विवाह करने से पहले ये बात समझें || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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विवाह करने से पहले ये बात समझें || आचार्य प्रशांत (2019)

आचार्य प्रशांत: दो बातें हैं विवाह के मूल में, ग़ौर से समझिएगा। जो पहली बात है वो दैहिक है, प्राकृतिक है। एक उम्र आते ही पुरुष को स्त्री के साथ और स्त्री को पुरुष के साथ रहने की इच्छा उठने लगती है। यह जो इच्छा है यह पूरे तरीक़े से शारीरिक होती है, इसीलिए किसी भी देश का, धर्म का, जाति का, वर्ण का पुरुष हो, उसे यह इच्छा उठती-ही-उठती है। यहाँ तक कि अगर वो अपंग भी हो, बुद्धिहीन भी हो तो भी उसे यह इच्छा उठेगी ही। यही बात स्त्री पर है, किसी देश की, किसी धर्म की, किसी वर्ण की, कैसी भी स्त्री हो, उसे भी यह इच्छा उठने ही लगती है।

तो जब फ़र्क ही नहीं पड़ता कि आपकी सामाजिक स्थिति कैसी है, आपकी आर्थिक स्थिति कैसी है, आपमें विद्वत्ता कितनी है, आप पढ़े-लिखे कितने हो, यह इच्छा उठनी-ही-उठनी है तो इसका सम्बन्ध फिर निश्चित रूप से किसी ऐसी चीज़ से नहीं हो सकता जो मानसिक है, क्योंकि मन की तो सबकी सामग्री अलग-अलग होती है न। कोई खूब पढ़-लिख गया है, न जाने कितनी किताबें पी ली हैं उसने, उसके मन की सामग्री और कोई अनपढ़ है बेचारा, इन दोनों के मन की सामग्री तो बिलकुल अलग-अलग होगी। लेकिन फिर भी हम पाते हैं कि कामवासना दोनों में ही निश्चित रूप से मौजूद होती है। इसका मतलब मन की सामग्री से कामवासना का बहुत कम लेना-देना है।

तो स्त्री और पुरुष को साथ रहना है, उसका पहला कारण प्राकृतिक है। और चूँकि प्राकृतिक है इसीलिए यह इच्छा आप पशुओं में भी पाते हैं, पेड़ों में भी पाते हैं, नन्हें पौधों में भी पाते हैं, छोटे-से-छोटे कीट-पतंगों में भी पाते हैं, नन्हें जीवों और जीवाश्मों में भी पाते हैं, पाते हैं न? तो इसका मतलब अगर शरीर है, तो शरीर की संरचना में ही यह निहित है कि पुरुष आकर्षित होगा स्त्री की ओर, स्त्री आकर्षित होगी पुरुष की ओर। और इस आकर्षण का अन्ततः जो परिणाम निकलता है वो होता है सन्तानोत्पत्ति।

ये बात हमारे बुज़ुर्गों ने देखी, पुरखों ने देखी और उन्होंने इस बात को समझा कि ये होता क्या है। उन्होंने कहा, ‘फ़र्क ही नहीं पड़ता कि हम किसी को कितना ज्ञान दे दें, कितनी यात्राएँ करा दें, कितना अनुभव दे दें और फ़र्क ही नहीं पड़ता कि कोई पुण्यात्मा है कि पापी है और फ़र्क ही नहीं पड़ता कि कोई अमीर है कि ग़रीब है और फ़र्क ही नहीं पड़ता कि कोई नाटा है कि लम्बा है कि कुरूप है कि सुरूप है, ये भावना तो सबमें ही विद्यमान है।’ तो उन्होंने कहा, ‘इससे लड़ा नहीं जा सकता, स्त्री-पुरुष के मध्य जो आकर्षण है इससे लड़ाई फ़िज़ूल है।’

देखने वालों ने ग़ौर किया कि जवान-तो-जवान, बूढ़े लोगों में भी ये आकर्षण मौजूद है। और जवान-तो-जवान, बच्चों तक में ये आकर्षण मौजूद है, छः-छः, आठ-आठ साल के बच्चे-बच्चियों में भी ये भावना सूक्ष्म रूप से उपस्थित होती है। तो उन्होंने कहा कि ये तो बड़ी घनघोर ताक़त है, अस्तित्व का पत्ता-पत्ता इसी ताक़त के चलाये चल रहा है। उन्होंने कहा, ‘घास का एक नन्हा-सा तिनका भी जैसे इसी ऊर्जा से संचालित होता है। और आदमी जिन इच्छाओं को अपनी साधारण इच्छाओं का नाम देता है, घूम-फिरकर के उनका भी सम्बन्ध कहीं-न-कहीं यौनेच्छा से ही होता है।’

कोई कहता है मुझे बल अर्जित करना है, कोई कहता है मुझे सौन्दर्य अर्जित करना है। और जब पास जाकर के निरीक्षण किया तो पता चला कि जिसको बल चाहिए, उसे बल इसलिए चाहिए ताकि वो अपने लिए एक सुन्दर स्त्री का प्रबन्ध कर सके। और जो अपना सौन्दर्य बढ़ा रहा है, वो अपना सौन्दर्य इसलिए बढ़ा रहा है ताकि वो भी अपने लिए किसी साथी को आकर्षित कर सके। तो देखने वाले हैरान रह गये, उन्होंने कहा, ‘यह तो बात बड़ी विचित्र और बड़ी प्रबल है!’

