ज़िंदगी दो बातों की — एक आग, एक आशिक़ी

Acharya Prashant

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ज़िंदगी दो बातों की — एक आग, एक आशिक़ी
कोई पूछे सुबह-सुबह, “कहाँ जा रहे हो?” बोलो, “मोहब्बत करने।” मैं जी रहा हूँ, और यूँ ही नहीं जी रहा हूँ, मेरी हर धड़कन में आशिक़ी है। ये ज़िंदगी के प्रति प्रेम है — ऐसा प्यार जो परिणाम माँगता ही नहीं। किसके लिए है बात ये सारी? जो कर रहे हैं, उसके लिए है। ये प्रेम यज्ञ की ज्वाला है — काम और आग, जिसमें वो आग हो, वो है योगी। आग का धर्म है हमारा; उपनिषद् कहते हैं, “तुम अमृत की औलाद हो।” मैं और साफ़ करके तुमसे कह रहा हूँ — तुम आग की औलाद हो और आग की औलाद नहीं हो, तो अपने आप को सनातनी मत बोलना। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम आजकल बहुत व्यस्त रहने लगे हैं, मीटिंग्स, डेडलाइंस, सोशल मीडिया। पर भीतर से अभी भी बहुत ही ज़्यादा सुन्न और थके हुए लगते हैं।

कभी जिन चीज़ों से हमें प्यार था, जैसे काम, रिश्ते, अपने सपने, वो सब अब बोझ और ज़िम्मेदारी जैसे लगने लगे हैं। कई लोग तो बस धक्के खाकर या किसी के कहने पर ही काम कर लेते हैं, उनकी अपने अंदर से कोई आग या लगन नहीं होती। बिना किसी इनाम या तारीफ़ की परवाह किए, ज़िंदगी में फिर वही मोहब्बत और आग कैसे जगा सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: बोल दिया जाए, सैलरी-वैलरी छोड़ो काम बहुत प्यारा है, चलो करते हैं। बाक़ी क्या है, खाने को रोटी और सर छुपाने को छत मिल ही जाएँगे। कितने लोग काम करेंगे? और जितने लोग हों, जिनका इस संभावना को सुनने से ही दिल दहल गया हो, आवाज़ आई थी यहाँ तक ऐसे रंबलिंग साउंड गड़-गड़-गड़। ये क्या बोल दिया? वो जान लें कि बहुत समस्या है, जन्म ही व्यर्थ जा रहा है। या तो अपना मान लीजिए कि जन्म व्यर्थ है, या मान लीजिए कि श्रीकृष्ण की शिक्षा व्यर्थ है। क्योंकि उनकी शिक्षा बिल्कुल सपाट कह रही है — काम करो, कर्मफल की कोई चिंता नहीं, कोई परवाह नहीं।

और जो ऐसा हो गया, उसको चाहो तो खिलाड़ी बोल दो, उसको चाहो तो प्रेमी बोल दो, जांबाज़ बोल दो, स्टड बोल दो और चाहे संन्यासी बोल दो। इन दोनों को तो हमने कभी एक साथ नहीं सुना था, स स्टड, च संन्यासी। ऐसा ही है, होंगे शब्द अलग-अलग दिशाओं के, बहुत अलग दिशाओं और बहुत अलग संदर्भों, और बहुत अलग संस्कृतियों से ये दोनों शब्द आ रहे हैं। पर अगर वो एक ही तरफ़ को इशारा कर रहे हैं, तो उनको अलग कैसे माने? और वास्तव में नायक या हीरो कहलाने का भी अधिकारी वही है, उसको हीरो भी बोल सकते हो। हमने तो कभी ऐसा सोचा नहीं कि मुनि और हीरो बिल्कुल अगल-बगल रखे जा सकते हैं, पर्याय हैं, एक ही साँस में कहे जा सकते हैं। बिल्कुल कहे जा सकते हैं। और अगर मुनि तुम्हारा हीरो नहीं है, तो तुम्हारा हीरो कौन है फिर लुच्चा, वही खैनीबाज़? बात समझ में आ रही है?

