ज़िंदा रखो, ताकि खून पी सको || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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ज़िंदा रखो, ताकि खून पी सको || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जो सस्टेनेबल डेवलपमेंट (सतत विकास) की जो आज के टाइम में हमको फिलोसॉफी (दर्शन) पढ़ाई जा रही है, जो सब्जेक्ट पढ़ाया जा रहा है कि एक प्रिंसिपल (सिद्धान्त) है, ये मैं जब एक समुद्र के बारे में डॉक्यूमेंटरी (वृत्तचित्र) देख रहा था, तो उसमें उन्होंने वो सस्टेनेबल डेवलपमेंट को कैसे डिफाइन (परिभाषित करना) कर रहे हैं। वो चीज़ थी कि एक समुद्र है, तो इसमें मान लीजिए सौ मछलियाँ रहती हैं। इकॉनमी (अर्थव्यवस्था) के टर्म्स में उसको समझा रहे थे। तो इस पर जो इंट्रस्ट है आप उसको कंज्यूम (उपभोग) करते रहिए तो वो बना रहेगा। उतनी मछलियाँ बनी रहेंगी और एक्ट्रा पैदा होती रहेंगी, ये चीज़ है। तो एक तो ये कि क्या मतलब सस्टेनेबल डेवलपमेंट , क्या डेवलपमेंट का वे फॉर्वर्ड (आगे बढ़ने का रास्ता) क्या होगा?

आचार्य: बिलकुल गलत है ये बात, एकदम ही गलत है। क्योंकि इसके मूल में है तो भक्षणवृत्ति ही। हमारे लिए सस्टेनेबल डेवलपमेंट ऐसा है कि खाओ ज़रूर, पर इस तरह से खाओ कि लम्बे समय तक खा सको। नाम ही है सस्टेनेबल। सस्टेनेबिलिटी का यही मतलब होता है कि खाओ पर इस तरीके से खाओ कि लम्बे समय तक खा सको।

हमें ये समझ में ही नहीं आ रहा है। बैठिये (प्रश्नकर्ता से)। कि प्रकृति के साथ सही रिश्ता क्या होता है? कि खाने-पीने, नोचने-खसोटने के अलावा भी संसार से, प्रकृति से, कोई रिश्ता बनाया जा सकता है। शोषण की, भक्षण की, अपनी वृत्ति हम छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अधिक-से-अधिक इतना कह देते हैं कि अरे! देखो अगर ज़्यादा नोच-खसोट कर ली तो कल खाने को नहीं मिलेगा।

ये वैसी ही बात है जैसे कि हरियाणा सरकार या पता नहीं और एकाध दो सरकारें हैं। वो जब भ्रूणहत्या आदि के विरोध में कैंपेन (अभियान) चलाते हैं तो वो लिखते हैं कि अगर लड़कियाँ मार दीं तो तुम्हारे लड़के को बहु कहाँ से मिलेगी। माने वो बच्ची इसलिए नहीं मारनी है ताकि कल तुम उसको भोग सको। अगर तुमने सब लड़कियाँ मार दीं तो तुम्हें पत्नी नहीं मिलेगी। पत्नी नहीं मिलेगी तो भोगोगे किसको।

समझ में आ रही है बात? जैसे कसाई अपने बकरे की दवाई कराए, ये तो अभी छोटा है। ये अगर अभी मर गया तो इसका माँस, इसका वजन कैसे बढ़ेगा। वजन नहीं बढ़ा तो मुनाफ़ा कैसे होगा मुझे। तो तुम बकरे को बचा भी रहे हो तो अपने मुनाफ़े के लिए कल काटूँगा। हमें ये समझ में ही नहीं आता कि कोई और रिश्ता हो सकता है दुनिया से। क्योंकि हमें ये समझ में नहीं आता कि हम जैसे हैं, वो हमारी सच्चाई है ही नहीं।

