विदेशी कंपनियाँ और बाज़ारवाद: पतन भाषा, संस्कृति व धर्म का || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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विदेशी कंपनियाँ और बाज़ारवाद: पतन भाषा, संस्कृति व धर्म का || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्ते। इतिहास है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के कारण हमने बहुत गुलामी झेली। आज अनेकों विदेशी कम्पनियाँ हैं बाज़ार में, क्या वो भी ग़ुलाम बना रही हैं हमें? आर्थिक पक्ष तो एक तरफ है, मैं आपसे समझना चाहता हूँ कि इन कंपनियों का हम पर मानसिक और सांस्कृतिक रूप से क्या असर पड़ता है?

आचार्य प्रशांत: प्रश्नकर्ता कह रहे हैं कि भारत के बाज़ार में आज अनेकों विदेशी कम्पनियाँ हैं, इनका भारतीयों पर, देश पर, मानसिक और सांस्कृतिक रूप से क्या असर पड़ता है? आर्थिक पक्ष की बात नहीं करना चाहते हैं। ठीक है, आर्थिक पक्ष की बात नहीं करेंगे।

समझते हैं इसको।

देखो, किसी भी चीज़ के बिकने के लिए दो-तीन शर्तें हैं। एक तो ये कि वो चीज़ निर्मित, पैदा करने वाला, उत्पादन करने वाला कोई होना चाहिए, है न? उस चीज़ को पैदा करने वाला कोई होना चाहिए। ये तो पहली बात हुई। ये सब बहुत सीधी-सादी बातें हैं, बस मैं उनको दोहरा रहा हूँ। दूसरी बात उस चीज़ के बिकने के लिए कोई बाज़ार, मार्केट होना चाहिए, है न? और तीसरी चीज़ जो कि तुम कहोगे ये तो बहुत सहज है, स्पष्ट है, पर उसकी बात करना बहुत ज़रूरी है। तुम्हारे सवाल का जवाब उस तीसरी चीज़ में ही छुपा हुआ है। तीसरी चीज़ है कि उसका खरीदार होना चाहिए। वस्तु होनी चाहिए, बाज़ार होना चाहिए और खरीदार होना चाहिए। तो अगर मुझे कुछ बेचना है तो मुझे सिर्फ़ चीज़ नहीं तैयार करनी है, मुझे उस चीज़ का खरीदार भी तैयार करना है। खरीदार नहीं है तो चीज़ बिक नहीं सकती।

अब ये बेचने और खरीदने की बात क्या है, समझना। भलीभाँति जानते हो तुम कि ज़्यादातर चीज़ें जो खरीदी-बेची जाती हैं, वो किसी मूलभूत आवश्यकता के कारण नहीं खरीदी जातीं। वो इसलिए खरीदी जाती हैं क्योंकि चलन है या ये चीज़ अब प्रचलन में आ गयी है, संस्कृति में आ गयी है कि फलानी वस्तु तो आपके पास या आपके घर में होनी ही चाहिए। उदाहरण के लिए, भारतीय जब पहली दफे अमेरिका जाते हैं तो उनमें से बहुतों का ये कहना होता है, "हम तो हैरान हैं कि अमेरिका के लोग कितनी फ़िज़ूल की चीज़ें खरीदते हैं और कितनी चीज़ें बर्बाद करते हैं!" अमेरिका के लोगों से पूछो तो कहेंगे, "नहीं, फ़िज़ूल में तो हम कुछ भी नहीं खरीदते, न ही कुछ बर्बाद कर रहे हैं। ये जो हम खरीद रहे हैं, ये तो हमारी सच्ची ज़रूरतें हैं; जेन्युइन नीड्स हैं।" वो एक भारतीय को साफ़ दिखाई पड़ता है कि भाई, ये ज़रूरतें नहीं हैं, ये तो अय्याशी कर रहे हो तुम। तुम फ्रिज इस्तेमाल करते हो दो साल-तीन साल, उसके बाद उसको ले जाकर के सड़क किनारे छोड़ आते हो। यही हाल तुम कभी-कभी गाड़ियों के साथ करते हो। गाड़ी इस्तेमाल की, उसका कोई ग्राहक नहीं मिला तो सड़क पर जाकर छोड़ आए। जितनी ज़रूरत नहीं उससे कई गुना खाना तुम्हारी रसोइयों में पड़ा रहता है और इतना सारा खाना तुम बर्बाद कर रहे होते हो।