जो सच का भी जगत है न, उसमें भी भीतर तमाम तरह की विविधताएँ हो सकती हैं और सच मानें तो मुक्ति तो वहाँ सब तरह की विविधताओं के लिए स्थान है। तो मुक्त हो वहाँ भी, अलग-अलग तरह के रंग पहनने के लिए, किरदार ओढ़ने के लिए, बिल्कुल मुक्त हो। और वो सब रंग, सब किरदार एक ही हैं, क्योंकि सब के सब सच के हैं। पर जब आप ये बात नहीं समझते, तो आप सच को किसी एक खास आवरण से, रंग से, आचरण से, बोलचाल, वेशभूषा, पंथ, धारा, भाषा आदि से जोड़ लेते हो।

सच अगर किसी से अनिवार्यत जुड़ा हुआ है, तो वो है अपने प्रति ज्ञान और कर्म के प्रति प्रेम से, और किसी से नहीं सच जुड़ा हुआ।

ख़ुद से पहचान है और काम से आशिक़ी है। कोई पूछे सुबह-सुबह कहाँ जा रहे हो? बोलो मोहब्बत करने। ज़िंदगी है यार, रोज़ सुबह डेट पर निकलते हैं। और जब दिन भर चली है, तो रात में भी कौन चाहता है कि खत्म हो जाए, रातें तो होती ही हैं, इश्क़ जवान होता है रातों में। झुन्नू संसारी, “ऐं! दस बज गए, सोने दो। ऐं! सात बज गए और कितना काम कराओगे?” ध्यान रखना, दो-चार लुढ़क न जाएँ।

ये श्लोक नहीं है, ये विशुद्ध प्रेम है। और ये किसी छवि, किसी कल्पना, किसी सिद्धांत के प्रति प्रेम नहीं है, ये ज़िंदगी के प्रति प्रेम है। मैं जी रहा हूँ और यूँ ही नहीं जी रहा हूँ, मेरी हर साँस में मोहब्बत है, मेरी हर धड़कन में आशिक़ी है। अनंत प्रेम — ऐसा प्यार जो परिणाम माँगता ही नहीं, सुध ही नहीं ले सकता परिणाम की। बोले, क्या होगा आगे? पता नहीं क्या होगा आगे, जो भी होगा। ये बाहें हैं, ये बाजू, इनसे हम काम करते हैं। क्या करते हैं? काम।

अब एक साधारण सा फिल्मी गीत है। अब समझो उसके अर्थ कितने बदल जाते हैं। ठीक है? इन हाथों से काम करते हैं न हम, यही तो बोलते हैं। हम काम करते हैं, हम श्रमिक हैं इनसे (हाथों को उठाते हुए)। अभी साँस लेने की फुर्सत नहीं है कि तुम मेरी बाहों में हो। समझ में आई ये बात? किसके लिए है बात ये सारी? जो कर रहे हैं उसके लिए है। साँस लेने की फुर्सत नहीं है।

और ऊपर-ऊपर से भले दिखा दें कि “अरे यार काम।” अच्छा, काम ज़्यादा है, इतनी चिढ़ लग रही है तो मत करो न। जैसे प्रेमी रूठते हैं, एक दूसरे से कि अच्छा, हम इतने ही बुरे हैं, तो मत आना हमारे पास। तो ऊपर-ऊपर से चिढ़ भी दिखा सकते हो बीच-बीच में, पूरी छूट है, “अरे यार, झुंझला रहे हैं, बहुत काम हो गया, हमें नहीं करना, पूरा दिन यही-यही करते रहते हैं।” इतना बुरा लग रहा है तो मत करो, मैं इतनी ही बुरी हूँ तो वहाँ रहना, अब इधर मत आना। छोड़ सकते हो तो छोड़ दो, और छोड़ सकते हो तो हम कह रहे हैं छोड़ ही दो। जो चीज़ छोड़ी जा सकती हो, उसको जो पकड़ करके बैठा हो, घटिया इंसान। कुछ आ रही है बात समझ में?