हम जब किसी व्यक्ति की ओर आकर्षित हो रहे हैं तब तो हम कामेच्छा से संचालित हो ही रहे हैं, हम जब अपनी रोज़मर्रा की इच्छाओं पर भी चल रहे हैं तो ध्यान देने से पता चलता है कि उन रोज़मर्रा की इच्छाओं के मूल में भी हमेशा नहीं तो अधिकांशतः काम ही बैठा होता है। कोई विद्यार्जन भी इसलिए कर रहा है कि खूब पढ़ा-लिखा होऊँगा तो पत्नी अच्छी मिलेगी। ये सब देखा है न, 'डिग्री क्यों ले रहे हो बेटा या क्यों ले रही हो बेटी?' ‘विवाह अच्छा होगा।’ तो अब लग तो यह रहा है कि इनकी इच्छा विद्या से सम्बन्धित है पर इच्छा मूलतः विद्या से नहीं सम्बन्धित है, विद्या भी इसलिए ली जा रही है ताकि कामेच्छा पूर्ण हो सके।

कोई विदेश ही चला जाना चाहता है, तमाम प्रेरणाएँ होंगी विदेश जाने के पीछे, पर एक बड़ी प्रेरणा यह भी है कि विदेश पहुँच गये तो अपने लिए ज़्यादा उपयुक्त साथी मिल पाएगा। कोई बड़ी गाड़ी ख़रीद रहा है, कोई मकान बनवा रहा है, कोई राजनीति में आगे बढ़ना चाहता है और क़रीब जाकर देखा तो पता चला कि इन सब मामलों में वही आदिम-पुराना-पाशविक तत्व मौजूद ज़रूर है। तो जैसा मैंने कहा, देखने वाले हैरान रह गये, उन्होंने कहा, ‘इतनी बड़ी ताक़त है ये!’ प्रकृति माने जैसे कामेच्छा। अस्तित्व माने जैसे वही एक मूल शक्ति।

तो उन्होंने देखा कि उपद्रव बहुत है इस मामले में, खूब गड़बड़ होती है, आदमी की ऊर्जा का खूब विनाश होता है, आदमी अपना समय खूब बर्बाद करता है, तमाम तरह की लड़ाइयाँ और फ़साद होते हैं। लेकिन साथ-ही-साथ यह मामला इतना गहरा है, यह लत इतनी दुर्निवार है कि छुड़ाये नहीं छूटती। तो उनके सामने एक बड़ी समस्या थी। हम समझना चाह रहे हैं कि विवाह का मूल क्या है। तो उन्होंने कहा, ‘दो बातें दिखायी दे रही हैं, पहली बात तो ये कि यह जो आकर्षण है, यह आदमी की नस-नस में, उसके खून में, उसकी कोशिकाओं में इतना गहरा घुसा हुआ है कि इससे मुक्ति असम्भव है, जैसे आदमी की धड़कन में बैठी हुई हो यह इच्छा।’ और दूसरी चीज़ उन्होंने यह भी देखी कि आदमी अगर यही करता रह गया जीवनभर तो उसने जीवन बर्बाद ही कर लिया क्योंकि कोई अन्त नहीं है।

न जाने कितनी स्त्रियाँ हैं दुनिया में, न जाने कितने पुरुष हैं, दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, इसी में अपना समय लगा दो सारा। और इसी में अपना सारा समय लगा दोगे तो फिर मुक्ति की साधना कब करोगे? तुम्हारे पास समय भी सीमित है, ऊर्जा भी सीमित है, संसाधन भी सीमित है, वो सब तुमने अगर यौनेच्छा की तृप्ति में ही लगा दिये तो बोध और मुक्ति और सत्य की साधना कब होगी, भाई? और कामेच्छा होती इतनी प्रबल है कि जब वो मन को गिरफ़्त में लेती है तब व्यक्ति सत्य को, परम को, मुक्ति को, बोध को सबको भूल जाता है। उसके सिर पर बस एक उद्वेग सवार रहता है, ‘मुझे अपनी वासना की पूर्ति करनी है।’

तो जिन मनीषियों ने इस तथ्य पर ग़ौर किया, बल्कि इन दो तथ्यों पर ग़ौर किया, उन्होंने पाया कि बड़ी विकट समस्या सामने खड़ी है। आदमी माने शरीर। जिसके शरीर नहीं, उसे तुम क्या कहोगे कि प्राणी है, जीव है? कुछ नहीं। प्राणी माने देही, जिसके पास देह हो और देह माने तुम्हारी कोशिका में ही बैठी हुई है कामवासना। और दूसरी ओर उन्होंने यह भी जाना कि जो देह लेकर पैदा हुआ है, वो देह से सन्तप्त भी है। हर प्राणी अपने जीवन से व्यथित भी है और उसे तमाम तरह के संकटों से, तनावों से, बाधाओं से मुक्ति चाहिए। अब मुक्ति मिले कैसे, क्योंकि जिसे मुक्ति चाहिए वही पूरे तरीक़े से शारीरिक रूप से संस्कारित है बन्धन में रहने के लिए और प्रबलतम बन्धन है यौन-बन्धन। यह तो अजीब समस्या है! मुक्ति किसे चाहिए? जीव को, और जीव माने जिसके पास शरीर है, पर जहाँ शरीर है वहाँ बन्धन है। प्रथम बन्धन क्या है शरीर के साथ? यौन-बन्धन है।

