यदि संसार मिथ्या है तो कर्मयोग का क्या महत्व है? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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यदि संसार मिथ्या है तो कर्मयोग का क्या महत्व है? || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

यदि संसार मिथ्या है तो कर्मयोग का क्या महत्व है?

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा सवाल श्लोक क्रमांक पच्चीस से है, जिसमें बताया गया है कि जो ज्ञानी है उसको भी उतनी ही मेहनत करनी चाहिए जितना एक अज्ञानी व्यक्ति मोहवश करता है, या उससे ज़्यादा ही। लेकिन मैं जब अपनेआप को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि मुझमें एक मानसिक आलस्य आने लगा है कि हमेशा ये सोचता हूँ कि जो भी कर्म है, वो अगर मैं नहीं भी कर पा रहा हूँ तो इसका दृष्टा भी तो मैं ही हूँ।

तो मैं अगर इस बात से संतुष्ट हूँ, राज़ी हूँ कि ठीक है, अगर काम नहीं हुआ तब भी ठीक है। तो उस वक़्त इच्छा कैसे जागृत होगी कि काम को पूरा करना है? कृष्ण जैसे कह रहे हैं कि जो ज्ञानी है या ज्ञान के मार्ग में है उसे और ज़्यादा मेहनत करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: यही बात तब कहते हो क्या जब दुख आता है? जब मेहनत सामने आती है तो कह देते हो कि ‘अरे! कुछ खराब भी लग रहा है तो सिर्फ़ मुझे ही तो खराब लग रहा है, मैं ही तो उसका दृष्टा हूँ। वो खराब है नहीं, बस मुझे खराब प्रतीत हो रहा है, मैं ही तो उसका दृष्टा हूँ। तो जो खराब है उसे काहे को ठीक करें? मेहनत की क्या ज़रूरत है?’

मैं पूछ रहा हूँ यही बात तब कहते हो क्या जब दुख आता है? कि दुख है नहीं, मुझे ही तो उसका अनुभव हो रहा है, मात्र मैं ही तो उसका भोक्ता हूँ, तो दुख से हटने का प्रयास क्यों करूँ?

एक काम करो, एक टाँग पर खड़े हो जाओ। और पाँच मिनट बाद तुमसे पूछूँगा कि क्या यह कह पा रहे हो कि ‘दुख है नहीं, मात्र मुझे ही अनुभव हो रहा है? क्योंकि यही तो वेदान्त की शिक्षा है कि ऑब्जेक्टिव रियलिटी कुछ है नहीं। एक सब्जेक्टिव एक्सपीरिएंस हो रहा है, जो बस मुझे ही हो रहा है। तो वास्तव में ये दुख मिथ्या है, मैं एक टाँग पर खड़ा हूँ, खड़ा रहूँगा’ — क्या ये बात कह पाते हो? नहीं कह पाते। तो फिर देख नहीं रहे हो कि इस तरह का विचार सही कर्म से, मेहनत से बचने का झूठा, बेईमान उपाय-भर है?

‘आचार्य जी, आप इतनी बात करते हैं जलवायु परिवर्तन की, सबकुछ तो मिथ्या है। और जबसे पृथ्वी बनी है तब से करोड़ों प्रजातियाँ आकर चली गईं। डायनासोर चले गए, न जाने कितनी प्रजातियाँ चली गईं; कुछ और अगर मिट भी जाएँगी तो क्या होगा? ये तो प्रकृति का चक्र चलता रहता है न प्रभव-प्रलय का।‘

मैं कहूँ, वो बच्चा घूम रहा है आपका, उसकी भी प्रलय कर देते हैं।

‘हाँ! शुभ-शुभ बोलिए।’

मैंने कहा कि जब इस लायक हो जाओ कि खरगोश का बच्चा मरे या अपना बच्चा मरे, दोनों में समभाव से कह पाओ कि सब मिथ्या था, चला गया तो चला गया, सिर्फ़ तब कहना कि सम्पूर्ण जगत मिथ्या है, अगर मिट भी गया तो क्या होता है। 'संपूर्ण जगत मिथ्या है, बस मेरा वो नन्हा गोलू मिथ्या नहीं है।' खरगोश का बच्चा मर गया, तो मैं क्या बोलूँगा? 'मिथ्या था, मर गया, कुछ हुआ थोड़े ही है, कुछ नहीं हुआ है।' यही बात अपने बच्चे के मरने पर भी बोलो न! तब तो मोह जागृत हो जाता है।