भारतीय को ये बात साफ़ दिख जाती है कि एक अमरीकी व्यक्ति अधिकांशतः वो सब कुछ खरीद रहा है जो जीवन की मूलभूत आवश्यकता नहीं है बल्कि एक तरह की विलासिता है, अय्याशी है, सांस्कृतिक भोगवादिता है। लेकिन उस भारतीय व्यक्ति को यही बात अपने घर में, अपनी खरीदारी में नहीं दिखाई देगी कि वो ख़ुद भी ऐसी बहुत सारी चीज़ें खरीद रहा होगा। शायद किसी गरीब मुल्क से कोई भारत आए तो वो भारतीयों को लेकर वही टिप्पणी करेगा जो भारतीय अमरीकियों को लेकर करते हैं।

तो हम खरीदारी जो कुछ भी करते हैं वो आमतौर पर इसलिए नहीं होती कि वाकई हमें उस चीज़ की ज़रूरत होती है, वो हम इसलिए खरीदते हैं क्योंकि हमारे आसपास का माहौल, पूरी संस्कृति, पूरा चाल-चलन ऐसा हो गया है कि हम में ये बात रच-बस गयी है, ख़ून में बहने लग गयी है कि इतनी चीज़ें तो होनी ही चाहिए, ये तो होना ही चाहिए; ये नहीं होगा तो काम कैसे चलेगा? ये नहीं होगा तो जिएँगे कैसे? समझ में आ रही है बात?

तो इसका मतलब ये है कि तुम कौन-सी चीज़ जीवन के लिए आवश्यक समझते हो, तुम कौन-सी चीज़ बाज़ार से खरीदने भागते हो, इसका तुम्हारी असली ज़रूरतों से कम ताल्लुक है और तुम्हारे समाज की संस्कृति से ज़्यादा ताल्लुक है। समझना! क्योंकि तुम जो चीज़ें खरीद रहे हो इसलिए नहीं खरीद रहे कि वो तुम्हें चाहिए; वो तुम इसलिए खरीद रहे हो क्योंकि वो तुम्हारे आसपास की हवा में, माहौल में, एनवायरमेंट और कल्चर में बात आ गयी है कि ये चीज़ तो साहब होनी ही चाहिए। माने तुमसे कौन खरीदवा रहा है कोई भी चीज़? तुम्हारा माहौल, तुम्हारी संस्कृति।

अमरीका की संस्कृति बिलकुल ही भोगवादी है, कंज़म्पशन सेंट्रिक है, तो वो उनसे बहुत कुछ खरीदवा देती है। भारतीय तो उसका दो प्रतिशत भी नहीं खरीदते क्योंकि भारत की संस्कृति अभी उतनी भोगवादी नहीं हुई है, पर भारत में भी जगह-जगह में अंतर है। तुम गुड़गांव की संस्कृति देख लो, बैंगलोर की देख लो और तुम छोटे गाँव-क़स्बों की संस्कृति देख लो, तो वहाँ तुमको कंज़म्पशन के, भोग के स्तरों में बड़ा अंतर दिखाई देगा। वो जो अंतर है, वो अंतर आ रहा है उस जगह की संस्कृति से। इसका मतलब — "मैं खरीदता हूँ संस्कृति के वशीभूत होकर"।

ये बात बेचने वाले को पता है कि खरीदारी यूँही नहीं हो जाएगी जनाब! अगर आप चाहते हैं किसी क्षेत्र में आपका माल बिके तो आपको उस जगह की संस्कृति को ऐसा करना पड़ेगा कि लोग खरीदारी में और ज़्यादा, और ज़्यादा उत्सुक और लोलुप होते जाएँ। ये बात बेचने वाला, निर्माता, विक्रेता जानता है कि चीज़ सिर्फ़ इसलिए नहीं बिकती कि वो चीज़ अच्छी है। सिर्फ़ चीज़ तुम बाज़ार में ले जाकर रख दोगे तो वो चीज़ बिकेगी ही नहीं। वो चीज़ तब बिकती है जब उस चीज़ को खरीदने का एक माहौल, एक कल्चर तैयार कर दिया जाए। फिर वो चीज़ बिकती है।