तो जिन ऋषियों-मनीषियों ने इस बात को देखा उन्होंने कहा कि कोई उपाय निकालना पड़ेगा। आदर्श उपाय तो यह होता कि आदमी से कह दिया जाता, ‘चल, हटा इधर-उधर की फ़िज़ूल बातें, क्या स्त्री-पुरुष का खेल लगा रखा है? जिस काम में जीवन की सार्थकता है, तू बस वो कर।’ और किस काम में जीवन की सार्थकता है? ‘अपनी मुक्ति का प्रबन्ध कर, साधना कर, कुछ पुण्य कर, कुछ सतकर्म कर। इधर-उधर देखना छोड़, बिलकुल नाक की सीध में चला कर, मुक्ति के शिखर की ओर बढ़ना है, ऊँचा जाना है।’

पर उन्होंने देखा कि अगर ऐसी बात दुनिया को बता भी दी गयी तो ये बात अव्यावहारिक होगी क्योंकि बता तो देंगे, सुनेगा कोई नहीं। और जिन्होंने सुन भी लिया, वो बेचारे सुन तो लेंगे पर पालन नहीं कर पाएँगे। तो उन्होंने कहा कि यह अव्यावहारिक बात बताने से कुछ होगा नहीं। उन्होंने कहा, ‘कोई ऐसा तरीक़ा निकालना पड़ेगा कि आदमी में जो यह प्रबल इच्छा है कि स्त्री का साथ मिल जाए, पुरुष का साथ मिल जाए, यह इच्छा भी पूरी होती चले और जो जीवन का मूल और परम् लक्ष्य है उसमें भी बाधा न आये। कुछ ऐसा करना पड़ेगा कि एक सुन्दर युक्ति निकले कि प्राकृतिक आकर्षण से लड़ना भी न पड़े और जीवन का परम् लक्ष्य भी पूरा होता चले।’ तो उन्होंने फिर एक तरीक़ा खोजा, उस तरीक़े का नाम है 'विवाह'।

तो विवाह में दोनों बातें निहित हैं, पहली बात स्त्री को पुरुष के साथ और पुरुष को स्त्री के साथ रहने का मौक़ा मिलता है, ठीक। लेकिन दूसरी बात भी निहित होनी ज़रूरी है, दूसरी बात यह है कि विवाह ऐसा होना चाहिए कि जीवन का परम् लक्ष्य उससे बाधित न हो बल्कि विवाह परम् लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हो। ये हैं विवाह के मूल में दो बातें। पहली बात, ‘ठीक है, आदमी-औरत को साथ रहने को मिल रहा है।’ और दूसरी बात, ‘वो साथ ऐसा होना चाहिए कि स्त्री की मुक्ति में सहायक हो और पुरुष की मुक्ति में सहायक हो।’

पहली बात तो ज़ाहिर ही है, दूसरी बात पर ग़ौर करते हैं। तो विवाह का मतलब है संगति, विवाह का मतलब है दो लोग साथ रह रहे हैं। इन दो लोगों के साथ रहने की व्यवस्था ही इसीलिए की गयी है ताकि ये दो लोग साथ रहकर एक-दूसरे की परस्पर मुक्ति के कारक और सहायक बनें। ये शर्त रखी थी जानने वालों ने, उन्होंने कहा, ‘तुम दोनों साथ रह लो, तुम्हारे सहवास को हम धर्म की मान्यता दिये देते हैं, तुम्हारे सहवास को अब हम सामाजिक मान्यता दिये देते हैं। तुम खुलेआम एक साथ रहो, तुम चाहो तो यौनाचरण में भी प्रविष्ट हो सकते हो, वो भी करो, उसको भी हमने अब धर्म की मान्यता दे दी। अग्नि के सात फेरे लगवाये हैं, धर्म भी अब कह रहा है कि जो है ठीक है, रह लो साथ में। लेकिन शर्त रख रहे हैं हम, और वो शर्त क्या है? तुम दोनों को एक साथ रहने की अनुमति इस शर्त पर दी गयी है कि न तुम उसके बन्धन बनोगे और न वो तुम्हारा बन्धन बनेगी, बल्कि दोनों साथ-साथ मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ोगे।’ इस शर्त का नाम है 'विवाह'।

मात्र पहली चीज़ ही नहीं पूरी होनी चाहिए कि आदमी-औरत साथ-साथ रहने लगे, जो दूसरी चीज़ है वो भी पूरी होनी चाहिए, ये विवाह के मूल में है। तो कर लो विवाह लेकिन ग़ौर से देख लो कि किसके साथ कर रहे हो क्योंकि जिसके साथ कर रहे हो उसकी संगति में अब तुम्हें खूब रहना पड़ेगा। क्या उसकी संगति तुम्हारे लिए मुक्तिदायी है? अगर है तो मुहूर्त की भी चिन्ता न करो, अभी कूदकर विवाह कर डालो, तुरन्त अभी उसके घर चले जाओ, उसे अपने घर ले आओ। मुक्ति के लिए प्रतीक्षा कैसी! मिल रही हो तो झपट लो। और भूलो नहीं कि बड़ी गहरी संगति में प्रवेश करने वाले हो तुम।

