प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। मेरा जो क्वेश्चन है, वो गेमिंग इंडस्ट्री को लेकर है। गेमिंग इंडस्ट्री आज सोशल मीडिया पर बहुत ज्यादा डिमांड में है। बहुत सारे "यूट्यूब" के साथ-साथ कुछ ऐसे एक्सक्लूसिवली कुछ प्लेटफॉर्म भी हैं, जैसे ट्वीच, जो सिर्फ गेम्स के लिए ही हैं। इवन, जो लोग वहाँ पर इवॉल्व हैं, उन्हें बोला भी जाता है कि गेम खेलने से उनकी सोशल स्किल्स बहुत डेवलप होंगी, डिसीजन मेकिंग इंप्रूव होगी। गेम इस तरीके से बनाए गए हैं कि लोगों को वहाँ पर इंटरेक्ट करने का मौका मिलता है, हैंड-आई कोऑर्डिनेशन इंप्रूव होता है, और यह एक स्ट्रेस रिलीवर भी है।
तो इसमें फिर वो लोगों से पैसे डिमांड भी करते हैं, और लोग फिर वहाँ पर देते भी हैं। 90 से लेकर अभी तक के लोग सभी वहाँ पर इन्वॉल्व्ड हैं, चाहे वो खेल रहे हों या फिर सिर्फ देख भी रहे हों। और इवन, यह इंडस्ट्री इतनी बड़ी है कि जो टॉप "यूट्यूब" चैनल्स हैं, या बहुत सारे ऐसे " यूट्यूब" चैनल्स हैं, वो गेमर्स ही हैं।
तो मेरा क्वेश्चन यह है कि क्या ये यूथ के लिए अच्छा अल्टरनेटिव है या भटकाव है?
आचार्य प्रशांत: देखो, निर्भर करता है कि आपके पास जीवन में करने के लिए कोई सार्थक काम है या नहीं। अगर है, और उसके बाद आप सिर्फ आराम के तौर पर या हल्के मनोरंजन के तौर पर थोड़ी देर के लिए गेमिंग वगैरह कर लेते हो, तो एक बात है। हम भी छोटे थे, तो Super Mario Bros. तब आता था। सातवीं-आठवीं में मैं तब था, तो घर पर ही उसका डब्बा लाकर रख दिया गया था। स्कूल से आकर आधा घंटा उसको खेल लेते थे।
तो एक तरीके से, स्कूल से आप लौटे हो, खाना-पीना खाया, उसको खेला, फिर थोड़ी देर सो गए, फिर अपना शाम का कार्यक्रम शुरू हो जाता था। वह एक चीज़ है और अगर जिंदगी में जो सही काम करना हो, आप किसी भी चीज़ को उसका विकल्प ही बना लो, तो वह बिल्कुल अलग बात होती है।
अब आजकल गेम वगैरह किस तरह के चलते हैं, यह मैं जानता नहीं हूं। और वे किस हद तक खेलने वाले इंसान को जकड़ लेते हैं, कितने एडिक्टिव हैं, यह भी मुझे पता नहीं है। लेकिन जो गेमिंग इंडस्ट्री का आकार है, उससे थोड़ा ऐसा एहसास होता है जैसे इसमें बहुत सारे लोग अपना बहुत ज्यादा समय ध्यान लगा रहे हैं, और फिर पैसा भी लगा रहे हैं क्योंकि जो भी चीज़ आपको चाहिए होती है, उसका बाज़ार भाव भी लगेगा ही, वो तो साधारण सी बात है।
तो फिर वह एक समस्या है ही। आप किसी भी चीज़ में एडिक्टेड हो जाओ, तो वह तो समस्या है ही। आप स्क्रीन के सामने बैठे हुए हो, खेल रहे हो, जो वर्चुअल है, वह आपके लिए "रीयालिटी" का विकल्प बन जाए, तो वह तो समस्या है। और भी तलों पर समस्याएँ रहती हैं।
अब अमेरिका से उदाहरण है—वहाँ पर मास शूटिंग हो जाती हैं। कई बार स्कूलों में हो जाती हैं, चौराहों पर हो जाती हैं। घुसकर के छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल में मार दिया, 20-40 बच्चे मार दिए। और उसमें कई बार ऐसा हुआ है कि जो पकड़े गए हैं, वे वायलेंट "गेम्स" से इंस्पायर्ड थे।
वे सालों से बंदूकें चला ही रहे थे, गेम्स में चला ही रहे थे, और वहाँ पर खून बहता देख ही रहे थे। तो उनमें एक हवस पैदा हो गई कि हम असली बंदूक चलाएँगे और असली खून बहता देखेंगे। तो गेम्स यह किस दृष्टि से बनाए जा रहे हैं, और आपमें किस भाव को बढ़ा रहे हैं, इस पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है। आमतौर पर, जो चीज़ हमारे भीतर के जानवर को जितनी पसंद आती है, वह उतनी ज्यादा एडिक्टिव होती है।
तो कुछ भी आप करो, उससे आपके वैल्यू सिस्टम का भी निर्धारण होता है। जो कुछ भी आप कर रहे हो, वह संगति की तरह है। चाहे आप गेम खेल रहे हो, वह भी एक संगति है। गेम का कैरेक्टर है—आपने उसकी भी संगति कर ली, वह आपके ऊपर प्रभाव डाल रहा है। उससे आपकी जो मूल्य व्यवस्था है, वह बदल रही है लगातार।
आपका जो हीरो है किसी गेम में, वह किन मूल्यों का प्रतिनिधि है? करुणा का? गेम में गौतम बुद्ध आते हैं, या आपने वहाँ पर किसी बहुत वायलेंट आदमी को हीरो बना दिया है? इन बातों पर विचार करना है।
फिर वह वायलेंस बच्चों तक कितना पहुँच रहा है? जिस समय में आप गेम खेल रहे हो और आप कह रहे हो कि मानसिक व्यायाम है, उस समय का बेहतर उपयोग क्या शारीरिक व्यायाम में नहीं था? या कम से कम उसके कुछ हिस्से का उपयोग शरीर की तरफ नहीं किया जाना चाहिए था? नहीं तो आप बैठकर गेम खेल रहे हो, उससे आपका हाथ चल रहा है, आँखें चल रही हैं और आपका ब्रेन चल रहा है। हाथ में बस उंगलियाँ चल रही हैं, बटन चल रहे हैं। आपकी टाँगों का क्या है? आपकी पीठ का क्या है? आपके कंधों का क्या है? आपके फेफड़ों का क्या है? क्या आप दौड़ रहे हो? आपके दिल का क्या है? क्या उसको अच्छे रक्त संचार के साथ धड़कने का मौका मिल रहा है, या बस आपकी आँखों पर चश्मा और मोटा चढ़ता जा रहा है?