जब ऐसे हो जाओ कि अपनी व्यक्तिगत सत्ता को शून्य महत्व देने लगो, सिर्फ़ तब कहना कि अब क्या फ़र्क पड़ता है। उससे पहले ये सब बातें शोभा नहीं देतीं, कि ‘अजी साहब!’

किसी से कहा कि ये हो रहा है, वो हो रहा है, इतना नाश हो रहा है।

‘हेहेहे! भगवान की मर्ज़ी है, हम क्या कर सकते हैं!’

अच्छा ठीक है साहब! आपके घर में आग लग गई है।

वो जैसे ही उठ कर भागें, उनको बैठा दो। भागने ही मत दो, बाँध दो। और ऐसे उन्हीं के तर्ज़ पर, उन्हीं के अंदाज़ में बोलो, ‘हेहेहे! भगवान की मर्ज़ी है, हम क्या कर सकते हैं!’

बेटा! जब अपने घर में आग लगती है तब नहीं कहते भगवान की मर्ज़ी है। और मैं तुम्हें बुला रहा हूँ, दूसरे के घर की आग बुझाने के लिए तो कह रहे हो, ‘भगवान की मर्ज़ी है, हम क्या करें?’ ये पाखंड है न, कि नहीं?

प्र२: आपने जैसे बताया कि जब दुख आता है तब नहीं कह पाते। लेकिन ये बात, ये ज्ञान तो अहंकार को मिल गया है, शायद समय से पहले ही या पात्रता से पहले ही। अब वो ज्ञान का इस्तेमाल कर रहा है या मैं ही कर रहा हूँ ज्ञान का इस्तेमाल।

आचार्य: समय से पहले कुछ नहीं मिल जाता, जो होता है समय पर ही होता है। हाँ, तुम ये निर्णय किसी भी समय पर कर सकते हो कि परमात्मा भी तुम्हारे सामने खड़ा है तो तुम्हें अस्वीकार कर देना है। कि गीता ज्ञान भी सामने है तो तुम्हें नहीं चाहिए या उसका दुरुपयोग करना है। समय से पहले कुछ नहीं हो गया।

तुम चुनाव नहीं करो अनन्त सालों तक, यही कहते रहो समय से पहले ज्ञान मिल गया है। ज़्यादातर लोग मर जाते हैं सौ साल के होकर के, उनका समय तब भी नहीं आता। जब मर रहे होते हैं, कहते हैं, ‘बस अब पाँच दिन बाद बिलकुल तैयार हो जाएँगे गीता ज्ञान के लिए।’

प्र२: और एक आख़िरी बात, जैसे आपने बताया कि जब मोह जागृत होता है तब कहना मुश्किल होता है। लेकिन उस वक़्त अगर अभ्यास किया जाए, और मैं भी करता हूँ कि जब मोह जागृत होता है तो ख़ुद को बोलूँ कि ये भी तो मुझे ही एक्सपीरिएंस हो रहा है तो...

आचार्य: देखो, जवान आदमी हो, मोह से, आसक्ति से लड़ नहीं पाओगे, इनको बस सही दिशा दो। यही मोह-आसक्ति वगैरह जीवन की मूल ऊर्जाएँ हैं, इनको दबा दोगे तो जीवन निष्प्राण हो जाएगा। साँस चलनी भी बंद हो जाएगी, साँस भी इसीलिए चलती है क्योंकि मोह है अभी। इनको दबाते नहीं हैं, इनको सही दिशा देते हैं।

प्र२: मुझे और विचार करना पड़ेगा इस बात पर अभी।

आचार्य: एक लड़का है, वो उल्टी-पुल्टी किताबें पढ़ता रहता है। ठीक है? एक काम करते हैं, उसके ब्रेन का ऑपरेशन करके उसकी पढ़ने की क्षमता ही ख़त्म कर देते हैं। क्योंकि वो जब भी पढ़ता है कुछ उल्टा-पुल्टा ही पढ़ रहा होता है, मन को गंदा कर रहा होता है। क्या करें? उसकी पढ़ने की क्षमता ही ख़त्म कर दें बिलकुल? क्या करें?

