ये प्रेम नहीं है || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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ये प्रेम नहीं है || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: सर नमस्ते, चार साल से एक लड़के के साथ सम्बन्ध में हूँ। हम एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं, पर प्यार के साथ रिलेशनशिप (सम्बन्ध) में रोमांस और इंटिमेसी (आत्मीयता) भी आते हैं। आज इतने सालों में उसको देखती हूँ, तो दिखता है कि उसे तो सिर्फ़ फिजिकल लव (शारीरिक प्रेम) ही चाहिए। शरीर से आगे वो कुछ देखता ही नहीं। मैं थक गयी समझा-समझा कर। मैं फँस सी गयी हूँ। प्यार तो मुझे भी चाहिए उससे, पर सिर्फ़ देह वाला नहीं। मैं उसे दूर नहीं कर सकती क्योंकि उससे प्रेम है। पर उसकी शर्तें भी नहीं मान सकती। क्या करूँ? श्रेया।

आचार्य प्रशांत: देखो श्रेया, प्रेम न तुम्हें है, न उसे है। अगर समझदार हो तुम तो मुझे अपना उत्तर यहीं पर ख़त्म कर देना चाहिए। पर इतनी समझदार होती तुम तो तुम्हें ये सवाल लिखने की नौबत क्यों आती। तो समझदार तुम हो नहीं इसलिए मुझे आगे अभी दस-पन्द्रह मिनट बोलने की तकलीफ़ उठानी पड़ेगी।

क्या-क्या बातें कही हैं? चार साल से सम्बन्ध में हो। हम दोनों एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं, पर उसे सिर्फ़ फिजिकल लव ही चाहिए। ये फिजिकल लव होता क्या है? मेरे लिए तो आज ये बिलकुल नयी चीज़ खुली है। थोड़ा समझाओ। मेरे भी ज्ञानचक्षु खुलें। ये फिजिकल लव क्या होता है?

लस्ट (हवस) की बात कर रही हो, उसको फिजिकल लव मत बोलो। सेक्स (यौन-क्रिया) की बात कर रहे हो, उसको फिजिकल लव मत बोलो। पर ये भी वही भाषा के पैंतरे हैं कि जब सेक्स को नाम ही अंग्रेजी़ भाषा ने दे दिया है ‘मेकिंग लव’ (प्यार करना), तो वैसे ही तुमने उसको बोल दिया ‘फिजिकल लव’। ये फिजिकल लव होता क्या है? अब ये मैं कह रहा हूँ। ये बात तुमको तो थोड़ी-बहुत बुरी लग ही रही होगी, न जाने कितनों का दिल टूट रहा होगा। कितनों ने तो अब तक हेट मैसेज (नफ़रत भरा सन्देश) भी टाइप कर दिये होंगे कि ‘ये बाबा प्यार का दुश्मन, हाय! हाय!’ प्रेम का मतलब समझते हो क्या होता है?

प्रेम का मतलब होता है— ‘तुम दूसरे की भलाई चाहते हो।’ और ये बात क्या इतनी कठिन है समझने में! तुम दूसरे का जिस्म नहीं चाहते, तुम दूसरे की भलाई चाहते हो; इसे प्रेम कहते हैं। दूसरे पर हवस का साँप बनकर लोट जाने को प्रेम नहीं कहते। ये सोचो, एक इंसान लेटा हुआ है और दूसरा उस पर हवसी अजगर बनकर कुंडली कसे हुए है। और उसको कसता ही जा रहा है, कसता ही जा रहा है और कह रहा है, ‘ये फिजिकल लव है’। और थोड़ी देर में जिसको कस रहा था उसके फिजिकल प्राण पखेरू उड़ गये।