हमने अपनी पाशविकता को ही अपनी सच्चाई मान लिया है। गधा क्या करता है दिनभर चरता है। उसे मौका दे दो तो और गधी मिल जाए तो उस पर चढ़ बैठता है, मौका दे दो तो। इसी गधावृत्ति को हमने अपनी सच्चाई मान लिया है कि जीवन है ही बस इन्हीं दो कामों के लिए खाओ और भोगो, खाओ-भोगो। हाँ, साथ-ही-साथ हमारी प्रजाति को बुद्धि का प्राकृतिक उपहार मिला हुआ है। तो भोगवृत्ति पर हमने बुद्धि की धार चढ़ा दी है। भोगवृत्ति और उसको हथियार दे दिया है हमने बुद्धि का। तो अब हम और ज़बरदस्त तरीके से भोगते हैं।

जानवर बेचारे को तो रोज़ इधर-उधर निकलकर के तलाशना पड़ता है। जैसे बन्दर एक से दूसरे पेड़ पर कूदे कि फल कहाँ मिलेगा। हमने अपने भोगने के लिए फैक्ट्रियाँ ही तैयार कर दीं। कि लो आश्वस्थ रहो, यहाँ से आपूर्ति होगी आपको। जितना भोगना चाहते हो भोगो लेकिन रहो भीतर से बन्दर ही या गधे ही। जिसका क्या काम? भोगना। सारी बुद्धि लगा दो लेकिन भीतर से बन्दर ही रहो।

एक बार मैंने कहा था, गुरिल्ला को सूट-पैंट पहना दिया है, गुरिल्ला लैपटॉप पर काम कर रहा है टाई लगाकर के। सॉफ्टवेयर फर्म में आर्किटेक्ट है वो, कार बनाने वाली कंपनी में जनरल मैनेजर है। है क्या लेकिन? गोरिल्ला। पूरा गोरिल्ला है, ऊपर से उसने कोट डाल लिया है। ये इंसान है आज का। गोरिल्ला अंग्रेजी बोलता घूम रहा है इधर-उधर, वो भी एक्सेंट (लहज़ा) के साथ, जोय।

बुद्धि ने बता दिया गोरिल्ले को, बेटा ज़्यादा तू फल खाएगा, इतनी तू नोच-खसोट करेगा तो कल नहीं मिलेगा फल। जानवर तो इतना ही करता है कि आज की परवाह करता है। उस जानवर को जब बुद्धि आ गयीं है तो अब वो कल की भी परवाह कर रहा है। वो कह रहा है इस हिसाब से खाऊँगा कि आज भी मिले, कल भी मिले। बर्बादी आज भी करूँगा, कल भी करूँगा। कल की परवाह इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि मुझे दुनिया को बचाना है, कल की परवाह भी उतनी ही करूँगा जितने में मेरा काम चल जाए। ये सस्टेनेबल डेवलपमेंट है। हम बाहर बहुत कुछ बदलने को तैयार हैं, नया निर्माण करने को तैयार हैं, नया आविष्कार करने को तैयार हैं। भीतर के गोरिल्ले को बदलने में कोई रुची नहीं, भीतर तो गोरिल्ला ही रहेगा, जिद है।

विकसित देशों में कांसेप्ट (अवधारणा) चलता है ह्यूमियन्सस्लॉटर का, क्या गज़ब है! मानवीय हत्या। वो कहते हैं देखो अपने जानवरों की हत्या इस तरीके से करते हैं जैसे वो हमारी अपनी औलादें हों। जाड़ों में हम उन्हें ठंड नहीं लगने देते। भूचड़खाने टेम्प्रेचर कंट्रोल्ड (तापमान नियंत्रित) होते हैं और हत्या हम बिलकुल एक झटके में कर देते हैं उनकी, उनको पता ही नहीं चलता। हत्या करने से पहले हम उनको चूमते हैं। उनको हम हाई इमोशनल स्टेट (उच्च भावनात्मक स्थिति) में रखते हैं। क्यों? क्योंकि रिसर्च हुई है कि अगर जानवर को पता चल जाता है कि वो मरने जा रहा है तो डर और तनाव के कारण उसके शरीर में ज़हर, टोक्सिन सीक्रिड (विष स्राव) होते हैं।