विवाह का मतलब होता है कि दूसरे की संगति अब चौबीस घंटे रहेगी। उसी के साथ खाओगे, उसी के बगल में सोओगे, उसी की सूरत अब लगातार देखोगे, उसी के शब्द तुम्हारे कान में पड़ेंगे, उसी की हरकतों के भोक्ता बनोगे अब तुम। तो ग़ौर से तो देखो किसकी संगति करने जा रहे हो और जिसकी संगति करने जा रहे हो उसकी संगति का तुम्हारे मानस पर प्रभाव क्या पड़ेगा। दो लोग अब साथ रहने जा रहे हैं। अब ऐसा तो है नहीं कि तुम चौबीसों घंटे यौन क्रीड़ा में लिप्त होकर एक-दूसरे को तृप्ति दे लोगे। वो काम होगा भी तो थोड़ी देर का, थोड़ा-बहुत, उससे पूर्ण सन्तुष्टि तो आज तक किसी को मिल नहीं गयी। हाँ, एक-दूसरे की संगति तुम निरन्तर झेलोगे। किसकी संगति अब झेलने जा रहे हो, देखना ग़ौर से।

समझाने वालों ने समझाया है कि संगति तो सत्य की ही अच्छी होती है, उसी का नाम सत्संग है। तुम किसकी संगति अब आमन्त्रित कर रहे हो जीवन में? और जिसको तुम आमन्त्रित कर रहे हो, वो आ ही नहीं रहा, वो साधिकार आ रहा है, वो हक़ जताकर आएगा अब। वो ऐसे नहीं आएगा कि अब आ गया है और जीवन के किसी कोने में जाकर बैठ गया है। वो कोने में नहीं, केन्द्र में बैठेगा। और जब तुम उसकी आँखों के सामने नहीं भी मौजूद हो, वो तब भी तुम पर हक़ जमाएगा। मतलब कि जब शारीरिक रूप से तुम उसकी संगति नहीं कर रहे हो तब भी मानसिक रूप से वो चाहेगा कि वो तुम्हारे ज़ेहन में मौजूद रहे। वो कहेगा, 'हर समय मुझे याद करते रहो और कभी तुम मुझे भूल गये तो तुम बेवफ़ा हो।'

संगति बड़ी चीज़ है और संगति से ज़्यादा प्रभावी चीज़ दूसरी नहीं होती। और दो तरह के प्रभाव होते हैं संगति के, या तो डुबो देगी, या तार देगी। विवाह करते समय इस दूसरी बात को, इस बड़ी बात को, इस ऊँचे पक्ष को अक्सर नज़र-अन्दाज़ कर दिया जाता है। पहली चीज़ ख़याल में रख ली जाती है। पहली चीज़ क्या थी? स्त्री-पुरुष का शारीरिक-प्राकृतिक आकर्षण। तो आप ये देख लेते हो कि आप जिससे शादी कर रहे हो उसकी कद-काठी कैसी है, नैन-नक्श कैसे हैं, सूरत कैसी है, इत्यादि-इत्यादि। ये आप नहीं देखते कि उसका मन कैसा है।

जिससे आप विवाह करने जा रहे हो, क्या वो स्वयं परमात्मा से प्रेम करता है? और अगर वो परमात्मा का प्रेमी नहीं है तो वो आपको सत्य की ओर कैसे ले जाएगा? जिसे सत्य से स्वयं प्रेम नहीं, वो आपको क्या दिशा दिखाएगा! उसकी संगति तो आपके लिए कुसंगति हो गयी, और कुसंगति से बड़ा दोष दुनिया में क्या होता है! दुख के साथ कहना पड़ रहा है, अधिकांश विवाह दोनों पक्षों के लिए, स्त्री और पुरुष दोनों पक्षों के लिए, कुसंगति जैसे होते हैं। पुरुष स्त्री को डुबो देता है, स्त्री पुरुष को डुबो देती है। कारण साफ़ है, उन्होंने एक-दूसरे की संगति इस आधार पर करी ही नहीं होती है कि हाथ पकड़ेंगे एक-दूसरे का और मुक्ति की ओर बढ़ेंगे। उन्होंने एक-दूसरे की संगति इस आधार पर की होती है कि हाथ पकड़ेंगे एक-दूसरे का और गले लग जाएँगे। मुक्ति की तो बात ही नहीं आती, 'हम तुम्हारे, तुम हमारे, मुक्ति कौनसी!' समझ में आ रही है बात?

सवाल पूछा है तुमने, ग़ौर से देख लो न कि आमतौर पर पत्नियों का चयन कैसे किया जाता है। कोई मिले तुमको बड़ी विदुषी महिला, बहुत पढ़ी-लिखी है, बहुत समझदार है, बहुत जानकार है। क्या उसके बोध की गहराई है! क्या उसके ज्ञान का सौन्दर्य है! पर दिखने में शरीर उसका ठीक नहीं है, नैन-नक्श आकर्षक नहीं है। उसे ठुकरा दोगे तुम। दस में से नौ मामले ऐसे ही होंगे जहाँ स्त्री कितनी भी विदुषी हो, कितनी भी होनहार हो, पर अगर वो जिस्म से उन्नत नहीं है तो ठुकरा दी जाएगी। इसी से तुम्हें समझ में आ जाएगा कि तुम जब किसी स्त्री की ओर देखते हो तो किस दृष्टि से देखते हो। इस दृष्टि से तो देखते ही नहीं कि ये आएगी मेरे जीवन में तो मुक्तिदायिनी बनेगी। तुम कहते हो, ‘होगी बहुत बड़ी पीएचडी, दिखने में तो ठीक नहीं है न।’ तो सम्बन्ध का आधार ही है देह, सम्बन्ध का आधार ही है जिस्मानी।

