आचार्य प्रशांत: सारा जगत किसके द्वारा व्याप्त है ऋषिवर? ऋषिवर ने कह दिया, ‘ब्रह्म के द्वारा’, ब्रह्म के द्वारा। छोटे उत्तर चाहिए तो हम तुम्हें बता सकते हैं कि भई, ये जो सब ग्रह-उपग्रह हैं, ये एक-दूसरे को पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण से बाँधे हुए हैं, हम बता सकते हैं। हम बता सकते हैं कि कितने तरीके के फिजिकल फोर्सेज़ (भौतिक बल) होते हैं, जिनके द्वारा, जो भी पदार्थ है दुनिया में, वो संचालित होता है। ज्यादा नहीं पाँच-सात तरीके के फोर्सेज़ (बल) होते हैं दुनिया में। और आप एक-दूसरे को समझा सकते हो, ‘अच्छा, ये होता है वो होता है’, पर उसमें कहीं भी अन्त नहीं आने वाला।
फिजिक्स (भौतिक विज्ञान) भी इस समय उस जगह पर जाकर के खड़ी हो गयी है जहाँ पर क्या है, क्यों है, ये प्रश्न तभी हल होंगे, जब पहले पूछा जाए- किसके लिए है? किसके लिए है? तो जो वैज्ञानिक दृष्टि से भी चिंतन करते ही रहे, अब उनके सामने भी ये मजबूरी आ गयी है कि चेतना के सवाल का जवाब दें। फोॉर हूम इज़ दिस फिफ़िज़िकल फिनोमिना? (ये भौतिक घटना किसके लिए है?) हू इज़ द ऑब्ज़र्वर? (ये भौतिक घटना किसके लिए है? (दृद्रष्टा कौन है?)
और ये मैं अध्यात्म या साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) की किसी समस्या का आपको नहीं बता रहा हूँ। ये मैं फिजिक्स (भौतिक विज्ञान) की आपको समस्या का बता रहा हूँं। फिजिक्स (भौतिक विज्ञान) के सामने आज ये सवाल खड़ा है- हू इज़ द ऑब्ज़र्वर? (प्रेक्षक/दृ्रष्टा कौन है?) हाउ आर द ऑब्ज़र्वर एंड द ऑब्जर्व्ड फिनोमिना रिलेटेड टू इच अदर? (प्रेक्षक/दृ्रष्टा कौन है? प्रेक्षक और प्रेक्षित घटनाएँ एक दूसरे से किस प्रकार सम्बन्धित हैं?)
और ये कुछ और नहीं है, ये तो सीधे-सीधे यही बात पूछी जा रही है कि, चेतना क्या है।? समझ में आ रही है बात? और इसमें भी बहुत आगे आप बढ़ नहीं सकते। थोड़ा और आगे जाओगे तो अधिक- से- अधिक यही कह लोगे कि- जो दिख रहा है, जो देख रहा है, उनमें अन्तर्सम्बन्ध है।
देखी हुई चीज़ देखने वाले पर निर्भर करती है और जो देख रहा है वो सब देखी हुई चीज़ों से ही मिलकर बना है।, लेकिन फिर भी मूल प्रश्न तो बाकी ही रह जाएगा, कि- दोनों के नीचे क्या है? ये दोनों ही कहाँ से आते हैं? और वो जो प्रश्न है उसको विचार द्वारा कभी हल नहीं किया जा सकता। उस प्रश्न का उत्तर, बस मौन है, माने उस प्रश्न का उत्तर ही यही है कि वो प्रश्न न बचे।
तो मौन फिर किनको सिखाया जाता है? मौन की सीख, अनुशंसा ही किसको दी जाती है? उसको जो किसी सवाल में बहुत गहराई तक चला गया हो। तो गहराई तक जाने के लिए जिज्ञासा चाहिए, सवाल चाहिए और फिर जो चला गया बहुत गहराई में, उससे कहते हैं, ‘सब जिज्ञासाओं का उद्देश्य पूरा हो गया। अब जिज्ञासाएँ छोड़ो। मौन हो जाओ,। सो जाओ।’
सब जिज्ञासाओं का उद्देश्य था- सब झूठों को काटना। सब मकड़जालों को साफ करना। अब कुछ बचा नहीं है साफ करने के लिए।, अब तुम जिज्ञासा को ही साफ करो, सब झूठ तो कट गये। अब आखिरी झूठ जानते हो क्या बचा है? जिज्ञासा। इसको ही हटा दो। उस आखिरी झूठ को काटने की विधि का नाम है ब्रह्म।
लेकिन ब्रह्म उन्हीं के लिए उपयोगी हैं, (आप समझ ही गये होंगे,) जिन्होंने पहले जिज्ञासा के द्वारा, सत्संग के द्वारा, प्रश्नोत्तर के द्वारा, अपने भीतर के सारे सवालों को शान्त कर लिया है।
