व्यवहारिकता करने पर है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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व्यवहारिकता करने पर है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर, ये जो सारी बातें की जा रही हैं, ये सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं, पर इनमें कुछ रखा नहीं हैं; ये व्यवहारिक नहीं हैं।

वक्ता: समझते हैं थोड़ा इस बात को कि व्यवहारिक शब्द से क्या अभिप्राय है? व्यवहारिक वो जो व्यवहार से सम्बंधित हो, ठीक? व्यवहार वो जिसको आप कर्म में उतार सको। कुछ भी व्यवहारिक, अर्थात् करणीय है कि नहीं ये तो सिर्फ़ और सिर्फ़ इसपर निर्भर करता है कि तुम उसे कर रहे हो या नहीं कर रहे हो?

एक शराबी के लिए सीधे चलना व्यवहारिक बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि वो कर ही नहीं सकता। समझ में आ रही है बात? और तुम तब तक नहीं कर पाओगे, जब तक तुम समझ नहीं रहे कि कुछ भी व्यवहारिक या अव्यवहारिक होता नहीं है। तुम्हारी समझ पर निर्भर करता है, तुम्हारी समझ के बाहर व्यवहारिकता का कोई अस्तित्व नहीं है। तुम समझे, तो हो गया व्यवहारिक और तुम नहीं समझे, तो कुछ भी कर लो, नहीं हो सकता व्यवहारिक। जैसे ही तुम समझे, समझ , कर्म में तब्दील हो ही जानी है।

तुमने एक साँप पकड़ रखा है, २० साल से रस्सी जान कर, ठीक? और तुम्हें बताया गया है, पढ़ाया गया है, परवरिश द्वारा, शिक्षा द्वारा, सारी व्यवस्था द्वारा कि ये तो देवी के गले में डालने वाला फूलों का हार है और तुम उसे पकड़े हुए हो, फ़िर कुछ होता है, कोई आता है; आँखें तुम्हारी अपनी ही हैं लेकिन थोड़ी रोशनी दी जाती हैं जिसमें वो आँखें देख सकें और तुम जान पाते हो कि जो पकड़ रखा है, वो किंग कोबरा है। और वो है ख़तरनाक और काला, अब क्या तुम कहोगे कि “मेरी १८ साल, २० साल की आदत है, इसको पकड़े रहने की? ये बात व्यवहारिक ही नहीं है, इसको छोड़ कैसे दूँ? जहाँ तुम समझे कि ‘सत्य क्या है?’, ‘वास्तविकता क्या है?’, वहाँ पूरी जान लगाकर उसको फेंकोगे। पूछने नहीं आओगे कि व्यवहारिक तरीके क्या हैं, साँप को फेंकने के? और न फ़ोन निकालकर गूगल करोगे कि ‘हाउ टू थ्रो अ स्नेक अवे?’ (साँप को कैसे फेंका जाता है?)

(सभी हँसते हैं)

व्यवहारिक हो गया, जहाँ समझे; वहीं व्यवहारिक हुआ। पूरी ऊर्जा बहेगी उसको फेंकने में, पूरी जान लगा दोगे, क्योंकि समझ गए। कुछ भी कर्म में तब ही परिणीत हो सकता है जब पहले विवेक ने उसे पहले पूरी तरह जान लिया हो और जो करना समझ से नहीं निकल रहा, उस करने में कभी ऊर्जा नहीं होगी, कभी त्वरा नहीं होगी।

तुम्हारे कर्म ऐसे ही हैं, जो बस चल रहे हैं, यांत्रिक रूप से, मैकेनिकल, उनके पीछे कोई समझ नहीं हैं। इसीलिए उसमें कोई गति नहीं होती, कोई जान नहीं होती, इसलिए तुम कभी कहीं पहुँच भी नहीं पाते, कहीं जा नहीं पाते। जब अपनी समझ से ये कर्म निकलता है, तब तुम्हें कोई रोक नहीं सकता। कोई भी नहीं रोक पायेगा, क्योंकि उसके पीछे, तुम्हारी पूरी ‘बीइंग’ होगी, तुम्हारा पूरा ‘होना’ होगा।

फ़िर तुम सवाल नहीं करोगे कि व्यवहारिक है कि अव्यवहारिक है, तुम कहोगे, “यही करना है और ये होकर रहेगा, ये होना चाहिए, इसके अलावा और कुछ हो सकता नहीं”। फ़िर तुम नापोगे नहीं, तराज़ू लेकर कि कितना व्यवहारिक और कितना अव्यवहारिक, कि “अगर ६०% व्यवहारिक हो तो कर लेते हैं, नहीं तो ख़तरा ज़्यादा है”।

