ये है भारत का बड़ा अपराध? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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ये है भारत का बड़ा अपराध? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: भारत का अपराध यह रहा है कि भारत ने जीवन की कुछ सच्चाइयाँ जानी हैं। जो उन सच्चाइयों को जान ले वह खतरनाक हो जाता है, उसको दबाना बहुत ज़रूरी हो जाता है। जानते हो भारत ने कौन सी सच्चाई जानी है? भारत ने जान लिया है कि यह जो पूरा विश्व ही है न, यह जो पूरा भौतिक संसार है, इसका जो पूरा प्रसार है, यही कितना सार और कितना निःसार है। यह भारत ने जाना है और जो यह बात जान ले, वो उन लोगों के लिए बड़ा खतरा हो जाता है जो संसार को ही भोगने और चाटने के लिए लालायित होते हैं। बात समझ में आ रही है कुछ?

एक जवान आदमी जवानी की हसरतों के साथ, और कामनाओं, और उन्मादों, और वृत्तियों के साथ खड़ा हुआ है भोग-विषयों की एक बड़ी दुकान के सामने, और उस दुकान में भोगने के जितने विषय हो सकते हैं सब मौजूद हैं: खाने का चाहिए—मिलेगा, पहनने का चाहिए—मिलेगा, औरत चाहिए—मिलेगी, आदमी चाहिए—मिलेगा, पैसा चाहिए—मिलेगा, इज़्ज़त चाहिए—मिलेगी, रोमांच चाहिए—मिलेगा, बड़ी दुकान है—सब मिलेगा। और उसके सामने एक जवान आदमी खड़ा हुआ है, ऐसा जवान आदमी जिसको अध्यात्म में, धर्म में कोई शिक्षा नहीं मिली है। शरीर से जवान हो गया है, मन से शिशु है—अज्ञानी, और वह लालायित हो रहा है बार-बार अंदर जाने को।

दुकानदार उससे कह रहा है, ''आ, भीतर आ और अपना जो भी जमापूँजी है, अपना सर्वस्व है, सब इधर देता जा, भोगने को जो-जो चाहता है मैं दूँगा।'' और यह जवान गोरा आदमी लम्बा है, तगड़ा है, गोरा है, आकर्षक है। अरे, अपनी भाषा में कहें तो अंग्रेज़ है। जवान, गोरा, लम्बा, आकर्षक माने अंग्रेज़। इसके बगल में खड़ा हुआ है एक प्रौढ़ उम्र का साधारण-सा दिखने वाला, दुबला-पतला, मंझोले कद का, सांवला-सा, गेरुए वस्त्र धारण किया हुआ किसान। किसानी करते हुए सन्यस्थ है। किसान है, अपने घर का काम चलता है, गेरुआ धारण करे है लेकिन। इस प्रौढ़ व्यक्ति ने दुनिया देखी है, ध्यान देखा है, भक्ति देखी है, जीवन को समझता है। जितनी बार यह जवान अंग्रेज़ भोग की उस दुकान में घुसता है, उतनी बार यह कहीं से प्रकट हो जाता है गेरुआ किसान। ज़्यादा बोलता नहीं, बस मुस्कुरा देता है। उसको अंदर के खाने-पीने में आसक्ति हुई जा रही है, जवान आदमी को, यह बाहर मौज में बैठकर के सत्तू फेट रहा है, फिर ज़रा सी उसमे मिर्च डालता है और स्वाद ले-ले के चटकारे भरता है, और फिर गाता है: "मन लागो यार फकीरी में"।