तो यह सवाल है और महत्वपूर्ण है, पूछना ज़रूरी है। आमतौर पर, कोई चीज़ इतनी बड़ी तभी होगी जब वह बस मनोरंजन ही कर रही हो, और वह भी सस्ता मनोरंजन। यह अलग बात है कि हम यह मानना नहीं चाहेंगे कि हम सस्ते मनोरंजन के मुरीद हैं, तो हम कह देंगे कि साहब, उसमें बस मनोरंजन नहीं होता, मेंटल स्किल्स डेवलप होती हैं।
यह और भी बातें होती हैं कि "खेलने से आईक्यू बढ़ जाता है।" आईक्यू आपको बढ़ाना है, तो और भी बहुत तरीके हैं। जो समय आप गेमिंग में लगा रहे हो, उसका एक अच्छा हिस्सा क्या किताबें पढ़ने में नहीं लगना चाहिए था?
फिर कह रहा हूं, मुझे कोई समस्या नहीं गेम खेलने से। कोई अगर रोचक गेम मिले, तो मैं भी अभी खेल सकता हूं। आइए, हम दोनों साथ में बैठकर खेलेंगे। पर मैं अपने काम पर असर थोड़ी आने दूंगा उस गेम की वजह से! और मैं इस बात का खास ख्याल रखूंगा कि उस गेम का मेरे मन पर असर क्या पड़ रहा है। नहीं तो हमें कोई गेमों पर प्रतिबंध थोड़ी लगवाना है! बहुत अच्छी बात है। क्यों भाई, कैंपस में थे, तो वहाँ चलता था नीड फॉर स्पीड: एनएफएस। अब पता नहीं चलता कि है भी या नहीं! पर उस वक्त ही नहीं मिलता था, अपना काम, अपनी पढ़ाई का लोड ही इतना था कि पूरा दिन मेहनत करने के बाद सोने से थोड़ा पहले अपना खेल लिया, बस इससे ज़्यादा थोड़ी!
जिंदगी में गेम खेलना है! जिंदगी का गेम जीतना है। जिंदगी की बाधाएँ पार करनी हैं, बस गेम्स के हर्डल्स थोड़े ही पार करने हैं। वो ज़्यादा ज़रूरी है। जिस हद तक यह जो गेम है, वह आपकी जिंदगी को एनरिच कर रहा है, ठीक है। पर यह पता होना चाहिए कि कब आप गेम को खेल रहे हैं और कब गेम ने आपको खेलना शुरू कर दिया!
दिक्कत यह है कि सौ में से निन्यानवे लोग गेम को नहीं खेल रहे होते—उन्हें पता भी नहीं चलता कि अब गेम ने उन्हें खेलना शुरू कर दिया है। भूलिएगा नहीं कोई भी इंडस्ट्री ग्राहक मांगती है। आप गेम की बात नहीं कर रहे हो, आप गेमिंग इंडस्ट्री की बात कर रहे हो। इंडस्ट्री सिर्फ गेम ही नहीं बनाएगी, इंडस्ट्री ग्राहक बनाएगी!
गेम बनाना पर्याप्त होगा क्या? गेम चलेगा ही नहीं अगर ग्राहक नहीं हैं! और कोई भी इंडस्ट्री आपके मनोरंजन के लिए नहीं होती, अपने मुनाफे के लिए होती है। आप सोचते हो कि इससे मुझे मनोरंजन मिल रहा है, आप यह नहीं देखते कि बनाने वाले का सरोकार आपके मनोरंजन से बाद में है, अपने मुनाफे से पहले है। और अपने मुनाफे के लिए इस इंडस्ट्री को अगर आपके मन को बर्बाद करना पड़े, तो वे करेंगे! कोई भी इंडस्ट्री करती है, गेमिंग की बात नहीं है। जो इस इंडस्ट्री में है, वह अपने मुनाफे के लिए है ना। उसे तो अपना मुनाफा देखना है। उस मुनाफे के लिए आपका मन खराब हो, आपका तन खराब हो, आपका जीवन खराब हो—उन्हें क्या फर्क पड़ेगा?
