ज़िन्दगी ऐसी होनी ज़रूरी है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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ज़िन्दगी ऐसी होनी ज़रूरी है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, संयुक्त परिवार में रहने की वजह से जो भी चुनौतियाँ आयीं, उनका सामना घर के बड़े-बुजुर्गों ने ही किया। जीवन में बस एक बार चुनौती का सामना करने जैसा लगा, जब मैं सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था, वो भी एक अन्धी दौड़ जैसी ही थी। अब मुझे नौकरी मिल गयी है, पिछले तीन साल से नौकरी कर रहा हूँ। ऊपर–ऊपर से जीवन में सब ठीक चल रहा है, आर्थिक रूप से भी कोई समस्या नहीं है लेकिन जैसा आप कहते हैं कि हमारा सब ठीक ही सबसे गड़बड़ है, यदि जीवन में चुनौतियाँ नहीं हैं तो जीवन निखरता भी नहीं है, तो उस निखार की कमी नज़र आ रही है।

और आपने ऊॅंची संगति पर भी बहुत ज़ोर दिया है। और कल आपने कहा कि प्रेम के लिए पात्रता भी बहुत ज़रूरी है। तो पात्रता पहले आती है या फिर ऊॅंची संगति पहले है? मतलब पात्रता से ही ऊॅंची संगति मिलेगी या फिर ऊॅंचे लोगों के साथ, सन्तों के साथ रहकर ही पात्रता आएगी? कृपया बताएँ कि क्या पहले आता है?

आचार्य प्रशांत: जो पहली बात पूछी कि जीवन में सब ठीक–ठाक ही चल रहा है, बचपन से अभी तक बड़ों के सुरक्षा चक्र के भीतर रहे, संयुक्त परिवार था, अपने सिर पर बड़े–बूढों का हाथ था। और उसके बाद नौकरी वगैरह लग गयी है, जैसी एक सामान्य ढर्राबद्ध ज़िन्दगी चलती है, वैसा सब चल रहा है, तो मुझे ये बताइए कि हम कौन हैं, हम किसलिए हैं। हम कौन हैं, हम किसलिए हैं? बच्चा पैदा होता है, बड़ा होता है, पचास-साठ साल या अस्सी-नब्बे साल जीता है और मर जाता है। ये जो बीच के कुछ दशक होते हैं, पॉंच, सात, नौ, इनको हम जीवन बोलते हैं।

‘ये जीवन किसलिए है?’, इसका जवाब मिलेगा तभी तो ये तय होगा न कि जियें कैसे और क्या करना आवश्यक है। अगर जीवन का कोई उद्देश्य नहीं — जैसा कि बहुत लोग बोलते हैं, ‘कोई उद्देश्य नहीं, बस जियो’ — तो फिर तो किसी भी पल में कुछ भी करना उचित होगा, कोई उद्देश्य ही नहीं। लेकिन अगर अभी मैं कहूँ कि हम किसी भी पल कुछ भी करें, कोई अन्तर नहीं पड़ता तो ये बात आपको तत्काल साफ़–साफ़ ग़लत दिख जाएगी क्योंकि अन्तर पड़ता है। दुख मिलता है, पीड़ा मिलती है, चोट और दुष्परिणाम मिलते हैं।

तो एक बात तो साफ़ है कि कोई भी कर्म नहीं करा जा सकता, सार्थक कर्म तो चुनना ही पड़ेगा न। यदि कुछ भी करा जा सकता और कुछ भी करने से कोई फ़र्क ही न पड़ता होता तो आदमी जाकर खाई में कूद जाए, खौलता पानी पी जाए, पेड़ पर चढ़ जाए। क्या करेगा शिक्षा का? क्या करेगा सभ्यता का , संस्कृति का , ज्ञान का? ये सब बातें हमें बताती हैं कि जीवन निरर्थक नहीं हो सकता, अर्थ है उसका। और उसी अर्थ को सिद्ध करने के लिए हमें काम के चयन में बड़ी सावधानी बरतनी होगी।