दोहराओ, दस बार दोहराओ— ‘प्रेम का मतलब होता है दूसरे की भलाई चाहना।’ वो तुम्हारे ऊपर चढ़ बैठता है, इसमें तुम्हारी कौनसी भलाई हो जाती है भाई! कोई भी किसी पर चढ़ बैठे, चाहे शारीरिक रूप से, चाहे मानसिक रूप से, इसमें भलाई किसकी कहाँ हो जानी है। या हो जानी है? हो जाती है तो बता दो, मैं शायद जानता नहीं।

मालिश-वालिश की बात अलग है कि तेल लगा के हाइशा! चलो रे! पीठ पर चढ़ जाओ, मुक्के-वुक्के मारो एकदम, आज बढ़िया मसाज चाहिए। वो चीज़ दूसरी है। अगर तुम उसका ज़िक्र कर रही हो, तो मैं सवाल समझा नहीं तुम्हारा। पर मुझे लगता नहीं कि बात यहाँ मालिश-वालिश की हो रही है। कौनसा तुमको फ़ायदा मिलता है अगर कोई आकर तुम पर चढ़ बैठता है। हाँ! ये ज़रूर हो सकता है कि थोड़ी देर के लिए तुमको भी शारीरिक सुख मिल जाता हो। फिर तुम्हारी जीवन में तरक़्क़ी आ गयी? तुम्हारी चिन्ताएँ कम हो गयीं? तुम्हारी बेचैनियाँ मिट गयीं? तुम इंसान बेहतर बन गयी? तुम्हें कुछ ज्ञान हो गया? तुम्हें दुनिया का अनुभव मिल गया? तुम्हारे भीतर से डर चला गया? लालच चला गया? बोलो!

तुम किस तरीक़े से एक बेहतर इंसान बन पायी हो ये चार साल तक जिस्मानी खेल, खेल-खेल कर। बोलो? और अगर इससे तुम्हें कोई बेहतरी मिली है, तो करे जाओ, खूब करो। यही करो, और कुछ करो ही मत, खाना-पीना भी छोड़ दो। यही करो बस। भाई, जिस चीज़ से बेहतरी मिल रही हो ज़िन्दगी में, आदमी वही करे, उसके अलावा कुछ और क्यों? इससे कोई बेहतरी नहीं मिल रही। इससे शरीर तो गन्दा होता ही होगा, मन भी गन्दा होता होगा। किसी की हवस का खिलौना बनकर किसको चैन मिलना है या शांति या तरक़्क़ी। ऐसा ही लगता होगा जैसे किसी ने इस्तेमाल कर लिया तुम्हारा, यूज्ड (इस्तेमाल किया हुआ)।

क्या उससे तुम्हारे जीवन में बेहतरी आ रही है? और उसको प्रेम का नाम क्यों दे रही हो? और नाम इसलिए दे रही हो क्योंकि फ़िल्मों में देख लिया कि इसको ही तो प्रेम कहते हैं। कि लड़का और लड़की मिले और लगे एक-दूसरे को चाटने, यही प्रेम है। और पक्का समझ लो, तुम इस बात को प्रेम नहीं बोलती अगर तुमने ये सबकुछ फ़िल्मों में न देखा होता, दोस्तों से न सुना होता या इधर-उधर कहीं पढ़ न लिया होता, वगैरह-वगैरह। ये सबकुछ दिमाग में जो प्रभाव डाल दिए गये हैं, जो बातें रटा दी गयी हैं, जो सिद्धान्त चटा दिए गये हैं, उनका नतीजा है कि हम प्रेम के नाम पर न जाने क्या-क्या करतूतें कर रहे हैं जिनका प्रेम से कुछ दूर-दूर का ताल्लुक नहीं।

फिर दोहराओ, प्रेम क्या है? दूसरे की भलाई, बेहतरी और तरक़्क़ी को प्रेम कहते हैं। दूसरे का हित हो सके, इसकी ख़ातिर अपना भी नुक़सान कर लेने को प्रेम कहते हैं। दूसरे का शोषण प्रेम नहीं कहलाता। दूसरे पर माँगें रखना प्रेम नहीं कहलाता। दूसरे के ऊपर शर्तें थोपना प्रेम नहीं कहलाता। ये आप लोग जिस चीज़ को प्यार बोल रहे हैं, ये दूर-दूर तक प्यार नहीं हैं।