और कितना व्यापक है सच का क्षेत्र, उसके लिए श्रीकृष्ण आगे और विस्तार से, और सफ़ाई से, दुगना जोर देकर बताए देते हैं, कि “अच्छा सुनो, जो काम में डूबा हो, उसी को मानना: योगी, संन्यासी, ऋषि, प्रेम, नायक, सब कुछ, नेता सब उसी को मानना अपना। उनको मत मानना अपना, किनको? कि जो लगे हुए हैं, लगे हुए हैं कि जल्दी से वैल्यूएशन 3x कर दें, फिर एग्ज़िट ले लेंगे। ये कितनी भी मेहनत कर रहे हों, इनको सम्मान मत दे देना।

आग होनी चाहिए। जो यज्ञ में ख़ुद को ही अर्पित करे दे रहा हूँ उस आग की, मैंने आहुति बनकर देखा, यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है! जिसमें वो आग हो, वो है योगी। वो नहीं कि वहाँ बैठ गए हैं और पेट अंदर-बाहर कर रहे हैं, उससे योगी नहीं हो जाते। पेट अंदर-बाहर करने से तुम, कुछ और बोल देंगे तुमको, योगी थोड़ी हो जाओगे। श्रीकृष्ण हैं योगेश्वर, तो हमने तो नहीं देखा कि…। समझ में आ रही है बात? घोर सक्रियता।

और जिसको पाओ कि हाथ-पाँव नहीं हिलते हैं, काम नहीं करा जा रहा, इनको किसी भी हालत में मान मत लेना कि ये सही केंद्र से ज़िंदगी जी रहे हैं। जो सही केंद्र से ज़िंदगी जी रहा हो, उसकी ज़िंदगी में आग न हो और सक्रियता न हो, ये संभव नहीं है। जो आदमी सही ज़िंदगी जी रहा होगा, वो तूफ़ान की ज़िंदगी जी रहा होगा। मैंने एक बार कहा था, उसकी ज़िंदगी ऐसे होगी जैसे कोई मोमबत्ती दोनों सिरों पर जल रही है। उसको प्रकाश से इतना प्यार है, कि वो अपने मिटने की परवाह नहीं कर रही। “इधर से भी जलूँगी, इधर से भी जलूँगी, कौन इंतज़ार करे कि धीरे-धीरे पिघलूँगी।” ये होती है सक्रियता।

आप किसी को कहें, हम तो सब जान गए हैं, ब्रह्मज्ञ हैं। वहाँ कोने में पड़े हुए हैं, “नहीं देखो, हमें ये दुनिया की खुराफ़ात से कोई मतलब नहीं। हमें आख़िरी सत्य का पता चल चुका है और हम अपने आप कोने में पड़े रहते हैं।” तू कुछ नहीं है। कैसा आदमी होगा वो जिसको सच दिखने लगा है और वो अभी भी अपनी आदत, आलस और सुरक्षा के घेरे में कैद है। कह रहा है, “नहीं देखो, अपना भी तो देखना पड़ता है न। मतलब ठीक है, थोड़ा सोच-समझ के देखो रखना पड़ता है। ऐसे नहीं होता, कि…। हाँ सच वग़ैरह है हम स्वीकारते हैं, मतलब देखेंगे, जल्दबाज़ी शैतान का काम है भाई, सौ-दो सौ साल कम से कम थोड़ा देखने दो, परखने दो, धीरज धरो। और वो इतना कबीर साहब की बात करते हैं, तो उन्होंने तो बोला, ‘धीरे-धीरे रे मना,’ धीरे-धीरे।”