तो सतर्क रहना होता है कि कहीं गेम हमें न खेलने लग जाए! बाकी बढ़िया है, गेम खेलना अच्छी बात है। स्पोर्ट्स होते हैं, स्पोर्ट्स खेलते हैं, गेम भी खेल सकते हैं। कोई समस्या नहीं! हम खेलें, वो न खेलें—ठीक है।
प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी
आचार्य प्रशांत: एक रिपोर्ट आई थी 2018 में, कि गेमिंग इंडस्ट्री में, जैसे फिजिकल गेमिंग होती है, कंप्यूटर गेमिंग। ई-स्पोर्ट्स गेमिंग चैनल है जिसमे बताया था कि 2018 से 2024 तक, यानि अभी जो अनुमानित है, 4.4 बिलियन डॉलर का मार्केट बनाया है।
उसी में यह हुआ है कि कोविड के बाद बहुत सारे लोग जो घर में बैठ गए, वे गेमिंग में बहुत ज़्यादा इन्वॉल्व हुए। तो उनमें ऐसा हुआ कि लोगों ने इसे एक प्रॉपर जॉब बना लिया कि हम 8-10 घंटे गेम खेलेंगे और उससे कुछ अमाउंट ऑफ मनी बनाएंगे। ये देखा गया कि 2020 के बाद, कोविड के बाद, बहुत सारे लोग एडिकटिव हुए और बहुत सारे लोगों ने क्राइम किए।
कई ऐसे रिपोर्ट आएं कि एक बच्चे ने अपनी माँ को गोली मार दी क्योंकि उसे गेम खेलने से मना कर दिया गया था। क्योंकि वह फोर्स कर रहा था कि मुझे स्पोर्ट्स ही परस्यू करना है, मुझे इसी में रहना है!
अनुमानित लगाया गया है कि 2032 तक यह जो पूरी गेमिंग इंडस्ट्री लगभग 34.6 बिलियन डॉलर की मार्केट कैप्चर कर लेगी। इससे आने वाली पीढ़ियों के माइंड पर बहुत ज़्यादा इम्पैक्ट (प्रभाव) पड़ने वाला है।
आचार्य प्रशांत: गेमिंग इंडस्ट्री अब पूरी दुनिया की एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री से भी बड़ी हो चुकी है। देखो गोली तो लोग इस पर भी चला देते हैं अगर उन्हें क्रिकेट खेलने से रोको, फुटबॉल खेलने से रोको, आइसक्रीम खाने से रोको जाए, इस पर भी गोली चला देते हैं। तो मैं यह नहीं कहूँगा कि "बच्चे ने माँ पर गोली चला दी, क्योंकि माँ उसे गेम खेलने से रोक रही थी," इसकी वजह गेमिंग इंडस्ट्री है। लेकिन हाँ, जो भी चीज़ आपके मन पर बिल्कुल चढ़कर बैठ जाए,
जो मन से ना उतरे, माया कहिए सोए।।
जिस भी चीज़ में एडिक्टिव होने की ताकत हो, उससे बचकर ही चलना पड़ता है। जो चीज़ आपके सामने एक ऑलटरनेट, वर्चुअल यूनिवर्स ही खड़ा कर दे, उससे तो बचकर ही चलना पड़ता है। समय की बर्बादी है। उसमें बुद्धि भी कुंद होती जाती है, और आप एक अलग दुनिया में जीना शुरू कर देते हो। जिस दुनिया में बहुत सारी प्रैक्टिकल स्किल्स की कोई ज़रूरत ही नहीं होती और जब ज़रूरत नहीं होती, तो आपकी वे क्षमताएँ अपने आप क्षीण पड़ती जाती हैं। उससे बचकर के रहना चाहिए। बाकी, अच्छी बात है, दिल बहलाव का एक ज़रिया है—कर लो दिल बहलाव।
प्रश्नकर्ता: यह भी देखा गया कि 2020 के बाद ऐसे गेम्स जो ब्रूटली ज्यादा होते हैं लाइक मर्डर दिखा रहे हैं, वैसे गेम्स ज्यादा ही बन रहे हैं।
आचार्य प्रशांत: देखो, हर वो चीज़ जो हमारे भीतर के "जानवर" को अच्छी लगती है, वह तुरंत प्रसिद्ध हो जाती है। आप लोकप्रिय होना चाहते हो? कोई बहुत अच्छा या ऊँचा काम मत करना—कोई एकदम घटिया काम कर दो, तुरंत पॉपुलर हो जाओगे। कोई ऐसा काम करो जो एकदम ही गिरे हुए तल का हो। ऊँचा काम करोगे, तो लोगों को समझ में नहीं आएगा, दिखाई भी नहीं देगा और लोग डर भी जाएँगे—क्योंकि ऊँचाई खतरा होती है और ऊँचाई कुर्बानी मांगती है। कौन ऊँचा चढ़े? श्रम भी बहुत लगता है। तो बिल्कुल, कोई एकदम साधारण या साधारण से भी नीचे का कुछ करने लगो, लोग आकर्षित हो जाते हैं आपकी ओर। समझ रहे हो बात को?
