प्रश्नकर्ता: नमस्ते, सर। जब हम सब छोटे थे तो हमने एक बात सुनी थी अपने बुज़ुर्गों से, दादी से, नानी से। वो ये बोलते थे कि शनिवार के दिन आप बाल मत कटाइए, चप्पल उल्टी मत रखिए या फिर खाली कैंची मत चलाइए, लड़ाई हो जाती है इत्यादि। ऐसे अन्धविश्वास होते थे तो हम वो नहीं करते थे। धीरे-धीरे हम बड़े हुए और अभी जब मैं यहाँ आ रहा था तो बाहर मैंने देखा कि यहाँ फ्रेशर्स पार्टी हो रही है, ऊँची आवाज़ में संगीत चल रहा है तो हमने जो कॉलेज के प्रबन्धक थे उनसे बातचीत की, कि भाई, आप जानते हैं हमारा सत्र चल रहा है और उसमें व्यवधान आएगा। तो उन्होंने कहा, ‘नहीं-नहीं, बाहर पार्टी हो रही है तो उससे क्या, माहौल में वैसा तो कुछ है नहीं। और फ्रेशर्स पार्टी है तो उसमें लाउड म्यूज़िक होना लाज़मी है और एन्जॉयमेंट का ऐसा तरीक़ा होता है, ऐसे-ऐसे लोग वस्त्र पहनकर आते हैं।
तो मेरे दिमाग में एकदम से कुछ बात कौंध गयी कि पहले तो जो बड़े-बुज़ुर्ग हैं, उनको कह देते थे ये अन्धविश्वास है। अभी जब मैं ये सोच रहा था कि पार्टी में ये जो लाउड म्यूज़िक बज रहा है या जो एन्जॉयमेंट होना है, तो ऐसे होता ही है, क्या ये अन्धविश्वास नहीं है? इसी प्रश्न को अगर मैं और आगे बढ़ा दूँ कि हमें जो नोशन दे दिया जाता है आइडिया ऑफ हैप्पी लाइफ़ का कि आप ऐसे पैदा होओगे, इस तरीक़े से आप ज़िन्दगी बिताओगे, यहाँ तक कि प्यार भी करोगे तो ऐसे-ऐसे करोगे, कैंडल लाइट डिनर होगा, ये होगा, ऐसी नौकरी चाहिए; मुझे लगता है क्या ये अन्धविश्वास नहीं है? लेकिन हम दूसरे वाले को कह देते हैं कि भाई साहब! ये ज़्यादा लॉजिकल है।
तो मुझे ये जानना है कि ये जो दूसरा व्यक्ति है, जिसे हम लॉजिकल कह रहे हैं, क्या हम इसे भी अन्धविश्वासी कह सकते हैं? और दूसरा ये कि पहले और दूसरे में ज़्यादा गहरा और घातक अन्धविश्वास कौनसा है?
आचार्य प्रशांत: वो ज़्यादा घातक है जो ज़िन्दगी में ज़्यादा घुसा हुआ हो। कौनसा छूरा ज़्यादा घातक है, जो मेज़ पर रखा हुआ है या जो छाती में उतरा हुआ है?
श्रोतागण: छाती वाला।
आचार्य: बस ख़त्म बात! आप जिस अन्धविश्वास को जी रहे हो वो ज़्यादा घातक है। अन्धविश्वास बस यही थोड़े ही होता है कि आप यक़ीन करो कि आत्माएँ उड़ रही हैं और भूत टहल रहे हैं और चुड़ैल आपकी कुर्सी के नीचे छुपी हुई है, यही थोड़े ही होता है। मूल अन्धविश्वास है स्वयं को कुछ और माने रहना। जो तुम वास्तव में हो उसके अलावा विश्वास रखना कि तुम कुछ हो। यही मूल अन्धविश्वास है। और फिर उससे हज़ार तरीक़े के दूसरे अन्धविश्वास पनपेंगे-ही-पनपेंगे।
हमारी पूरी ज़िन्दगी की बुनियाद होती है — 'मैं' भाव। 'मैं' हूँ कौन? 'मेरा' खेल क्या है? ‘किधर से आया, किधर को जाना है? काहे को हूँ यहाँ पर? क्या पाना है?’ ये मूल सवाल और मूल बात है। और अगर यहीं पर सच्चाई की जगह सिर्फ़ कोई कहानी है, एक धुंधला सा यक़ीन का घरौंदा है तो फिर आप ज़िन्दगी भर जो कुछ करेंगे, उसमें कुछ भी ठोस, मज़बूत कैसे हो सकता है?
आपकी ज़िन्दगी का पूरा महल, पूरी लम्बी-ऊँची इमारत, अस्सी-साठ, सौ मंज़िले की, वो खड़ी होती है इसी बुनियाद पर कि 'मैं कौन, मैं काहे को आया और इधर करना क्या है।' वो बुनियाद ही अगर ग़लत है तो इमारत का तो कहना ही क्या, फिर आप जो कुछ भी कर रहे हैं, सब ग़लत होगा न? आज कहाँ जाना है, कहाँ नहीं जाना है ये सवाल भी इसी से तय होता है कि आप हैं कौन। ‘कौनसी नौकरी करनी है, किस शहर में बसना है, किससे कैसे रिश्ते रखने हैं, शादी करनी है यदि तो किससे करनी है — सब इसी बात से तय होता है कि आप अपनेआप को क्या जानते हैं।
अन्धविश्वास हमारे व्यक्तित्व या मन का कोई अंश नहीं होता, अन्धविश्वास हमारी हस्ती का केन्द्र ही होता है। जब आत्मज्ञान नहीं होता तो जीवन के केन्द्र पर आत्म-अज्ञान होता है। और आत्म-अज्ञान ही अन्धविश्वास है।
हमें बड़ा दम्भ रहता है, हम उन लोगों पर हँसते हैं जो यक़ीन करते हैं कि फ़लाना साँप है और उस साँप में बिच्छू की आत्मा है या उस साँप में दादा जी की आत्मा है। कोई ऐसी बातें करे तो आप हँसना शुरू कर देते हैं। वो तो चलो जो बात है, वो हास्यास्पद होगी पर आपकी जो बातें हैं वो कम चुटकुले जैसी हैं क्या? पर अपनी बातों को आप गम्भीरता से लेते हैं। उदाहरण के लिए, जब आप बोलते हैं कि इस उम्र में रिटायर हो जाना चाहिए और रिटायर होने के वक़्त इतना पैसा होना चाहिए, आपको कैसे पता ये अन्धविश्वास नहीं है? आपको कैसे पता?