काम संयोग नहीं हो सकता, रैंडम (आकस्मिक) नहीं हो सकता। काम ऐसी चीज़ नहीं हो सकती कि जिधर रास्ता मिला उधर को ही चल दिये। जैसे चूहा, जहाँ छेद मिला, वहीं घुस गया कि यही है बिल मेरा। काम ऐसी चीज़ नहीं हो सकती कि देखो-देखो कहाँ वैकेंसी (भर्ती) निकली है, देखो-देखो कौन से सेक्टर (क्षेत्र) में अभी ऑपर्चुनिटीज़ (अवसर) हैं और वहाँ आवेदन कर दो कि मिल जाए नौकरी। या ये देखो कि कौनसा फील्ड (क्षेत्र) अभी हॉट (ऊपर) चल रहा है और उसी फ़ील्ड का कुछ डिग्री-डिप्लोमा वगैरह कर लो। लेकिन हम तो काम का चयन ऐसे ही करते हैं।

सन् दो हज़ार से लेकर दो हज़ार बारह-चौदह तक देशभर में इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाढ़ सी आ गयी। सैंकड़ों नहीं, हज़ारों की संख्या में खुले और उनमें अगर पॉंच सौ सीटें होती थीं तो उसमें से साढ़े-तीन-सौ, चार-सौ सीटें होती थीं कम्प्यूटर साइंस , आईटी की। कई लोग मुस्कुरा रहे हैं, यहाँ बैठे हुए हैं कम्प्यूटर साइंस ग्रैजुएट्स (स्नातक) उसी समय के। और उनमें प्रवेश लेने वाले छात्र बड़ी हार्दिकता के साथ दिल पर हाथ रखकर बोलते थे, ‘मेरा तो जन्म ही कोड लिखने के लिए हुआ था।‘ (श्रोतागण हँसते हैं) सब में पैशन (जूनून) आ गया था, ‘मैं भी सॉफ्टवेयर लिखूँगा।‘

और फिर पिछले पॉंच-सात सालों में काफ़ी चीज़ें ध्वस्त हो गयीं, उनकी सीटें खाली जाने लगीं, यहाँ तक कि आईसीटीई (इनफार्मेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी इन एजुकेशन) ने कह दिया कि नये कॉलेज अब खुल ही नहीं सकते, पुरानों की ही सीटें नहीं भर रही हैं। ये क्या हुआ, पैशन कहाँ गया? भारत का दिल, भारत के जवानों का दिल, अचानक ही सॉफ्टवेयर से उठ गया? और पिछले कुछ महीनों से, एक-डेढ़ साल से फिर से बूम (उछाल) आ रहा है तो फिर से भरेंगी सीटें। हम ऐसे जीते हैं और हम इस बात को बहुत सामान्य समझते हैं। हम कहते हैं, ‘भाई! जहाँ ऑपर्चुनिटी (अवसर) होगी वहीं तो जाएगा न आदमी।‘

ये जानवरों का काम है, ये बन्दर का काम है, जहाँ फल दिखेगा, उसी पेड़ पर बैठ जाएगा। ये कौवे का काम है, जहाँ कहीं कुछ चुगने को मिला, वहीं जाकर चोंच डाल देगा। ये इंसान का काम नहीं है। फ़र्क ये है कि पशु रोटी के लिए ही पैदा होता है, उसके पास और कोई उद्देश्य है नहीं, प्रमाण ये कि उसे कोई दुख नहीं होता जीवन में अगर वो निरुद्देश्य जीता जाए। पर मनुष्य निरुद्देश्य जीता है तो बहुत तड़पता है लेकिन हमने मनुष्य जीवन को भी पशु समान बना दिया है। पशु के पास जीवन में दो ही काम होते हैं और दोनों काम उसे प्रकृति ने सौंपे हैं — पहला खाना और दूसरा प्रजनन करना। आप किसी बन्दर को देखें तो वो लगातार इधर-से-उधर कूद-फॉंद कर रहा होता है, उसकी गति, चंचलता रुकती ही नहीं। आपको मुश्किल होगा ऐसा बन्दर खोजना जो पाँच मिनट एक जगह बैठा हो। दो ही चीज़ें चाहिए उसको, फल, केला, पत्ती या फिर बन्दरिया। या तो फल चाहिए नहीं तो बन्दरिया चाहिए।