तो गेमिंग में भी वायलेंस दिखाओगे, लोग आकर्षित होंगे क्योंकि हम सबके भीतर एक जानवर बैठा है, जो हिंसक है। उसमें अगर सेक्सुअल एलिमेंट्स भी ला दोगे तो चीज और आगे बढ़ जाएगी। और अगर वायलेंस इतना आया है, तो सेक्स भी आ गया होगा। उसमें और ऐसी चीजें ले आओ, जो हमें पसंद हैं, लोगों के उदाहरण के लिए, जो बायस होते हैं, पूर्वाग्रह, वो तुम अगर गेम्स में भी दिखाने लग जाओ, तो बहुत सारे लोग फिर उसको पसंद करेंगे आइडेंटिफाई करेंगे।
उदाहरण के लिए ऐसे लोग जो खाल के रंग से अपनी श्रेष्ठता को प्रमाणित करते हैं, उनको बड़ा अच्छा लगेगा अगर कोई गेम मिला है, जिसमें सारे अच्छे लोग—हीरो वगैरह—गोरे-गोरे हैं और सारे जो बुरे लोग हैं, राक्षस, मॉन्स्टर, विलेनस, वे सब के सब भूरे हैं या काले हैं। अगर ऐसे लोग हैं, जिनका मानना है कि पुरुष ही श्रेष्ठ होते हैं और महिलाएं हीन होती हैं, तो उनको ऐसे गेम्स दे दो, जिसमें महिलाओं को मूर्ख, दब्बू या कायर दिखाया गया है, या महिलाएं बस पुरुषों के पीछे-पीछे चल रही हैं, फॉलोवर की तरह, फ्लंकी की तरह उनको बड़ा अच्छा लगेगा, गेम पॉपुलर हो जाएगा।
तो हमारे भीतर जो सबसे घटिया चीज होती है, वही जब हमारे सामने ला दी जाती है, तो हिट हो जाती है। फिल्में नहीं देखते हो? 100 में से 99 फिल्में ऐसे ही हिट होती हैं। 100 हिट फिल्मों में से 99 फिल्में सिर्फ इसलिए हिट होती हैं, क्योंकि वो घटिया होती हैं
प्रश्नकर्ता: वायलेंस आदि।
आचार्य प्रशांत: अच्छी फिल्म के लिए हिट होना बड़ा मुश्किल होता है। मैं नहीं कह रहा कि एकदम नहीं हिट हो सकती, अच्छी फिल्में भी चलती हैं, पर वो 100 में से एक होगी, तो चलेगी अच्छी। अगर 100 फिल्में चली हैं, तो उनमें से 99 घटिया होंगी, इसीलिए चली। समझ रहे हो ना बात को?
तो गेम में भी ये सब चीजें आएंगी और उन सब चीजों के विरुद्ध सतर्क रहना पड़ेगा—कि उसमें एडिक्टिव पोटेंशियल कितना है, उसमें वायलेंस कितना है, उसमें रेसियल प्रेजुडिस तो नहीं सामने आ रहे और बहुत सारी चीजें।
आचार्य प्रशांत: अच्छा, इसका एक और रीजन भी देखा गया, आचार्य जी, कि जो पेरेंट्स होते हैं आजकल के, वो बहुत कम उम्र में ही बच्चों को फोन पकड़ाते हैं। उसके बाद से वो कुछ भी डाउनलोड कर लेते हैं, कुछ भी गेम खेल रहे हैं। अभी रिसेंटली देखा गया कि 2020 के बाद से एक गेम है—पर्टिकुलर नेम है उसका—मतलब पहले बैन हुआ, फिर दोबारा एमर्ज कर लिया गया, अलग नाम के साथ। सिर्फ उसके यूजर्स, मतलब, पिछले दो सालों में 24 करोड़ से ज्यादा हो गए, सिर्फ इंडिया में!
आचार्य प्रशांत: अच्छा! तो वही बात है ना? देखो, हमें लोगों को एक अच्छा वीडियो दिखाना पड़ता है, तो उसके लिए हम पैसा खर्च करते हैं। और लोगों को उसी स्क्रीन पर जब वीडियो खेलना है, तो वे वीडियो देखने के लिए पैसा खर्च करते हैं। और जब गेम खेलना है, तो उस गेम के लिए पैसा खर्च करते हैं—बहुत सारा पैसा!