फ़िल्म थी 'मासूम', वो मुझे एक वजह से याद रहती है, उसका वो गाना है जिसके बोल मुझे सुने-सुने से, अपने से लगते हैं, “तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूँ मैं।” तो उसमें नसीरूद्दीनशाह का जो चरित्र होता है, उसका एक दोस्त होता है — ये गाना मैंने बहुत बार सुना है पर फ़िल्म एक ही बार देखी है, और वो दृश्य एकदम याद रह गया मुझे — तो उसका जो दोस्त होता है और उसका जो नाम होता है मान लो आनन्द। उसको बोलता है, ‘आनन्द यू मस्ट हैव अ सन, यार!’ ('यार, आनन्द! तुम्हारा एक बेटा होना चाहिए।') अब ये अन्धविश्वास नहीं है? पर उसने बोला ऐसे जैसे ये सृष्टि का विधान हो, जैसे ऊपर बैठे किसी ईश्वर ने लिखित-आज्ञा जारी करी हो कि मस्ट हैव अ सन (बेटा तो होना ही चाहिए)! ‘नहीं, पर ये तो करना ही होता है न!’ ये तो करना ही होता है न! अरे! कुछ नहीं करना होता है।
क्या करना है, ये आपको कोई और बताएगा तो आपको ये खोपड़ा किसलिए मिला है? फिर तो अपनेआप को नाम क्यों देते हो, अपना मॉडल बता दो बस। फ़लाने बैच की मशीन हूँ, फ़लानी फैक्ट्री से।
जिन्हें सोचना नहीं, समझना नहीं; जिन्हें सिर्फ़ किसी और की आज्ञा का पालन करना है, उनका नाम तो मशीन होता है। फिर बोध और चेतना की क्या ज़रूरत है, फिर तो बस अपना ऑपरेटिंग मैन्युअल साथ रखकर चलो।
कोई ये न सोचे कि ये जो वर्तमान पीढ़ी है, वो कम अन्धविश्वासी है। बस उनके अन्धविश्वास आज के हैं। पिछली पीढ़ी के अन्धविश्वास कल के थे। उनसे पिछली पीढ़ी के अन्धविश्वास और भी पीछे के थे। तो क्या होता है कि पिछली पीढ़ी के विश्वास आज अन्धविश्वास कहला जाते हैं। और आज की पीढ़ी के विश्वास बस ट्रेंड कहलाते हैं। द इन थिंग, द कूल वे।
काहे को कूल लग रहा है, क्या कूल है उसमें? कैसे कूल है? बताओ न कैसे कूल है? लेकिन जिस समय जो चल रहा होता है, उस समय वही लगता है कि बिलकुल ठीक है।
अभी मैं लम्बा सा यहाँ पर साइड बन्स रख लूँ तो आपको अजीब सा लगेगा। क्या कर रहे हैं इतना लम्बा! अभी कुछ ही दशक पहले जो नहीं रखते थे वो बेवकूफ़ लगते थे। अपने माँ-बाप या दादा-दादी की आपने फ़ोटो देखी होगी बेलबॉटम्स में, इतना चौड़ा! और हर व्यक्ति अपने अन्धविश्वास के प्रति बड़ा गम्भीर होता है। वो उसे अन्धविश्वास मानता ही नहीं। वो कहता है, ‘ये मेरे दिल से जुड़ी कोई बात है, ये ज़िन्दगी का बड़ा महत्वपूर्ण एक पक्ष है, मुझे इसको जीना है।’
कुछ भी मत स्वीकारिए, हर चीज़ पर सोचा जा सकता है, जीवन के हर पक्ष को और बेहतर बनाया जा सकता है।
वहाँ पहाड़ के ऊपर एक पत्थर रखा हुआ है और उस पत्थर में हमारे पितरों की आत्माएँ वास करती हैं। ऐसा कह कर एक पहाड़ के नीचे, एक कबीले के सौ, दो-सौ सदस्य आग जला रहे हों, उस आग में एक आदमी की बलि देकर उसको भून रहे हों और नर-मुंड पहनकर गोल-गोल नाच रहे हों तो आप कहेंगे, 'ये देखो! पिछड़ी बात, अन्धविश्वासी हैं कितने ज़्यादा ये!'
और ठीक उसी तरह रिवाज़ के तौर पर ये जो बाहर चल रहा है कि फ्रेशर पार्टी होती है, जिसमें ये वाले गाने लगाने होते हैं कि “जुम्मे की रात है”! और ये करना ही होता है। यही तो करना ही होता है तो बिलकुल ये उस पिछड़े हुए कबीले जैसी बात क्यों नहीं है, मैं पूछ रहा हूँ? वो भी कुछ काम करते हैं बस रिवाज़ के तौर पर, आप भी कुछ कर रहे हो बस रिवाज़ के तौर पर तो वो पिछड़े कैसे हैं, आप पिछड़े क्यों नहीं हो?
वास्तव में अगड़े और पिछड़े का भेद यहीं पर आ जाता है, जो भी कोई अपनी चेतना अपनी प्रज्ञा का प्रयोग किए बिना, बस रिवाज़, रिचुअल , रूढ़ि, परम्परा, प्रथा के तौर पर कुछ करे जाता है, वही पिछड़ा हुआ है। और जो सोच सकता है, जो समझना चाहता है, वो आगे है, वो अगड़ा है।
बिना जाने, बिना समझे आप कह दो, ’एनिवर्सरी (वर्षगाँठ) है तो डिनर होगा, वो तो होना ही है। वैलेंटाइंसडे है तो बीयर् होगा। बीयर् माने टैडीबीयर् , वो तो होना ही है। फ़लाना डे है तो चॉकलेट होगी, वो तो होना ही है!’ तो आप वही पिछड़े कबीले जैसे आदमी हो और थोड़े ही हो कुछ उससे अलग।
पढ़ने में अच्छा है तो इंजीनियरिंग ही करेगा, और क्या करेगा। ये क्यों नहीं अन्धविश्वास है? दिखने में अच्छी है, 'तू मॉडलिंग क्यों नहीं करती, तेरी लम्बी सही है।' ये और क्या है? 'तू लड़की है, तुझे तो बाल लम्बे रखने ही होंगे न!' 'नहीं, क्यों?' 'नहीं, वो अच्छी लगती है, सुन्दर दिखती है।'
सुन्दरता तो बहुत ज़्यादा सब्जेक्टिव और कंडिशन्ड बात भी हो सकती है न? एक काल में, एक जगह में जिस चीज़ को सुन्दर माना जाता है, दूसरी जगह उसको नहीं माना जाएगा। तुम्हें कैसे पता कि सुन्दरता का कोई ऑब्जेक्टिव पैमाना, कोई ऑब्जेक्टिव स्टैंडर्ड भी होता है? तुम्हें कैसे पता ये करना ही करना है?
चार साल से डेटिंग ही कर रहे हैं, लेट्स सेटल् डाउन (चलो, अब सेटल हो जाते हैं)! अब मैंने हिंदी में बोल दिया और उसने अंग्रेज़ी में बोला है वो भी एक्सेंट के साथ। ये बात एकदम घोर अन्धविश्वास की क्यों नहीं है? पूछना चाह रहा हूँ, मुझे नहीं मालूम। दुनियादारी की बहुत बुद्धि मुझमें है ही नहीं तो मुझे नहीं पता होता बहुत ज़्यादा। आप बता दीजिए। पर उस वक़्त तो ऐसे ही लगता है, ये तो बिलकुल सही बात है, ये तो है ही न, मतलब है ही।
ज़िन्दगी भर डेटिंग ही करते रहोगे क्या? हम ज़िन्दगी भर डेटिंग ही क्यों नहीं कर सकते? क्यों नहीं? मैं नहीं कह रहा हूँ करिए! पर क्यों नहीं कर सकते? ऐसे क्या हँस रहे हैं? बहुत अच्छी चीज़ है, करिए! क्यों नहीं कर सकते?