और वो सब जब आप खाते हैं तो आपके भी पेट में जाते हैं। तो पश्चिम ने कहा अरे! अरे! अरे! जानवर को पता नहीं लगना चाहिए कि वो मरने जा रहा है बल्कि जब वो कटने जा रहा है उससे पहले उसको खुश करो, उसे चूमो, उसे प्यार करो इससे उसका माँस और टेंडर रहेगा, मुलायम। आई लवयू सो मच , आई लवयू सो मच , आई लवयू सो मच और बस धीरे से मार दो।

दो ही केन्द्र होते हैं, एक केन्द्र होता है जानवर का और एक केन्द्र होता है आत्मा का। बुद्धि का उपयोग आप दोनों ही केन्द्रों से कर सकते हैं। तो बुद्धि का आप बहुत उपयोग होता देख रहे हों, बहुत निर्माण होता देख रहे हों तथाकथित प्रगति, तरक्की देख रहे हों,जीडीपी इत्यादि में आप भारी उछाल देख रहे हों, इससे आप ये बिलकुल मत समझ लीजिएगा कि इंसान, इंसान हो गया। हम ज़बरदस्त जीडीपी वाले जानवर हैं। हम कटिंग एज टेक्नोलॉजी (अग्रणी तकनीक) वाले जानवर हैं। क्योंकि सिर्फ़ जानवर जीता है भोग के लिए, आत्मा भोग के लिए नहीं जीती। न वो भोक्ता होती है, न कर्ता होती है।

जानवर प्रेम नहीं कर सकता, करता भी है तो उसके प्रेम में बड़ी अपरिपक्वता होती है। उसका प्रेम आत्मा की गहराइयों तक नहीं पहुँच सकता। इसीलिए हमारे सब रिश्तों में एक प्रेमहीनता है। दो लोग जो कह रहे हों एक-दूसरे के लिए जान दे रहे हैं, गलों में बाहें डालकर के साथ-साथ चले जा रहे हों, लिपटे हुए हों, चूमा-चाटी कर रहे हों, वहाँ भी ये निश्चित समझ लीजिएगा कि प्रेम नहीं है। वहाँ भी नहीं है, कहीं नहीं है।

माँ अपने बच्चे को छाती से लगाए हुए है। बार-बार चूम रही है उसको, वहाँ भी ये निश्चित समझ लीजिएगा प्रेम बिलकुल नहीं है। क्योंकि पशु प्रेम नहीं कर सकता या जो हम प्रेम दिखा रहे हैं, वो है वैसा ही जैसा पशुओं का होता है। गाय और बछड़े का जैसा प्रेम होता है वैसा ही प्रेम मनुष्यों में भी माता और सन्तान का होता है। ममता होती है प्रेम नहीं होता। ममता गाय के पास भी है, प्रेम-करुणा ये तो सिर्फ़ आत्मा से उठ सकते हैं।

कल मैं इसीलिए जो बात कर रहा था न पूरी शिक्षा व्यवस्था की। पूरी व्यवस्था का केन्द्र ही गलत है, एकदम गलत है। ये सस्टेनेबल डेवलपमेंट जो है इकोनामिक्स (अर्थशास्त्र) में आता है और यही है उसकी मूल बात। ऐसे भोगों कि भोगते ही जाओ। बड़ा मज़ा आएगा। पेन लेस डेथ (दर्द रहित मौत) दे दो। ह्यूमेन्सस्लोटर कर दो और जब आप प्रकृति की रक्षा सिर्फ़ इसलिए करते हो ताकि आपकी रक्षा हो सके, तब आप प्रकृति की रक्षा सिर्फ़ तब तक करोगे जब तक उससे आपको लाभ हो रहा होगा। और उसी तरह से, उसी दिशा में, उसी कोण से करोगे जिससे आपको लाभ हो रहा हो।