हम उन्हें कोई ढंग की चीज़ दिखाना चाहते हैं, तो हम खर्च करते हैं, और जब वे गेम खेलना चाहते हैं, तो खुद पैसा खर्च करके गेम खेलते हैं।
प्रश्नकर्ता: बीच में मैंने भी एक बार गेम खेला था।
आचार्य प्रशांत: गुनाह थोड़ी है गेम खेलना भाई। ऐसे बोल रहे हो, ‘बीच में एक बार मैंने भी खेला था’, जैसे बीच में कह रहे हो—"मैंने भी एक बार कत्ल किया था!" गेम में कोई गुनाह नहीं हो गया। कोई बढ़िया गेम हो, तो ले आना, हम भी देख लेंगे उसमें कोई दिक्कत नहीं हो गई। पर आंखें खुली हों, होश बना रहे। बिल्कुल पता होना चाहिए कि क्या हो रहा है। और जब पता रहे कि क्या हो रहा है, तो खुद भी जागो, दूसरों को भी जगाओ! ठीक है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐपल विजन प्रो मैक्स (Apple Vision Pro Max) आया है— वीआर हेडसेट VR headset, फुली वी.आर VR हेडसेट! बहुत ज्यादा हाइप है इसके बारे में मार्केट में। तो वो बाहर की दुनिया को भी स्क्रीन कैमरा से कैप्चर करके स्क्रीन पर प्रोजेक्ट करता है। तो लोग बोल रहे हैं कि फ्यूचर यही है। मतलब, ऐपल आ गया तो दूसरी कंपनियां भी धीरे-धीरे इसी में आ जाएंगें।
तो इज़ इट मेकिंग पीपल मोर डंबर और मतलब इट विल बिकम जस्ट लाइक मोबाइल इन द फ्यूचर तो इसके बारे में
आचार्य प्रशांत: आंखों से जो दुनिया दिख रही है, वह ठीक चल रही है क्या? या सब कुछ ठीक चल रहा है, इसलिए अब किसी वर्चुअल दुनिया में जाना है? आप जब सर्च करते हो नेट पर कि आज विश्व के सामने टॉप 10 या टॉप 20 प्रॉब्लम्स क्या हैं, तो उसमें प्रॉब्लम यह आती है क्या कि वर्चुअल रियलिटी तेजी से आगे नहीं बढ़ रही है यह प्रॉब्लम है? यह प्रॉब्लम यह है कि जो रियल है, वही बर्बाद हो रहा है? - क्लाइमेट चेंज, बायोडायवर्सिटी डिप्लीशन, डिप्लीशन ऑफ ग्लेशियर्स, पॉपुलेशन एक्सप्लोजन ये आंखों में वह लगाकर के ठीक कर लोगे क्या तुम?
जो भी ये वर्चुअल इक्विपमेंट होता है, लगता है इसमें भी आंखों पे? नहीं लगता है, पूरा ऐसे सेट लग गया! वो लगाने से क्लाइमेट चेंज हल हो जाएगा? वो लगाकर क्या कर लोगे? जैसे कहते हैं ना, "उखाड़ क्या लोगे?" क्या कर लोगे? एक क्यू आई 500 चल रहा है यहां पर, आंख पर ये लगाने से क्या होगा? नाक में जो हवा जा रही होगी, वह वर्चुअल हो जाएगी? जब नाक में हवा वर्चुअल नहीं जा सकती, तो पहले हम उस हवा का कुछ इलाज करें ना! या आंखों पर और मोटे-मोटे चश्मे लगा लें?
दुनिया भर में कट्टरता बढ़ रही है, मूर्खता बढ़ रही है, आईक्यू भी गिर रहा है। उसका इलाज करें या आंखों पर ये लगा लें? पूरी ह्यूमन स्पीशीज ही आउटराइट डिस्ट्रक्शन के जितने करीब आज है, उतने कभी भी नहीं थी! वी विल बी वाइप्ड आउट! उसका इलाज करूं या चश्मे लगा लूं और गेम खेलना शुरू कर दूं? घर जल रहा है और झुनू लाल क्या कर रहे हैं? गेम खेल रहे हैं! और गेम में वह ग्लेशियर पर बैठे हुए हैं!
घर जल रहा है और गेम खेल रहे हैं और आंखों में ऐसे लगा हुआ है जिसमें झुनू लाल ग्लेशियर पर बैठे हुए हैं! तुम्हारी वर्चुअल रियलिटी से एक्चुअल रियलिटी थोड़ी ही बदल जाएगी? जब घर जलेगा, तो आंखों को भले ही ग्लेशियर दिख रहा हो, पर खाल में तो आग लगी जानी है! और थोड़ी देर में आंखें भी जल जानी हैं! अब देख लो, तुम अपने उसमें इक्विपमेंट में!
यह जो भी गैजेट है, यह चार्ज तो इलेक्ट्रिसिटी से होता होगा ना? जो लोग खेल रहे हैं, उन्हें इलेक्ट्रिसिटी प्रोडक्शन और इलेक्ट्रिसिटी का जो कार्बन फुटप्रिंट होता है, उन्हें कुछ पता है इस बारे में? उनको पता है कि जंगल के जंगल कट रहे हैं इलेक्ट्रिसिटी प्रोडक्शन के लिए? मैं नहीं कह रहा हूं कि इलेक्ट्रिसिटी इसलिए प्रोड्यूस हो रही है क्योंकि गेमिंग इंडस्ट्री बढ़ रही है! यह निष्कर्ष मत निकाल लेना! मैं एक छोटी सी बात कह रहा हूं कि आप जो भी देख रहे हो और खेल रहे हो, उसमें एनर्जी का खेल चल रहा है! आप एनर्जी के खेल को और उसके समीकरणों को समझते भी हो क्या? वह समझे बिना, बस अपने आप को बच्चे की तरह झुनझुना दे रखा है? अपना मन बहला रहे हो? ये मूर्खता है, भाई!