ये कहाँ से आया दैट यू आर सुपपोज़ टू इतने साल हो गये तो अब जल्दी से चिपक जाओ और एक ही घर में, एक ही कमरे में घुस जाओ। क्यों? सवाल है।
प्रकृति कुछ नहीं है, प्रकृति क्या है? जानवरों पर प्रकृति लागू होती है न, हमारे पास चेतना कुछ है कि नहीं? हम निर्णय कुछ ले सकते हैं कि नहीं? और अगर प्रकृति का ही खेल होता तो यहाँ किसी ने कपड़े नहीं पहन रखे होते। कपड़े पहनते वक़्त आप क्यों नहीं कहते कि प्रकृति में तो वस्त्रों का विधान होता नहीं? तब तो आप पहन लेते हो। प्रकृति से हटकर ही जीते हैं हम, और बहुत अच्छी बात है।
प्रकृति तो बन्धन है, प्रकृति से पार जाने के लिए ही तो पैदा हुए हो। तो ऐसा नहीं है कि आप जीवन में प्रकृति का पालन ही कर रहे हो, पालन तो नहीं कर रहे हो प्रकृति का लेकिन आप जिस तरीक़े से जी रहे हो वो आपको प्रकृति से मुक्त भी नहीं करा रहा। न हम प्राकृतिक हैं, न हम आध्यात्मिक हैं, हम बस सामाजिक हैं। पशु प्राकृतिक होता है, सन्त आध्यात्मिक होता है, हम बस सामाजिक हैं। ऐसा तो करना ही होता है न? तो करो।
’फ्रेशर्स है, लड़कियाँ सब साड़ी पहनकर आएँगी, लड़के सब फॉर्मल्स पहनकर आएँगे।’ ठीक है; ऐसे ही तो करना होता है, दस साल पहले भी ऐसा ही हुआ था, अब भी ऐसा होगा। और फ्रेशर्स माने क्या? क्या करना होता है फ्रेशर्स में? क्या कर रहे हो उसमें? नहीं, पर ऐसे ही तो होता है न, ऐसे ही तो होता है।
ये जो लड़का है, जो बिलकुल बेहोशी में फ्रेशर्स मना रहा है, तुम्हें क्या लगता है अपने जीवन के बाक़ी सब निर्णय होश में लेने वाला है? जैसी शुरुआत हुई है, अन्त भी वैसा ही होगा। लेकिन इनसे पूछोगे तो अपनेआपको कहेंगे मॉडर्न।
मॉडर्न का मतलब समझते हो क्या होता है वास्तव में? जो विश्वास पर नहीं विचार पर चले उसको मॉडर्न कहते हैं। और ये मैं कोई आध्यात्मिक परिभाषा नहीं दे रहा, यही शास्त्रीय परिभाषा है आधुनिकता की। विश्वास नहीं, विचार; तब आधुनिक हो आप। नहीं तो आप नहीं हो मॉडर्न।
प्र२: प्रणाम, सर। सर, अभी बातचीत के दौरान आपने सोच और विचार पर बल दिया कि हमें कोई भी काम करना चाहिए तो सोचना और विचार करना चाहिए। लेकिन कई जगह आपने कहा है कि सोच-सोचकर सत्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। तो जो विचार है वो कहाँ तक हमें ले जा सकता है?
आचार्य: बहुत दूर तक, जहाँ तक उसकी सीमा है। सोच-सोचकर सत्य तक नहीं पहुँचा जा सकता, ये बात उनसे कही है, उन चन्द विरले लोगों से कही है जो सोचना जानते हैं। और जिनके लिए अब बस एक सीढ़ी शेष रह गयी है, वो है — विचार की सीमा।
जिन लोगों की सोचने की शक्ति ही अभी जागृत नहीं हुई है, जो पशु समान अविचार में पड़े हुए हैं, उनसे मैं थोड़े ही कहूँगा कि सोच-सोचकर कुछ नहीं पाओगे। जो सोच ही नहीं रहा उससे मैं थोड़े ही कहने जाऊँगा कि सोच-सोचकर कुछ नहीं पाओगे; उससे तो यही कहूँगा कि तुम सोचना शुरू तो करो।
जानवर और इंसान में अन्तर क्या है? इंसान के पास विचार की शक्ति है। तो पहले तो मनुष्यता के दायरे में कदम रखो सोच के माध्यम से। और फिर मनुष्यता के दायरे का अतिक्रमण करा जाता है जब सोच अपनी सीमा को जान लेती है।
ये बहुत बड़ा दुर्भाग्य है, जाने षड्यंत्र है कि सब प्रकार के अन्धविश्वासों को आगे बढ़ाने के लिए इसी तर्क़ का सहारा लिया जाता है कि साहब, ये बात आपकी बुद्धि से परे की है कि साहब, ये बात इंटेलेक्ट में नहीं समाएगी! ईट इज़ बियोंड द इंटेलेक्ट! कितनी ज़्यादा ये ख़तरनाक बात हो गयी न?
देखिए! तीन तल हैं जिनकी अभी हमने बात करी। अविचार — जहाँ इंसान सिर्फ़ अपनी वृत्तियों पर चलता जा रहा है। अपने शारीरिक संस्कारों का ग़ुलाम बना हुआ है। यन्त्र जैसा है वो, बिलकुल मशीनी। ये सबसे निचला तल होता है, उसका नाम है अविचार। इससे ऊपर आता है मनुष्य। जो सोच सकता है, विचारवान मनुष्य। और विचारवान मनुष्य जब मुक्ति के लिए और ऊपर उठता है तब उससे कहा जाता है कि देखो, तुम विचार की भी सीमा को पहचानो। विचार जोकि अन्धविश्वास को हटाने में तुम्हारे लिए साधन की तरह है, वही विश्वास तुम्हारे लिए अन्तिम बन्धन की तरह भी है। लेकिन वो अन्तिम बन्धन है, उससे पहले तो वो बहुत उपयोगी है, साधन है। विचार एक बहुत उपयोगी चीज़ है।
तो ये दूसरा तल होता है विचार का। और आख़िरी तल, ऊँचे-से-ऊँचा तल होता है निर्विचार का। ठीक है?
अब दुर्घटना ये है कि अविचार और निर्विचार इन दोनों में एक साझी बात होती है, वो होती है — विचार की अनुपस्थिति, या विचार से हटकर कोई और सत्ता; विचार के अतिरिक्त कोई और सत्ता। वो अविचार में भी होती है और निर्विचार में भी।
तो ऊपर-ऊपर से देखने में, ध्यान से न देखने में ऐसा लगेगा कि जैसे अविचार और निर्विचार एक जैसे हैं क्योंकि दोनों में ही विचार की अनुपस्थिति है। विचार के अलावा कोई और सत्ता है जो वहाँ मौज़ूद है। लेकिन दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है, अविचार और निर्विचार में।
अविचार में जो सत्ता हावी है, वो है पशुता। और निर्विचार में जो सत्ता मौज़ूद है, वो है सत्यता। तो कहीं से भी अविचार और निर्विचार एक बात नहीं हो गये। लेकिन हमने कहा सतही तौर पर वो दोनों एक जैसे दिखते हैं क्योंकि दोनों में ही बात ये रहती है कि साहब, विचार के अलावा कुछ और।
तो ये जितने गुरु लोग घूम रहे हैं, जिन्हें अन्धविश्वास को बढ़ावा देना होता है, जब भी इनके अन्धविश्वास को चुनौती दी जाए, जब भी ये जो अविचार का पाशविक कार्यक्रम चला रहे हैं, उसको चुनौती दी जाए, कहा जाए सोचो तो सही! तो ये कहते हैं, ‘अरे, तुम्हें सोचकर क्या मिलेगा? ये बात तो विचार के परे है।’
नहीं, ये बात जो आप फैला रहे हो न मनगढ़ंत कहानियाँ, कपोल कल्पनाएँ, जादू-टोना, उड़ते साँपो और टेढ़े पैरों वाली चुड़ैलों के क़िस्से, ये विचार के परे की बात नहीं है, ये विचार से बहुत नीचे की बात है, ये जानवर जैसी बात है, ये पशुता की बात है। विचार के परे क्या होता है? बियोंड इंटेलेक्ट क्या होता है? निर्विचार। वो विचार के परे है, माने विचार के ऊपर है। और ये चीज़ जिसमें अविचार है, जिसमें सोचा ही नहीं जा रहा क्योंकि बुद्धि नहीं काम कर रही, क्योंकि विचार का ठीक से अभ्यास ही नहीं करा, जहाँ सोच ही नहीं पा रहे, ये चीज़ विचार के नीचे है।
ऐसी सी बात है जैसे तीन तल हों — निचला, मध्यम और उच्चतम। ठीक? और आम आदमी रहता हो मध्यम तल में। ठीक है न? और जो सबसे ऊँचा है, उसकी भी पहचान यही है कि वो मध्यम तल में नहीं रहता। तो जो सबसे नीचे वाला है, वो कहना शुरू कर दे, 'मैं सबसे ऊँचा हूँ क्योंकि मैं मध्यम तल में नहीं रहता।'
साहब, जो सबसे ऊँचा है न उसकी एक नहीं दो पहचानें हैं। उसकी एक पहचान ये है कि वो मध्यम तल में नहीं रहता, माने किस तल में नहीं रहता? विचार के तल में। और उसकी दूसरी पहचान ये है कि वह सबसे निचले तल में भी नहीं रहता। और सबसे निचला तल किसका है? जानवर का, अविचार का, पशुता का, जड़ता का। सबसे जो ऊँचला तल है बस उसको अधिकार है अपनेआप को आध्यात्मिक या मिस्टिकल बोलने का।
मिस्टिकल की एक नहीं दो पहचानें हैं। उसकी एक पहचान ये है कि वो विचार के परे है और दूसरी पहचान ये भी है कि वो अन्धविश्वास के परे है, पशुता के परे है, अविचार के परे है। ये है मिस्टिकल की पहचान। लेकिन किसी भी तरह के जादू-टोने को मिस्टिकल कहकर पेश किया जा रहा है और लोग उसे स्वीकार भी कर रहे हैं।
और उसके खिलाफ़ बात करो, आवाज़ उठाओ तो तत्काल क्या कहा जाता है? ‘अजी, साहब! आपको ये बात कैसे समझ में आएगी! आप तो सिर्फ़ बुद्धि चलाना जानते हैं। आपके पास विचार के अलावा मिस्टिसिज़्म नहीं है न?