और आप देखिए कि हम जिसको साधारणतया सुखी जीवन कहते हैं, सामान्य गुड लाइफ़ (अच्छी जिन्दगी) कहते हैं, उसमें क्या इन दोनों के अलावा कुछ और होता है। जब आप किसी को कहते हैं, ‘भाई! उसकी तो निकल पड़ी, बन्दे की गाड़ी पटरी पर है।‘ कहते हैं न ऐसे? तो आप तभी कहते हैं जब उसके जीवन में ये दो चीज़ें आ चुकी होती हैं। चूँकि अभी प्रश्न एक पुरूष ने पूछा है इसलिए मैं पुरूष के नज़रिये से उत्तर दे रहा हूँ। उस पुरूष के पास अगर फल हो, फल माने अच्छा पैसा जिससे वो बढ़िया खाता-पीता हो। खाना-पीना माने वही नहीं जो आप मुँह से खाते-पीते हैं, आप हर तरह का सब इन्द्रियों से जो भोग करते हैं, वो फल है। जिस भी चीज़ का भोग किया जाए, वो फल है। बन्दर सिर्फ़ मुँह से भोग कर सकता है, इंसान अपनी सब इन्द्रियों से भोग करता है। तो आप कहते हैं, ‘बन्दे की गाड़ी निकल पड़ी’, पहला, जब उसके पास फल होता है और दूसरा, जब उसके पास बन्दरिया होती है। इसी को तो हम कहते हैं न, ‘देखो कितना मस्त जी रहा है भाई!’

वो मस्त नहीं जी रहा है, वो बन्दर जैसा जी रहा है। उसके जीवन में कुछ और नहीं है, इन दो चीज़ों के अलावा। और ये दोनों चीज़ें भी मूलतः एक हैं क्योंकि वो फल को भी भोगता है और बन्दरिया को भी भोगता है। ये जीवन की पूरी व्यर्थता है। आप बन्दर नहीं हैं, आप केले और बन्दरिया के लिए पैदा नहीं हुए हैं। और अगर महिलाओं को सम्बोधित करूँ तो आप केले और बन्दर के लिए पैदा नहीं हुई हैं। ये बात समझ में क्यों नहीं आती हमको? इसलिए समझ में नहीं आती क्योंकि हमारे पास स्पष्टता नहीं है और जब स्पष्टता नहीं होती तो हम सुनी-सुनायी पर चलते हैं। फिर हम बहुमत के साथ, भीड़ के साथ चलते हैं। फिर हमारे कानों में हर तरफ़ से जो आवाज़ें पड़ रही होती हैं, हम उन आवाज़ों के निर्देश पर चलते हैं। हमें बता दिया जाता है कि देखो तुम बहुत सम्माननीय हो गये, तुम बहुत सफल हो गये अगर तुम्हारे पास इस तरह की नौकरी है। हम मान लेते हैं क्योंकि आत्मिक दृष्टि नहीं है हमारे पास। अपनी निजी साफ़ आँख नहीं है हमारे पास जो देख पाये, पूछ पाये कि मैं कैसे बढ़िया आदमी, ऊँचा आदमी, सफल मनुष्य हो गया अगर मेरे पास इतना पैसा है तो? कैसे? कैसे? कोई सम्बन्ध तो बताओ। एक्स और वाई को समतुल्य रख रहे हो, उनमें आइडेन्टिटी (नियम) बिठा रहे हो, एक्स इक्वल्स वाई (एक्स बराबर वाई), कैसे?

सरकारी नौकरी लग गयी, बिजली विभाग में हैं, इरीगेशन (सिंचाई) विभाग में हैं, बधाइयाँ आ रही हैं चारों ओर से, तुम बधाइयाँ स्वीकार कैसे कर ले रहे हो, क्या मिल रहा है तुम्हें वहाँ? कुतर्क मत करने लग जाना कि ऐसे तो फिर, अगर कोई बिजली विभाग में काम नहीं करेगा तो आचार्य जी, आपका माइक कैसे चलेगा। आते हैं लोग, ‘आचार्य जी, अगर कोई इरीगेशन डिपार्टमेंट (सिंचाई विभाग) में नहीं होगा तो फसलें कैसे उगेंगी?’ वाकई? अपनी बात करो, तुम्हारा पैशन है फसलें उगाना? तुम वहाँ इसलिए गये हो? जिसको जाना हो जाये, तुम अपनी बताओ, तुम किसलिए गये हो? ‘आचार्य जी, दुनिया में इतनी इंडस्ट्रीज़ (उद्योग) हैं, एक-से-एक घटिया इंडस्ट्रीज़ हैं पर उन्हें चलाने वाला कोई तो चाहिए न, नहीं तो लोग बेरोज़गार हो जाऍंगे।’ वाकई तुम जन कल्याण के लिये गये हो, अपना घटिया काम करने? अपनी बताओ।