वर्चुअल फूड भी खा लो! दुनिया भर में क्लाइमेट चेंज से जो क्रॉप यील्ड्स हैं, वे बुरी तरह गिरने वाली हैं! वर्चुअल फूड भी खा लो ना! वर्चुअल पानी भी पी लो! नदियां तो सारी सूख जानी हैं! वर्चुअल घर में भी रह लो! क्योंकि अगर किसी तटीय शहर में रहते हो, तो जल स्तर के बढ़ने से तुम्हारा घर, मोहल्ला सब डूब जाना है! जाओ, किसी वर्चुअल घर में भी रह लो! वर्चुअल हवा में सांस ले लो! वर्चुअल खाना खाओ! वर्चुअल पानी पियो! वर्चुअल घर में रहो! वर्चुअल प्लेनेट पर भी रह लो!
क्योंकि जितना कंजम्पशन आज आप कर रहे हो उतना कंजम्पशन के लिए इस प्लेनेट के पास रिसोर्सेस ही नहीं हैं, तो एक वर्चुअल प्लेनेट भी ले आ लो कहीं से! एक्चुअल प्रॉब्लम पर काम करो ना अगर हिम्मत वाले आदमी हो! जवान हो, और गैजेट के पीछे मुंह छुपाकर बैठ गए हो, तो कायर हो! हिम्मत है तो सामने आओ असली दुनिया में, और असली मुद्दों का सामना करो! इतना बड़ा गेम तो जिंदगी खुद है! इस गेम में क्यों नहीं डूबते और जूझते? और इस गेम में क्यों नहीं फतेह हासिल करते? हम सब गेमर्स ही हैं, भाई! गेम नहीं खेल रहे, लगातार गेम ही तो चल रहा है,
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी इसमें हम बड़ा ब्लेम किसको दें? कंपनीज़ को दें? क्योंकि मैक्सिमम टारगेट ऑडियंस टीनेजर्स एंड यंगर जनरेशन है, उनको तो...
आचार्य प्रशांत: कभी किसी को ब्लेम मत दिया करो। अपने से शुरुआत करो। अगर बस खुद को ढांढस, सांत्वना, बहाना यही नहीं देना है, तो खुद से शुरुआत करो अपनी जिम्मेदारी समझो और गेम बजा दो। समझ में आ रही बात? किसी और की शिकायत करके क्या मिलेगा? जिसकी शिकायत कर रहे हो, तुम्हारी शिकायत करने से बदल जाएगा क्या? बदल तो तुम सिर्फ एक को सकते हो। किसको? खुद को। तो खुद से शुरुआत करो। मैं इसमें अब साझेदार नहीं हूँ। मैं वह करूंगा, जो मैं समझ गया हूँ कि ठीक है। और जितनी मेरी ताकत, जितनी मेरी जिंदगी—मैं तो गेम बजा दूंगा।
गेम बजाना समझते हो ना? ईंट से ईंट बजा देना! जितना हम कर सकते हैं, सब कर देंगे क्योंकि हमें बात समझ में आ गई है। हम किसी खेल के प्यादे, मोहरे नहीं हैं अब। हम खेल खेलने वाले कोई समझ गए हैं।
प्रश्नकर्ता: सर, अगर वो बड़े एमएनसी के बारे में बात करें, जैसे ऐपल है—इतना बड़ा कंपनी है—हाउ कैन दे बी सो शॉर्ट साइटेड? मतलब, जैसे आप बोल रहे, क्लाइमेट चेंज बिगेस्ट प्रॉब्लम है। मतलब, सबके सामने है, तो फिर भी वो...
आचार्य प्रशांत: कंपनी क्या है? कंपनी इंसान है? कंपनी सांस लेती है? कंपनी क्या है?
ऑल कंपनीज एग्ज़िस्ट फॉर द स्टेक ऑफ देयर शेयर होल्डर्स। मैक्सिमाइजिंग शेयर होल्डर प्रॉफिट इज द ओनली ऑब्जेक्टिव ऑफ एनी इनकॉरपोरेटेड ऑर्गेनाइजेशन, करेक्ट? (All companies exist for the sake of their shareholders. Maximizing shareholder profit is the only objective of any incorporated organization, correct?)
कोई भी कंपनी सिर्फ इसलिए एग्ज़िस्ट करती है, ताकि उसके ओनर्स को मुनाफा हो सके। वह इसलिए थोड़ी एग्ज़िस्ट करती है कि क्लाइमेट चेंज को रोक सके, कि पृथ्वी के निवासियों को आसन्न विलुप्ति से बचा सके? ऐपल तो ऐसे बोल रहे, जैसे ऐपल कोई बंदा घूम रहा है—"हे एप्पल, हे पाइनएप्पल!"