आजकल मुझपर इल्ज़ाम की तरह ये कहा जा रहा है कि ये विचारक ठीक हैं, पढ़-लिख भी लिये हैं, ठीक है। ‘अध्ययन वगैरह भी करा है इन्होंने। आप इन्हें अधिक-से-अधिक चिंतक बोल सकते हो। और बोलना चाहो तो दार्शनिक बोल सकते हो लेकिन ये आध्यात्मिक नहीं हैं।’ क्यों नहीं हैं? ‘आध्यात्मिक तो वो होता है न जो थोड़ा मिस्टिकल बातें करे!’
और मिस्टिकल बातें कौनसी होती हैं? वही — ‘कान से कबूतर निकालना और साँप उड़ाना, मेढ़क परी बन गया, घोड़ा राजकुमार बन गया, अजीब हरकतें होनी शुरू हो गयीं। आसमान से एक डायन उड़ती हुई आयी और औरत के पेट में घुस गयी।’ जो ये सब बातें करे, लोगों के हिसाब से वो आध्यात्मिक है। वो आध्यात्मिक नहीं है, वो क्या है? वो जानवर है।
भूलिएगा नहीं अध्यात्म कौनसा तल है? पहला, दूसरा, तीसरा, कौनसा है? तीसरा। और तीसरे की क्या निशानी होती है? निर्विचार की निशानी क्या होती है? उसमें विचार तो नहीं ही है; चलो, सामान्य बातें जो होती हैं विचार की, वो वहाँ नहीं मौज़ूद हैं। विचार की सामान्य बातें होती हैं हानि-लाभ का गणित। आप यही तो सोचते हो न — ‘फ़ायदा क्या, नुक़सान क्या! पसन्द क्या, नापसन्द क्या!’ तो ये सब दूसरे तल की बातें होती हैं जो हम आमतौर पर सोचते रहते हैं — ‘अच्छा क्या, बुरा क्या? पसन्द क्या, नापसन्द क्या? नफ़ा-नुक़सान कहाँ?’ ये सब विचार की बातें होती हैं।
आध्यात्मिक या मिस्टिकल होने का मतलब होता है जो दूसरे तल की बातें हैं, वो नहीं हैं और पहले तल की बातें तो बिलकुल भी नहीं हैं। पहले तल की बातें कौनसी होती हैं? यही अन्धविश्वास और अविचार की — उड़ता हुआ भूत, चोट खाई चुड़ैल, डरी हुई डायन, इच्छाधारी नागिन, चींटी जो बहुत पेटू थी तो अगले जन्म में हाथी बन गयी! ये सब होती हैं।
आध्यात्मिक आदमी ये सब बातें नहीं कर सकता और इस तरह की बातें आप किसी को करते सुनें तो वो व्यक्ति आध्यात्मिक तो नहीं ही है, वो विचारक भी नहीं है। वो तीसरे तल का तो नहीं ही है, वो दूसरे तल का भी नहीं है; वो जानवर के तल का है। और क्या विडम्बना है कि जो जानवर के तल का है, वो घोषित कर रहा है अपनेआप को कि मैं तो उच्चतम हूँ। मैं तो ऊँचे-से-ऊँचा गुरु हूँ। और ये बहुत ज्ञान की बातें हैं साधारण लोगों की समझ में नहीं आती। साधारण लोगों को तो यही लगेगा कि चींटी हाथी कैसे बन सकती है? हम जानते हैं अपनी दिव्य दृष्टि से और अपनी और अपने ख़ास मिस्टिसिज़्म से कि ऐसा होता है।
समझ में आ रही है बात कुछ?
और इसी को आगे बढ़ाने के लिए कह दिया जाता है, 'देखिए! आपको लग रहा है न ऐसा नहीं होता, क्योंकि आपको इसका अनुभव नहीं हुआ है। और आप इतने अहंकारी आदमी हैं कि आपको लगता है कि जिस चीज़ का आपको अनुभव नहीं, वो चीज़ तो होती ही नहीं। नहीं साहब, बात ये नहीं है।'
और इस बात को बड़े अकाट्य तर्क की तरह प्रस्तुत किया जाता है कि आप ये जादू-टोना अन्धविश्वास का प्रयोग इसीलिए करते हैं न क्योंकि आपको इसका अनुभव नहीं है; ‘हमें इसका अनुभव है साहब, हमने देखा है फ़लाने जंगल में कटी हुई खोपड़ी पेड़ से गिरी और फिर नाचने लगी। दो घंटे तक ढोलक बजायी कटी हुई खोपड़ी ने, हमने देखा। आपको अनुभव नहीं है इसलिए आप कह रहे हैं। आपको भी अनुभव हो जाएगा, आप बस हमारे गाँव आइए एकबार।’
काहे को आएँ तुम्हारे गाँव? तुम्हारे गाँव में कुछ होता तो अभी तक गाँव रहता? और तुम जो बोल रहे हो कि ऐसा होता है और कह रहे हो आपको इसका अनुभव नहीं है, हमें इसका पूरा अनुभव है। हम जानते हैं वो कैसे होता है इसीलिए कह रहे हैं कि तुम बेटा, धोखे में हो। तुम जिन चीज़ों को बता रहे हो कि हमने अपनी आँखों से देखा है, वो आँखों से कैसे दिख जाती हैं हम जानते हैं। तो ये तर्क भी तुम्हारा असफल हो गया कि आपको पता नहीं है, आपको अनुभव नहीं है इसलिए आप कह रहे हैं। फ़लाने ने अभिमन्त्रित जल फेंककर मारा दूसरे को, दूसरा अपने घर गया और खून की उलटियाँ करते हुए मर गया। ये सब आपके साथ नहीं हुआ न इसलिए आपको पता नहीं है।
हमको पता है न, हम देख रहे थे। जिन्होंने जल फेंककर मारा था, जब ये घर को चले तो पीछे से इन्होंने एक को बुलाकर बीस रुपये दिए और बोले इसके घर जाओ और इसकी चाय में ये मिला देना। और वो घर गया चाय पी और खून की उल्टियाँ करके मर गया। हमने देखा था वो सब, हम जानते हैं। ये सब कैसे होता है हमको पता है। हम इसके मानसिक कारणों को भी जानते हैं, हम इसके सामाजिक कारणों को भी जानते हैं। ये सब टोना-टोटका आजतक क्यों चलता चला आ रहा है? उसके पीछे क्या स्वार्थ है? हम सब जानते हैं। तो ये मत कहिए, ‘हमें अनुभव नहीं है, हम जानते नहीं हैं, हमने देखा नहीं।’ हमने सब देखा है। आपने तो बेहोशी में देखा है ये सब होते हुए, हमने पूरे होश में देखा है कि ये सब कैसे होता है। और ये सब जब होता है तो इनमें किनका फ़ायदा होता है हमने ये भी देखा है।
आज भी ये सब मिथ्या प्रचार करने से और पूरी जनसंख्या को ही अन्धविश्वास में धकेले रहने से किसका फ़ायदा हो रहा है वो भी हम जानते हैं, देखा है। तो ये मत कहिए कि आप जानते नहीं हैं इसलिए विरोध कर रहे हैं। हम विरोध इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं।
समझ में आ रही है बात?