उदाहरण के लिए, इस वक्त दुनिया में किन पशुओं की और पक्षियों की सबसे ज़्यादा तादाद है? जिन्हें आप खाते हैं। मुर्गे,बकरे,मछलियाँ जिन्हें हम कृत्रिम रूप से पैदा करते हैं, ये बहुत ज़्यादा हैं। और बाकि सब प्रजातियाँ एकदम सिकुड़ कर रह गयीं हैं और सिकुड़ती ही जा रही हैं, एकदम विलुप्ति की ओर जा रही हैं। तो आप कुतर्क तो ये भी कर सकते हैं कि देखो हमने मुर्गों पर एहसान करा है, उनकी संख्या इतनी बढ़ा दी। किन्हीं भी और पक्षियों से ज़्यादा आज मुर्गों की संख्या है दुनिया में। मुर्गे भाई हैं हमारे। मुर्गे ही मुर्गे हैं चारों तरफ़। तो ऐसे हैं हम।

अगर हम किसी की संख्या भी बढ़ा रहे हों तो सतर्क हो जाइएगा, ज़रूर हम उसका खून पीने वाले हैं। अगर हम किसी के साथ ऊपरी तौर पर कोई अच्छाई करता दिखें तो समझ लीजिएगा कि अब बस छुरा तैयार किया जा रहा है। सबसे ज़्यादा किन पशुओं की बीमारियों पर शोध हुआ है? आप जानते हैं बिलियंस डॉलर्स जाते हैं मुर्गों की बीमारियों पर रिसर्च करने में। इतना प्यारा है हमें मुर्गों से, बीमार नहीं पड़ने चाहिए। भाई है मेरा। यहाँ तक कि इंसानों की कई बीमारियाँ ऐसी हैं जिन पर बहुत कम रिसर्च हुई है, बहुत कम रिसर्च हुई है।

मुर्गों की बीमारियों पर ज़बरदस्त रिसर्च हुई है। गायों पर भी बहुत रिसर्च हुई है। भारी-भारी फण्ड्स जाते हैं मुर्गों, बकरों, गायों, सूअरों, इनकी भलाई करने के लिए। क्यों? बिकॉज़ आई लव चिकन (क्योंकि मुझे चिकन बहुत पसन्द है), आई लव माय वाइफ़ एंड आई लव चिकन (मैं अपनी पत्नी से प्यार करता हूँ और मुझे चिकन पसन्द है)। जानवर का प्यार ऐसा ही होता है। ये कोई हम भूलवश नहीं बोल देते, आई लव चिकन। वो हमने लव शब्द का बिलकुल सही इस्तेमाल किया है।

कोई आई लव यू (मुझे तुमसे प्यार है) बोले, तो वो बिलकुल यही बोल रहा है- आइ लव चिकन। बहुत जल्दी आपका माँस उसके मुँह में होगा। आई लव चिकन। ये सब बातें हम बहुत लम्बे समय तक कर सकते हैं। सौ बातों की एक बात, वहाँ जाइए जहाँ आत्मज्ञान है, जहाँ आपको पता तो चले, ‘आप हैं कौन?’। जब आपको पता चलेगा ‘आप कौन हैं?’ तब आपको पता चलेगा कि आपको वास्तव में चाहिए क्या। आपको जो चाहिए वो और ज़्यादा और ज़्यादा भोग से, असीमित कंजम्शन से नहीं मिलेगा। अंग्रेजी में इसको कहते हैं, बार्किंग ऑफ द रॉनगट्री।

आपको जो चीज़ चाहिए वो उस बाजार में नहीं मिलेगी जहाँ आप भटकते आये आज तक। आप गलत तरीका अख्तियार कर रहे हो। आप गलत दवाई ले रहे हो, आप अपना रोग ही नहीं पहचानते। और वो गलत दवाई जब काम नहीं करती तो आप ये नहीं मानते कि दवाई गलत थी, आप कहते हो डोज (खुराक) हल्की थी और दवाई लो न और दवाई लो न।