बापू जी, कितना धीरे-धीरे? हालत देखो अपनी छह महीने नहीं, दो साल, नहीं तो चार साल, इससे ज़्यादा तुम चलने नहीं हो। और जो जवान है, वो दस से गुणा कर लें, वो दस-बीस साल चल जाएँगे, नहीं तो चालीस, कितना धीरे-धीरे? और ये तुम्हारी सावधानी नहीं है, ये तुम्हारी कायरता है। कोई मात्र सावधानी के लिए धीरे-धीरे हो, तो माफी है। तुम्हें सावधानी वाली कोई बात नहीं है, तुम बुज़दिल हो, तुम सुरक्षा के दीवाने हो। तुम्हारे सब कुछ काँपने लग जाता है, दाँत से लेकर आँत तक, जाड़े में दाँतों को बजते सुना है?

सच जहाँ सामने आया और जहाँ अग्नि ने पुकारा, जहाँ कर्म का न्योता आया, तहाँ इनके आँत, दाँत सब बजने लग जाते हैं। इनके लिए ज्ञान का मतलब है ज्ञान की बातें।

तुम सोचते हो ज्ञान माने बात होता है, ज्ञान माने बात नहीं होता, ज्ञान माने आग होता है।

ये प्रेम यज्ञ की ज्वाला है, काम और आग। ज्ञानी माने अंगार। बुझी, उड़ती हुई राख नहीं, फू-फू। ये राख ले कर यहाँ (माथे पर) लगा ली, तो ज्ञानी हो गए। नहीं, नहीं, ज्ञानी यहाँ राख नहीं मलता, ज्ञानी यहाँ शोले मलता है।

अब मुझे पसीना नहीं आ रहा, तो तुम लोगों को क्यों आने लग गया? ठंडे, बुझे हुए लोग लतख़ोरों के लिए न गीता है, न ज्ञान है। कि जिनको बात-बात में धक्का दो तो कुछ करेंगे, धक्का दो तो कुछ करेंगे। ज्ञान माने बेपरवाह आशिक़ी, पता ही नहीं चला ज़िंदगी कब बीत गई। जब पता ही नहीं चला ज़िंदगी कब बीत गई, तो बताओ मौत कैसे आएगी? जिनको ज़िंदगी का होश होता है, साधारण अर्थों में होश, जिनको ज़िंदगी का होश होता है, उनको ही पता चल सकता है न कि अब मौत आ गई।

जो जी ही ऐसे रहे थे कि उन्हें ज़िंदगी का ही नहीं पता था, वो फिर कभी मरते भी नहीं, वो अमर हो जाते हैं। ज्ञान माने ऐसे जीना कि पता ही न चले — दिन, महीने, साल, दशक, और फिर जीवन पूरा कब बीत गया।

कभी हुआ होगा, हल्की‑सी झलक मिली होगी, जब कभी डूबे होंगे किसी दिली काम में। हुआ है ऐसा? अरे ये क्या हुआ! समय पूरा हो गया। छोटे बच्चों के साथ होता है, अब पता नहीं ऐसा होता है, मेरे समय में वीडियो गेम खेलने जाते थे। उनके वीडियो पार्लर्स होते थे, तो टोकन देते थे आधे घंटे का, चालीस मिनट का, कि इतनी देर तक खेलोगे। और पाँच ही मिनट हुए होते थे ऐसा लगता था, और वो आकर कहता था, वो आकर कहता भी नहीं था वो सामने आ जाता था, “टाइम‑अप, गेम‑ओवर।” ज्ञान माने ज़िंदगी भी ऐसे ही बिता देना, पता ही नहीं चला।

आज लिखिएगा न जाने, छोड़ो कि बहुत विद्वत्तापूर्ण बातें करनी हैं। न जाने कितने तो फ़िल्मी गाने हैं, जिनको अगर सही जगह से देखो, तो उनके बिल्कुल दूसरे अर्थ निकल आते हैं, ऐसे अर्थ जो गीतकार ने ख़ुद न सोचे हों कभी। पता ही नहीं चलता कि क्या हो गया, कहाँ आ गए — ये ज्ञान है।