हमारे जवान अंग्रेज़ के सामने बड़ी दुविधा है। उसको इतना तो समझ में आ रहा है कि कोई राज़ है जो ये प्रौढ़ गैरिक वस्त्र धारण किए हुए किसान को पता है, लेकिन भीतर उसे जो भोग-माया दिखाई दे रही है, उसकी तो बात ही निराली है। और हमारा ये देसी ताऊ बड़ा मस्त-मौला है; बोलता कुछ नहीं है, बस कुछ गा देता है। कभी कबीर साहब का कोई दोहा बोल दिया, और जाने किस मिट्टी से आया है जहाँ के पुराणों में कहानियाँ-ही-कहानियाँ भरी हैं, कभी कोई छोटी-सी कहानी बोल दी। बड़ी दिक्क्त हो रही है दुकान को भोगने में, बड़ी दिक्क्त हो रही है। गेरुए की उपस्थिति ही घातक है अगर तुम्हारा इरादा जीवन को अज्ञान और भोग में बिताने का है। गेरुए की उपस्थिति घातक है, बहुत घातक है क्योंकि गेरुआ दुनिया को जानता है, संसार को जानता है, भोग के यथार्थ को जानता है, वह तुम्हें चैन से भोगने नहीं देगा क्योंकि वह खुद नहीं भोगता। यह नहीं कि वह तुम्हारे हाथ पकड़ लेगा, यह नहीं कि वह बल प्रयोग करेगा, वह तुमको दिखा देगा बस कि सत्तू फेट कर के भी—"जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में"।

अब अंदर पैसे की दुकान, नए-नए वहाँ पर तरीके बताए जा रहे हैं समृद्धि के, और यह कह रहा है—"जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाही अमीरी में"। हमारे हैंडसम नौजवान के लिए बड़ी दिक्क्त हुई जा रही है। जब दिक्क्त बहुत बढ़ जाती है तो वह मुड़ता है उस किसान की ओर, और बोलता है, "है क्या तेरे पास? दिखा!" बोलता है, ''हाथ में कुण्डी, बगल में सोटा, चारो दिशा जगीरी में"। बोलता है, ''अच्छा, हाथ में कुण्डी, बगल में सोटा, और मेरे पास यह है 'फ्रेंच-मेड'। ये है?” और जब वह ये दिखाता है तो वह और हँसता है, और हँसता है, बोलता है, ''लूट लो''। वह लूट ही लेता है और वह उसको जितना लूटता जा रहा है, जितना लूटता जा रहा है, वह उतना हँसता जा रहा है, उतना हँसता जा रहा है। लूटना बहुत ज़रूरी है; जब तक उसे लूटा नहीं, जब तक उसे दबाया नहीं, जब तक उसे अपमानित नहीं किया तब तक चैन से भोग नहीं सकते।

वह जो गेरुआ है, वह व्यक्ति नहीं है, वह एक ज़बरदस्त सिद्धांत है, वह एक ऐसा सिद्धांत है जो अगर ज़िंदा रह गया तो किसी अज्ञानता को, किसी मूर्खता को जीने नहीं देगा। अज्ञान को, और मूर्खता को, और भोग को, और लिप्सा को अगर जीना है तो गेरुए को मारना बहुत ज़रूरी हो जाता है। गेरुए को पद्दलित करना, अपमानित करना बहुत ज़रुरी हो जाता है, और वह अपना निकालता है 'फ्रेंच पिस्तौल', हँसे ही जा रहा है न वह पगला, और उसके खोपड़े में दाग देता है और वह मरते-मरते भी बोल रहा है: "अयमात्मा ब्रह्म"। कांप गया एक बार को तुम्हारा हैंडसम गोरा। वो मरते-मरते भी बोल रहा है: "आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता, तीर बींध नहीं सकते, वो हूँ मैं; सोऽहं"। पर मार तो दिया ही उसको। अब वो मर गया। अब आराम से नाचो। भीतर ज्ञान भी बहुत है, कौन-सा ज्ञान? भौतिक ज्ञान, सांसारिक ज्ञान। अब भोगो, जो भोगना है भोगो।