जीवन कुछ नहीं है आपके कर्मों के अतिरिक्त। और मनुष्य जो कर्म निरन्तर करता है, सबसे लम्बे समय तक करता है, वो तो उसकी आजीविका का ही कर्म है। आप नहीं कह सकते कि आप यूँही कुछ भी कर रहे हैं, हफ़्ते में पाँच दिन या छः दिन सुबह से शाम तक, देर रात तक और आप आध्यात्मिक हैं। नहीं, एकदम नहीं। ये कौनसा अध्यात्म है जो आपके कर्मों को बदल ही नहीं रहा? छः-आठ घंटे तो आप सोते होंगे, दो-तीन घंटे खाने-पीने, नित्य क्रियाओं के लिए हटाइए, दस घंटे तो ऐसे ही निकल गये जीवन के। बाक़ी बचे दिन के चौदह घंटे; चौदह घंटे में से आठ-दस घंटे आप दफ़्तर, ऑफ़िस (दफ़्तर) में होते हैं और दो घंटा आप लगाते हैं आने-जाने में, कम्यूटिंग (आने-जाने) में। माने ले-देकर के सोने के अलावा आप अपना अस्सी से नब्बे प्रतिशत समय अपने काम को ही देते हैं, ठीक? उसमें अभी ये भी जोड़िए कि कम्यूटिंग से पहले तैयारी भी तो करते हैं, भाई, जाना है तो तैयार-वैयार भी तो होंगे! और बहुत लोग तो काम घर लेकर भी आते हैं, हो सकता है, फ़ाइल घर लेकर न आयें पर दिमाग में तनाव तो लेकर आते हैं।

सोते समय किसी को ये तकलीफ़ बचती नहीं। अपनी जागृत अवस्था में आप सत्तर, अस्सी, नब्बे प्रतिशत समय अपने काम को दे रहे होंगे। कुछ भी करेंगे और फिर कहेंगे कि जीवन इधर को जा रहा है, उधर को जा रहा है, किधर को जा रहा है। उसमें सबसे बड़ी जो ख़तरे की बात है कि सब ठीक चलने लगेगा, सब अच्छा चलने लगेगा। कोई दिक्क़त लगेगी ही नहीं, लगेगा ही नहीं कि कुछ ग़लत हो रहा है। बँधी–बॅंधायी तनख़्वाह आने लगेगी, प्राइवेट में हैं अगर, तो बीच-बीच में जॉब हॉपिंग (नौकरी बदलना) भी करने लगेंगे, एक के बाद एक नये अवसर आते जाऍंगे, कुछ लगेगा ही नहीं कि ठीक नहीं है। इसी तरह से विवाह वगैरह कर लेंगे, वहाँ भी एक के बाद एक चीज़ें आती जाती हैं। नौकरी आपको व्यस्त रख लेगी, गृहस्थी आपको व्यस्त रख लेगी, जीवन बीत जाएगा! (व्यंग्य में हँसकर) बुराई कुछ नहीं है, पता ही नहीं चला कि बर्बाद हुए तो बुराई कैसी! बुराई तो इस शिविर में है, यहाँ आकर पता चलता है कि बर्बाद हुए। नहीं तो अपनी साधारण ज़िन्दगी जियें, वहाँ कोई बोलने ही नहीं आएगा कि ये कर क्या रहे हो, रोज़ तीन-सौ-पैंसठ दिन सुबह-से-शाम तक ये कर क्या रहे हो, कोई बोलने नहीं आएगा।