ऐपल माने क्या? ऊपर कुछ बैठे हुए हैं शेयर होल्डर्स। और वह तो लिस्टेड कंपनी है, भाई। पूरे अमेरिका के लोग उसके शेयर होल्डर्स हैं। वो जब रुचि ही नहीं रखते हैं क्लाइमेट चेंज वगैरह में... उनका जो पूरा, जो शॉर्ट साइटेड बोला ना—विजन पूरा मायोपिक है, "आज खाओ, पियो, मौज करो।" तो सारे काम वही करेंगे ना—"खाओ, पियो, मौज" वाले। वो ये क्यों सोचेंगे कि 10 साल बाद क्या होने वाला है? और सोचने की भी बात नहीं, सोच भी लो, तुम उन्हें जनवा भी दो, तो भी आत्मबल उनका इतना क्षीण हो चुका है कि भले तुम उन्हें बता दो कि आज जो तुम कर रहे हो, इसका दुष्परिणाम कल भोगना पड़ेगा, तो भी क्षीण आत्मबल के साथ वो मजबूर होकर आज भी वही करेंगे, जो करते आ रहे हैं।
एक मजबूत आदमी होता है ना, जो कुछ भी करने से खुद को रोक पाता है। कमजोर आदमी को बता भी दो कि जो तुम कर रहे हो, इससे नुकसान होगा, तो भी वह खुद को रोक नहीं पाएगा। शराबी को बता दो—"शराब पी रहे हो तुम, आज फिर जाकर के नाली में गिरोगे और तुम्हारा लिवर पहले ही खराब है, और खराब होगा!"—तो भी क्या वो रुक पाता है?
शराब ने उसकी चेतना को भी कमजोर कर दिया है, सिर्फ तन को नहीं। कितना भी बोल लो उसे, सारे बुरे अंजाम दिखा दो, वह सुन लेगा। उस समय हो सकता है, हामी भी भर दे कि "हाँ, अबसे नहीं पिऊंगा!"—पर फिर पिएगा। सारे अंजाम, सारे परिणाम जानते हुए भी, वह पिएगा। तो ऐसा होता है इंसान! सब शराबी हैं, सब नशे में हैं! सब पता है कि जो कर रहे हैं, उसका क्या अंजाम है!
पर भीतर से इतने कमजोर हो चुके हैं। स्वार्थ, लालच, अज्ञान—यह हमें भीतर से कमजोर कर देता है। जितना स्वार्थ होता है, आप उतने ज्यादा आत्मबल हीन होते जाते हो। सच पर चलने की आपकी क्षमता उतनी कम होती जाती है। फिर आप सच से कतराते हो, क्योंकि अगर सच को जान भी गए, तो भी उस पर अमल तो कर नहीं सकते ना! तो आप कहते हो, "मुझे बताओ ही मत, बताओ मत। अब जो कल होगा, सो होगा।"
कल क्या है? मरना है। हम मर जाएंगे, पर आज तो मौज करने दो! फिर आप इस तरह की लफ्फाजी, जुमलेबाजी करने लगते हो। यह कोई आपका सिद्धांत नहीं है, यह बस आपकी कमजोरी है जिसको आप सिद्धांत की शक्ल दे रहे हो। आप कहते हो, "मेरी तो प्रिंसिपल यह है भाई, लिव फॉर टुडे। हू हैज़ सीन टुमारो?" सुना है लोगों को? यह तुम्हारा प्रिंसिपल नहीं है, यह तुम्हारी मजबूरी है, क्योंकि तुममें इतना दम ही नहीं है कि अपने ग्रैटिफिकेशन को पोस्टपोन कर सको।
तुम्हें इस समय पर अगर कोई प्लेजर मिल रहा है, तुम्हारी हिम्मत ही नहीं है कि तुम उस प्लेजर को पोस्टपोन कर सको, स्थगित कर सको, आगे के लिए लंबित कर सको। तुम्हारे सामने कोई लाके रसगुल्ला रख दे, तुम्हारी हिम्मत ही नहीं है कि तुम कहो, "मुझे नहीं खाना।" तुम मजबूर हो जाते हो। तुम अपने हाथों मजबूर हो, तुम अपनी ज़बान के हाथों मजबूर हो, अपनी वृत्तियों के हाथों मजबूर हो। तुम कायर आदमी हो, तुम लड़ नहीं सकते, तुम खुद से नहीं लड़ सकते।
तो फिर अपनी कायरता को छुपाने के लिए कहते हो, "नहीं-नहीं, यह तो मेरा सिद्धांत है। आई बिलीव इन टुडे। आई बिलीव इन लिविंग इन दिस मोमेंट। आई डोंट केयर फॉर टुमारो।" हर अपराधी का यही सिद्धांत होता है। "अभी चोरी कर लेने दो, कल पकड़े भी गए तो क्या हुआ? त्वरित सुख तो मिलेगा ना, इंस्टेंट प्लेजर तो मिल रहा है ना!"
"अभी बलात्कार करूंगा, अभी सुख मिल गया। अब उसके बाद 10 साल जेल में रहूंगा, क्या फर्क पड़ता है? आई लिव फॉर दिस मूमेंट। आई लिव फॉर द प्लेजर ऑफ दिस मूमेंट। उसके बाद दस साल जेल में रहना पड़े, क्या फर्क पड़ता है?" यही चल रहा है।
"द प्लेजर ऑफ द स्टेकहोल्डर्स बिकम्स द ड्यूटी ऑफ द कंपनी।" स्टेकहोल्डर्स को जिस चीज़ में प्लेजर मिल रहा है, हर कंपनी वही करती है। किसी एक कंपनी का नाम क्यों लेना? बड़े-बड़े नामों से इम्प्रेस होना, प्रभावित होना बंद करो। "नाम बड़े और दर्शन छोटे।" बहुत बड़ा नाम होगा, उसके पीछे बैठा तो कोई इंसान ही है ना? जो इंसान बैठा है, वो आत्मज्ञानी है क्या?