तो अब अगर मैं कोई उत्पादक हूँ, मैन्युफ़ैक्चरर हूँ, या विक्रेता, सेलर हूँ और मैं भारत के बाज़ार में आया हूँ, और मुझे अपनी चीज़ बेचनी है तो मुझे क्या करना पड़ेगा? मेरी मजबूरी क्या है? मुझे भारत में इस तरह की संस्कृति बनानी पड़ेगी कि लोग और ज़्यादा, और ज़्यादा खरीदने के लिए उत्सुक हो जाएँ। तो जो दुकानदार है, जो उद्योगपति है, जो विक्रेता है, ये उसके लिए बहुत आवश्यक हो जाता है कि वो जिस बाज़ार में मौजूद है, जिस जगह में मौजूद है, जिस देश में मौजूद है, उस जगह की संस्कृति को बिलकुल भोगवादी बना दे, बिलकुल बदल के रख दे क्योंकि अगर संस्कृति को प्रभावित नहीं किया तो माल बिकेगा नहीं।

अब समझो कि विदेशी कंपनियों का इस पूरी बातचीत में क्या स्थान है। वो कहाँ से आ रही हैं? वो विदेश से आ रही हैं। उनके पास माल क्या है? अभी तक वो कहाँ बिकता था? उनके देशों में बिकता था। भारत की संस्कृति में वो माल या तो आवश्यक नहीं समझा जाता था या उसकी आवश्यकता थी भी तो बहुत कम। अब वो माल जिस जगह पर बिकता था उस जगह की संस्कृति के हिसाब से बिकता था। ठीक है न? समझ रहे हो बात को? वो बड़ी कम्पनियाँ हैं, ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हैं तभी तो ये भारत आ पायीं, ये छोटी-मोटी कंपनी नहीं हैं। ये बहुराष्ट्रीय कंपनी हैं तो इसका मतलब ये है कि इसका जो गृह राज्य है, इसकी जो होम कंट्री है, वहाँ पर ये बड़ी गहराई से स्थापित है और वहाँ पर ये अपना माल खूब बेच रही है। वहाँ पर इसका माल बिक रहा है, इसका मतलब वो माल उस जगह की संस्कृति से मेल खाता है। वही माल अगर भारत में बिके तो इसके लिए ज़रूरी क्या है कि भारत की संस्कृति भी कैसी हो जाए? जैसी उसके देश की है। तो वो कंपनी जब भारत में आएगी तो पहला काम ये करेगी कि भारत की संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर के अपने देश की संस्कृति जैसा बना ले ताकि भारतीय भी खरीदने के वैसे ही फैसले करने लगें जैसे कि उसके देश के लोग करते हैं।

भाई! भारतीयों के फैसले कुछ भी खरीदने के, कंज़्यूम करने के, भोग करने के तभी तो बनेंगे न जब भारतीयों का 'मन' भी वैसा हो जाए जैसा उसके देश का है। तो इसीलिए जब से अर्थव्यवस्था को खोला गया है, नब्बे के दशक की शुरुआत से, तब से तुम पा रहे हो भारत में दो चीज़ें एक साथ हुई हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ है कि बाज़ार खुल गया है; सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ है कि एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) बढ़ गया है भारत में; इतना ही नहीं हुआ है कि फॉरेन टेक्नोलॉजी आ गयी है; जो बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हैं उनके दफ़्तर अब तुमको गुडगाँव और बैंगलोर वगैरह में दिखाई देने लग गए हैं — भारत की संस्कृति बदली है क्योंकि संस्कृति बदले बिना माल बिकेगा नहीं।

तो इसीलिए तुम्हारे देश में जो बाहर से आ रहा है अपना माल बेचने के लिए, उसको सिर्फ़ व्यापारी मत समझ लेना। वो एक तरह का मिशनरी है और उसके लिए मिशनरी होना ज़रूरी है क्योंकि जब तक वो तुम्हारा कल्चर नहीं बदलता तब तक वो तुम्हारे देश में अपना माल बेचकर मुनाफ़ा नहीं कमा सकता है। तुम्हारा सांस्कृतिक कन्वर्जन करना उसके लिए बहुत ज़रूरी है, नहीं तो उसका माल नहीं बिकेगा। समझ में आ रही है बात?