अगर अहंकार का वर्चस्व स्थापित करना है तो भारत को अपमानित करना बहुत ज़रुरी हो जाता है, और जब मैं भारत कह रहा हूँ तो भूलियएगा नहीं, मैं किसी राजनैतिक इकाई की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं किसी सामाजिक इकाई की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं किसी विशेष धर्म, पंथ, समुदाय की भी बात नहीं कर रहा हूँ; मैं उस चित्त की बात कर रहा हूँ जो सत्य का पारखी है क्योंकि वह चित्त ही भारत की असली पहचान है, बाकी सब बातें एक तरफ। भारत की कोई पहचान बचनी नहीं है। भारत की कोई पहचान भारत के काम नहीं आएगी। भारत की वास्तव में एक ही पहचान है असली—अध्यात्म। जब मैं कहूँ भारत, तो मेरा मतलब है अध्यात्म, जब मैं कहूँ गेरुआ, तो मेरा मतलब है अध्यात्म।

चलो, उन्होंने तोड़ दिया, मरोड़ दिया, अपमानित कर दिया, पर हम अपनी नज़रों में क्यों गिर गए, भाई? उनका तो स्वार्थ था यह सिद्ध करने में कि हम गिरे हुए ज़लील लोग हैं, हम क्यों अपनी नज़रों में गिर गए? बोलो। हम क्यों अपने जीवन को, अपने इतिहास को, अपनी भाषा को उनकी नज़रों से देखने लगे? और आज तो वह प्रकट रूप से हमारा कोई नुकसान कर भी नहीं रहे, कर भी रहे हैं तो कम ही, कर सकते नहीं है। आज तो हमारा नुकसान करने वाले हम ही लोग हैं। हमारे ही भीतर बैठे हुए हैं वो लोग जो हमें भीतर से नीचा दिखाते हैं, भितरघाती हैं।

बात कुछ समझ में आ रही है कि क्यों हमारे अवचेतन में हिंदी के विरुद्ध दुराग्रह बैठ गया है? क्यों किसी भी दफ्तर में, किसी भी औपचारिक अवसर पर हिंदी बोलते हमारी ज़बान में गांठ पड़ जाती है? तुम कोशिश करो, बोल ही नहीं पाओगे। करो कोशिश, बड़ी दिक्क्त आने वाली है। हवाई अड्डे पर 'चेक इन' करने जाना, और वहाँ कोशिश करना शुद्ध हिंदी में जो काउंटर पर सज्जन या देवी जी बैठे हैं उनसे बात करने की। तुम कहोगे, "शुद्ध हिंदी क्यों?” तुम शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं बोलते क्या? और जब शुद्ध अंग्रेज़ी बोलते हो तब तुमको बड़ा अच्छा लगता है, लगता है न? नए-नए शब्द तुम अपने शब्द-कोष में जोड़ते रहते हो ताकि तुम्हारी अंग्रेज़ी और ऊँची, और-और शुद्ध होती रहे।

अंग्रेज़ी को तो बढ़ाना चाहते हो, अंग्रेज़ी के अपने शब्द-कोष का विस्तार करना चाहते हो और हिंदी में अगर सही शब्द बोल दें तो तुम बोलते हो, ''दूरदर्शन की भाषा क्यों बोल रहे हो, साहब?'' अंग्रेज़ी शुद्ध होती चले तुम्हारी तो बड़े प्रसन्न होते हो, और हिंदी को तुम चाहते हो कि विकृत और भ्रष्ट ही रखो। यह क्या तर्क है? बताओ मुझे। विमान में 'एयर होस्टेस' को देवी जी कह कर मैं क्यों नहीं बुला सकता? और बुलाऊँ तो तुम्हारी हँसी क्यों छूट जाती है? जवाब दो।

