विधियों से आगे है ध्यान || आचार्य प्रशांत, विज्ञान भैरव तंत्र पर (2016)

Acharya Prashant

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विधियों से आगे है ध्यान || आचार्य प्रशांत, विज्ञान भैरव तंत्र पर (2016)

प्रश्नकर्ता: शून्य की स्थिति में जाने के लिए, या विचार आपके ऊपर इतना प्रभाव न डालें, उसके लिए शिव ने जो क्रियाएँ दी हैं मनुष्य जाति को, उन क्रियाओं का अनुसरण करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: आप विज्ञान भैरव तंत्र की बात कर रहे हैं, जो एक-सौ-बारह उसमें विधियाँ दी हैं?

प्र: जी।

आचार्य: एक-सौ-बारह का आँकड़ा क्या है, कुछ विशेष है इस आँकड़े में? एक-सौ-बारह विधियाँ है विज्ञान भैरव तंत्र में, और इनको कहा जाता है कि ये ध्यान की विधियाँ हैं एक-सौ-बारह। क्या एक-सौ-बारह के आँकड़े में कुछ विशेष है, एक-सौ-ग्यारह या एक-सौ-तेरह नहीं हो सकता था? एक-सौ-बारह का आँकड़ा बस ये बता रहा है कि बड़ी संख्या है, ध्यान की अनेक विधियाँ हो सकती हैं। उससे आपको इतना ही पता चल रहा है कि किसी एक विधि तक सीमित मत रह जाओ।

जीवन बड़ी बात है, बड़ा अवसर है। प्रत्येक क्षण में मौका है एक नयी विधि का, वो क्षण ही विधि है।

उदाहरण के लिए, विज्ञान भैरव तंत्र कहता है कि किसी कुँए में झाँको; ये ध्यान की एक विधि है कि किसी कुँए में झाँको। और कुँआ नहीं है तो, खोदो? कुँआ नहीं है तो क्या करोगे, खोदोगे? तो फिर जो कुछ है उसी में झाँकोगे न? ‘कुँआ में झाँको’ — इसका मतलब इतना ही है कि जो कुछ है उसी को प्रयोग करके तुम ध्यानस्थ हो जाओ। जीवन स्वयं विधि है।

समझ रहे हैं न?

एक-सौ-बारह का अर्थ है कि जीवन में जो भी सामान्य घटनाएँ घट सकती हैं, हमने उन सब का लेखन कर दिया, हमने उन सब को क्रमबद्ध रूप से तुम्हारे सामने दे दिया, और हमने कहा कि इसमें से अब जो मन चाहे उठाओ। पर हमने ये थोड़े ही कहा कि इसके बाहर कुछ हो नहीं सकता!

हमने तो स्वयं इतनी बड़ी संख्या इसीलिए ली ताकि सबकुछ उसके दायरे में आ जाए। पर समय बदलता है, जीवन बदलता है, एक-सौ-बारह के आगे बहुत कुछ हो सकता है। तो जहाँ पर हो वहीं ध्यानस्थ रहो — कुँआ मिल गया तो कुँआ, सड़क मिल गई तो सड़क।

बात समझ रहे हैं न?

प्र: एक के दायरे में जीवन नहीं?

आचार्य: हाँ, किसी के दायरे में नहीं। और जो कुछ भी सामने आ रहा है, तुम उसी का प्रयोग कर लो। नहीं तो कुँआ खोजने जाओगे या खोदने जाओगे, दोनों ही मूर्खतापूर्ण बात है।

तुम कहो, ‘हमने तो विधि पकड़ ली है कि हम कुँए में झुककर के देखते हैं, और शांत कुँआ हो, बिलकुल सूखा कुँआ हो, या कुँआ ऐसा हो जिसमें चाँद प्रतिबिम्बित होता हो, तो हम ध्यान में जाते हैं।‘ अब वैसा कुँआ मिल नहीं रहा है, और ध्यान तुम्हारा फिर हो नहीं रहा है। अरे कुँआ नहीं मिला तो ऐसे ही देख लो चाँद को, और चाँद भी नहीं है तो यूँही देख लो आसमान को।