आप निर्विचार को भी भूल जाइए। क्योंकि निर्विचार शब्द अगर आपके पास रह गया तो आपको ये लगता रहेगा कि विचार से हटकर कुछ होता है, तो कोई भी आपके पास व्यर्थ की बात लायी जाएगी तो आपको शक हो जाएगा कि कहीं यही तो वो बात नहीं जो विचार से हटकर है। और हो सकता है आप अन्धविश्वास को फिर स्वीकार कर लें। इसीलिए निर्विचार को ही भूल जाइए, आप विचार ही याद रखिए।
ये दो ही बातें होती हैं — अविचार और विचार। और जो विचार की गहराई में डूब गया, उसे सोचना नहीं पड़ता, उसे याद नहीं रखना पड़ता, वो धीरे से चुपचाप प्रेम में, निर्विचार में प्रवेश कर जाता है। इसीलिए उसकी कोई बात करनी ज़रूरी ही नहीं है क्योंकि वह घटना स्वतः ही घटती है। जो चुपचाप अपनेआप होना है, मौन में होना है, उसकी बात क्या करें? तो निर्विचार की बात करनी भी ज़रूरी नहीं है, वो तो जब होना होता है तो हो जाता है।
बात सिर्फ़ दो की होनी चाहिए, विचार और अविचार की। अविचार से ज़्यादा बड़ा दुश्मन किसी भी इंसान का नहीं हो सकता। अविचार इंसान का इतना बड़ा दुश्मन है कि वो उसे इंसान ही नहीं रहने देता, जानवर बना देता है। माने अविचार मौत है आपकी। इंसान, इंसान ही नहीं बचा, माने मर गया न? जो सोच नहीं सकता वो मरा हुआ है।
समझ में आ रही है बात?
कभी भी मूर्खता के और झाड़-फूँक और इन सबके पक्ष में ये तर्क स्वीकार मत करना कि तुमने देखा नहीं है तो क्या ऐसी चीज़ें होती नहीं? ये सुना है तर्क कि नहीं कि तुमने देखा नहीं है तो क्या होती नहीं? उत्तर ये होना चाहिए कि हमने देखा है और हम भली-भाँति जानते हैं कि चीज़ें कैसी होती हैं।
जहाँ तक इस जगत की बात है समस्त भौतिकता नियमों से बँधी हुई है और नियमों को कोई नहीं तोड़ सकता। हाँ, उन नियमों को और गहराई से जाना जा सकता है वो अलग बात है पर नियमों से हटकर कुछ नहीं होता भौतिक जगत में। तो कोई कहे कि चमत्कार हो गया भौतिक जगत में, रहने दो। ‘पानी में आग लग गयी’, रहने दो।
और भौतिक जगत की एक और हम आपको पहचान बताए देते हैं — वहाँ जो एक के साथ होगा वो दूसरे के साथ भी होगा। फैक्ट्स ऑब्जेक्टिव होते हैं। तथ्य विषयगत नहीं वस्तुनिष्ठ होते हैं। अगर कुछ ऐसा है जो यहाँ हो रहा है तो वो सिर्फ़ मेरे लिए नहीं होगा वो आपके लिए भी होगा भौतिक तल पर। मानसिक तल पर घटनाएँ अलग-अलग घट सकती हैं, भौतिक तल पर घटनाएँ अलग-अलग नहीं घटती। ऐसा नहीं हो सकता कि मेरे लिए सोडियम और पानी सोडियम हाइड्रोक्साइड है और आपके लिए सोडियम और पानी पौटैशियमआयोडाइड है। ऐसा नहीं हो सकता।
हाँ, ये हो सकता है कि गीता के एक श्लोक का अर्थ मेरे लिए अलग हो, आपके लिए अलग हो, वो अपने चेतना के स्तर की बात है। वो बिलकुल दूसरी बात है लेकिन भौतिक घटनाएँ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग नहीं होती तो चमत्कार जैसा कुछ नहीं है। और अगर सोडियम और पानी आज हाइड्रोक्साइड बनाते हैं तो कल भी बनाते थे और कल भी बनाएँगे। भारत में भी बनाते हैं, अफ़्रीका में भी बनाते हैं। कोई ये न कहे कि एक ख़ास जगह है, जहाँ कुछ और हो जाता है क्योंकि वहाँ एनर्जी फील्ड है। हटाइए बेकार की बातें!
कोई ये न कहे, ‘वो फ़लानी जगह है, वो बड़ी घटिया जगह है वहाँ पर..। ऐसा नहीं होता। कोई कह दे वो फलानी कंसिक्रेटेड जगह है, वहाँ पर सोडियम और पानी मिलते हैं और हाइड्रोजन पेरॉक्साइड बन जाता है और फिर वो हाइड्रोजन पेरॉक्साइड सब भक्तजन प्रसाद की तरह लेते हैं।’ छोड़ो, हटाओ!
ऑब्जेटिविटी। और ऑब्जेक्टिविटी को आप जैसे ही स्वीकार करते हो तो उसके साथ आती है फ़ॉल्सिफ़िकेशन की क्षमता। कोई भी चीज़ अगर घट रही है भौतिक जगत में और उसको लेकर के आपने कोई थिओरी कोई सिद्धान्त प्रस्तुत करा है तो वो फ़ॉल्सिफ़ाई करा जा सकता है। फ़ॉल्सिफ़ाई करने का क्या अर्थ होता है? कि आपने कहा कि ऐसा होता है ऐसा होता है तो ऐसा होता है। अगर कोई आकर दिखा दे कि नहीं ऐसा ऐसा तो होता है पर उसके परिणामवश वैसा नहीं होता जैसा आपने कहा तो योर थिओरी स्टैंड्स फ़ॉल्सिफ़ाइड।
कोई आकर के कहे, 'मैं बहुत बड़ा गुरु हूँ। मैं तो कुछ कर सकता हूँ यहाँ, पर तुम नहीं कर सकते' तो वो नाटक है, ढोंग है, स्वांग है, फ़र्ज़ीवाड़ा है। कहे, 'वो सिर्फ़ मैं कर सकता हूँ, तुम नहीं कर सकते' तो वो फ़र्ज़ीवाड़ा है। भैतिक जगत में जो कुछ भी एक व्यक्ति कर सकता है वो दूसरा व्यक्ति भी कर सकता है। और अगर कोई भी ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए वो घटना नहीं घट सकती देन दैट थियोरी स्टैंड्स फ़ॉल्सिफ़ाइड , फिर उस थियोरी का ही अपना कोई वजूद नहीं है।
अगर कोई व्यक्ति आ जाए और कहे कि मैं अगर सोडियम पर पानी डालता हूँ तो हाइड्रोक्साइड नहीं बनता, तो पूरी केमिस्ट्री उसी दिन समाप्त हो जाएगी। सोडियम पर पानी डालने से अगर विस्फोट होता है, तो मेरे लिए भी होगा और आपके लिए भी होगा। और अगर एक भी व्यक्ति ऐसा है जिसके लिए विस्फोट नहीं होता तो पूरा रसायन शास्त्र समाप्त। ये है विज्ञान की ईमानदारी।
ऐसे नहीं कि हो तो जाता है बच्चा, पर तब जब हम करते हैं। रसायन शास्त्र क्या है? वो जो हम बताते हैं। पूरा पीरियोडिक टेबल कहाँ से शुरू होता है? ‘जहाँ हम खड़े हो जाते हैं।’ ऐसों को तो बस ‘खामोश!’ बोल सकते हैं। हटो!