इस वक्त ऋषि के सामने ऐसा ही कोई शिष्य बैठा हुआ है, तो ऋषि उससे कह रहे हैं,- ‘ब्रह्म उत्तर है।’
आप ये मत करने लगिएगा कि, आपका बेटा आपके पास आये और वो आपसे पूछे कि- ये चंद्रमा का जैसा हमको आकार दिखता है, घटता-बढ़ता क्यों रहता है? और आप बोलें,- ‘ब्रह्म।’
नहीं।
जहाँ तक जिज्ञासा ले जा सकती है, वहाँ तक पहले जाना है।, और जिज्ञासा जब अपने शिखर पर पहुँच गयी, जब दिख गया, कि अब सवाल, सवाल करने वाले पर आ गया है,! तब रुक जाना है और तब कहना है, ‘ब्रह्म।’
उससे पहले नहीं कह देना है। उससे पहले अगर आप कहने लग गये कि, ये तो भगवान का काम है या ये है या वो है या मिस्टिसिज्म (रहस्यवादमिथ्यावाद) है, तो ये अन्धविश्वास है। समझ में आ रही है बात?
ये हमने बड़ा दुरुपयोग किया है शास्त्रों का।, ये जो कुछ हो रहा हो, कोई पूछे, बच्चा आया,- ‘ये कार कैसे चलती है?’ ‘भगवान चलाते हैं।’ अरे,! इंजन के बारे में कुछ बताओगे उसको?। कहें क्यों? तो,- ‘कण-कण में भगवान है।, यहाँ तो पत्ता भी भगवान की मर्जी बिना नहीं हिलता,। कार कैसे हिल जाएगी?, तो हमने गलत कहाँ बताया? जब बच्चे ने पूछा,- ‘कार कैसे चल रही है?’ हमने कहा,- ‘भगवान चला रहे हैं।’’ ये बोल मत दीजिएगा। भगवान चलाते हैं, ये बहुत आखिरी बात है। सबके लिए नहीं है ये बात। बच्चे को पहले विज्ञान समझाइए। और उसको उस जगह तक लेकर के आइए, जहाँ वो आखिरी बात समझने के लायक हो जाये।
इस देश ने अध्यात्म का ऐसे ही दुरुपयोग किया है, तभी वो फिर हजारों सालों तक झंझटों और गुलामी में पड़ा रहा। समझ में आ रहा है?
मेहनत नहीं करी, खेत में फसल खराब हो गयी, तो बोल रहे हो,- ‘जरूर पिछले जन्म के कुछ कर्म होंगे।’ नहीं, पिछले जन्म का कर्म नहीं है, इस जन्म की अकर्मण्यता है। महीने भर सो रहा था। न बीज डाले, न खाद डाला, न पानी डाला, और कह रहा है, ‘पिछले जन्म के पाप है, इसलिए फसल खराब हो गयी।’ समझ में आ रही है बात?
कोई दिख गयी, बिलकुल एकदम लट्टू हो गये, वासना में बह गये, अंड-बंड शादी कर ली, अब रोज जूते पड़ते हैं।, फालतू दो बच्चे पैदा कर दिये हैं, और कोई पूछ रहा है, ‘काहे को कर लिया?’, तो बोल रहे हैं,- ‘जोड़ियाँ तो ऊपर से बनती हैं।’ जोड़ियाँ ऊपर से नहीं बनकर आयी थीं, तुम्हारी वासना से पैदा हुई है। अपने ऊपर ज़िजिम्मेदारी लो। कहें, नहीं, ‘भगवान ने बनायीई थी जोड़ी।’ भगवान को यही काम है, तुम्हारी छीछा-लेदर में घुसना?।
तो जो भौतिक विषय हैं, जो चिन्तन के विषय हैं, उनके लिए चिन्तन ही उपयुक्त विधि है, उनका सच जानने के लिए, उनका यथार्थ जानने के लिए। एटम (परमाणुकण) के भीतर क्या है, वो मेडिटेशन से नहीं पता चलेगा।
तो इस तरह की बातें बिलकुल छोड़िएये कि- वो फ़लाने बाबाजी हैं, वो बैठते हैं, आँख बन्द करते हैं और उनको बिलकुल पता चल जाता है, आज बृहस्पति पर तापमान कितना है। यहाँ बैठे-बैठे बताते हैं कि बृहस्पति ग्रह पर अब भूचाल आ रहा है। वो बृहस्पति ग्रह का ही बता सकते हैं, बगल के शहर का नहीं बता सकते, क्योंकि बगल के शहर का पता चल जाएगा कि- नहीं आया। बृहस्पति पर कुछ भी बोल दो, कि वहाँ हाथी और जेब्रा नाच रहे हैं। कौन जाँच कर बताने वाला है? समझ में आ रही है बात?
