वैदिक साहित्य में यज्ञ को महत्वपूर्ण क्यों बताया गया है? || (2018)

Acharya Prashant

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वैदिक साहित्य में यज्ञ को महत्वपूर्ण क्यों बताया गया है? || (2018)

आचार्य प्रशांत: श्लोक संख्या ५ है, प्रथम मुण्डक, द्वितीय खंड से, “जो पुरुष यज्ञ में आहुतियाँ देता है यथासमय, अनुशासन का पालन करता है, उसे सूर्य की किरणें वहाँ ले जाती हैं जहाँ देवताओं का एकमात्र स्वामी इंद्र निवास करता है।“

बात बहुत सीधी है। यज्ञ का अर्थ होता है, “अपने सारे कर्म, जो भी कुछ हैं मेरे पास, उसकी मैं आहुति दे रहा हूँ अपने परम लक्ष्य के प्रति। मेरा जो भी कुछ है वो उसका (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) है, अपने लिए मैं कोई काम नहीं कर रहा।“

गीता में अर्जुन से कृष्ण कहते हैं कि, “तू सारे काम ऐसे कर जैसे यज्ञ कर रहा हो।“ और यज्ञ फिर कर्म नहीं माना जाता। “सारे काम तू ऐसे कर जैसे तू यज्ञ कर रहा हो“, क्या अर्थ है इसका? इसका अर्थ है 'निष्कामता', काम तो मैं कर रहा हूँ पर अपने लिए नहीं कर रहा। जो कुछ था, आज का फल, आगे का फल, वो सब मैंने चढ़ा दिया। दिया, और किसको दिया, उसको दिया जो ऊँचे-से-ऊँचा है, जिसकी ओर इन ज्वालाओं की दिशा है। ये यज्ञ है।

इसीलिए वैदिक साहित्य में यज्ञ को इतना स्थान दिया गया है, कि आपके पास जो कुछ था आपने उसको दे दिया। और किसको दिया? अग्नि को दिया, जो मिटा देगी वो सब कुछ जो आपके पास था। इसीलिए पारसियों में अग्नि की इतनी श्रेष्ठता है। क्यों है, क्योंकि वो निर्मल कर देती है, साफ़ कर देती है, मिटा देती है।

फिर कहा है, कि, “जो लगातार इन ज्वालाओं को आहुतियाँ देता रहता है, उसे सूर्य की किरणें वहाँ ले जाती हैं जहाँ देवताओं का स्वामी इंद्र निवास करता है।“ अर्थात् तुम्हारे मन को दैवीयता दे दी जाती है। जो कर्म ऐसे कर रहा है कि निष्कामता रहे, कर्म का लक्ष्य परमात्मा भर रहे, उसका मन स्वर्गतुल्य जगह पर पहुँच जाता है। ये काव्यात्मक तरीका है कहने का, कि उसे सूर्य की किरणें उठा कर इंद्र के पास ले जाती हैं।

तुम कहाँ रहते हो? तुम्हें ले जाया जाता है। तुम कौन हो, तुम कहाँ रहते हो? तुम वहाँ रहते हो जहाँ तुम्हारा मन है। तुम यहाँ बैठे हो और तुम्हें यहाँ बैठे-बैठे खयाल आ गया अपने घर का, तो तुम कहाँ पहुँच गए?

श्रोतागण: घर।

आचार्य: घर पहुँच गए न? तो इसी तरह कहा गया है कि तुम्हें सूर्य की किरणें उठा कर इंद्र के पास ले जाती हैं, अर्थात् तुम्हारा मन देवताओं-सा हो जाएगा। तुम्हारा शरीर नहीं उठकर पहुँच जाएगा वहाँ, क्या उठकर पहुँच जाएगा? मन। मन देवताओं के घर पहुँच गया। मन...

श्रोतागण: ...देवताओं के।

आचार्य: जो उसमें मूल बात है, केंद्रीय बात है, वो है 'निष्कामता', तुम यज्ञ किए जाओ। तुम काम ऐसे नहीं करो कि, "मैंने काम किया और मुझे कुछ मिला", तुम काम ऐसे करो कि, "मैंने जो करा उसका फल मुझे चाहिए ही नहीं, मुझे करने भर से प्रयोजन था।"

यज्ञ करके कुछ पाते हो क्या? वापस जब लौटते हो जेब भरी हुई होती है? उल्टा होता है, जो था उसको दे और देते हो। और आम आदमी जब काम करता है और शाम को घर लौटता है तो जेब भर कर लौटता है। तो यज्ञ में और आम कर्म में ये अंतर है।

यज्ञ वो कर्म है जो कर्म है ही नहीं, जिसमें तुम काम पाने के लिए नहीं, गँवाने के लिए करते हो। मैं लगातार काम ऐसा करता जाऊँ जो मुझे छोटा करे, जो मुझे हल्का करे, जो मुझे मेरे बोझ से, मेरी हस्ती से मुक्ति दिलाए, ऐसा काम यज्ञ कहलाता है।

जो ये तुम पूरा आयोजन देखते हो कि बीच में वेदी है, और उसमें से फिर ज्वालाएँ हैं, और समिधा डाली जा रही है, ये सिर्फ़ प्रतीक है, यज्ञ इसको नहीं कहते। कोई ये ना कह दे कि यज्ञ का मतलब होता है आग जलाना और फिर उसमें घी इत्यादि डालना। ये यज्ञ नहीं है, ये यज्ञ का प्रतीक है, ये ऐसा है जैसे चुनाव-चिन्ह। चुनाव-चिन्ह थोड़े ही प्रधानमंत्री बनता है, कि बनता है? तो यज्ञ का चुनाव चिन्ह है, क्या, “आहुति, अग्नि, यज्ञ-कुंड, वेदी, समिधा”, ये सब क्या हैं, ये प्रतीक हैं, इनको यज्ञ मत मान लेना।

यज्ञ का वास्तविक अर्थ है 'निष्काम-कर्म'। निष्काम कर्म। ठीक है?

