रहा है? तुमको वैसी ही सहूलियत देने का जैसे कि साइंस (विज्ञान) और टेक्नोलॉजी देते हैं। तो साइंस और टेक्नोलॉजी लगे हुए हैं तुमको फ़िज़िकल कम्फ़र्ट (शारीरिक आराम) देने में और आज का अध्यात्म लगा हुआ है तुमको मेंटल कम्फ़र्ट (मानसिक सुख) देने में। अब बदलाव क्यों होगा? तुम जैसे हो, अगर वैसा रह करके ही कम्फ़र्ट मिल सकता है, तो बाबा तुम काहे को बदलो! बोलो!

ले-देकर के हर तरफ़ हमने ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ शॉक एब्ज़ॉर्बर्स (आघात अवशोषक) खड़े कर दिये हैं। ज़िन्दगी शॉक देने आएगी, हमारे पास एक शॉक एब्ज़ॉर्बर पहले से ही तैयार रहता है। पहले से ही तैयार है।

तुम कुछ भी ऐसा करने जा रहे हो जो तुम्हें नहीं करना चाहिए, उसका फल तुम्हें महसूस न हो, इसके लिए एक व्यवस्था तैयार कर दी जाएगी। कुछ ऐसा कर दिया जाएगा कि आप कर सकते हैं, आपको डरने की ज़रूरत नहीं है, जाइए करिए; भोगिए। उसी व्यवस्था के शिकार हो।

मेरा काम है उस व्यवस्था को तोड़ना। आपका भी वही काम होना चाहिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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