भाई! जो आज की पीढ़ी है वो बहुत सारी ऐसी चीज़ों को परम आवश्यक समझती है जो उससे ठीक पहले की पीढ़ी नहीं समझती थी। ये कैसे हो गया? और उनको वो चीज़ें चाहिए कि ये चीज़ तो होनी ही चाहिए। ये कैसे हो गया? ये ऐसे ही हो गया न कि इस पीढ़ी को उन चीज़ों की लत लगाई गयी है। इस पीढ़ी पर एक सांस्कृतिक प्रभाव, एक कल्चरल इन्फ्लुएंस डाला गया है विज्ञापनों के माध्यम से, स्पॉन्सरशिप के माध्यमों से, तमाम और तरीक़ों से इस पीढ़ी को इंडोक्टरनेट किया गया है। इस पीढ़ी को भारतीय संस्कृति से ही दूर करा गया है क्योंकि भारतीय संस्कृति भोगवादी संस्कृति नहीं है। जब भारतीय संस्कृति भोगवादी है ही नहीं तो तुम यहाँ भोगने के लिए अपना माल बेच ही नहीं पाओगे।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का माल यहाँ बिके इसके लिए ज़रूरी है कि भारतीय संस्कृति को बर्बाद किया जाए। फिर से कह रहा हूँ, गौर करो इस बात पर कि नब्बे के दशक से भारत में ना सिर्फ़ एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) आया है बल्कि भारत की पूरी संस्कृति भी बहुत तेज़ी से बदली है। यह दोनों बातें आपस में बहुत गहरा संबंध रखती हैं। भारत की फिल्में बदल गयीं भाई! और फिल्में तुम बहुत अच्छे से जानते हो कि संस्कृति को प्रभावित भी करती हैं और संस्कृति का प्रतिबिंब भी होती हैं। भारतीयों का संगीत बदल गया। मैं यहाँ तक भी कह सकता हूँ कि भारतीयों की धर्म-परायणता भी बदल गयी।

सांस्कृतिक तौर पर ही नहीं, धार्मिक तौर पर भी भारत वो नहीं रह गया जो कभी हुआ करता था। आज से बीस साल पहले भी जैसा भारत था वैसा नहीं रह गया अब, और इस बात का बहुत बड़ा संबंध बाज़ार से है। हम सोचते हैं बहुत बड़ी बात हो गयी कि विदेशों की बहुत बड़ी-बड़ी कंपनियाँ यहाँ आ गयीं, उनके शोरूम खुल गए और उनके उच्च स्तरीय उत्पाद हमको मिलने लग गए। आहाहाहा! लेदर के कैसे ज़बरदस्त बैग हैं, विदेशी आलू चिप्स खाने को मिल रहे हैं और तमाम इस तरह की चीजें, विदेशी गाड़ियों में बैठने को मिल रहा है। सिर्फ़ इतना ही नहीं बदला है, बाहर-बाहर सिर्फ़ बाज़ार का माल नहीं बदला है, आदमी के भीतर बहुत कुछ बदल गया। बाहर का माल आप खरीदोगे नहीं जब तक आपके भीतर बहुत कुछ बदल न दिया जाए।

जो आज की पीढ़ी है, भारत की ख़ास तौर पर बड़े शहरों की, मेट्रो शहरों की, जिसको शारीरिक तौर पर भले ही उसके अभिभावकों ने जन्म दिया हो लेकिन मानसिक और सांस्कृतिक तौर पर ये आज की पीढ़ी, एमएनसीज़ द्वारा, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जन्मी गयी हैं। इनके असली माँ-बाप वो लोग हैं जो इन कंपनियों के आका हैं, जो विदेशों में बैठे हुए हैं। बात आ रही है समझ में?

ठीक से देखो पिछले पच्चीस-तीस साल में क्या है भारत में जो एकदम गर्त में चला गया? - भाषा। ये जो आज की पीढ़ी है, मैं कह रहा हूँ बड़े शहरों की ख़ास तौर पर, देखो कि इनकी भाषा कैसी हो गयी है। हिंदी से तो इनका दूर-दूर तक कोई ताल्लुक़ है ही नहीं, अंग्रेज़ी भी इनको आती नहीं। हाँ, स्लैंग आता है इनको, मैन और ब्रो करते हैं ये। इनसे अगर ये भी तुम बोल दो कि आओ साहब, ठीक से ज़रा अंग्रेज़ी में बात कर लें तो उन्हें ठीक से अंग्रेज़ी भी नहीं आती। हिंदी तो ख़ैर ये भूल ही चुके हैं। देवनागरी को इतना पीछे छोड़ आए हैं कि 'क' नहीं लिख पाएँगे अब ये। 'क' लिखने में इनकी ऊँगलियाँ अकड़ जाएँगी।

