प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब से आपको सुना है, तब से मैंने दूध पीना व अंडा खाना छोड़ दिया है। जानता तो पहले भी था कि इनका सेवन उचित नहीं है, पर कोई कसौटी नहीं मिल रही थी। अब स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है और अन्य लोगों को भी इन्हें छोड़ने के लिए प्रेरित करता हूँ। आचार्य जी, क्या इस बात का समझ में आना और इस बात पर अमल करना, ये दोनों घटनाएँ एकसाथ घटी हैं या अलग-अलग?
आचार्य प्रशांत: ये सब एकसाथ चलते हैं। जब मन उस चीज़ को छोड़ने लगता है जो अनावश्यक है, तो फिर भौतिक रूप से भी हाथ भी उन चीज़ों को छोड़ने लग जाता है जो अनावश्यक है, मुँह भी उन चीज़ों को छोड़ने लग जाता है जो अनावश्यक है।
लेकिन उसके लिए पहले दिमाग उन चीज़ों को छोड़े — धारणाएँ, मान्यताएँ, विचार, डर, भ्रान्तियाँ पचास चीज़ें।
दिमाग पहले उन चीजों को छोड़े जो गैर ज़रूरी है। फिर आप पाएँगे कि ये भी अगर गैर ज़रूरी है, तो हाथ इसको छोड़ देगा। साथ-ही-साथ जब मन उसको छोड़ने लगता है जो गैर ज़रूरी है, तो ये पक्का हो चुका होता है कि मन उसके साथ और गहराई से जुड़ता जा रहा है जो ज़रूरी है आवश्यक है, जो अवश्य है, उसी को ‘आत्मा’ कहते हैं।
तो फिर ऐसा आदमी बड़ा जिद्दी हो जाता है। जो अनावश्यक है उसको वो लेगा नहीं, और जो आवश्यक है उससे उसे कोई तोड़ नहीं सकता, जुदा नहीं कर सकता। और इस एक ज़िद के अलावा उसकी कोई दूसरी ज़िद बचती नहीं।
तो इसीलिए अक्सर कहा गया है कि आध्यात्मिक आदमी बहुत सहनशील हो जाता है। मैं उसी बात का दूसरा पक्ष भी बता रहा हूँ, वो जितना सहनशील हो जाता है उतना ही वो असहिष्णु भी हो जाता है। जितना वो सहिष्णु हो जाता है टॉलरेंट (सहिष्णु), वो उतना ही जिद्दी भी हो जाता है, असहिष्णु भी हो जाता है।
वो बातें जो व्यर्थ की हैं, वो बातें जो सब एक ही तल की हैं वहाँ वो कोई चुनाव करेगा नहीं, तो ऐसा लगेगा कि बड़ा सहनशील है। उसको रोटी मिल गयी कि पराठा मिल गया कि लड्डू मिल गया, या कभी कुछ नहीं मिला तो आप पाएँगे कि कोई शिकायत वगैरह नहीं करा, कोई बात नहीं, चलो ठीक है।
व्यापार में घाटा हो गया, ये सब हो गया इन बातों को वो एकदम सह जाएगा। लेकिन अगर कोई उससे ये छुड़वाना चाहे, तो फिर देखिए फिर जिहाद है, धर्मयुद्ध है। दोनों ही चीज़ें एकसाथ होती हैं।
प्र२: आचार्य जी, क्या विवेक और वैराग्य दोनों एकसाथ चलते हैं?
आचार्य प्रशांत: ये दोनों एकसाथ चलते हैं विवेक और वैराग्य। विवेक ऐसा है कि जैसे सूप लेकर के आपने गेहूँ कि चावल और उसमें जो अशुद्धियाँ हैं उनको अलग कर दिया। वैराग्य ऐसा है कि फिर जो उसका कचरा निकला है, छिलका निकला है उसको जान लिया कि व्यर्थ है, तो उससे विराग हो गया, उसको झाड़ दिया। विवेक में दो फाँक किये जाते हैं कि क्या काम है और क्या अनावश्यक है, कहाँ सत्य है और कहाँ भ्रम है। और वैराग्य में जो भ्रम पक्ष होता है उसको फूँक मारकर के उड़ा देते हैं कि पता तो चल गया है कि ये भ्रम है, इसको रखकर क्या करेंगे। यही वैराग्य है।
प्र३: आचार्य जी, कुछ दिनों पहले मेरे घर में एक बच्चे को चेचक रोग हो गया था। डॉक्टर ने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं है, भविष्य में ये बीमारी बच्चे को परेशान नहीं करेगी। मुझे भी डॉक्टर कि ये बात उचित लगी। लेकिन मेरे परिवार वाले इससे बहुत ही ज्य़ादा परेशान हो गये थे। आचार्य जी, हम किसी भी घटना से जुड़ी बड़ी तस्वीर क्यों नहीं देख पाते हैं, हमेशा छोटी बातों में ही क्यों उलझ जाते हैं?
आचार्य प्रशांत: कठोपनिषद बहुत ज़ोर देकर समझाता है कि श्रेय और प्रेय में अन्तर होता है। हमें वो चीज़ें अच्छी लग जाती हैं जो हमें सिखा दी गयी होती हैं कि अच्छी हैं, वो कहलाती हैं प्रेय (परम प्रिय), प्रिय। हम श्रेय की तरफ़ नहीं जाते हैं जहाँ श्री होता है वहाँ हम नहीं जाते।
तो अध्यात्म सारा यही है तुम प्रसन्न्ता को छोड़कर के आनन्द की तरफ़ चलो। उसको हटाओ जो तुम्हें प्रिय लगता है उसको देखो जो शुभ है। तो अब यहाँ पर चेचक का निकलना शुभ बात है, शुभ बात है। तो शुभ के आगे प्रेय, प्रिय कि कोई कीमत नहीं है न। लेकिन ये बात एक आध्यात्मिक मन ही समझ सकता है कि शुभ की कीमत ज्य़ादा होती है, श्रेय की कीमत ज्य़ादा होती है, प्रेय की कीमत नहीं है।
कोई चीज़ अगर शुभ है तो फ़र्क नहीं पड़ता कि वो अच्छी लग रही है या बुरी लग रही है। तथ्य तो यही है कि अगर वो बीमारी निकली है, इंफेक्शन (संक्रमण) हुआ है, तो उससे बच्चा बारह-दिन तो परेशान रहेगा-ही-रहेगा। तो तात्कालिक रूप से देखें, तो परेशानी है, पर ज़रा व्यापक दृष्टि से देखें, तो घटना शुभ है।
इस बारह-दिन की परेशानी के बाद जीवन भर के लिए आज़ादी हो गयी। अब ये एक प्राकृतिक इम्युनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता) खड़ी हो गयी भीतर। अहंकार बहुत बड़ा नहीं देख पाता, वो हमेशा छोटी चीज़ देखेगा। छोटे फ़ायदे, छोटे नुकसान और उसी के आधार पर निर्णय ले लेगा। छोटी दृष्टि से देखकर के जब बड़े निर्णय लिए जाते हैं, तो सारे निर्णय फिर औंधे मुँह (मुँह के बल) गिरते हैं।