लेकिन इनको खामोश करने की जगह इनके हाथ में भोंपू दे दिया जाता है और बहुत बड़ा मुँह हो जाता है इनका। और बोले जा रहे हैं, और पूरी आबादी को इन्होंने कहीं का नहीं छोड़ा। शक्तिहीन तेज़हीन बना दिया है। क्योंकि एक बार आपको लग गया कि चेतना से बढ़कर कोई ताकत है जो आपसे बाहर कहीं घूम रही है, आपके बस में नहीं है और जानी भी नहीं जा सकती फिर आपके भीतर कोई ऊर्जा, कोई आशा, कोई तेज़ बचता नहीं है।
आप कहते हो, 'ये दुनिया पता नहीं कौनसी अन्धेरी ताकतों द्वारा संचालित है मुझे क्या पता? मेरे साथ कुछ भी हो सकता है।' फिर आप डरे-डरे घूमते हो बस।
एक ही बल है वो है चेतना का। उसके अलावा कुछ नहीं है ये सब जादू-टोना भूत-प्रेत, मिस्टिकल पावर्स! ये मिस्टिकल पावर्स क्या होती है? पावर भौतिक होती है, मिस्टिकल क्या होता है?
समझ में आ रही है बात?
मिस्टिकल चावल! जिसको किसी के ऊपर फेंक दो तो उसके घर धन-धान्य उतरेगा। और उसको कुछ खास मन्त्रों से बाँधकर चौराहे पर रख दो और कोई उस और पॉंव रख दे तो तीसरे दिन, रात को उसकी मौत हो जाएगी। और उसको मौत से बचाना है तो फिर एक ही तरीक़ा है — किसी तांत्रिक , ओझा, महागुरु को पकड़ो, उनको चढ़ावा चढ़ाओ! फिर वो कहेंगे, 'मोगैम्बो खुश हुआ!'
ऐसे ही है न जान रहे हैं कि क्या है, फिर भी कर रहे हैं। तो क्यों कर रहे हैं? या तो नहीं पता होता तो मैं समझा पाता आपको।
एक सज्जन को देखा, वो जब बाल कटाने जाते हैं तो अपना टोकरा साथ लेकर जाते हैं और उसको बोलते हैं जितने बाल मेरे कटें और दाढ़ी से भी गिरें, वो सब इस टोकरे में डाल देना। एक भी तुम्हारे यहाँ छूटना नहीं चाहिए। नहीं तो कोई दुश्मन बाल ले जाएगा घर और कुछ कर देगा बाल से।
ज़िद किया करिए — ‘समझाओ!’ क्या? ‘समझाओ! अगर है तो समझाओ।’ इतना तो हो सकता है कि आपको समझाना न आए, ये भी हो सकता है हमको समझना न आए लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि कोई चीज़ ऐसी है जो समझ से बाहर की है। न, हटा दो! ऐसी तो एक ही चीज़ होती है और उसका नाम सत्य है और उसकी तो कोई बात हो नहीं सकती। वो कोई भौतिक न वस्तु है, न क्रियाकलाप है, न सिद्धान्त है; तो उसकी तो वैसे भी कोई बात नहीं हो सकती। अभी तो हम इसी दुनिया की चीज़ों की बात कर रहे हैं न! दुनिया की अगर चीज़ है तो समझाओ।
ये मत कह दो बस कि अरे ये तो ऊपर की बात है, हम नहीं बता सकते। ऊपर की कोई बात नहीं होती, सब बातें यहीं की होती हैं। आप समझा नहीं पा रहे इसकी माफ़ी है। हम समझ नहीं पा रहे, इसकी भी माफ़ी है। पर आप कह दें कि कुछ बातें सोचने-समझने की नहीं होती, इसकी कोई माफ़ी नहीं है। आमतौर पर जब कोई कहे कि कोई बात है जो सोचने-समझने की नहीं है तो इसका मतलब है कि वो बखूबी समझता है कि वो बात क्या है और वो बात इतनी गिरी हुई है कि वो उसको छुपाना चाहता है इसलिए कह रहा है मैं इसको समझाऊँगा नहीं।
आपने देखा नहीं है कोई बहुत ज़लील हरक़त करके आया हो या कोई बेकार की बात मन में लेकर बैठा हो, आप उससे पूछें। ‘बताओ न, क्या बात है?’ तो ऐसे सिर नीचे कर लेगा, रोएगा, कुछ करेगा; बोलेगा, ‘नहीं, नहीं बताएँगे। कुछ नहीं है, कुछ नहीं।’ सुना है ये, कुछ नहीं है? अगर कोई बोले कुछ नहीं है तो इसका क्या वाक़ई ये अर्थ है कि कुछ नहीं है? इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कुछ ऐसा है जो इतना गंदा है कि उसको बताते ज़बान काँपती है। बस ये बात है।
जो कोई आपके मन में ये भाव भर दे कि कुछ चल रहा है और तुम्हारी बुद्धि से बाहर का है, वो व्यक्ति आपका दुश्मन ही है। बुद्धि से बाहर कुछ नहीं है, यही बताने के लिए कहा गया कि बुद्धि से बाहर एक ही है। उसका नाम है अज्ञेय है, उसका नाम सत्य है।
बुद्धि से बाहर सत्य है, इसको ऐसे पढ़िए कि सत्य के अलावा बाक़ी सबकुछ बुद्धि के अन्दर है। और ये आप जिस दुनिया में रह रहे हो, ये प्रकृति है, सत्य नहीं। तो प्रकृति में जो कुछ भी है, जगत में जो कुछ भी है, वो बुद्धि के अन्दर है। इस पूरे ब्रह्मांड में ऐसा कुछ नहीं जो जाना न जा सके। हाँ, आप उसे आज जाने, कल जाने वो अलग बात है। या जाना जा चुका हो और आप तक अभी वो सूचना नहीं पहुँची, वो भी अलग बात है। पर सिद्धान्ततः इस पूरे विश्व में ऐसा कुछ नहीं जिसको मानव बुद्धि जान नहीं सकती।
आ रही है बात समझ में? जल्दी से ऐसे मत कह दिया करिए, कोई भी बात बताई जाए, ‘भई! क्या पता होता ही हो? भई, हमें लगा! ऐसे कैसे बोल दें, क्या पता होता ही हो!’ नहीं, ऐसे नहीं। नहीं तो, नहीं। और सिर्फ़ यही नहीं कहना है कि नहीं तो नहीं; ये भी जाँचना है कि जो कोई आपके मन में अविचार की बातें ठूसने आया है, उसका अपना कहाँ पर स्वार्थ है।
किसी को अविचार में धकेल देना अपने स्वार्थ की बात होती है। बताओ क्यों? क्योंकि जो अविचार में चला गया हमने उसका क्या नाम बताया था? जानवर। और जानवर से क्या कराया जा सकता है? श्रम। उसके गले में पट्टा डाला जा सकता है, उसकी नाक में नकेल डाली जा सकती है और उससे जी-तोड़ काम कराया जा सकता है। जो कोई आपकी बुद्धि को कुंठित करना चाहता हो, वो ज़रूर आपको लूटना चाहता है, वो आपको जानवर बनाना चाहता है।
आ रही है बात समझ में? और ऐसे लोगों के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बन जाते हैं वो लोग जो सोचना शुरू कर देते हैं।
प्र३: नमस्ते, सर। सर, मुझे ये जानना था जैसे आपने कहा हमें विचारों पर चलना है, अपनी सूझ-बूझ के अनुसार चलना है। विश्वास पर और मान्यताओं पर नहीं चलना। तो सर, मैंने अक्सर ये देखा है..