यही बात स्त्रियों पर भी लागू होती है, ज़रा कम लागू होती है इसलिए उदाहरण पुरुष का लिया। दस में से छः-सात स्त्रियाँ भी ऐसी ही होंगी। पुरुष होगा बड़ा होशियार, होनहार, ज्ञानी, पर कद का छोटा है, दिखने में ठीक नहीं है, नाक टेढ़ी है, एक आँख नहीं ठीक से खुलती, सुनायी कम देता है, बाल उड़े हुए हैं। वही बात, कह रही हैं, ‘अरे! लिखी होंगी इन्होंने दस किताबें, इसको बगल में लेकर चलूँगी क्या!’ तो जब सम्बन्ध का आधार ही जिस्मानी है, तो तुम एक-दूसरे को सुसंगति कैसे दे लोगे? जब रिश्ता बनाया ही शक्ल देख करके है, तो फिर ये रिश्ता तुमको सत्य या मुक्ति कैसे दिलवा देगा?

जिन्होंने तुम्हें विवाह की संस्था दी, उन्होंने तुम्हें ये निर्देश दिया था और तुम पर ये भरोसा किया था कि तुम अपने साथी का चयन एक आधार पर करोगे — कौन है वो जो मेरी ज़िन्दगी से अन्धेरा हटा देगा, कौन है वो जो मेरी वृत्तियों की दुर्गन्ध को हटाकर के सत्य की खुशबू भर देगा, कौन है वो जो मेरी आँखों के जाले साफ़ कर देगा। ऐसा जो मिले उसका हाथ थामना है, ये भरोसा करा था उन्होंने।

पुरुषों से उन्होंने कहा था कि जब देखना स्त्री को तो पूछना अपनेआप से, 'इसमें सीता दिख रही है कहीं? मीरा दिख रही है कहीं? राधा दिख रही है कहीं?' अगर दिखती हो राधा तो उसका हाथ थाम लेना क्योंकि राधा अगर दिखती होगी तो स्वयं भी जाएगी कृष्ण की ओर और तुम्हें भी ले जाएगी। दिखती हो अगर स्त्री में सीता तो ही उसका हाथ थामना क्योंकि अगर सीता होगी स्त्री में तो स्वयं भी जाएगी राम की ओर और तुम्हें भी ले जाएगी। पर तुम इस दृष्टि से देखते हो क्या स्त्री को? ऐसी स्त्री मिलती हो तो तुरन्त कर लो विवाह, पर सिर्फ़ तब जब ऐसी स्त्री मिलती हो। ऐसी स्त्री मिलती हो तो न मन्दिर की ज़रूरत है, न मुहूर्त की, न पंडित की, पकड़ लो हाथ और आसमान की ओर देख कर कहो, ‘हो गया विवाह, बिन फेरे हम तेरे।’

और यही बात स्त्रियों पर है। ये थोड़े ही कहा था उन्होंने कि देखना कि वो कमाता कितना है और उसकी फ़ैक्टरियाँ कितनी हैं और देखना कि भाई कितने हैं उसके, बाप की जायदाद कितनों में बँटेगी। उन्होंने कहा था कि ये जिज्ञासा करना कि तुममें, हे युवक, सच्चाई के प्रति अनुराग कितना है। उन्होंने ये थोड़े ही कहा था कि जिज्ञासा करना कि सुनो परिवार जॉइंट (संयुक्त) है कि न्यूक्लियर (एकल)? पर जिज्ञासा तो हम यही करते हैं, ‘अकेले रहते हो या और भी लोग हैं? देखो, शादी के बाद मुझे पसन्द नहीं है परिवार वगैरह में रहना।’

इन सब बातों में सत्यनिष्ठा कहाँ है? तुम कहाँ पूछ रही हो उससे कि तेरा मन साफ़ है क्या? कितना निर्मल, कितना निर्दोष है तू? और ये बात आदर्श मात्र नहीं है। फिर कह रहा हूँ, जो उसका नहीं हो सका वो किसी और का क्या होगा! वो माँ है, वो बाप है, वो सबकुछ है, जो उसका ही नहीं हो सका वो तुम्हारा क्या होगा! ऐसा मिलता हो पुरुष तो उसको पकड़कर घर ले आओ या उसके पीछे-पीछे चले जाओ, पर सिर्फ़ तब जब ऐसा पुरुष मिलता हो। ऐसा पुरुष मिलता हो तो तत्काल विवाह, अपहरण करके करना पड़े तो भी कर लो, गन्धर्व विवाह, उठा ले गये। बन्दा था ही इस क़ाबिल, उसे छोड़े कैसे। पर ऐसा न मिलता हो तो अपना जीवन नर्क करने के लिए किसी का भी हाथ मत थाम लेना।

भूलना नहीं कि देने वालों ने एक नहीं दो शर्तें बतायी थीं। हम बस पहली ही याद रख लेते हैं, पहली बात तो यही है कि स्त्री है, पुरुष है, साथ रहना चाहते हैं, रहने दो। लेकिन दूसरी बात ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है और दूसरी ही बात भुला दी जाती है। क्या है दूसरी बात? सिर्फ़ उसके साथ रहना है जो ख़ुद भी मुक्ति का अभिलाषी हो और तुम्हें भी उधर को ही लेकर चल सके। सिर्फ़ यही कसौटी है, इसके अलावा कुछ नहीं। इसी का नाम प्रेम है, ख़ुद भी उसको चाहना और जो तुम्हारे साथ हो उसे भी उसी का रास्ता दिखाना। तो इसी कसौटी पर परख भी लो अपने साथी को या होने वाले साथी को। वो तुम्हें अपनी तरफ़ बुलाता है या उसकी तरफ़ भेजता है? जो तुम्हें अपनी ही तरफ़ बुलाता रहता हो, उसको जान लेना कोई स्वार्थी होगा।