भाषा गयी, और भाषा संस्कृति का एक बहुत मजबूत स्तम्भ होती है। भाषा गयी, संस्कृति कहाँ बचेगी? भाषा गयी नहीं है; भाषा को रवाना किया गया है। भाषा को जानबूझकर बर्बाद किया गया है। संस्कार गए, सोच गयी, विचार में गहराई गयी, एक बहुत ही बाज़ारू तरह का अध्यात्म पिछले बीस-तीस सालों में आ गया है।

पिछले बीस-तीस सालों में जो धर्मगुरु उभर कर आए हैं इनको देखो और धर्मगुरु जैसे हुआ करते थे आज से पचास साल, सौ-दो सौ साल पहले उनको देखो, तुम्हें अंतर साफ़ समझ में आएगा। एमएनसी धर्मगुरु छा गए हैं, जिनके कपड़ों को देखो तो साफ़ नज़र आएगा कंज़म्पशन। इतने सारे कपड़े? जिनकी भाषा को देखो तो दिखाई देगा विदेशी भाषा में बात कर रहे हैं। भारत कहाँ गया? जिनके मूल्यों को देखो तुम तो साफ़ दिखाई देगा कि ये मूल्य ही भोगवादी मूल्य हैं। वो त्याग की बातें ही नहीं करते, वो बात ही करते हैं कि जीवन को कैसे और ज़्यादा भोगा जा सकता है। उनकी सारी शिक्षा ही यही है कि "और सुख कैसे पाएँ?” "और बेहतर अनुभव कैसे पाएँ जीवन में?”

भाषा गयी, बोली गयी, लिपि गयी, अध्यात्म गया, विचार गए, कविता गयी। कवि कितने बचे हैं? बताओ? क्योंकि कविता का और बाज़ार का कोई मेल नहीं होता न। कहाँ है इलस्ट्रेटेड वीकली? धर्मयुग कहाँ है? कादम्बनी कितने लोग पढ़ रहे हैं? आज की पीढ़ी को ये शब्द ही बड़े बेगाने और अटपटे लग रहे होंगे। ये कौन-सी बात कर रहे हैं? मैं जिन पत्र-पत्रिकाओं की बात कर रहा हूँ ये आज से तीस साल पहले तक प्रचलित संस्कृति, जन साधारण में संस्कृति को फैलाने वाले स्रोत हुआ करते थे। ये सब बन्द हो गए।

फिल्में देखो कैसी बन रही हैं। संगीत की भी मैंने अभी बात की। संगीत कैसा हो गया? तबला कहाँ गया? पहले फ़िल्मी संगीत में बाँसुरी भी होती थी, तबला भी होता था, सितार भी होती थी, वीणा भी होती थी। कहाँ है सितार और कहाँ है संतूर? सुनाओ?

एक नए तरीक़े का संगीत आ गया है — इलेक्ट्रॉनिक फ्यूज़न । न जाने क्या-क्या! मौसिकी कहाँ गयी? मेलोडी कहाँ गयी? रस माधुर्य कहाँ गया? शास्त्रीयता कहाँ गयी? और बोल देखो गीतों के कैसे हो गए। इन सब बातों का ताल्लुक बाज़ारवाद से है। इन सब बातों का ताल्लुक पैसे से है। पैसा बहुत ताकतवर होता है और जो विदेशी कम्पनियाँ भारत में आ रही हैं इनके पास बहुत पैसा है, इन्होंने सब खरीद लिया। सब खरीद लिया और हर खरीदी हुई चीज़ को तोड़-मरोड़ कर विकृत कर दिया और हम पलक-पावड़े बिछाकर इनका स्वागत करते रह गए, यही करते रह गए कि - "पधारो म्हारे देश”! और "हमारे बड़े भाग्य जो आप बैंगलोर पधारे; आइए-आइए अपना कारख़ाना खोलिए"।