और प्यार बड़ी महँगी चीज़ होती है। ऐसे थोड़ी होता है कि जवान हो गये तो प्यार आ गया। ऐसे थोड़ी होता है कि शरीर में कुछ हॉर्मोन्स, रसायन वगैरह अब उठने लग गये तो आप भी प्रेमी हो गये। प्रेम सीखना पड़ता है भाई! और आप ज़िन्दगी के चालीस-पचास साल लगाकर भी प्रेम सीख लो तो बड़ी बात है।

अब इतने में बहुत लोगों को मज़ाक मिल गया होगा। वो कहेंगे, ‘देखो, ये क्या बोल रहे हैं? ये कह रहे हैं कि प्रेम सीखने में चालीस साल लगाने पड़ेंगे। अरे! चालीस साल प्रेम सीखने में लगाए, साठ साल के हो गये। तो क्या बुढ़ापे में प्यार करेंगे?’

क्यों भाई, बुढ़ापे में क्या आपत्ति है? देखो, तुम्हारा इसके पीछे मान्यता क्या है। तुम कह रहे हो, ‘बूढ़े हो गये तो सेक्स कैसे करेंगे।’ तो तुम जो मज़ाक भी सोच रहे हो मेरी बात को, उसके पीछे भी तुम्हारी मान्यता यही है कि प्यार का सेक्स से कोई बहुत गहरा ताल्लुक है। वरना तुम इस बात पर हँस नहीं पाते कि साठ साल में प्यार क्या करेंगे।

प्यार वो चीज़ है जो उम्र बढ़ने के साथ गहराती है, मीठी होती है। फिर कह रहा हूँ, ‘प्यार सस्ता नहीं होता, पर प्यार प्राकृतिक नहीं होता।’ प्यार ऐसा नहीं होता कि कोई भी ऐरा-गैरा आये, उसको प्यार आ जाएगा। प्यार सीखना पड़ता है, प्यार साधना द्वारा अर्जित किया जाता है। प्यार प्राकृतिक नहीं होता, डकार प्राकृतिक होती है। शारीरिक हरकतें प्राकृतिक होती हैं। प्यार शारीरिक नहीं होता, इसीलिए प्यार प्राकृतिक नहीं होता। प्यार का मतलब होता है— अपने मन को उस हालत पर ले आना, मन को साफ़ करके, मन को निर्भय करके, जहाँ मन दूसरे का हित अपने हित से ऊपर रख सके। सोचो, इसमें कितनी मेहनत लगेगी मन को इस हालत में लाने में।

ऐसा थोड़ी है कि सोलह साल के हो गये, तो हमें भी जी हो गया। क्या हो गया? अरे! बस अभी कल रात को ही हुआ है, प्यार हुआ है। ऐसे बदहजमी हो सकती है, ऐसे दस्त हो सकते हैं; प्यार नहीं हो सकता। कि मुझे भी हो गया। तुझे हुआ क्या? मुझे भी हो गया। अरे! वायरस है क्या कि तुझे भी लग गया।

मन को ज़बरदस्त शिक्षा देनी पड़ती है। बड़ी सफ़ाई करनी पड़ती है। जीवन को, दुनिया को समझना पड़ता है। और बिलकुल ठीक समझ रहे हो तुम। हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे लोग मर जाते हैं बिना प्यार का ‘प’ भी समझे, ‘आधा प’ भी समझे। क्योंकि जीवन में उन्होंने और दस चीज़ों पर ध्यान दे लिया होगा तो दे लिया होगा, मन को प्यार सिखाने पर उन्होंने कभी कोई ध्यान दिया नहीं। तो प्यार के नाम पर ऊल-जलूल हरकतें उन्होंने खूब करीं जीवन में, अपनेआप को भी खूब धोखा दिया कि साहब, हमें इससे प्यार है, उससे प्यार है।