प्रेम का मतलब यह नहीं होता कि जिसके साथ हो उसे स्वयं से बाँधकर रखने की चेष्टा कर रहे हो कि तू मेरे साथ रह, तू मेरे साथ रह। प्रेम का मतलब होता है, जिसके साथ हो उसे तुम आसमान की ओर भेज रहे हो, उसे मुक्ति दे रहे हो, उसे पंख और उड़ान दे रहे हो, ‘तू उड़!’ तुम कह रहे हो, ‘मुझे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता कि तू मेरे साथ है या नहीं, पर तुझे अपनी उच्चतम सम्भावना को साकार करना चाहिए, तू जा, आसमान है तेरे लिए’, ये प्रेम है। और जिस विवाह में ये भाव न हो उस विवाह में प्रेम नहीं। प्रेम बिना विवाह कैसा होता है, कहने की ज़रूरत नहीं।

तो बेटा अपने माँ-बाप से पूछना, कहना, ‘बेटा हूँ तुम्हारा तो मेरा भला चाहते हो न? भला चाहते हो तो मुझे ऐसा साथी लाकर दो जो वास्तव में मेरा भला कर सकता हो। शादी करने को तैयार हूँ मैं, पर लड़की ऐसी लाकर देना जो पत्नी मात्र न हो, उसमें मित्रता की सामर्थ्य होनी चाहिए और गुरु भी हो जाने की योग्यता होनी चाहिए। ऐसी लड़की बताओ, अभी कर लेंगे शादी और अगर ऐसी नहीं है तो मेरा जीवन नर्क मत करो।’ अकेले रह जाना कहीं अच्छा है साँप-बिच्छुओं के साथ रह जाने से, है न कि नहीं? भूखे रह जाना कहीं अच्छा है ज़हर पी जाने से। कुछ नहीं मिल रहा होगा तो मिट्टी खा लोगे, विष्ठा खा लोगे क्या? प्रतीक्षा कर लो, इन्तज़ार कर लो, प्रतीक्षा में भी परमात्मा होता है।

जब तुम कहते हो, ‘कोई मिला नहीं ऐसा जो तेरी तरफ़ ला सके इसलिए हम अकेले बैठे हैं प्रतीक्षारत’, तो यह भी बड़े प्रेम की बात होती है। यह भी एक साधना ही होती है कि सही दिशा को आने वाली गाड़ी नहीं मिली तो हमने ये नहीं किया कि ग़लत दिशा की गाड़ी में सवार हो गये। हमने प्रतीक्षा कर ली या हम पैदल चल लिये, वो हमे क़ुबूल था, पर ग़लत दिशा की गाड़ी में बैठ जाना क़ुबूल नहीं था। सही साथी नहीं मिला तो हमने तेरा साथ कर लिया, हमने कहा, ‘एकला चलो रे।’ पर हमने ये नहीं करा कि किसी ऐसे को साथ ले लें जो हमारा बोझ ही बन जाए। गाड़ी की संगति की जाती है ताकि गाड़ी तुम्हें मंज़िल पर पहुँचा दे, और कोई तुम्हें ऐसी गाड़ी लाकर दे जिसे तुम ही धक्का मार रहे हो, तो ऐसी गाड़ी से तो कहीं बेहतर है पैदल चलना न।

प्रेम अगर है, तो प्रेम का मतलब समझो, "जा मारग साहिब मिले, प्रेम कहावे सोय", यही कसौटी है प्रेम की। ख़ुद भी जन्म को साकार करो और जिनके साथ रहते हो उनकी भी इसी दिशा में मदद करो, यही प्रेम है।

प्रश्नकर्ता: स्त्री-पुरुष का आकर्षण तो रहेगा ही, यदि विवाह नहीं करेंगे तो यह पूरा कैसे होगा?

आचार्य: जिस वजह से दूसरी शर्त रखी गयी थी, वो वजह क्या थी? वो वजह यह थी कि मुक्ति सर्वोपरि है। मैंने कहा, पहली याद रख लेते हैं, दूसरी भूल जाते हैं, जबकि दूसरी पहले से अधिक महत्वपूर्ण है। है न? तो बस यही याद रखना है कि जो स्त्री-पुरुष का आकर्षण है उससे भी अधिक महत्वपूर्ण कुछ है। जो अधिक महत्वपूर्ण है उसको अधिक ऊर्जा दीजिए, उसी पर अधिक ध्यान दीजिए। दूसरी शर्त का मतलब क्या है? कि वो पहली से ज़्यादा ऊपर की है। मतलब पहली से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ होता है न, तभी तो दूसरी रखी गयी।

पहली क्या है? स्त्री-पुरुष का दैहिक आकर्षण। तो यही याद रखना है कि दैहिक आकर्षण कितना भी उठ रहा हो, उससे आगे कुछ है भई, वो आख़िरी चीज़ नहीं है। जब उससे आगे कुछ है तो उससे आगे जो कुछ है, हम उसकी सेवा करेंगे, उसमें ध्यान लगाएँगे, उसमें मन लगाएँगे। उसके आगे अगर कुछ नहीं होता तो हम कहते कि यही बस तो है, इसी के शिकार हो जाओ, इसी को भोगो। पर जिन्होंने जाना, उन्होंने आपको बार-बार याद दिलाया कि यह आख़िरी चीज़ नहीं है, और इसका प्रमाण आपकी अपनी ज़िन्दगी में उपलब्ध है कि ये आख़िरी चीज़ नहीं है।