इस दुनिया की सच्चाई जानने के लिए बिलकुल वैज्ञानिक दृद्रष्टिकोण रखिए,। बिलकुल वैज्ञानिक दृद्रष्टिकोण। पदार्थ में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसको आप ध्यान से जान लोगे। पदार्थ को जानने के लिए तो आँखें खोलनी पड़ती हैं। कोई फ़िज़िकल फिनोमिना (भौतिक घटना) मिस्टिकल (रहस्यमय) या मिस्टीरियस (रहस्यपूर्णमय) नहीं होता। और अगर कोई फिनोमिना फ़िज़िकल है तो उससे मिस्टिसिज्म (रहस्यवाद) जोड़ मत देना। समझ में आ रही है बात?
पदार्थ, पदार्थ के नियमों पर चलता है और प्रकृति के नियम हैं।, उसमें कोई नहीं हस्तक्षेप करता, क्योंकि प्रकृति के अलावा कोई है ही नहीं। ब्रह्म कोई इंसान थोड़े ही है कि वो कहेगा,- ‘अच्छा! चलो इसको वेवर (अधित्याग) दे देते हैं।’ वहाँ किसी के लिए कोई एक्सेप्शन (अपवाद), कोई अपवाद नहीं होता। तो कोई न तो हवा में उड़ सकता है, न पानी में चल सकता है, न कोई अपने पिछले पचास जन्म याद कर सकता है। ये बेहूदगियाँ जैसे ही सामने आएँ, वैसे ही दूर हो जाओ बिलकुल। समझ में आ रही है बात?
अध्यात्म, ज़बरदस्त तरीकेक़े से वैज्ञानिक होता है। विज्ञान तो फिर भी एक बिन्दु पर आकर के अवैज्ञानिक हो जाता है। अध्यात्म, वैज्ञानिकता का शिखर है। विज्ञान जब कहता है,- ‘हमें पता करना है, हम प्रयोग करेंगे, पता करेंगे’, तो फिर भी अधूरी बात करता है, क्यों? क्योंकि वो बस जो दिख रहा है, उसका पता करना चाहता है। दिख रहा है माने- फ़िज़िकली परसेप्टिबल (शारीरिक रूप से जाना जा सकता है) है।, बस उसका पता करना चाहता है।
अध्यात्म कहता है, ‘उसका तो पता करेंगे ही, जो दिख रहा है। उसका भी पता करेंगे, जो देख रहा है।’ तो अध्यात्म, विज्ञान प्लस -प्लस हैं।, वो विज्ञान के विपरीत नहीं है, वो अवैज्ञानिक नहीं है।
मैं खास तौर पर सावधान कर रहा हूँ, क्योंकि आज के दोनों ही श्लोकों में चिन्तन को समाप्त करने की बात कही गयी है। तो मैं आगाह कर रहा हूँ, कि चिन्तन को समाप्त करने की बात सिर्फ़ उनके लिए कही गयी है जो चिन्तन की पराकाष्ठा पर पहुँच चुके हैं। ज्यादातर लोग वहाँ पहुँचे ही नहीं है, तो ज्यादातर लोगों को तो और ज्यादा चिन्तन की ज़रूरत है।
चिन्तन वहाँ पर रोक देना है, जहाँ दिखने लगे, (मैंने क्या बताया था लक्षण, कहाँ पर रोक देना है?) कि चक्रीय हो गया है, कि एक ही बात अब बार-बार सोच रहे हो और बात आगे नहीं बढ़ रही है।, कोई पक्ष नया खुलकर नहीं आ रहा है।, नयी रोशनी नहीं पड़ रही है मुद्दे पर, बस एक ही चीज़ सोचे जा रहे हो, तब समझ लो, कि अब कुछ करने का वक़्त आ गया है, अब सोचने से नहीं होगा। अब जितना भी समझ में आया है,- दस प्रतिशत, चाहे पचास प्रतिशत, चाहे अस्सी प्रतिशत,। अब जितना भी समझ में आया है, उस पर अमल करने का समय आ गया है। और शत प्रतिशत, हमने कहा,-कभी समझ में आएगा नहीं।