भीतर से ऐसा अनुभव हो रहा है पूरे हफ़्ते गलत काम किया है, गलत नौकरी करी है, गलत व्यवसाय करा है, गलत लोगों के बीच उठे-बैठे हैं। शुक्रवार शाम आते-आते ऐसा लग रहा है भीतर से जैसे सड़ी मछली गन्धा रही हो। अपने अस्तित्व से ही बदबू और घिन आ रही है। मूवी देखेंगे, डांस करेंगे, दारू पिएँगे, सेक्स करेंगे और ये सब कर लिया और अगली सुबह उठे, तो बदबू तो नहीं मिटी अब बदबू के साथ हैंगओवर (अत्यधिक नशा) भी था। तो निष्कर्ष ये नहीं निकाला कि कल रात जो कुछ करा था वो व्यर्थ गया, निष्कर्ष ये निकाला कि कल रात जो कुछ करा था वो कम करा था, आज और ज़्यादा करेंगे। ये क्या मूर्खता है।

हम सब भली-भाँति जानते हैं कि हमने जो चीज़ें आजमाई हैं अपनी भलाई के लिए, वो विफल रही हैं। लेकिन हम ये नहीं मानते कि हमारी दिशा ही गलत रही है। जिस केन्द्र से हम चले हैं वो केन्द्र ही गलत रहा है। हम ये मानते हैं कि अभी हमने काम ज़रा कम करा है, अभी और कमाऊँगा तो हो जाएगा। अभी और करूँगा तो हो जाएगा। देखो, हमारे गुरूजी भी तो बता गयें हैं, मोर एक्सपीरियंस विल लीड यू टू सॉल्वेशन (अधिक अनुभव तुम्हें मोक्ष की ओर ले जाएगा)। अभी अनुभव कम हैं। इन्हीं चीज़ों का मुझे और अनुभव लेने दो, बड़े ब्रांड की पीने दो। अभी मैंने पाँच देशों की यात्राएँ करी है, मुझे पचास देश घूमने दो, उससे हो जाएगा। अरे! पाँच में नहीं हुआ पचास में कैसे हो जाएगा?

अभी चीज़ें जरा कम हैं मेरे घर में। इसीलिए मुझे शान्ति नहीं मिलती, इसीलिए मैं अच्छा नहीं अनुभव करता। मुझे अपने घर को और चीज़ों से भर लेने दो। बारह-चौदह साल के थे, तब से विपरीत लिंगी के पीछे घूम रहे हो। घूमते हुए भी कई दशक बीत गये। लेकिन ये पीछा करना अभी भी नहीं छोड़ रहे, चिपकना अभी भी नही छोड़ रहे। क्यों? अभी कम किया है न, इसलिए चैन नहीं मिल रहा। अभी और ज़्यादा करूँगा तो चैन मिल जाएगा। कम किया है, हज़ारों बार तो कर चुके।

जो काम हज़ारों बार में नहीं हुआ वो दो हज़ार बार में हो जाएगा? हमारी हालत ऐसी है कि कोई जा रहा हो गलत रास्ते पर और उसको बताया जाए कि तुम गलत रास्ते पर हो, मंज़िल तुमसे बहुत दूर है तो व्यक्ति कहेगा, अच्छा मंज़िल बहुत दूर है, चलो गति बढ़ा देते हैं। और पूछिए भाई, तुमने गति क्यों बढ़ा दी? बोले, मुझे अभी-अभी बताया कि मंज़िल मुझसे बहुत दूर है तो सीधी सी बात है, जब मंज़िल दूर होती है तो क्या करते हैं? गति बढ़ा देते हैं। मैंने स्पीड बढ़ा दी क्योंकि मंज़िल बहुत दूर है। तो हम लगातार लगे रहते हैं गति बढ़ाने में। हर आदमी मेहनत करके अपनी गति बढ़ाने में लगा हुआ है। कोई दिशा बदलने को तैयार नहीं है। गलत रास्ते पर जा रहे हो और ज़्यादा तेजी से गाड़ी बढ़ाओगे तो सही मंज़िल पर पहुँच जाओगे क्या? पर हमारा पूरा खेल यही है और ज़्यादा और ज़्यादा। मोर एंड मोर, मोर एंड मोर ,