मैं स्कूल में ही था, एक आंटी (चाची) हुआ करती थीं। तो मैं उनकी दिनचर्या देखता था, मैं ये भी देखता था कि उनको तकलीफ़ें बहुत हैं। वो मेरे घर आकर के बताया करती थीं लोगों को। एक दिन मैं उनके यहाँ था तो मैंने कहा, ‘आप ऐसी ही ज़िन्दगी रोज़ जीती रहती हैं, आपको देश का, दुनिया का, जहान का कुछ पता नहीं है, आपने ज़िन्दगी में कभी एक रुपया कमाया नहीं, आपको कभी इसकी सुननी पड़ती है, कभी उसकी सुननी पड़ती है लेकिन बीच-बीच में आपको सुख भी मिल जाते हैं तो आप सारे दुख भूल जाती हैं।‘ और बात गहराई की ओर जा रही थी, मुझे लगा कि वो क्षण आ रहा है, जब अचानक इनके भीतर कुछ टूटेगा, अचानक रोशनी कौंधेगी और तभी कुछ गन्ध सी आयी, वो बोलीं, ‘अरे! रसोई में दूध उबल गया है’ और तेज़ी से मुड़कर रसोई की ओर भाग गयीं। वो जबतक लौटकर आतीं, मैं वहाँ से वापस आ गया। कोई बताने नहीं आएगा आपको कि आपके साथ रोज़-रोज़ कुछ बहुत भयानक हो रहा है, मौत सा भयानक। और अगर कोई बताने आएगा भी तो रसोई में दूध उबल जाएगा, आपको भागना पड़ेगा। मैं जो आपसे बात कह रहा हूँ, वो सुनने में कठिन है, जीने में भी शायद कठिन है लेकिन जीने लायक है। उसमें जो भी तकलीफ़ें आएँ, उन्हें स्वीकार करना चाहिए, निर्विकल्प हो जाना चाहिए। कहना चाहिए ‘जब सही ही जीना है तो शिकायत क्या करनी है? आ रही हैं तकलीफ़ें तो आ रही हैं, जीना तो ऐसे ही है न? दूसरे रास्ते नहीं चाहिए।‘

मैंने जो रसोई और दूध वाला भी उदाहरण दिया, मैं अच्छे से जानता हूँ, आपमें से कई लोग सोच रहे होंगे, ‘पर वो क्या करतीं महिला, अगर दूध उबलने और जलने की गन्ध आ रही है तो वो चली गयीं रसोई में, उन्होंने बर्नर (चूल्हे) से दूध उतार दिया होगा।‘ आप नहीं समझ रहे हैं बात को, आपकी ज़िन्दगी में कुछ ऐसा होना चाहिए कि अगर दूध उबल रहा हो तो उबलने दें, जल रहा हो तो जल जाने दें। हमारे पास नहीं होता इसीलिए हमारी यही वरीयताएँ फिर हो जाती हैं ज़िन्दगी में। हम बहुत परेशान रहते हैं पर किन बातों पर? आज दूध नहीं आया, लौंड्री (धुलाई घर) में कपड़े देने हैं, अमेज़न पर ऑर्डर किया था, वो ग़लत चीज़ ले आया है, रिप्लेस (बदली) करानी है। यही चीज़ें आपके लिए बहुत बड़ी बन जाऍंगी, जैसे बन्दर के लिए फल बहुत बड़ी चीज़ बन जाता है।

ये चेतना की एक स्थिति है जो हमें मिलनी ही चाहिए, जिसमें हम कहते हैं, ‘जल जाए दूध, छूट जाए फल, कुछ और है जो बहुत ज़रूरी है, नहीं करते परवाह!‘ और मैं कितना भी बोल लूँ, मैं चेतना की उस स्थिति को अचानक आप तक नहीं ला सकता क्योंकि वो चीज़ जीने की है, जो जीता है वो जानता है। जो नहीं जी रहा है, उसको बार-बार ये लगेगा, ‘पर दूध जल रहा है तो उतारना तो चाहिये न? दूध उतारने के बाद भी तो बात हो सकती थी?’ नहीं हो सकती थी, मैं वापस लौट आया। हम जिस व्यवस्था में जी रहे हैं, शैक्षणिक और आर्थिक, वो आपको नहीं बताने आऍंगे कि आप अच्छे कपड़े पहनने और अच्छे घर में रहने भर के लिए पैदा नहीं हुए हैं। कोई नहीं बोलेगा आपको।