आचार्य: हम थोड़ा सा इसको ठीक करेंगे। हमने कहा विचार श्रेष्ठ है मान्यता से। उसका ये अर्थ नहीं है कि आप विचार को अन्धाधुन्ध चलने का लाइसेंस दे दें। हम कह रहे हैं, 'अन्धविश्वास की अपेक्षा विचार श्रेष्ठ है।' विचार से भी श्रेष्ठ है विचार का अवलोकन। ये जानना कि अभी मैं जो ये सोच रहा हूँ, ये सोच कहाँ से आ रही है? बिना सोचे कुछ मान लिया, वो सबसे नीचे की बात है, उसके बारे में सोचा ये थोड़ी तरक़्क़ी करी। फिर हमें और तरक़्क़ी करनी है, हमें ये भी देखना है कि मैं जो सोच रहा हूँ वो सोच आ कहाँ से रही है? ‘मेरी है या मेरी शारीरिक वृत्तियों से आ रही है? या इधर-उधर के सुने-सुनाए प्रभावों से आ रही है?’
प्र३: तो सर, हमारे जो विचार हैं वो कई दिशाओं में भागते हैं। तो मेरे लिए क्या सही है क्या नहीं, इसका निर्णय कैसे लूँ?
आचार्य: विचार किन दिशाओं में भागते हैं वो बाद की बात है। विचार किन दिशाओं से आए हैं वो पहली बात है। जब विचार को देखोगे न, जो सोच रहे हो तो ये भी दिखाई देगा कि ये विचार किसने डाल दिया आपके दिमाग में? किस दिशा से आया है ये विचार? जिस दिशा से आया है उसी दिशा के इशारों पर चल रहा है। जिस दिशा से आया है उसी दिशा की ओर आपको भी ले जाना चाहता है।
तो विचार में अपनापन कितना है? विचार में आत्मा कितनी है? ये जानना बहुत ज़रूरी है। लेकिन विचार कैसा भी हो, अन्धी मान्यता से तो श्रेष्ठ ही होता है।
प्र३: सर, जैसे जब मैं छोटी थी तो मैं अपनी टीचर से बहुत प्रभावित थी तो मैंने फैसला किया कि मैं टीचिंग लाइन में ही जाऊँगी। और मैं एक्सप्लेन भी बहुत अच्छा करती थी। अपने स्कूल में अपनी दोस्तों को पढ़ाती थी। तो मैं इसी लाइन में आगे गयी और इसी लाइन की पढ़ाई करी है और अब मुझे नौकरी नहीं मिल रही। सरकारी नौकरी की तैयारी अब मैं नहीं कर पा रही हूँ तो मैंने प्राइवेट सेक्टर चुन लिया और अब मैं उसी में हूँ। पर मुझे अब ये लगता है कि क्या मैं टीचर बनने के काबिल भी हूँ? क्या मैंने सही निर्णय लिया था बचपन में, जो मैंने सोचा था कि मुझे टीचिंग लाइन में ही जाना चाहिए।
आचार्य: देखो, आमतौर पर बचपन में जो सोचो जो बनना चाहो अगर वही बनने के लिए जवानी लगा दो तो बात ठीक होती नहीं। क्योंकि बचपन की सोच बच्चे की थी और बच्चे के लिए थी। बचपन की सोच बड़े के लिए तो थी ही नहीं न! बचपन में तो लोग पता नहीं क्या-क्या बनना चाहते हैं!
अब वो तीन साल के हो, छह साल के हो कोई फितूर लग गया कुछ बनना है। अब वही तुम कह दो कि मुझे अपनी बचपन की ख़्वाहिश से वफ़ा निभानी है। और जो मैंने सोचा था चार की उम्र में वही चालीस की उम्र तक करना है तो ये बात कैसे जायज़ हो सकती है?
छोटे बच्चे वहाँ जाते हैं, वो देखते हैं कि वो घोड़े वाला घोड़े को लेकर जा रहा है और उन्हें घोड़ा बहुत पसन्द आ गया। बोलते हैं, ‘मैं बड़ा होकर घोड़े वाला बनूँगा।’ अब वो ज़िन्दगी लगा दे घोड़े वाला बनने में। छोटे बच्चे को तो कुछ भी अच्छा लग सकता है। पुलिस सबको बनना होता है बचपन में। पायलट सबको बनना होता है। ट्रेन पर अगर चला है तो पूछेगा, 'ट्रेन कौन चला रहा है?' मैं भी — लोकोपायलट भी बनूँगा। किसको क्या नहीं बनना!
ट्रैफ़िक वाला बड़ा ज़बरदस्त लगता है, इतनी गाड़ियाँ एक साथ रोक दी, मैं भी वही बनूँगा। बीच में खड़ा हुआ सिंघम की तरह और उसके एक इशारे पर पूरा ट्रैफ़िक रुक गया है और जो रुका नहीं खट से उसने उसका चालान काट दिया, मुझे भी बनना है। अब इस चीज़ को खिलवाड़ की तरह छोड़ भी देना चाहिए न इसकी जगह पर! आगे नहीं लेकर जाना चाहिए। सब तो बचपन का प्यार है ये (श्रोतागण हँसते हैं), तो ज़िन्दगीभर थोड़े ही निभाओगे।
और ये भूलना नहीं आज अपनी उम्र में मान लो पच्चीस के हो पीछे मुड़कर देखते हो कहते हो पाँच या पन्द्रह की उम्र में जो सोचा था वो कितनी बचकानी बात थी। ठीक उसी तरीक़े से पच्चीस की बात पैंतीस में बचकानी लगती है और पैंतीस की बात पचपन में।
तो ज़िन्दगी को किसी भी जगह पर जमा नहीं देना चाहिए। कोई भी फ़ैसला आख़िरी नहीं होना चाहिए। अपनेआप को ये अनुमति देनी चाहिए, ये छूट हमेशा उपलब्ध रहनी चाहिए कि और सुधर सकें, बेहतर हो सकें, बदल सकें, ऊँचे जा सकें। स्थायी हो जाएँ, ऐसे बन्धन बिलकुल नहीं पहनने चाहिए। आ रही है बात समझ में?
हमारा उल्टा है। हम बन्धन भी वही चाहते हैं, बन्धन पसन्द भी वही करते हैं जो जन्म भर के लिए हों, एकदम चिरंजीवी। सरकारी नौकरी और काहे के लिए चाहिए होती है? चिरंजीवी होती है। आप मर भी गये अगर सेवाकाल में तो आपकी पुश्त को मिलती है फिर। कहते हैं अब इनको दे दो। इतनी चिरंजीवी होती है, आप मर जाएँ तब भी नौकरी चलती रहती है। आप पर कोई आश्रित है उसको मिल जाएगी। बताओ कितनी मज़ेदार बात है! बन्दा मर गया, नौकरी चल रही है!
ठीक जिस चीज़ को स्थायी नहीं करना था आपने उसको स्थायी कर लिया। और ये बड़ी बातें होती हैं। आजीविका का प्रश्न छोटा-मोटा नहीं है। आप क्यों कहा रहे हो कि पच्चीस की उम्र में घुस गया हूँ, वही काम करूँगा पैंसठ की उम्र तक? ये क़ैद नहीं हो गयी? ये जेल नहीं बनाई आपने-अपने लिए? कि जीवन के चालीस आपके उत्पादक वर्ष थे जब आपके पास यौवन था, शक्ति थी, बुद्धि थी और आपने पहले ही अपनेआप को बाँध लिया कि इसमें तो यही काम करना है।
अब मत्स्य विभाग, नहीं तो कुक्कुट पालन, मुर्गी पालन में इनकी नौकरी लगी है। अब ऐसे ही लगती है, चुनकर तो लगती नहीं। प्रवेश परीक्षा में जिस हिसाब से रैंक आ गयी या जिधर को घूस चल गयी उधर को नौकरी लग जाती है। अब वे ज़िन्दगीभर मुर्गी पालन में! पैदा हुए थे मुर्गी पालने को? कुक्कड़ कूँ! और चालीस साल तक यही कर रहे हैं, मुर्गी पालन में नौकरी लगी है। और सरकारी ऐसे ही होते हैं विभाग। वो तो कुछ भी विभाग बना देंगे, तुम उसी में लग गये हो। यही कर रहे हैं।
सत्य के अतिरिक्त सबकुछ चलायमान होना चाहिए। जब ऋषियों ने समझाया सत्य मात्र अटल है, अचल है तो इसका अर्थ तो समझो। सत्य के बारे में नहीं कह रहे थे वो कुछ। सत्य तो निर्गुण होता है, उसके बारे में कोई क्या बोलेगा? सत्य का कोई गुण है? सत्य कोई संज्ञा है? तो सत्य के विषय में क्या वाचन हो सकता है?