हम सोचते हैं ज्ञान माने पता चलना, ज्ञानी माने तो वो जिसे सब पता हो। न, न, न, ज्ञानी माने वो जो खो गया, अब उसे कुछ नहीं पता, इमर्शन, डूबना, वो डूबा हुआ है, उसे कुछ नहीं पता। वक़्त उसके लिए रुक गया है, उसे कुछ नहीं पता, वो ज्ञानी है। वक़्त रुक तो रुक जाएगा ही ना उसके लिए। ज्ञान का अर्थ ही होता है, झूठ को झूठ जान लेना, समय झूठ है। जब समय झूठ है, तो समय फिर उसके लिए बचता नहीं है। वो जैसे इसी संसार में एक समयातीत, टाइमलेस ज़िंदगी जी रहा होता है।

समय उनको पता चलता है, जिनको कल का इंतज़ार होता है, जिनको किसी बदलाव की अपेक्षा होती है, उनको समय बहुत पता चलता है। ट्रेन आने वाली है, आप मिनट‑मिनट समय देखोगे, आपको समय का पता चलेगा क्योंकि आपको एक बदलाव का इंतज़ार है, ट्रेन अभी नहीं है, ट्रेन अब आएगी, बदलाव होगा। पर जो सही ज़िंदगी जी रहा है, उसे किस बदलाव का इंतज़ार है, “हमारा यार है हम में, हमन को इंतज़ारी क्या?” हमें कोई इंतज़ार नहीं है। जब इंतज़ार नहीं बचता, तो समय रुक जाता है, पता ही नहीं चलता कब बीत गया समय। बाहर घड़ी पर बीत जाता है, हमारे भीतर समय कब का रुक चुका है, कब का रुक चुका है, हमें कोई इंतज़ारी नहीं बची, तो हमारे पास अब कोई भीतरी घड़ी भी नहीं बची — ये ज्ञानी है।

उसे नहीं पता क्या हो रहा है, उसे नहीं पता वो कहाँ आ गया, क्योंकि ये सब पता उन्हें चलता है जिन्हें किसी विशेष जगह जाना होता है। भाई आपको कहीं जाना था खास जगह, तो आप नज़र रखते हो कि कहाँ आ गए, फिर आपको अच्छा भी लग सकता है, बुरा भी। जहाँ सोचा था पहुँचेंगे, वहीं पहुँच गए, तो अच्छा लग जाएगा। कहीं और पहुँच गए तो बुरा लग जाएगा। माने, मानक क्या है? अपेक्षा, कामना। कामना से तुलना करके आप कहते हो, कुछ अच्छा हुआ, कुछ बुरा हुआ। ज्ञानी को पता नहीं क्या है। “ये कहाँ आ गए हम, यूँ ही साथ‑साथ चलते।”

आश्चर्य है बोल सकता है, बस वो, ये कहाँ आ गए? चलो, जहाँ भी आ गए बढ़िया है, सोचा तो नहीं था पर बढ़िया है। और वो जहाँ भी जाएगा आश्चर्य ही बोलेगा, क्योंकि उसे कहीं भी नहीं जाना था। उसे तो कहीं भी नहीं जाना था, उसे जहाँ जाना था एक अर्थ में वो वहाँ पहले ही पहुँचा हुआ है।

अब वो लोग कैसे लग रहे हैं जो भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग को अलग‑अलग बताते हैं, और तुलना कर देते हैं। प्रेम का रास्ता, बोध का रास्ता, एकदम अलग नहीं है वो एक ही चीज़ के दो नाम कर रहे हैं। और जो इन दोनों को अलग‑अलग करें, न उनके पास प्रेम है, न ज्ञान है।

सबसे अच्छे उदाहरण इसके, पूरी तो वैसे संत‑श्रृंखला ही इसका बहुत अच्छा उदाहरण है, पर दो जो सबसे अच्छे उदाहरण मैं जानता हूँ — एक हैं कबीर साहब और एक हैं गुरु नानक। आप मुझे बता दो, कहीं पर आपको लगेगा कि ये तो सीधे उपनिषदों की बात कर दी है। कहीं आप कहोगे कि ये तो प्रेमी हैं, तो ये तो भाव से बोल रहे हैं, पर उनके भाव में भी बोध है, और उनके बोध में गहरा प्यार है।