क्या प्रमाण है? प्रमाण यह है कि तुम कितनी भी संगति कर लो औरतों की, आदमियों की, पेट तो भरता नहीं, जी भर नहीं जाता। "माया मरी न मन मरा, मर-मर गया शरीर", शरीर ढल जाता है, खर्च हो जाता है, बर्बाद हो जाता है लेकिन फिर भी माया और मन नहीं मानते। इसका मतलब यह जो पहली चीज़ है यह बहुत काम की नहीं हो सकती, इससे बहुत प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। जो लोग जीवनभर अपनी कामवासना को ही पूरा करते गये वो भी झुंझलाये-झुंझलाये ही घूम रहे हैं, उनके भी चेहरे उदास हैं और कन्धे लटके हुए हैं, उन्हें भी ऐसा लगता है जैसे कुछ मिला नहीं।

इसका मतलब पहली चीज़ जो है वो छोटी चीज़ है, उससे बड़ा कुछ और होगा। उससे बड़ा जो होगा वही जीवन को पूर्ति देता होगा क्योंकि ये पहली चीज़ तो हमने देखा नहीं कि किसी के भी जीवन को पूर्ति देती है। थोड़े दिनों का उत्सव दे देती है, कुछ देर की उत्तेजना दे देती है, कुछ देर के लिए आदमी को ऐसा लगता है कि बड़ी बहार आ गयी और फिर वही "ढाक के तीन पात।" तो याद रखना है कि इससे ज़्यादा कुछ तो मिलता नहीं, कुछ और है जिससे ज़्यादा मिलता है। जिससे ज़्यादा मिलता है उसकी सेवा करो न, उसकी तरफ़ बढ़ो। वो भी बड़ी मेहनत का काम है, सारी मेहनत उसकी दिशा में लगाओ न, कौन इन पचड़ों में पड़े।

तो कोई मिल गया साथी, बड़ी अच्छी बात! कोई सुयोग्य साथी मिल गया, बड़ी अच्छी बात हुई और कोई नहीं मिला तो और ज़्यादा अच्छी बात हुई। तेरी बड़ी कृपा है, तूने एक सुपात्र साथी दे दिया, सौ बार उसको (आसमान की ओर देखते हुए) धन्यवाद दो, अगर कोई ऐसा मिल जाए। और कोई न मिले तो उसे पाँच-सौ बार धन्यवाद दो, उसको कहो, ‘तूने बहुत बचा दिया, नहीं तो इस शरीर ने तो पूरी तैयारी कर रखी थी दस तरह के जाल में फँसाने की। तूने बहुत बचा दिया कि मैं फँसा नहीं।’

प्र: जिनका विवाह पहले से ही हो चुका है, उनके लिए क्या समाधान है?

आचार्य: आगे बढ़िए! आगे बढ़िए, जीवन को एक सुयोग्य लक्ष्य दीजिए और जिसका हाथ पकड़े हुए हैं उसको भी उधर ही खींचिए।

प्र: उस रास्ते पर जाना सम्भव नहीं है कि आप उतना काम कर सको।

आचार्य: आप पहले से ही निष्कर्ष अगर बना लेंगी कि ये नहीं है और वो नहीं है तो फिर तो आपको सत्य ही पता है, फिर आपको कुछ भी करना क्यों है? जो चीज़ आपको बिलकुल पता हो कि अपरिवर्तनीय है उसका नाम है 'सत्य'। आपने जिस आश्वस्ति के साथ कह दिया कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता, उतनी आश्वस्ति के साथ तो बस सत्य बताया जा सकता है। तो सत्य अगर आपको पहले ही पता है, तो फिर आपको कुछ भी और करना क्यों है?

प्र: सत्य तो पता नहीं है। लेकिन मुक्ति की ओर कैसे ले जाएँ, साधना में कैसे चलें?

आचार्य: सत्य के अलावा और कुछ नहीं निश्चित होता। आपने कैसे निश्चित मान लिया कि दूसरों को नहीं बदला जा सकता? आपने यह निश्चित कैसे मान लिया कि दूसरों को नहीं बदला जा सकता?

प्र: ख़ुद को ही नहीं बदल पा रहे हैं, दूसरों को कैसे बदलें?

आचार्य: आपने यह कैसे मान लिया कि आप नहीं बदल पाएँगी और अगर आप नहीं बदल पाएँगी तो फिर इस तरह के कार्यक्रम का लाभ क्या आपको? जिसको ये निश्चित रूप से पता हो कि वो बदल ही नहीं सकती, वो फिर इस कार्यक्रम से लाभ कैसे लेंगी?