सब जवान लोग यहाँ पर बैठे हुए हो, ये मत देखो कि सुविधा क्या करने में है? ये मत देखो कि सरल क्या लग रहा है करने में? क्योंकि जहाँ पर सरलता है, जहाँ पर सुविधा है, वहीं पर जाल बिछा हुआ है तुम्हारे लिए। अपनी आज़ादी को इन टुच्ची सुविधओं के नाम पर ही बेचते हैं हम। दुःख यहाँ पर सबको रहता है कि “हमारे साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती की जाती है, हमारे मन की नहीं करने दी जाती है, हमारी स्वतंत्रता का हरण करा जाता है”।

पर तुम कभी ये जानते ही नहीं कि इसी चक्कर में, कि हम बस वही काम करेंगे जो व्यवहारिक है और व्यवहारिक से तुम्हारा अर्थ ये है कि जो आसानी से हो जाये, वही व्यवहारिक है। इसी चक्कर में तुम अपनी स्वतंत्रता बेच देते हो, कोई चिन्ता नहीं है, तुम बेच देते हो कि थोड़ी सुविधाएँ मिल जाएँ, कुछ सहूलियतें मिल जाएँ।

ये सब इस व्यवहारिकता की वजह से होता है। एक बंदी के लिए स्वतंत्रता अव्यवहारिक ही है, बिल्कुल है क्योंकि जेल में बंद है। तो क्या करे? कहे, “अव्यवहारिक-सी बात है, मुक्ति अव्यवहारिक है और बंदी होना प्रैक्टिकल है”, और पड़ा रहे?

कोई गहराई से बीमार है, तो उसके लिए स्वास्थ्य अव्यवहारिक ही है, तो क्या करे? पड़ा रहे? हमें पूछना होगा, क्योंकि बहुत बड़ी ज़िंदगी शेष है, सब जवान हो, लम्बा समय है और लम्बा समय हो न हो, ये क्षण तो जीना है ना? तुम्हारा अपना क्षण है? ये परवाह मत करो कि क्या आसान लग रहा है, क्या प्रैक्टिकल लग रहा है क्योंकि तुम अव्यवहारिक हर उस चीज़ को बोलते हो, जो ज़रा भी कठिन लगती है और कठिनाई है नहीं उसमें कुछ, वस्तुतः कोई कठिनाई नहीं है। कठिनाई है सारी तुम्हारे मन में, तुमने मन में ये भ्रान्ति बना रखी है कि ये कठिन है, कठिन वस्तुतः नहीं है। जो करने निकल ही पड़ता है, तो पाता है, कोई कठिनाई थी ही नहीं, बस मन डरा हुआ था।

हाथी का छोटा बच्चा होता है, जब उसमें कोई ताकत नहीं होती, तो उसको एक पेड़ से बांध देते हैं, जंजीर से और वो पूरी जान लगता है क्योंकि स्वतंत्रता, सबको प्यारी होती है, छोटे बच्चे को भी। हमारा वो स्वभाव ही है, मुक्त रहना, स्वतंत्र रहना। तो वो हाथी का बच्चा पूरी जान लगता है, मुक्त होने के लिए, पर छूट नहीं पाता, १०० बार कोशिश करता है, पर ये जो बाहरी ताकत है, वो बंधक बनाये रखती है, बनाये रखती है।

नतीजा ये होता है कि जब वो बड़ा होता है, तब तक वो इतना हताश हो चुका होता है कि वो कहता है कि “मुक्ति अव्यवहारिक है”। अब उसको एक छोटे-से झाड़ से, एक टहनी से बांध दिया जाता है, पतली-सी रस्सी से, वो कोशिश ही नहीं करता भागने की, वो कहता है “बड़ी कोशिशें की थी और जान लिया था कि मुक्ति अव्यवहारिक है”, और बड़ा मज़ेदार दृश्य होता है, इतना बड़ा हाथी, एक छोटी-सी टहनी से बंधा हुआ खड़ा है।पतली-से रस्सी से और वो कोशिश ही नहीं कर रहा भागने की। वो कह रहा है, “अव्यवहारिक सी बात है। आज-तक कौन भाग पाया?”

(सभी हँसते हैं)

कोई कठिनाई नहीं है। सारी दुविधा बस मन में हैं। देखो, थोड़ा आँख खोलो और ध्यान से देखो। जो अभी अव्यवहारिक लग है, वो बड़े सहज रूप से व्यवहारिक दिखाई देगा। तुम्हारे मन की बात है, बस।

~ संवाद पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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