न तुम्हें किसी से प्यार है, न तुमसे किसी ने कभी प्यार किया। प्यार करना बिरलों का काम होता है, प्यार करना सूरमाओं का काम होता है। प्यार करना बहुत सुलझे हुए लोगों का काम होता है। प्यार करना बहुत निर्भीक लोगों का काम होता है। ऐसा थोड़ी है कि सब ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे कह रहे हैं, ‘हम भी आशिक! हम भी आशिक!’ मुँह धोना आता नहीं, आशिकी चरम पर है।

ऐसे नहीं होता है। ये सब तो पुराने पैंतरे हैं हवस मिटाने के, ‘आइ लव यू!’ ‘आइ लव यू!’ का और मतलब क्या होता है— ‘आइ लव यू!’ बोलो, जिस्म का खेल खेलो। और आवश्यक नहीं है कि जो ‘आइ लव यू!’ बोल रहा है, उसने बहुत सोच-समझ कर ये इरादा करा हो कि ‘आइ लव यू!’ बोलकर फँसाऊँगा। कई बार तो ये सोच समझकर चाल भी रची जाती है। कई बार चाल नहीं रची जाती लेकिन फिर भी भीतर वृत्ति का इरादा यही होता है। अर्धचेतन तरीक़े से, सबकॉन्शियस (अचेतन) तरीक़े से आपकी योजना यही होती है कि प्यार शुरू हो और जिस्म तक पहुँचे।

जल्दी से कहने मत लग जाना कि नहीं, मेरा तो ऐसा कोई इरादा नहीं है। मेरा प्यार तो सच्ची भावना मात्र है। जो लोग बोल रहे हैं, ‘मेरा प्यार सच्ची भावना मात्र है’ वो ‘भावना’ शब्द ही नहीं समझते। भावना कोई हल्की-फुल्की चीज़ नहीं है। पहले समझो, भावना होती क्या है? भाव माने क्या? भावना कहाँ से उठती है? उसका विचार और वृत्ति से क्या सम्बन्ध है? पहले जानो तो सही कि भावना और देह एक ही बात हैं या अलग-अलग हैं।

चिल्लाने मत लग जाना कि वीडियो देख रहे हो और चिल्ला रहे हो कि मेरे प्यार की बेइज़्ज़ती करी जा रही है। देखो मेरी पवित्र प्रेम की भावना का अपमान हो रहा है। न तुम पवित्रता जानते, न प्रेम जानते, न भावना जानते। अब तुम्हारा अपमान करने की ज़रूरत ही क्या है। तुम्हारी ज़िन्दगी यूँही अपमानित है। बात समझ रहे हो?

जिन्होंने जाना उन्होंने कहा है— ‘जिस रास्ते पर चलकर के तुम अपने बन्धनों से आज़ाद हो जाओ उसे प्रेम कहते हैं।’ वो कहते हैं कि बहुत हैं जो बार-बार कहते हैं कि प्रेम-प्रेम-प्रेम, लेकिन प्रेम वो समझते नहीं हैं। प्रेम की एक ही परिभाषा है— ‘जिस रास्ते पर चलकर के तुम वो रह ही न जाओ जो तुम पहले थे; तुम्हारे भ्रम, भ्रान्तियाँ, बन्धन, सब टूट जाएँ वो रास्ता प्रेम कहलाता है।’ श्रेया, तो अब ये जो तुमने मुद्दा लिखा है, इसपर तुम्हें क्या करना है वो तुम जानो। मैं फिर वही बात दोहरा देता हूँ जो मैंने पहले वाक्य में कही। ये जो क़िस्सा है, ये प्रेम का है ही नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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