इसीलिए पूरी कोशिश करी जाती है, भोगवादियों द्वारा, पूँजीवादियों द्वारा, अध्यात्म को दबाने की क्योंकि अध्यात्म भोगवाद, कंज़्यूमरिज़्म (भोगवाद) की जड़ें खोद देता है। कंज़्यूमरिज़्म कहता है, ‘तुम पैदा हुए हो हैप्पी (खुश) होने के लिए और तुम हैप्पी हो जाओगे, कंज़्यूम कर-कर के। बस सीधी सी बात, इतनी सी बात है कुल। हैप्पीनेस इज़ द परपज़ ऑफ़ लाइफ़, हैप्पीनेस इज़ अटेंड थ्रू कंज़म्पशन। (खुश रहना ही जीवन का लक्ष्य है और खुशी भोग करने से मिलती है)’ ये कुल दर्शन है आज के जगत का और ये बहुत बेहूदा, बेढंगा, बन्दरनुमा और घातक दर्शन है। ये इंसान को पाताल में डालने का दर्शन है। हम सब इसी दर्शन के अनुयायी हैं, हमें हैप्पीनेस चाहिए। और आपका दिल धक्क से रह जाएगा, आप यहाँ ऋषिकेश में जो बुक्स स्टोर्स (किताबों की दुकानें) हैं, वहाँ जाइए, वहाँ आध्यात्मिक किताबें भी आपको ऐसे ही टाइटल्स (शीर्षक) की मिल जाऍंगी जो आपको वादा कर रहे होंगे हैप्पीनेस देने का ।

ज़िन्दगी किसलिए है, त्वरित सुख के लिए, इंस्टेंट हैप्पीनेस के लिए। वो कैसे मिलेगी, भोग से, कन्ज़म्पशन से। किस चीज़ का भोग करना है, फल का और बन्दरिया का। तो कुल ज़िन्दगी यही करते रहना है। और अपनेआप को भी समझाना है कि मैं तो बड़ा सफल हूँ, मैं तो बड़ा सुखी हूँ। देखो मुझे! मेरा केला कितना बड़ा है, पूरा गुच्छा है मेरे पास, एक दर्जन और मेरी बन्दरिया कितनी चमक रही है। अध्यात्म आपसे कहता है, ‘सवाल पूछो, इतनी जल्दी मान मत लो। पूछो तो सही कि क्या ये बात सही है।’

देखिए अब तीसरी लहर (कोविड) के आने की आशंका है। फरवरी-मार्च तक हो सकता है कि हमें फिर वही मई-जून वाले दृश्य देखने पड़ें। आशा यही है कि वैसा कुछ नहीं होगा, पर वैसा हो भी सकता है। कैसा लगेगा अपनी आख़िरी सॉंसों में ये याद करते हुए कि जीवनभर क्या किया, ब्रांडेड कपड़े पहने, ऊँचे ब्रांड्स वाले, जो साकेत (दिल्ली) की, गुडगाँव की मॉल में मिलते हैं, ये ज़िन्दगी का कुल निष्कर्ष (रहा)। फिर राख हो गये, मिट्टी हो गये। सही चुनौती भरा काम करेंगे, जीवन चमकेगा, आँखें चमकेंगी, आपके चेहरे पर ही एक अलग बात रहेगी। और बन्दर जैसा काम पकड़ लिया जिसमें सुरक्षा भरपूर है, बॅंधा-बॅंधाया पैसा मिल रहा है, करना-धरना ज़्यादा कुछ होता नहीं, बेईमानी का भी भरपूर मौका रहता है, ऐसा कोई काम पकड़ लिया, जेब आबाद होती जाएगी, जीवन बर्बाद होता जाएगा।

मैं पैसे के ख़िलाफ़ नहीं हूँ , इतना डरकर मेरी ओर मत देखिए, मैं भोग के भी ख़िलाफ़ नहीं हूँ। ऐसे भोगो न जैसे अर्जुन अपने गांडीव को, अपने तीरों को भोगते हैं। वो भी उस समय का स्टेट ऑफ़ द आर्ट इक्विपमेंट (आधुनिकतम हथियार) था, कि नहीं था? उस समय की ऊँची-से-ऊँची टेक्नॉलॉजी (तकनीक) वही थी। उनके पास भी ब्लीडिंग एज टेक्नोलॉजी (उच्च स्तर की तकनीक) की चीज़ें थीं, पर किसलिए? किसलिए? उस समय के जो सबसे उत्कृष्ट शस्त्रकार रहे होंगे, लोहार रहे होंगे , मेटलर्जिस्ट्स (धातु शोधन करने वाले) रहे होंगे, उन्होंने अर्जुन के आयुधों का निर्माण किया होगा। किया होगा न? आसान तो नहीं होता एक अच्छा तीर बनाना। महॅंगा भी आता होगा या नहीं आता होगा? आज भी आपको पता है न डिफ़ेन्स इक्विपमेंट (रक्षा उपकरण) कितना महॅंगा आता है। तो प्रयोग वो भी कर रहे हैं पर किसलिए? आपके पास एक महॅंगा मोबाइल हो, ठीक है; किसलिए? अर्जुन के पास महॅंगे ती‌र हैं, महॅंगा धनुष है, किसलिए? वो उससे क्या करते हैं? वो अधर्म का नाश करते हैं, ठीक। महॅंगा रथ भी है, वो उस समय का समझ लीजिए सबसे विकसित टैंक था, बहुत महॅंगा आता है, अर्जुन का रथ बहुत महॅंगा रहा होगा।