प्र२: कोशिश करें कि वो कुछ अच्छी किताबें पढ़े।

आचार्य: हाँ! तो मोह ही है जो मुक्ति तक भी ले जा सकता है। और ले जा सकता है नहीं ले जा सकता है, बाद की बात है; तुम्हारे पास विकल्प क्या है? तुम ऊपर से लेकर नीचे तक मोह के पुतले हो। अपने यथार्थ से परिचित रहो। तुम कितनी भी बातें कर लो गीता की, उपनिषद् की; रोएँ-रोएँ में मोह भरा हुआ है, उसको सही दिशा दो। वो प्रकृति है, वो तुम्हें अपने से छूटकर कहीं नहीं जाने देने वाली। वो अस्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति है, उससे लड़कर कोई नहीं जीत सकता। उसका सदुपयोग करना सीखो।

अर्जुन को कोई ज्ञान नहीं मिलता; सर्वप्रथम प्रेम, कृष्ण से प्रेम था तो गीता का ज्ञान मिल गया। और जिन्हें कृष्ण से प्रेम नहीं होता वो गीता लेकर घूमते रहते हैं जीवनभर, कुछ नहीं पाते।

प्र२: यही प्रेम जागृत करने के लिए मैं पिछले कुछ दिनों से संतवाणी भी पढ़ रहा हूँ, खासकर के जो प्रेम के श्लोक जिससे प्रेम जागृत हो।

आचार्य: ये बढ़िया बात बोली, ये अच्छा है, ये करो।

प्र२: और उसी पढ़ने में मैंने एक संकल्प लिया था कि मैं तीन हफ़्तों में आपकी तीन किताबें पढ़ूँगा तो वो भी हो गया। पहले हफ़्ते में 'आनंद', दूसरे हफ़्ते में 'नीम लड्डू' और तीसरे हफ़्ते में 'मुण्डक उपनिषद्'।

आचार्य: इसकी कोई बहुत ज़रूरत नहीं है। एक दोहा पकड़ लो और उसको अहर्निश गुनगुनाते रहो – एक। प्रेम सीखना है न? तो प्रेम पर एक दोहा, एक साखी, एक छंद, एक चौपाई, कुछ पकड़ लो और उसको भीतर बजाते रहो, बजाते रहो, एकदम लूप में।

प्र२: ठीक है, मैं ऐसा ही करूँगा। धन्यवाद।

प्र३: भगवान श्री, नमन। अभी वर्णसंकर वाली बात आ रही थी, निरालंब उपनिषद् जब हमलोग कर रहे थे तो उसमें था कि चेतना का तो कोई वर्ण होता नहीं।

आचार्य: विशुद्ध चेतना का।

प्र३: विशुद्ध चेतना का, तो यहाँ पर गीतोपनिषद् में जो भगवान कृष्ण बोल रहे हैं, इसमें ऐसी क्या बात है?

आचार्य: विशुद्ध चेतना का स्तर नहीं होता। विशुद्ध पानी और विशुद्ध पानी एक होते हैं तो उनका क्या स्तर बोलें? उनका ऊपर-नीचे कुछ नहीं होता। पर पानी में मिलावट के तो अलग-अलग स्तर हो सकते हैं न? तो हमारी चेतना के अलग-अलग स्तर होते हैं। जिसमें सबसे कम मिलावट है वो ऊपर की हो गई, जिसमें और कम है वो नीचे की हो गई, फिर और नीचे, और नीचे।

प्र३: तो ये जो चार वर्ण की बात रही है, जिसका दुरुपयोग समाज में बहुत हुआ। तो चेतना में अगर मिलावट का स्तर है, तो इसी मिलावट के स्तर पर उस चेतना को ज्ञान या समझ की प्यास रहेगी या किसी स्तर पर वो युद्ध ही करना चाहेगी। तो ये वही?

