ज़िंदगी कटी पतंग है? || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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ज़िंदगी कटी पतंग है? || आचार्य प्रशांत

आचार्य प्रशांत: दस बारह साल पहले की बात होगी, तो शनिवार को सुबह से सत्र हुआ करते थे, पुराने बोधस्थल में। तो उसमें एक यह भी करते थे कि कुछ गाने लगा देते थे और समझने की कोशिश करते थे कि आम आदमी का मनोविज्ञान क्या होता है। तो उसमें एक दिन एक गाना लगाया, उसमें परदे पर आशा पारेख थीं और वो सफ़ेद साड़ी में गा रही थीं:

"न कोई उमंग है, न कोई तरंग है , मेरी ज़िन्दगी है क्या, एक कटी पतंग है"

मैं उसे ऐसे देख रहा हूँ (हैरानी से देखने का अभिनय करते हुए)। मैंने कहा ये जो सामने व्यक्ति है, ये सेहत से मस्त लग रहा है, ठीक-ठाक है। दिखने में सुन्दर है, कद-काठी अच्छी पायी है। साड़ी भी फटी-वटी नहीं है, माने रुपया-पैसा भी है। तो इसको तकलीफ़ क्या है ज़िन्दगी में? ये काहे को ऐसे गा रही है, "न कोई उमंग है, न कोई तरंग है, मेरी ज़िन्दगी है क्या एक कटी पतंग है", क्यों कटी पतंग है?

और मुझे इस बात से बहुत आपत्ति इसलिए भी है क्योंकि सांस्कृतिक रूप से मैं भी वैसा ही रहा हूँ। मैंने भी अपनी ज़िन्दगी में व्यर्थ की बहुत सारी भावुकता का बड़ा बोझ ढोया है और दंड भी भुगता है। और वो सब जब चल रहा होता है न तो उसमें एक रस मिलता है। बड़ा रस रहता है "मेरी ज़िन्दगी है क्या, एक कटी पतंग है"। 'देखो मैं भी तो विक्टिम (पीड़ित) हूँ, मेरे साथ ग़लत किया है। मेरे साथ ज़माने ने, वक़्त ने कुछ ग़लत कर दिया है।'

और मुँह ऐसा बना रखा है जैसे (चेहरे पर दुख के भाव लाते हुए)। दुख अपनेआप में कोई वर्चू (पुण्य) नहीं होता। यह समझिएगा! दुखी होना अपनेआप में कोई पुण्य की बात नहीं होती। लेकिन भारत में यह मूल्य बहुत व्यापक हो गया है कि जो दुखी है वो पुण्यात्मा है। तो लोग अपनेआप को पुण्यात्मा सिद्ध करने के लिए ज़बरदस्ती दुखी रहते हैं। और कोई हँसता हुआ मिल जाए तो कहते हैं, 'देखो लफंगा! हँस रहा है।' हँसना, आनंदित रहना ही जैसे पाप हो गया, अपमान की बात हो गयी।

अब ऐसे ही समझ लो, हम यहाँ बैठे हुए हैं, ठीक? यहाँ पर कोई आकर के रोना शुरू कर दे, आपको कोई आपत्ति नहीं होगी। आपको बल्कि यह लगेगा 'देखो, देखो, देखो उसके शब्द रुँधे जा रहे हैं। भला आदमी है। देखो, रो पड़ा।' अभी यहाँ आकर कोई हँसना शुरू कर दे 'हेंहेंहें', कहेंगे 'देखो बदतमीज़! आचार्य जी के सामने हँस रहा है। अरे! ये अध्यात्मिक जगह है, यहाँ हँसा नहीं जाता, यहाँ रोया जाता है।'

काहे को रोया जाता है? क्यों रोया जाता है? रोने के लिए भी कोई वाजिब वजह है क्या आपके पास? क्या आप संसार की दुर्दशा पर रो रहे हो? आप उन वन्य प्राणियों और वनों पर रो रहे हो जो नष्ट हो रहे हैं, ख़त्म हो रहे हैं? आपके पास रोने की कोई वाजिब वजह भी नहीं है। आपके पास रोने के लिए क्या है? कुछ नहीं, बस मनहूसियत है।