ध्यानस्थ होने के लिए तो चारों तरफ़ उपकरण और अवसर मौजूद हैं, औज़ार-ही-औज़ार हैं; तुम्हें इस्तेमाल करना आता हो तो।

तो मूल बात ये है कि इस्तेमाल करना आना चाहिए। और इस्तेमाल करना आने के लिए तुम्हें ध्यान की प्रक्रिया से पहले ही ध्यान में होना पड़ेगा, नहीं तो ध्यान की विधि या प्रक्रिया चुनोगे कैसे, जानोगे कैसे? ध्यान पहले आता है, ध्यान की विधि बाद में आती है।

आप समझ रहे हैं न?

एक-सौ-बारह को भी यदि तुम मान लो, तो उसमें तुम्हें कैसे पता चलेगा कि तुम्हारे योग्य और अनुकूल क्या है? उसके लिए तुम्हें सर्वप्रथम ध्यान में होना पड़ेगा। ध्यान पहला है, ध्यान आत्मा का स्वभाव है। पहले ध्यान में हो, फिर ध्यान की विधि प्रयुक्त करो। आप पूछोगे कि ध्यान जब पहले ही है तो विधि क्यों प्रयुक्त करें। बस यूँही, मज़े के लिए, कुछ करना था तो यही कर डाला।

प्र: मैं काफ़ी समय से पहली विधि की कोशिश करता रहा हूँ, काफ़ी देर हो चुकी है। लेकिन मैं उसमें फिर उलझ गया, उस विधि में ही उलझ गया, उससे ही बाहर नहीं निकल पाया। विचार तब भी नहीं थमे, एक द्वंद्व-युद्ध और शुरू हो गया ।

आचार्य: असल में सत्य इतना निकट है कि उस तक जाने के लिए जब भी विधि का इस्तेमाल किया जाएगा तो सत्य का अपमान होगा। सत्य इतना निकट है कि उस तक जाने के लिए जब भी कोई सड़क या राह चुनी जाएगी, तो इसका अर्थ ही यही होगा कि सड़क और राह आपको सत्य से ज़्यादा प्यारी है। अन्यथा आप सीधे सत्य ही चुन लेते न, आपने राह क्यों चुनी, आपने विधि क्यों चुनी?

प्र: उस मान्यता में ही है कि हमने दूर मान रखा हैl

आचार्य: दूर मान रखा है। तो जिस प्रक्रिया की शुरुआत ही एक ग़लत अवधारणा से होती हो, वो प्रक्रिया सही कैसे हो सकती है!

प्र२: क्या ये सत्य है कि विधि के विधान में जो लिखा होता है वो होना ही होता है? कभी-कभी तो बड़ा ही अजीब लगता है। कभी-कभी मानने को दिल करता है, कभी-कभी नहीं मानने को दिल करता है।

आचार्य: देखिए, जो हो रहा है वो तो कार्य-कारण के दायरे में आता ही है। तो आमतौर पर जो भी कुछ हो रहा है, उसका कारण खोजेंगे तो मिल जाएगा। और जिस भी चीज़ का कारण है, वहाँ फिर आप ये भी कह सकते हैं कि यह तो पूर्वनियोजित थी, इसका तो होना पहले से ही पक्का था। क्योंकि जब कारण मौजूद है तो कार्य होगा ही, बीज मौजूद है तो पेड़ होगा हीl तो आप कह सकते थे कि इसका होना तो पहले से ही पक्का था, बीज था ही।

और बहुत कुछ ऐसा भी है जो अकारण होता है, उसके बारे में आप क्या करेंगे, वहाँ फँस जाएँगे आप। उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती है न, वो अननुमेय है, उसका आप कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सकते, वहाँ आप फँस जाएँगे। आपकी भविष्यवाणियाँ ग़लत हो जाएँगी, आपके जितने भी प्लान हैं, सब योजनाएँ आपकी फुस्स हो जाएँगी।

आपने ख़ूब तय कर रखा है, आप जा रहे हैं, यहाँ जा रहे हैं, वहाँ जा रहे हैं, और अचानक प्रेम का दंश पकड़ लेता है आपको; क्या करोगे आप? वो आपकी योजना में शामिल था क्या? बोलिए! अब प्रेम तो अकारण होता है, वो आपकी सारी योजनाओं को भस्मीभूत कर देगा; क्या करोगे?