आचार्य: पूरा खेल वही है। देखिए, समझिए! जो कुल-मिलाकर बड़ी बात है; ये सारे लोग जो थे, इन्हें संसार से कम लेना-देना था—मैं ऋषियों की बात कर रहा हूँ—ये मुक्ति के पिपासु थे, ये थोड़े विचित्र लोग थे, जिनसे आपका पूरा वेदान्त आ रहा है। इन्हें इस बात से बहुत कम मतलब था कि रुपया-पैसा कितना इक्ट्ठा कर लिया, उन्हें दुनिया की जो सब बातें होती हैं उनसे बहुत कम मतलब था।

इन्हें एक अलग ही चीज़ चाहिए थी, ये लोग दूसरे तल के थे। ये जिस तल के लोग थे, हम उसे नहीं समझेंगे तो फिर हम उनकी विवेचना और मूल्यांकन बड़ा उल्टा-पुल्टा कर लेते हैं। इन्हें हर चीज़ में सिर्फ़ और सिर्फ़ चेतना से प्रयोजन था। कोई चीज़ हो, उसमें इनको चेतना देखनी है, कोई भी बात हो। वर्ण है, वो भी चेतना पर आधारित होगा।

अब सब लोग ऐसे नहीं होते, तो इनकी कही बातें जब दूसरों के हाथ में पहुँचती हैं तो वो उसको ठीक से पढ़ नहीं पातें। क्योंकि जो बात कही जा रही है उसको आप वास्तव में सुनना चाहते हैं, तो आपको वहीं होना पड़ेगा जहाँ कहने वाला बैठा है। मैं आपसे जिस आशय से और जिस बिंदु से बात कर रहा हूँ, आपको भी उसी बिंदु पर होना पड़ेगा अगर आप मेरी बात को बिलकुल सही समझना चाहते हैं। अगर मैं एक जगह से बोल रहा हूँ और आप दूसरी जगह से सुन रहे हैं तो सुनी हुई बात में विकृति आ जानी है, अर्थ में अनर्थ आ जाना है।

वो सब धमग्रंथों के साथ हुआ है, वेदान्त के साथ भी हुआ है, वेदान्त के साथ और ज़्यादा हुआ है।

प्र३: लेकिन आचार्य जी, जिस बिंदु से आप बोल रहे हैं अगर उसी बिंदु पर मैं हूँ, तो फिर वार्ता भी…?

आचार्य: तो वार्ता बंद हो जाएगी, मौन। फिर कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं होगी, तो जितना निकट-से-निकट आ सकते हैं, निकट आइए। वार्ता सफल हो रही है, इसका प्रमाण ही यही होता है कि फिर शब्दों की आवश्यकता न्यून होने लगती है, और अंततः मौन बचता है बस।

गीता वास्तव में काम ही ऐसे करती है। देखिए, कृष्ण से आ रही है तो गीता को समझना है तो कृष्ण जैसा होना पड़ेगा। तो गीता आपको कृष्ण बना देती है, नहीं तो समझ ही नहीं पाएँगे। जब गीता सामने हो तो दो ही विकल्प होते हैं – या तो उसे समझो ही मत, या कृष्ण हो जाओ। आप जो हैं वो बने रहकर के गीता से आप कोई रिश्ता रख ही नहीं पाएँगे।

तो आपके सामने गीता आ गई, आपके लिए वो एक उलझन खड़ी कर देती है। आपको कहती है, ‘अब बस दो ही रास्तें हैं, चुन लो – या तो मुझे समझ लो (माने कृष्ण हो जाओ), नहीं तो मुझे त्याग ही दो।‘ तुम ये नहीं कर पाओगे कि कहो कि 'मैं अभी यतेंद्र (प्रश्नकर्ता) ही हूँ, लेकिन गीता जानता हूँ।' या तो आप कृष्ण होंगे, नहीं तो आप गीता नहीं जानेंगे।

तो गीता क्या है? गीता कृष्ण का आमंत्रण है — आओ, कृष्ण हो जाओ!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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