कुछ नहीं किया उन्होंने पर जब उन्होंने कहा कि सत्य अटल है, अचल है तो वो ये समझाना चाह रहे थे, बच्चा कि बाक़ी सबकुछ चलता रहे। ‘आणे दे, चलने दे, रुक मत।’ “बहता पानी निर्मला, बंधा गंदा होय” — ‘रुकना मत, बहते रहना।’ पर हमें लगा सत्य के बारे में कोई सिद्धान्त बताया गया है। सत्य वो है जो अटल है।
तो मास्टर जी ने कहा, 'बेटा! ये देख रहे हो, ये गिलास है। ये हिली? नहीं हिली। तो ये गिलास क्या है? यही तो सत्य है। ‘महाराज-महाराज, महाराज की जय हो!’
अरे! जिन्होंने सत्य के बारे में दो-चार बातें बोल दी, उन्होंने ये भी तो बोल दिया न कि उस तक वाणी जाती नहीं, उस तक कल्पना भी नहीं जाती। न कान जाते हैं, न शब्द जाते हैं, न मन जाता है, न इन्द्रियाँ जाती हैं, बुद्धि नहीं जाती है, स्मृति नहीं जाती है, वहाँ तक कुछ नहीं जा सकता तो उसके बारे में कुछ बोला जा सकता है? नहीं।
तो सत्य के बारे में जो बोला वो भी घुमा-फिराकर किसके बारे में बोला? वो जीवन के माने प्रकृति के बारे में बोला है, संसार के बारे में बोला है। सत्य के बारे में नहीं, संसार के बारे में बोला है और क्या बोला है? यहाँ सब चलने दो।
“नदिया चले चले रे धारा, तुझको चलना होगा।” चालीस साल तक जम नहीं जाना है। ‘मिल गयो विभाग! अब जम जाओ!’ — और पूरा हिन्दुस्तान इसी में है। शादी करते हैं तो जमाकर, नौकरी करते हैं तो जमाकर, घर बनाना है खट से जमाकर के। सबकुछ जमा-जमाया पुश्तैनी है। हर जमी-जमाई चीज़ पर हिन्दुस्तानी आदमी एकदम आशिक है।
कहते हैं, 'आठ सौ साल पुरानी जमी-जमाई परम्परा है। ये सात सौ साल पुराना कुँआ है, हम इसी का पानी पीते हैं। पर ये तो सूख गया है, इसमें तो कीचड़ है? अब हम पानी इसको दिखाकर पीते हैं।'
कहीं कोई छोटा सा मंदिर बना देगा, उस पर क्या लिखता है तुरन्त? प्राचीन मंदिर। अभी परसों बनाया है न तूने? क्यों लिखा प्राचीन? कहते हैं, 'प्राचीन लिखने से ही तो बात बनती है। पता चलना चाहिए कि चीज़ जमी-जमाई है।’ और ऋषियों ने समझाया था कि जमा-जमाया तो सिर्फ़ एक हो सकता है, बाक़ी सब अगर जमा-जमाया मिले तो गड़बड़ है। बाक़ी सब एकदम परिवर्तनशील और नूतन होना चाहिए।
लेकिन जो अपरिवर्तनीय है उससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं और जो लगातार बदलता रहना चाहिए हमने उसको पकड़कर के जमा दिया है। जैसे वही नदी के बहते पानी को कोई छोटे से गढ्ढे में जमा दो और वहाँ सड़ जाए। तो ऐसा सड़ा हुआ हो गया है हमारा मन, दिमाग, समाज और संस्कृति।
बहने दो न! डर क्या रहे हो? आने दो न जो कुछ नया आ रहा है। डरना क्या है! सबकुछ ही तो नया है। जन्म भी नया था, मौत भी नयी होगी। ऐसा कोई है जिसके लिए जन्म जानी-पहचानी घटना है? पैदा होते ही बोले, 'हाँ, पता है, ठीक है। बीन हियर, डन दैट , ये सब तो मैं कई बार कर चुका हूँ। ये नर्स, हाँ इसको तो मैं जानता हूँ। मिली थी अभी छह महीने पहले भी। ‘एक बार जन्म लिया था तो वो नयी चीज़ थी न? मरोगे भी एक बार या पाँच-सात मरने का कोई हिसाब? सबकुछ तो नया ही होना है, बदलना ही है तो बदल ही लो, काहे को घबरा रहे हो इतना?
‘घर नहीं छोड़ेंगे, मोहल्ला नहीं छोड़ेंगे, शहर नहीं छोड़ेंगे! किसी घटिया रिश्ते में फँस गये हैं वो रिश्ता नहीं छोड़ेंगे! घटिया नौकरी कर रहे होंगे, उसको नहीं छोड़ेंगे! सड़े हुए मोहल्ले में रह रहे होंगे, उसको नहीं छोड़ेंगे! पुराने सड़े-गले विचार-मान्यताएँ होंगी, उसको नहीं छोड़ेंगे! किसी को किसी समय सम्मान दे दिया होगा, आज भी उसके आगे सिर झुकाना नहीं छोड़ेंगे!’ क्या है?
जिस बिन्दु पर भी पता चल जाए कि कुछ बेहतर सम्भव है, जो बेहतर है उसे होने दो, बाधा मत बनो। भले ही जिस चीज़ के साथ हो वो कितनी भी पुरानी है पर अगर उत्थान, कल्याण, बेहतरी, प्रगति सम्भव है तो उसको कभी रोकना मत।
जो भी चीज़ ज़रा सी भी उच्चतर हो सकती है, उसको उच्चतर होने देना, उसको उच्चतर करना यही तो धर्म है। जीवन और किसलिए है? लगातार ऊर्ध्वगमन के लिए। इस पल जैसे हो अगले पल उससे बेहतर हो जाओ।
अड़ जाओ, जम जाओ, ऐसे नहीं करना है। मर जाओगे अभी तो फिर तो एक जगह जम ही जाओगे। कब्रें भागती हुई तो नहीं देखी हमने। तो जब तक मर नहीं रहे तब तक तो गतिशील रहो न!
प्र३: सर, मसला यही है कि मैं निर्णय नहीं ले पा रही हूँ कि क्या मेरे लिए यह बेहतर है मैंने प्राइवेट स्कूल चुना है। क्या मुझे वहाँ आगे बढ़ने का मौक़ा मिलेगा?
आचार्य: वो तो करके पता चलेगा न कि हो रहा है कि नहीं! देखो कि हो रही है प्रगति तो ठीक है। नहीं हो रहा तो कुछ और आज़माओ ओर केन्द्रीय प्रश्न हमेशा यही होना चाहिए कि मुझे यहाँ मिल क्या रहा है? ‘क्या मैं यहाँ वाक़ई एक बेहतर व्यक्ति बन पा रही हूँ? सोच का दायरा खुल रहा है? डर कम हो रहे हैं? चेतना, ज्ञान विस्तृत हो रहे हैं ज़्यादा?’ ये प्रश्न केन्द्रीय होना चाहिए।