आपके पास बहुत महॅंगा मोबाइल है, किसलिए? मुझे बताइए। महॅंगे मोबाइल के होने में अपनेआप में कोई दिक्क़त नहीं है, पर किसलिए? क्या करते हो उसपर? करते क्या हो? अर्जुन क्या करते हैं अपने तीरों का, तुम क्या करते हो अपने मोबाइल का? बताओ तो। एक-से-एक फ़िजूल बातें, एक-से-एक ज़लील हरकतें, जीवन को व्यर्थ करने वाले सारे काम मोबाइल पर करते हो और उस डेढ़ लाख के मोबाइल को खरीदने के लिए ज़िन्दगी बेच दी, घूस भी खा ली, सारे पतित काम कर डाले ताकि एक डेढ़ लाख का मोबाइल आए जिसपर फिर तुम बेहूदा बातें करो। और अपने बच्चों को लाख-लाख, दो-दो लाख के ये जो आजकल नये-नये गेम्स आते हैं, ये दिलवा सको; शायद और महॅंगे भी आते हैं। कोई ऊँचा लक्ष्य हो जीवन में, उसकी खातिर पैसे कमाओ, बहुत अच्छी बात है।

पैसा तो संसाधन है। उस संसाधन के लिए, हमने कहा, दिन का सत्तर, अस्सी, नब्बे प्रतिशत समय लगाते हैं हम। उतना समय लगाकर के जो चीज़ हाथ में आयी, ये तो बताओ, उसका करते क्या हो? कुछ नहीं है करने को, बस उसको रखना है, उड़ाना है, जलाना है और ख़ुद को बताना है कि हम तो सफल हैं। हमारी नौकरियाँ बहुत महॅंगी नौकरियाँ होती हैं। वो जो आपको तनख़्वाह मिलती है न या आप जो भी व्यवसाय, धन्धा करते हैं, उससे आपको जो मुनाफ़ा मिलता है न, उसके लिए आपने अपनी ज़िन्दगी जला दी।

समय ही तो जीवन है न, समय दिया है आपने और जीवन ही दिया है, आपका जीवन इतना सस्ता था? महीने के पचास हज़ार रूपये, एक लाख रुपये, दो लाख रुपये, जो भी, बहुत बड़े आप व्यवसायी हैं चलिए, बीस लाख रुपये। बीस लाख, चालीस लाख भी है तो आपके जीवन की क़ीमत इतनी ही है? इतना कोई आपको दे दे तो आप कहेंगे, ‘ठीक है, अब मुझे मार डालो क्योंकि यही तो मेरे जीवन की क़ीमत है’? आप बेच देंगे जीवन को?

दुख कम ख़तरनाक होता है — अब ये निष्कर्ष के तौर पर बोल रहा हूँ — दुख हो, समस्याऍं हों, चुनौतियॉं हों, ये कम ख़तरनाक और छोटी समस्या है, कहीं ज़्यादा ख़तरनाक चीज़ है सुख और जीवन का सामान्य चलना, गाड़ी का पटरी पर चलना। अगर आपकी गाड़ी पटरी पर चल रही है तो नर्क की ओर ही जा रही है। दुर्घटना बहुत ज़रूरी है, दुर्घटना ही शुभ है। गाड़ी का पटरी से उतरना आवश्यक है। आप चढ़ गये हैं गाड़ी में बिना ये देखे कि उसकी मंज़िल क्या है। मैं कह रहा हूँ, नर्क है उसकी मंज़िल, जीता-जागता नर्क, मरने के बाद वाला नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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