'क्यों रो रहे हो?' मनहूस हैं इसलिए रो रहे हैं। आदत हो गयी है रोने की, तो रो रहे हैं। कोई ऊँचा कारण भी है? रोने के लिए भी कोई ऊँची वजह है क्या? मुँह ऐसे हो रखा है बिलकुल जैसे आटा गूँथ दिया गया हो, ऐसे पूरा मरोड़ दिया है।

'क्या हुआ?’

‘कुछ नहीं, टट्टी नहीं खुली।'

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

"दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे।"

वो भी रोते थे, तो वो अपने जागरण के कारण रोते थे। वो जगे हुए हैं, तो जगत की दुर्दशा देख कर करुणावश उनके आँसू आ जाते थे। वो अलग बात है बिलकुल। आपका मुँह क्यों लटका हुआ है? क्यों? यह सिद्ध करना चाहते हो कि शहीद हो? कि तुमने भी कुछ पाया? अरे, शहीद वो होते हैं जो पहले लड़ाई में उतरते हैं। लड़ाई कोई लड़ी नहीं और शहादत का गर्व लेना चाहते हो।

"अजी साहब, वक़्त करता जो वफ़ा, आप हमारे होते। हम भी गैरों की तरह आपको प्यारे होते।"

वक़्त करता जो वफ़ा? सीधे-सीधे नहीं बोल रहा है, तू कमज़ोर आदमी है, बुज़दिल! वक़्त पर क्या इल्ज़ाम डाल रहा है? कोई चीज़ थी तेरे सामने, अगर वो वाक़ई कीमती थी और तुझे प्यार था तो जाता हक़ के साथ छीन कर लाता। तब तो टाँगे काँप गयीं, कोई साहस नहीं दिखा पाया। और अब कह रहा है, "वक़्त करता जो वफ़ा।" वक़्त बेवफ़ा है? वक़्त बेवफ़ा है, तो मुँह क्यों लटका हुआ है?

देखो, समझो।

तुम्हारे पास बहुत वक़्त नहीं है। तुम अभी मर जाओगे। तुम्हें बात क्यों नहीं समझ में आ रही? अभी मर जाओगे। क्या बचा रहे हो? तुम्हें मरना है। क्या बचा लोगे? रोकर क्या मिलेगा? लड़ जाओ। और मरने से पहले जीने के लिए बहुत सारी माकूल और सुंदर वजहें हैं। तुम ज़बरदस्ती अपनेआप को उनसे वंचित रख रहे हो। क्योंकि तुमको अपने पुराने गड्ढों में ही पड़े रहना है, वहीं जीना है, वहीं सड़ना है।

वो गड्ढें मानसिक भी हैं और भौतिक भी। मन में जहाँ जी रहे हो उस जगह से बाहर आओ। और भौतिक रूप से भी जिस जगह पर जी रहे हो उस जगह से बाहर आओ। कोई बाध्यता नहीं है। जितनी भी तुमने अपने ऊपर बाध्यताएँ बना रखी हैं, ये सब लेकर के चिता पर जाओगे क्या? मैं पूछ रहा हूँ।

देखिए, मेरी बात को समझिएगा, जल्दी से आपत्ति मत करने लगिएगा। मेरे होटल से लगी हुई एक बीच (समुद्र तट) है, कल मैं वहाँ पर गया, वहाँ पर महिलाएँ साड़ी पहनकर घूम रही थीं। मुझे साड़ी से कोई आपत्ति नहीं है। साड़ी बड़ा अच्छा परिधान है। अपने घर में भी मैंने महिलाओं को साड़ी में ही देखा है।