तो तुम्हें क्यों लग रहा है कि "इतनी बड़ी कंपनी है, यह कंपनी, वह कंपनी!" अरे, होगी कंपनी बड़ी, उसके पीछे तो एक इंसान ही बैठा है—एक छोटा इंसान, आम आदमी जैसा—एक छोटा इंसान! हाँ, "द बिग लिटिल मैन—झुनू लाल," जो अपने नाम के साथ अब कुछ उपनाम लगाने लग गया है, कुछ ऑनर फिक्स लगाने लग गया है। बड़ा झुनू लाल! बिहाइंड एवरीथिंग दैट अपीयर्स सो बिग, देर इज़ अ ग्रुप ऑफ वेरी स्मॉल मेन। "व्हाई डू यू फील बिट्रेड और सरप्राइज़्ड?"
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, सर! अभी हम जैसे बात कर रहे थे वर्चुअल रियलिटी की, तो मेटावर्स भी ऐसी ही कुछ चीज़ है। तो, इफ आई नो समथिंग अबाउट डाटा साइंस एंड आई कैन मेक मनी आउट ऑफ एनएफटी, क्रिप्टो एंड मेटा, ए लॉट ऑफ अदर थिंग्स—और ओबवियसली, सबसे बड़ा जो सबसे ज़रूरी और ऊंचा काम है, वह हमें पता है कहां चल रहा है। और रिसोर्सेज़ की हमें ऑल द टाइम ज़रूरत है। सो इज इट ओके टू मेक मनी फ्रॉम देयर एंड इन्वेस्ट?
आचार्य प्रशांत: यह देख लेना, जो मनी बना रहे हो, उसका कुल प्रभाव क्या पड़ रहा है? मान लो, उसमें से आप हजार रुपये लेकर आए और आपने किसी नेक काम में लगा दिए, तो आपने जो करा, उसका नेट इफेक्ट नेकी की ओर कितना हुआ?
प्रश्नकर्ता: हजार रुपये।
आचार्य प्रशांत: हजार रुपये। वो टैंजिबल है दिख गया, क्योंकि हजार रुपये आपको दिख गया—इतना था, मैंने लगा दिया नेक काम में। जो आपको नहीं दिख रहा, वह क्या है? जो इनटैंजिबल्स हैं। इनटैंजिबल में पता चला, 2000 का आप नुकसान करके आ गए हो पूरे इकोसिस्टम का, पृथ्वी का, समाज का, सबका। तो फिर पता नहीं, तो वो कैलकुलेशन देख लेना कि किधर को बैठ रही है—प्लस है कि माइनस है।
अच्छे काम में हजार लगा दिया, तो दिखेगा, खुश भी हो जाओगे। मॉरल प्लेज़र मिलता है ना—"मैंने किसी अच्छे काम में हजार लगा दिया।" लेकिन ये दिखेगा नहीं कि वह हजार आया है, दुनिया का दो हजार का नुकसान करके। अब मैं बिल्कुल यह नहीं दावा कर रहा हूं कि हजार तभी आएगा जब 2000 का नुकसान होगा। अगर यह दिखाई दे कि हजार आ रहा है और उधर नुकसान सौ का ही हो रहा है, तो आगे बढ़ो। पर हजार आ रहा है, उधर तुम 2000–5000 का नुकसान कर रहे हो, तो नहीं बाबा, एकदम नहीं! तो वह अच्छे से सोच लेना कि जो कर रहे हो, उसमें नुकसान कितना है? कहीं जो तुम करना चाहते हो, जो ऑब्जेक्टिव तुम हासिल करना चाहते हो, कहीं वही ना खराब हो रहा हो, हार रहा हो तुम्हारे उस काम को करने से।
प्रश्नकर्ता: थैंक यू, सर।
आचार्य प्रशांत: उदाहरण के लिए, एक लिफ्ट थी। तो उसके जो केबल्स थे, वो टूट-फूट गए थे, वो बड़ी मुश्किल से एक केबल पर लटकी हुई थी। अंदर जितने उसमें सवार थे, उनकी हालत खराब—क्या करें, क्या ना करें? तो एक बहुत दमदार कोई इंजीनियर या मैकेनिक, वह जो लिफ्ट वाली पूरी कैविटी होती है, उसमें लटक कर ऐसे आया, पकड़ के जो बीम्स थीं उनको, बोला, "मैं इनको बचाऊंगा, क्योंकि बस एक केबल है जिससे ये लटके हुए हैं।" बोला, "मैं इनको बचाता हूं, किसी तरह से इनको बाहर निकालूंगा।" तो वह ऊपर से कहीं से या नीचे से आया, अपना करते-करते, उसके बाद उसने लिफ्ट का ऐसे शीशा-वीशा तोड़ा।
बोल रहा था, "इनको तो बचाना बहुत जरूरी है," और शीशा तोड़कर उनको बचाने के लिए वह लिफ्ट में आ गया—"तभी तो इनको उठा के बाहर ले जाऊंगा।" और वो जो एकमात्र केबल थी, जिससे वो लटकी हुई थी, उसके लिफ्ट में घुसते ही टूट गई!
तो यह देख लेना कि जो कर रहे हो, उसमें नियत एक तरफ है, लेकिन कुल प्रभाव किधर को पड़ेगा? नियत तो अच्छी बात होती है, पर गणना भी कर लेनी चाहिए कि कुल असर क्या पड़ने वाला है।