अंग्रेजी में जब तुम्हें किसी शब्द का अर्थ नहीं पता होता, तुम तत्काल शब्द-कोष खोलते हो, खोलते हो कि नहीं? और उस शब्द को तुम अपने कोष में जोड़ कर के गौरवान्वित हो जाते हो। तुम कहते हो, ''ये देखो, आज एक और नया शब्द हमने जोड़ लिया"। और इतना ही नहीं, लोगों पर रुतबा जमाने के लिए नए-नए सीखे हुए शब्द का झट-पट कहीं प्रयोग भी कर आते हो, कि भाई, वसूलना भी तो है, नया-नया शब्द सीखा है। तो किसी को अगर बेवकूफ बोलना है तो उसको बेवकूफ नहीं बोलोगे, उसे बोलोगे: 'बर्ड-ब्रेन', 'डिमविट', 'मोरोन', 'ओफ़'। बेवकूफ बोलने में क्या रखा है? सीधे बोल दिया 'फूल'। दस-बारह रंग-बिरंगे शब्द होने चाहिए न, उससे ज़रा सिक्का जमता है, प्रभाव पड़ता है, भाई। और हिंदी में अभी मैं अगर तुमको बोलूँ, ''इधर आ रे मंदबुद्धि,'' तो तुम कहोगे, ''ये देखो, फिर इनकी आकाशवाणी शुरू हो गई। मंदबुद्धि क्या होता है?” अभी बोलूँ, ''हे विकृतमना," तो तुम कहोगे, ''ये अभी सीधे-सीधे रामायण से ही उतर रहे हैं"। विकृतमना में तुमको बड़ी आपत्ति है और 'डिमविट' तुमको बड़ा सहज लगता है। तुम्हें समझ में नहीं आता कि तुम बुरे तरीके से बर्बाद किए जा चुके हो। जो बात बोल रहा हूँ एक-एक पर लागू होती है कि नहीं?

तुमसे कोई अंग्रेज़ी बोले और उसके शब्द तुम्हें समझ में ना आएँ तो तुमको लगता है तुम्हारी गलती है। ठीकि? क्योंकि वह तो अंग्रेज़ी बोल रहा है, तुम्हें नहीं पता तो किसकी गलती? तुम्हारी गलती। और तुम किसी से हिंदी बोलो, उसको हिंदी समझ में ना आए तो उसकी गलती नहीं होती, बोलने वाले की गलती होती है। यह क्या अन्याय है, भाई? तुमसे कोई अंग्रेजी बोले, तुम्हें उसका कोई शब्द समझ में नहीं आया, तुम शर्म से गड़ जाओगे यह कहने में कि नहीं जी, मैं 'डेलिनकुएंट' शब्द का अर्थ नहीं जानता, बताइए। तुम कहोगे, ''अरे, राज़ खुल गया। मैं इतना गंवार हूँ। मुझे 'डेलिनकुएंट' जैसे साधारण शब्द का अर्थ नहीं पता"। वह बोलना चाह रहा था अपराधी, वह 'क्रिमिनल' भी बोल सकता था पर वह भी रुतबेदार आदमी है, भाई। वह कैसे बोल दे 'अपराधी'? वह तुमसे यह भी बोल सकता है: "ट्राय टु अंडरस्टैंड"। नहीं। उससे पहले वह बोल सकता था: ''समझ जाओ''। नहीं, 'समझ जाओ' नहीं बोलेगा, वह 'ट्राय टु अंडरस्टैंड' भी नहीं बोलेगा, वह तुमसे बोलेगा: "रैप योर हेड अराउंड दिस (इसके इर्द-गिर्द अपना खोपड़ा लपेटो)"। वह नहीं बोलेगा 'प्लीज़ अंडरस्टैंड' भी, और जब वह तुमसे बोलेगा, "रैप योर हेड अराउंड दिस," तो तुम शर्म से गड़ जाओगे क्योंकि तुम्हें इस मुहावरे का अर्थ ही नहीं पता। तुम्हारी गलती हुई। और यही तुम उससे बोलो, "अल्लाह मियां की गाय हो बिलकुल," और उसको समझ में ना आए तो गलती तुम्हारी होगी कि यह देखो, ये पिछड़े हुओं की मध्यकालीन भाषा लेकर आ गए, ना जाने कहाँ-कहाँ के जुमले-मुहावरे उठाकर बोल रहे हैं। "अल्लाह मियां की गाय"—यह क्या होता है "अल्लाह मियां की गाय”? अरे हिंदी बोलो, भाई, हिंदी! यह कौन-सी भाषा है "अल्लाह मियां की गाय"?