पहले पता है एक मामले में अच्छा था, मैं बँधा नहीं हुआ था कि छह ही ग्रंथों पर बात करनी है। अभी तो छह ही नहीं, पाँच हैं संत सरिता में तो। पहले क्या होता था कि बहुत सारे ग्रंथों पर मैं बात कर पाता था। अब एक तरह का पाठ्यक्रम बँध गया है, गीता माने श्रीमद्भगवद्गीता ही, अब गीता माने रामगीता नहीं हो सकता। अब अष्टावक्र गीता है, तो अष्टावक्र गीता माने एक‑एक श्लोक अष्टावक्र गीता का ही चलेगा। अब कठ उपनिषद् माने कठ उपनिषद्, माने केन उपनिषद् अब नहीं हो सकता, माने ईशावास्य आप नहीं ले सकते, माने प्रश्नोपनिषद नहीं ले सकते। तो कठ उपनिषद् माने वही‑वही चलेगा।

तो बहुत सारे अच्छे, ऊँचे ग्रंथ हैं जिन पर बात नहीं हो पा रही है। इसी तरीके से जो अन्य धाराएँ हैं, उन पर तो एकदम ही नहीं बात हो पा रही है। ज़ेन कोआन हैं, सूफ़ियों के इतने किस्से हैं। आपको मालूम है यहूदी मिस्टिक्स, बड़ी उनकी भी, और वो सब जब वेदांत के प्रकाश में समझो, तो और मज़ा आता है। अब लाओ त्ज़ू को हमने ले लिया है, तो हम ली त्ज़ू और चुआंग त्सु को नहीं ले सकते, तो हम फँस गए हैं। एक समय था, साल भर तक हमने नितनेम पर और आदि‑ग्रंथ पर कितनी बात करी थी। अब कितने साल बीत गए, कोई बात नहीं हुई। चलिए, देखेंगे।

क्या करोगे अच्छा बताओ, हल्का आदमी बना रह के क्या करोगे? क्या लाभ होगा? ज़्यादा जी लोगे? ये सुरक्षा‑सुरक्षा जो करते हो, ये करते‑करते क्या कर लोगे? मौत से बच जाओगे? जब मर ही जाना है, तो बेधड़क जी करके काहे नहीं मरते? “नहीं, वो तो आप बोल लेते हो — आपके लिए ठीक है। हम तो कमसन कुमारी लड़कियाँ हैं, हमें तो ज़माना देख के चलना पड़ता है न।” ठीक है, तुम ज़माना देख के चलो न। मेरा क्या जाता है? तुम नीचे ज़माना देख के चलो, हम तो उड़ान लेंगे वहाँ ऊपर खूब, वहीं से पॉटी करेंगे। तुम रेंगो ज़मीन पर। फिर ऐसे कहना, “ये क्या है? आचार्य जी ने शैंपू भेजा है क्या?”

उनको मत मान लेना तुम, संन्यासी, योगी, ऋषि, मुनि, कुछ भी, जिनके पास अग्नि नहीं है, जिनके पास स्वयं को आहूत कर देने का जज़्बा नहीं है, और जिनको निठल्ले पड़े रहना, अक्रिय पड़े रहना बहुत पसंद है, इनको मत मान लेना। हाँ, लोकधर्म में इनको ही माना जाता है।