भारतीय बिलकुल लार बहाए बैठे हैं कि आप जो चमड़े की बेल्ट बनाएँगे और जो जीन्स बनाएँगे उसको पहनेंगे। और आपकी विदेशी बाइक खरीदने के लिए देश का नौजवान बिलकुल दंडवत लेटा हुआ है; बिलकुल आप आइए, दीजिए अपनी बाइक्स दीजिए, विदेशी बाइकें चाहिए। हम यही सोचते रह गए कि उनके आगमन से हमारी ज़िंदगी बेहतर हो रही है। हम यही सोचते रह गए कि वो आ रहे हैं तो और अच्छी चीज़ें मिलेंगी, और अच्छी वस्तुएँ मिलेंगी, बेहतर मैन्युफ़ैक्चर्ड गुड्स मिलेंगे। हम भूल गए कि वो हमें बस मैन्युफ़ैक्चर्ड गुड्स देने नहीं आए हैं, वो हमसे हमारी बोली, हमारी भाषा, हमारी संस्कृति, हमारा अतीत, हमारी ज़िंदगी, हमारा अध्यात्म, यहाँ तक कि हमारा धर्म छीनने आये हैं। हम बिलकुल भूल गये। हमें लगा यहाँ तो बस बात बाज़ार में खरीदी-बेची जा रही चीज़ों की है। नहीं साहब! यहाँ बात बहुत आगे की है।

मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि विदेशी पूँजी निवेश से अर्थव्यवस्था को क्या-क्या लाभ होते हैं। बहुत अच्छे से जानता हूँ। लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि किसी भी तरीक़े के आर्थिक फ़ायदे से बहुत बड़ा होता है — सांस्कृतिक नुक़सान।

क्या जिए अगर आपकी आमदनी पाँच गुना हो गयी लेकिन आप अपनी ही आत्मा से पाँच कोस दूर हो गए? क्या जिये आप? बहुत टेक्नोलॉजी होगी आपके पास आज, चार गीत भी ऐसे क्यों नहीं निकल के आ रहे जो कालातीत हों, कालजयी हों? आज भी जिन लोगों को गहरे गाने सुनने होते हैं वो पुराने गाने ही क्यों सुनते हैं? तुमको बात नहीं समझ में आ रही? और जिसको आप कह देते हैं न 'पुराना गाना’, उसका अंतिम बिंदु है सन उन्नीस-सौ-नब्बे और थोड़ा और पीछे जाएँ तो उन्नीस-सौ-अस्सी। उसके बाद से हज़ार में से एक दो ही गीत होंगे जिनमें हार्दिकता है, जिनमें आत्मा है। नहीं तो बस वासना है, हवस है और जैसे बाज़ार में माल बिकता है वैसे ही ज़िस्म खरीदने और बेचने की जंगली कोशिश है। बात आ रही है समझ में?

विदेशी कम्पनियाँ अगर भारत में आयें भी तो उसमें सांस्कृतिक पक्ष में क्या हानि-लाभ हो रहा है, इस बात को बहुत महत्व दिया जाना चाहिए। नीति निर्धारकों ने शायद इस बात को कोई तवज्जो दी ही नहीं। उन्होंने बस इतनी गणना करी कि फलानी कंपनी आएगी तो हमको आर्थिक फ़ायदा या नुक़सान कितना होगा। इस बात का निर्धारण ही नहीं किया कि सांस्कृतिक फ़ायदा और सांस्कृतिक नुक़सान कितना है? क्या प्रभाव पड़ेगा? वो इसलिए क्योंकि जो नीतिओं का निर्धारण कर रहे हैं वो ख़ुद ही अनाड़ी थे। संस्कृति की उनको ही क्या समझ थी? आ रही है बात समझ में?

तुम देश के लोगों की आमदनी बढ़ाना चाहते हो भाई, यही करना चाहते हो न? इसीलिए तो तुम एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) आमंत्रित करते हो कि देश के लोगों की आमदनी वगैरह बढ़े। पर ये तो समझो कि देश का देश होने से पहले राष्ट्र होना ज़रूरी है और राष्ट्रीयता संस्कृति पर अवलम्बित होती है। तुम देश के लोगों की आमदनी बढ़ाकर क्या करोगे अगर राष्ट्र ही नहीं बचेगा तो? आमदनी बढ़ाकर क्या करोगे? और अगर राष्ट्र नहीं बचा तो देश कितने दिन चलेगा, कहो? राष्ट्र के बिना तो देश एक मुर्दा बेजान शरीर बस है। देश की आत्मा होता है राष्ट्र और राष्ट्र नहीं हो सकता संस्कृति के बिना। तुमने देश को आगे बढ़ाने के लिए अगर संस्कृति को बेच खाया, संस्कृति पर समझौता कर लिया तो तुमने देश को आगे नहीं बढ़ाया, तुमने देश को बर्बाद कर दिया। आ रही है कुछ बात समझ में?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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