अरे गंवार, तुझे मतलब नहीं पता किसी मुहावरे का तो तुझे शर्म नहीं आ रही, उल्टे तू मुझसे बोल रहा है कि मैं अपनी भाषा सुधारूँ। बात समझ में आ रही है?

बाजा बज चुका है। जो इतनी हीनभावना से ग्रस्त हो, वह मुल्क, वह कौम, वह जात, वह समुदाय, वे लोग कैसे आगे बढ़ेंगे? आध्यात्मिक रूप से तो छोड़ दो, वे भौतिक रूप से भी आगे नहीं बढ़ पाएंगे। अंग्रेज़ी के आगे इतने घुटने टेक करके मिल क्या गया? जिन क्षेत्रों को तुम बोलते हो कि तुम्हारी अर्थव्यवस्था के 'सनराइज़ सेक्टर्स' हैं, उनमें भी पता है न भारत की जगह क्या है? क्या मिल गया? बात करते हो आईटी, आईटेस, सॉफ्टवेयर—सॉफ्टवेयर में बड़ी प्रतिष्ठा है क्या भारत की? जितना 'बैकरूम' का काम होता है, 'मूल्य श्रृंखला' में जो सबसे नीचे का काम होता है, वो हिन्दुस्तानियों को मिल जाता है और वो काम मिलने में भी अक्सर यही रहता है कि अपना इधर-उधर का ओछा काम, कचरा काम इनके सुपुर्द कर दो, 'आउटसोर्स' कर दो, सस्ते में कर देंगे—आईटी कुलीज़।

कुछ अपवाद हैं, बेकार का तर्क मत करना, यह मत कहने लग जाना कि, ''नहीं। देखो, ये जो भी है, मूर्ख प्रशांत, झूठ बोल रहा है''। मुझे एक स्टार्टअप अंतर्प्रेनोलियल कंपनी पता है जो बहुत 'हाई वैल्यू ऐडेड' काम करती है। दो-चार अपवादों की बात मत करो। ये जो लाखों भारतीय 'आईटी सेक्टर' में लगे हैं, ये किस तल का काम कर रहे हैं? जानते नहीं हो क्या? और चाहे विनिर्माण हो, तुम कहते हो कि भारत को 'विनिर्माण हब' बना रहे हो, 'डिज़ाइन' का काम भारत में हो रहा है? तो ये अंग्रेज़ी-अंग्रेज़ी करके भी भौतिक रूप से क्या पा गए? हाँ, रोटी पा जाओगे। विश्व के क्लर्क बन जाओगे। इसमें तुम्हें अगर बड़ी ख़ुशी मिलती हो तो कर लो भाई ये।

जो लोग अपनी भाषा की ही इज्ज़त नहीं कर सकते, कहाँ आगे बढ़ेंगे? आध्यात्मिक रूप से नहीं, भौतिक रूप से भी नहीं आगे बढ़ेंगे। भारत को पुनर्जागरण (रेनेसां) चाहिए; हमें सुधार नहीं चाहिए, हमें पुनर्जागरण चाहिए। हमें अपने आप पर यकीन करना सीखना होगा। हज़ार सालों तक मिली सामरिक हारों ने और झूठे इतिहासकारों ने—इन दोनों ने मिलकर के हमें भीतर से बिल्कुल पंगु कर दिया है, छलनी-छलनी कर दिया है। हम टूट गए हैं, हम चूरा-चूरा हो गए हैं। हम ऐसे हो गए हैं जैसे कोई बस रोटी के लिए जिए। बड़ा बुरा बदला लिया गया भारत के साथ। भारत चला था दुनिया को अध्यात्म सिखाने, दुनिया ने बड़ा करारा बदला लिया। दुनिया ने भारत को 'अध्यात्म' भुला दिया। दुनिया ने कहा: ''तू हमें अध्यात्म सिखाने आया है, विश्वगुरु! तू हमारे भोग-विलास, हमारी लिप्साओं, हमारे अहंकार, हमारी वृत्तियों में खलल डालेगा? देख हमारा बदला! तू हमें क्या सिखाएगा अध्यात्म, हम तुझे अध्यात्म भुला देंगे।''

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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