जो मैं कह रहा हूँ उसको समझिए।

मुझे साड़ी से आपत्ति नहीं है, पर मैं पूछ रहा हूँ, 'बीच पर भी तुम साड़ी पहनकर के घूम रहे हो; साड़ी पहनकर मरोगे? साड़ी पहनकर पैदा हुए थे या साड़ी पहनकर राख होओगे? बताओ। 'अरे नहीं-नहीं, हिन्दुओं में तो होता है, साड़ी पहनाकर ही तो राख़ करते हैं।' वो तो लपेट दी है, तुमने पहनी नहीं है, तुम पर लपेट दी है।

यह सब बोझा ढोकर के क्या मिलना है। जीवन इतना कुछ है जो तुमको दे सकता है। तुम्हारे लिए क्यों ज़रूरी है अपनेआप को उससे अलहदा रखना, वंचित रखना, क्यों ज़रूरी है? मैं पूछ रहा हूँ। और फिर रोना, 'मेरी ज़िन्दगी है क्या, एक कटी पतंग है' — मैं सफ़ेद साड़ी पहने घूम रही हूँ।

हमने कहा था सफ़ेद साड़ी पहनो? ख़ुद पहनी न तूने? अब रो मत! या उतार दे। इतने वस्त्र हैं दुनिया में, इतने तरह के पहनावे हैं, तू कुछ भी पहन ले। तू सफ़ेद साड़ी पहनकर पहले तो घूम रही है फ़ालतू, हमारा भी दिमाग़ ख़राब कर रही है, ऊपर से रो रही है। और ऐसे ही रोना है तो कोने में जाकर रोओ, कैमरे के सामने मत रोओ।

गंभीरता से लेने वाली एक ही चीज़ होती है। जिस चीज़ पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता, जिस चीज़ को बिलकुल बदला नहीं जा सकता वो एक ही चीज़ होती है 'मुक्ति'।

उसके अलावा सब कुछ बदलना सीखो। पुरानी सोच, देहगत भावनाएँ यह गंभीरता से लेने वाली चीज़ें नहीं हैं। बहुत गंभीरता रखो जीवन में बस एक चीज़ के लिए, क्या? जन्म का उद्देश्य है 'मुक्ति'। बाक़ी सब चीज़ें नेगोशिएबल (समझौते के लायक़) हैं। बाक़ी सब चीज़ों को आगे-पीछे किया जा सकता है — कभी स्वीकारा जा सकता है, कभी त्यागा जा सकता है।

कुछ भी और नहीं है जो नित्य है। नित्य समझते हो? जिसको बदल ही नहीं सकते। बाक़ी सब कुछ परिवर्तनीय है और उसमें परिवर्तन होना चाहिए। मत डरो! यहाँ तो लोग हैं जो इस बात से भी डरते हैं कि जिस तरीक़े के बाल बीस साल पहले रखे थे, वैसे ही तो रखने हैं। हेयर स्टाइल (बालों की शैली) बदलनी नहीं चाहिए। तुम्हारे हेयर नहीं बचे, हेयर स्टाइल बचा कर रखे हुए हो। गंजा हो गया है, हेयर स्टाइल पुरानी है। वो जाता है, वहाँ नाई के सामने जाता है और बोलता है, 'वही जैसा कॉलेज के दिनों में मेरा स्टाइल था, काट दो।' वो बोलता है, 'टकले की चम्पी कर सकता हूँ, काटने के लिए कुछ बचा होगा तो न काटूँगा।'

सब तो बदल रहा है, तुम बचाये क्या बैठे हो। और क्या बचा ले जाओगे तुम! और यही दुख है, यही वेदांत की, यही बुद्ध की सीख है — जो बचाया नहीं जा सकता, उसको बचाने की चेष्टा ही दुख है। और जब भी कोई व्यक्ति देखना जो बहुत दुख में सराबोर है, समझ लेना ये किसी ऐसी चीज़ को बचाने की कोशिश कर रहा है जो बचायी जा ही नहीं सकती।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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