बाबा जी माने क्या? अब, बाबा जी माने वो तो नहीं जो बास्केटबॉल खेल रहे हैं। बाबा जी माने वो भी नहीं जो घोर संघर्ष कर रहे हैं। बाबा जी माने क्या? पड़े हुए हैं, बैठे-बैठे आशीर्वाद दे रहे हैं, “हाँ बच्चा।” और श्रीकृष्ण बहुत पहले से मना कर गए हैं, ऐसों को कुछ मत मान लेना। ये कुछ नहीं है, ये तो ऐसे हैं कि कहीं आग जल भी रही हो तो उस पर ठंडा पानी डाल दें। ये तो ऐसे हैं कि जवानों को जवानी में बूढ़ा बना दें। तो योगी कौन? संन्यासी कौन? जिसके पास अग्नि है। अब समझ में आ रहा है, कैसा है सनातन धर्म। आग का धर्म है हमारा, हम अग्निवंशी हैं।

उपनिषद् कहते हैं, “तुम अमृत की औलाद हो।” मैं और साफ़ करके तुमसे कह रहा हूँ, तुम आग की औलाद हो और आग की औलाद नहीं हो, तो अपने आप को सनातनी मत बोलना।

ढीले-गीले ऐसे लोगों को अपने आप को सनातनी बोलने का कोई अधिकार नहीं है। पड़े हुए हैं, सो रहे हैं। कोई जाकर लात मार के जगा रहा है। भट! तू कुछ भी हो सकता है, तू श्रीकृष्ण का वंशज तो नहीं हो सकता। केले का वंशज होगा, पिल-पिला और छीले भी कोई और, वो जो नहीं होते हैं सड़ेले केले जिन्हें छीलने के बाद पता चलता है कि गलत चीज़ उठा ली, फेंक दो इसको। नहीं इतने मिले हैं मुझे, मैं क्या करूँ मतलब। और कई बार तो ऐसे हाथ में लो और वो हाथ में लिए ही ऐसे गिर जाता है। आधा हाथ में रह गया, बाक़ी ऐसे लुढ़का हुआ है। छिलके के भीतर से चू रहा है, लीक हो रहा है।

और नाम में क्या लगा रखा है? फलाना, मेरा नाम है। कुछ भी नाम लगा लो तुम अपना, सिंह, कुमार, शर्मा, वर्मा, मिश्रा, तिवारी, जो भी चलते हैं, तो उससे तुम हिन्दू थोड़ी हो गए। हिन्दू वो जिसमें श्रीकृष्ण की आग है।

लुचूर‑पुचुर, “मैं तो गिर गया।” क्या हुआ? उठे क्यों नहीं? काम क्यों नहीं कर रहे? “मैं तो गिर गया।” पुराना चुटकुला है, लग गई, नहीं बित्तल पे गिल गया, नींद लग गई। इसको आलसी मत बोलो, इसको अधर्मी बोलो। युद्ध बुला रहा था। आपका ये है न, “युद्धयज्ञ को पीठ दिखाए, वो योगी नहीं त्यागी नहीं। परवाह नहीं अंजाम की, फ़िक्र सच्चे काम की।” जो युद्ध को पीठ दिखा रहा हो, जो यज्ञ की घड़ी में खर्राटे मार रहा हो, इससे बड़ा विधर्मी कोई होगा?

मैं जवान लोगों से पूछ रहा हूँ, अच्छा जीवन तो चलो फिर भी थोड़ा लंबा खींचता है। जवानी एक बार जो जाए?

श्रोता: जवानी फिर ना आए।

आचार्य प्रशांत: कहीं तो तुमने जवाब दिया। तुम्हें पता है तुमसे जवाब कैसे निकलवाना है। कोई घटिया आइटम नंबर बता दो, खट से पूरा कर दोगे।

तो एक बार जो जाए जवानी फिर ना आए। एक दिन न ऐसे जैसे मेरा हुआ था। पहले एक बाल यहाँ (दाढ़ी की ओर इंगित करते हुए) सफेद होता है, फिर वो धीरे-धीरे ऊपर को बढ़ना शुरू होता है, और अब मैं देख रहा हूँ इधर के बाल भी। बचा लोगे जवानी? तो काहे के लिए ये ठंडा जीवन जी रहे हो? कई तो इतनी व्यापारी बुद्धि के होते हैं। देखो, आज हमने दिन में ज़्यादा काम कर लिया है, तो आज हम सत्र नहीं अटेंड करेंगे। यहाँ से कई गायब होंगे, इसलिए क्योंकि उन्हें लग रहा है आज उन्होंने दिन में ज़्यादा काम कर लिया, तो आज हम सत्र में थोड़े ही आएँगे।