आपने बिलकुल तय कर रखा था कि अब ऐसा करूँगा, अब ऐसा करूँगा और ऐसा करूँगा, और प्रेम ने सब तहस-नहस कर दिया। और वो अकारण था, कारण खोजने जाओगे तो प्रेम का कोई कारण नहीं मिलेगा; घृणा का कारण मिल जाएगा, प्रेम का नहीं मिलेगा; आकर्षण का भी कारण मिल जाएगा, प्रेम का नहीं मिलेगा।

तो छोटी-मोटी बातें, आमतौर पर जिसे आप ज़िन्दगी बोलते हैं, वहाँ तो रहता है ऐसा, कि पक्का है कि आगे क्या होगा।

अब एक आदमी चला आ रहा हो, आप उसको गाली दे दें, मार दें; पक्का है कि वो कुछ-न-कुछ प्रतिवाद करेगा, कुछ-न-कुछ उसकी ओर से आएगा। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि न आए, मिल गया कोई बुद्ध आपको; अब क्या करोगे, अब तो आपका सारा पूर्वानुमान ग़लत साबित हो जाएगा। आप सोचोगे कि मैंने मारा, वो मारेगा। वो हो सकता है गाना गाने लगे, हो सकता है कुछ न करे, हो सकता है मार भी दे; कुछ कह ही नहीं सकते!

प्र२: किताबें और ग्रंथ और बहुत कुछ जानना भी अपनेआप में उलझा देता है?

आचार्य: बेशक है, बिलकुल उलझा देता है, कोई शक ही नहीं है इसमें!

प्र२: सब चीज़ों को इन्टेलेक्चुअलाइज़ (बौद्धिक बना लेना) कर लेते है।

आचार्य: (ग्रंथ की ओर इशारा करते हुए) उसमें कहीं वो लिखा हुआ है, बीच में — ‘ओनली फॉर एडवांस सीकर्स ऑर एबसोल्यूट बेगिनर्स ' (सिर्फ़ उन्नत साधकों के लिए या पूर्णतया शुरुआती साधकों के लिए)।

दो ही तरह के लोग होते हैं जिनको कहता हूँ कि आओ बैठें - या तो ऐसे हों जिन्हें अभी ज्ञान ने फँसाया ही न हो, या ऐसे हों जो अब ज्ञान के पार निकलने को उत्सुक हों, कि ज्ञान बहुत इकट्ठा कर लिया, अब बोझ की तरह लगता है, अब ज्ञान का त्याग करना है। तो दो ही तरह के लोग हैं जिनसे बात करने में मज़ा आता है। जो ज्ञान इकट्ठा करने में उत्सुक होते हैं वो तो पूरे माहौल को बोझिल कर देते हैं, उनसे बात में कोई रुचि ही नहीं।

प्र२: लेकिन हम लोगों की जैसी प्रैक्टिस (अभ्यास) रहती है, ऐसा लगता है हम ज्ञान इकट्ठा ही कर रहे हैं, सच में।

आचार्य: मत करिए!

प्र२: और उसको अगली बार कोई कहता है तो हम और विस्तार से बताते हैं, ‘हाँ लेकिन ये तो कुछ होता नहीं है, ऐसा कोई वो नहीं होता। हम करें काम को, पर ऐसे सोच के न करें कि हमारा ये काम हो ही जाएगा।‘ ख़ुद हम लोग ख़ूब गहरे जा रहे होते हैं और बड़ा उसमें जुड़े हुए रहते हैं, तब कहने के लिए हम लोग बड़े अच्छे ढंग से स्टाइल मारने वाले हो जाते हैं।

प्र३: जीवन में नहीं दिखता। हक़ीक़त ये है कि बोली में दिखता है, वो जीवन में नहीं दिखता।

आचार्य: माया को कभी हल्के में मत लीजिएगा!

प्र२: बड़ी ज़बरदस्त जकड़न है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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