भोग की इच्छा नहीं कम करेंगे। हम कहते हैं ग्रीन टेक्नोलॉजी (हरित प्रौद्योगिकी) लेकर आएँगे। तुम ले आओ ग्रीन टेक्नोलॉजी। दस कारें थीं और हर कार दस यूनिट प्रदूषण करती थी। बड़ी बेकार कार थी, पुरानी कार थी, बहुत धुआँ मारती थी। दस कारें थीं और हर कार दस यूनिट प्रदूषण करती थी। तो हम लेकर आये बेहतर टेक्नोलॉजी बीएस ट्वेंटी फोर टेक्सला रेस्ट टू दी पॉवर टेक्सला और प्रति कार प्रदूषण हमने घटाकर कर दिया तीन यूनिट। और कारों की संख्या बढ़कर हो गयीं दो सौ। क्योंकि भाई, लाइफ़ में प्रोग्रेस सबको माँगता और जनतंत्र है। जनतंत्र का मतलब सब बराबर का भोक्ता, तू जितना भोगेगा, भाई को भी उतना ही भोगने का। ये एलिटिज्म (उत्कृष्टता) नहीं चलने का कि सिर्फ़ दस लोगों के पास कार है, सबके पास होने का। तो दस के पास थी अब है दो सौ के पास। लेकिन हम अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, हम ग्रीन टेक्नोलॉजी लेकर आये हैं। प्रति कार प्रदूषण कम करके हमने कर दिया, तीन यूनिट। कुल कितना हुआ?

श्रोता: छ: सौ यूनिट।

आचार्य: पहले कितना था?

श्रोता: सौ यूनिट।

आचार्य: ये हमारा सस्टेनेबल डेवलपमेंट है। एक मूर्खता पर जब पता चले कि कुछ गड़बड़ हो रही है तो और बड़ी मूर्खता करो। मूर्खता से बड़ी मूर्खता की ओर और बड़ी मूर्खता पर जब कर्मफल मिले तो फिर और बड़ी मूर्खता करो। मर्ज़ जितना बढ़ता जाए नई-नई दवाइयाँ निकालो और हर दवाई ऐसी निकालो जो मर्ज़ को और बढ़ा देती हो। बस जो मूल बीमारी है उसका सीधा-साधा इलाज नहीं कर सकते, वो सीधे-साधे इलाज को मैंने वेदान्त में पाया है। उधर नहीं आना है बाकि सबकुछ कर लेंगे। पहले नैनीताल जाते थे, फिर गोआ गये, फिर तरक्की करी तो मोरिशस गये, अब पेरिस जाते हैं, फिर मार्स जाएँगे।

बस नज़र मोड़कर के अपने मन की ओर नहीं देखेंगे। वहाँ कुछ ऐसा है क्या जो इतना घूमने-फिरने से चैन पा जाएगा? मन चंगा हो तो नैनीताल, गोआ, मोरिशस सब सुहाता है। लगी हुई है भीतर आग और कर रहे हैं स्कूबा डाइविंग। क्या मिलेगा? वो तो ऐसा ही होगा जैसे जलते हुए कोयले को लोहे के किसी गोले में बन्द करके समुद्र में डाल दो। बाहर-बाहर ठंडा और भीतर जो है वो तो जल ही रहा है, जलता ही रहेगा।

हाँ थोड़ी देर के लिए दावा करने का बहाना मिल जाएगा कि बड़ी शीतलता आ गयी। बाहर-बाहर ठंडे हो जाओगे। खुद को ही बुद्धू बना लोगे, बड़ा अच्छा लगा, बड़ा अच्छा लगा। अब साढ़े सात लाख खर्च करें हैं तो अच्छा तो लगेगा न, मजबूरी है खुद को बताना, बड़ा अच्छा लगा, बड़ा अच्छा लगा। नहीं तो क्या बोलोगे फ़िर कट गया, एक बार और।

घूमना-फिरना अपनेआप में बुरा नहीं, घूमने-फिरने वाला स्वस्थ होना चाहिए न। घूम-फिरकर के स्वस्थ नहीं हो जाओगे। ये विधि काम नहीं आयेगी। “मन चंगा तो कठौती में गंगा।” नहीं तो जाओ अटलांटिक ऑशियन में डूब मरो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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