प्र: वही तो समझना चाह रहे हैं।

आचार्य: तो आप समझ सकती हैं न, अभी कुछ बदल सकता है न? समझने का मतलब ही है कुछ बदला। तो जैसे आप समझ सकती हैं वैसे ही दूसरे भी समझ सकते हैं। इतनी जल्दी निराश नहीं होते, इतनी जल्दी दम नहीं तोड़ते कि अब तो कुछ हो ही नहीं सकता, मैं नहीं बदल सकती या कोई और नहीं बदल सकता। आपने अभी तक जो कुछ भी देखा है वो उसका शून्य-दशमलव-शून्य-शून्य-एक प्रतिशत भी नहीं है जो देखा जा सकता है। अभी आपको पता ही क्या है कि क्या-क्या हो सकता है? आपने अपने अनुभवों के छोटे से सीमित दायरे को सत्य मान लिया, आपको लगा इसके आगे अब कुछ हो ही नहीं सकता? न जाने क्या-क्या हो सकता है, थोड़ी श्रद्धा रखिए और जमकर के कोशिश करिए, साधना करिए फिर देखिए क्या-क्या होता है। निराश मत होइए।

प्र: पति को साधना से जोड़ने के लिए क्या करना चाहिए?

आचार्य: देखिए, दूसरे में परिवर्तन लाने में आपके शब्द कम उपयोगी होते हैं, आपका जीवन ही उपयोगी होता है। मैं उन दूसरों की बात कर रहा हूँ जो आपके साथ ज़िन्दगी बिता रहे हों, जो आपको सुबह से शाम तक देखते हों। उनको आप बातें क्या बताओगे, वो तो आपका जीवन देख रहे हैं, वो तो आपके हाव-भाव देख रहे हैं, वो तो आपको नख-शिख भरपूर जानते हैं, सबकुछ आपका उनके सामने खुला हुआ है। तो मतलब दूसरे में अगर परिवर्तन लाना है तो उसके लिए साधन आपका जीवन होगा, आपकी बातें नहीं।

और यक़ीन जानिए, दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जो बेहतर नहीं होना चाहता। आदमी जो भी काम कर रहा है, कोशिश कर रहा है, वो इसीलिए कर रहा है कि वो बेहतर हो सके। सबके आग लगी हुई है और सब चैन चाहते हैं, है न? आग सभी के मन में लगी है और चैन सभी को चाहिए। हाँ, चैन पाने की सबकी कोशिशें अलग-अलग तरह की होती हैं। अगर आप उन्हें दर्शा सकें कि आपको चैन वास्तव में मिला है, तो वो आपकी ओर निसन्देह आएँगे, बिना आपके बुलाये आएँगे, अपनी ही ख़ातिर आएँगे, आप आमन्त्रण न दें तो भी आएँगे। वो हाथ जोड़कर के आपसे पूछेंगे कि बताओ तुमने क्या जाना ऐसा, बताओ तुम्हारी ज़िन्दगी में जो बदलाव आया वो कैसे आया, हम भी सीखना चाहते हैं।

दुनिया में कौन ऐसा है जो अपना ही नुक़सान करना चाहता है, भाई? अगर आपके पास सिखाने लायक़ कुछ होगा तो पचास लोग आपसे सीखेंगे। लेकिन देखो अक्सर होता क्या है, जो दूर के लोग हैं उनको बातों इत्यादि से प्रभावित कर लेना आसान होता है, क्योंकि दूर के आदमी को सिर्फ़ क्या दिखायी देता है? हमारी बातें। जो आपने बातें करीं, उस तक उतनी ही पहुँची, उसके आगे का उसे कुछ पता नहीं। जो पास वाला है, उसे तो सब दिख रहा है न। अब आपने पास वाले को बताया कि हम गये थे और हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, ‘लालच बुरी बला है’, तो पतिदेव आप भी लालच कम किया करो। पतिदेव ने कहा, ‘ठीक, सुन लिया’, और शाम को आप बोल रही हैं, ‘चलो ज़रा वो बढ़िया वाला एक कंगन आया हुआ है बाज़ार में।’ तो पतिदेव को दिख नहीं रहा है क्या कि इनकी बातें सिर्फ़ ज़ुबानी हैं, वास्तव में इनमें कुछ बदला नहीं है।

अगर वास्तव में आपमें कुछ बदलेगा तो आपके आसपास वालों को मजबूर होकर के आपके पास आना पड़ेगा। और मैं कह रहा हूँ, वो हाथ जोड़कर ख़ुद आपसे पूछेंगे कि बताओ तुमने क्या पाया, हम कैसे पायें।

और एक बात का और ख़याल रखिएगा, दूसरे से अगर वास्तव में लगाव हो तो बहुत दफ़े ऐसा होता है — इतिहास में भी ऐसा खूब हुआ है — कि दूसरे से आपका जो लगाव है वो आपकी प्रेरणा बन जाता है आत्म-सुधार की। आप कहते हो, ‘दूसरा जिस गर्त में है, मैं देख नहीं पा रही। दूसरा जिस हालत में है, मैं देख नहीं पा रही। उसका सुधरना, उसका बचना ज़रूरी है, नहीं तो वो तबाह हो रहा है। और अगर उसको सुधारने और बचाने के लिए ज़रूरी है कि मैं अपनेआप को बदलूँ तो मैं अपनेआप को बदलूँगी।’ तो दोनों बातें होती हैं। ख़ुद अगर सुधरते हो तो दूसरे का हाथ थामते हो कि वो भी सुधरे और दूसरे से अगर वास्तव में प्रेम है तो तुम आत्म-सुधार करते हो। तीसरी बात भी समझिए, ये बड़ी विचित्र शर्त होती है कि हम जैसे हैं हम तो वैसे रहें, दूसरा सुधर जाए। ये तो बड़े अहंकार की बात हो गयी न।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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