कमज़ोर हैं बेचारे, तिनके बराबर हैं। इतने कमजोर हैं कि दिन में कहीं इधर‑उधर चले गए थे, तो आज सत्र को मिस कर रहे हैं। एक दिन यहाँ एक सफेद बाल दिखाई देगा, और वो मौत की पहली आहट है। जवानी, जिसको बचा रहे हो, क्या वो बच सकती है? उसे रुई के फाहे में रखो, लगातार बिस्तर पर भी पड़े रहो, तो क्या वो बच जाएगी? जब बच सकती ही नहीं, तो उसकी आहुति दे दो। यूथ इज़ ए पेरिशेबल गुड। और जो पेरिशेबल चीज़ें होती हैं, उनको अलमारी में नहीं रखा जाता। उनका इस्तेमाल किया जाता है, वो भी जल्दी से जल्दी।

पेरिशेबल, समझते हो क्या? नष्ट-प्राय, जो चीज़ खत्म हो सकती है। जो भी तुम समझते हो, ज़िंदगी में कि तुम्हारी उपलब्धि है, तुम्हारा ज्ञान है, कईयों को अपने ऊपर बड़ा भरोसा होता है। फलानी चीज़ तो हम जानते ही हैं, इतना ही पूछ लेना, जो कुछ भी तुम जानते हो, उसने तुम्हें आग दी है क्या? जो कुछ भी तुम जानते हो, उसने तुम्हें मोहब्बत दी है क्या? अगर नहीं दी है, न आग है, न मोहब्बत है, तो तुम कुछ नहीं जानते हो। फालतू मत फूलो।

और आम आदमी की ज़िंदगी में और कुछ हो भले ही, ये दो चीज़ें होती हैं जो बिल्कुल नहीं होती — एक आग, एक आशिक़ी। और इन्हीं दोनों की कमी सबसे बड़ा प्रमाण है ज्ञान की कमी का। जिसके पास ज्ञान नहीं है, उसके पास प्रेम कैसे होगा?

प्रेम तो करा जाता है न अपने से ऊँचे वाले से, और अपने से ऊँचे वाले से प्रेम तभी कर सकते हो, जब ऊँचा उठने की ख्वाहिश हो। और ऊँचा उठने की इच्छा तभी हो सकती है, जब पहले अपने निचलेपन का एहसास हो, और अपने निचलेपन के एहसास को ही आत्मज्ञान कहते हैं। प्रेम कहाँ से आएगा बिना ज्ञान के? जिसे अपने ओछेपन का पता नहीं, उसे ऊँचाई से प्रेम कैसे होगा? ज्ञान के बिना प्रेम कहाँ से लाओगे? और ज्ञान जितना गहरा होता है, प्रेम की आग उतनी सघन होती है, तीव्र होती है।

अब मैं पूछूँ आपसे, दुनिया का सबसे गरीब आदमी कौन है?

श्रोता: जिसके पास आग नहीं है।

आचार्य प्रशांत: जिसके पास जीने के लिए कोई माकूल आग नहीं है। जिसकी ज़िंदगी जल नहीं रही, वो दुनिया का सबसे गरीब आदमी है। बुझी हुई मोमबत्ती है, प्रकाश ही तो धन है न, और प्रकाश तो मोमबत्ती से तभी आएगा जब वो जलेगी, जब आग होगी। पर आग का मतलब होता है कि मोमबत्ती मिटेगी, तो मोमबत्ती ख़ुद को बचाने के लिए बुझना पसंद कर लेती है। ये जो बुझी हुई मोमबत्तियाँ होती हैं, सबसे गरीब होती हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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