मंडूकोपनिषद्, प्रथम मुण्डक, प्रथम खंड, आठवाँ श्लोक, “विचार रूप तप से ब्रह्म वृद्धि को प्राप्त होता है, उससे अन्न उत्पन्न होता है, अन्न से प्राण, मन, पञ्च-महाभूत, लोक कर्म और कर्मफल उत्पन्न होते हैं।"

ये जितनी बातें कही गई हैं कि उत्पन्न होती हैं, वो सब क्या हैं, उनमें साझी बात क्या है? अन्न, प्राण, मन, पञ्च-महाभूत, लोक कर्म, कर्मफल, इन सबमें साझी बात क्या है? ये सब लौकिक हैं, ये सब क्या हैं? सांसारिक हैं, लौकिक हैं, भौतिक हैं। अन्न, प्राण, कर्म, कर्मफल, ये सब क्या हैं, ये दुनियादारी की चीज़ें हैं। और कहा जा रहा है कि तप से ब्रह्म वृद्धि को प्राप्त होता है, और फिर उससे ये सब उत्पन्न होते हैं, पञ्च-महाभूत, अन्न इत्यादि।

तप जब तुम करते हो तो तप का ताल्लुक होता है आत्मा से। तुम तप इस इच्छा से नहीं करते कि 'मुझे लौकिक वृद्धि मिलेगी'। तुम इसलिए तप नहीं करते हो कि 'मेरा दुनिया में काम बन जाए, मेरे खेत खड़े हो जाएँ, मेरी इमारतें, मेरा व्यापार खड़ा हो जाए'। पर ये सूत्र बहुत कीमती है, सूत्र तुम्हें बता रहा है कि तुम्हारी तपस्या, जो कि होती इसलिए है कि तुम्हारा आंतरिक जगत खुशहाल हो जाए, मात्र आंतरिक जगत को ही नहीं, तुम्हारे बाह्य जगत को भी वृद्धि दे देती है, परिपूर्ण कर देती है। इसी बात को मैं इस तरीके से कहा करता हूँ कि जिसके पास सत्य है वो संसार का भी बादशाह हो जाता है।

तुम सत्य की ओर इसलिए नहीं बढ़ते, इस कामना से नहीं बढ़ते कि 'मुझे संसार मिल जाए'। वास्तव में जो सत्य की ओर बढ़ा है वो तो संसार की निस्सारता को देखकर बढ़ा है। तो चाहत तुम्हारी बस ये होती है कि वो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) मिल जाए, चाह तुम बस ये रहे हो कि 'मुझे वो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) मिल जाए'। लेकिन फिर जादू होता है, एक सह-उत्पाद की तरह, एक बाय-प्रॉडक्ट (सह-उत्पाद) की तरह तुम्हें कुछ और भी मिलने लग जाता है। चाहा था तुमने ब्रह्म, और मिलने लग जाता है..., अन्न भी मिलने लग जाता है, प्राण मिलने लग जाते हैं, मन मिलने लग जाता है, पञ्च-महाभूत, समस्त लोक, और कर्म, और कर्मफल मिलने लग जाते हैं।

ये तो बड़ी मज़ेदार बात हुई, जो दुनिया को चाहता है, उसने तो पहले ही कह दिया, “मुझे ब्रह्म नहीं चाहिए।“ ब्रह्म तो चाहिए ही नहीं था तो नहीं मिला, और दुनिया भी नहीं मिली। क्योंकि दुनिया गुलाम किसकी है? उसकी (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)। दुनिया कहती है कि, "जब तेरा मेरे मालिक से ही कोई वास्ता नहीं तो मैं तेरे पास क्यों आऊँ।"

तुम समझो। दुनिया किसकी दासी है? उसकी (ऊपर की ओर इशारा करते हुए), और उसको (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) छोड़कर जब तुम दुनिया की ओर चलते हो, परमात्मा को छोड़कर जब तुम दुनिया की ओर चलते हो, तो दुनिया मालूम है तुमसे क्या कहती है अंततः? क्या? “जब तू मेरे बाप का नहीं हुआ तो तू मेरा क्या होगा?”

दुनिया भले ही अपनी चाल चलती हो लेकिन दुनिया बिटिया किसकी है, दासी किसकी है? उसी (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) की, परम की। तो जब तुम परम की उपेक्षा करके दुनिया के पास जाते हो तो दुनिया कहती है, “तू मेरे बाप को छोड़कर के, मेरे बाप का अनादर करके मेरे पास आया है? कुछ नहीं पाएगा मुझसे, भाग।“

और फिर दूसरे होते हैं, जो तप करते हैं ब्रह्म की खातिर। उन्हें ब्रह्म तो मिलता ही मिलता है, और ब्रह्म के साथ-साथ मुफ़्त में दुनिया भी मिल जाती है। यही इस श्लोक का अभिप्राय है।

तुम्हें अगर दुनिया में ठोकरें मिल रही हैं तो इससे क्या पता लग जाना चाहिए?

श्रोतागण: कि हम परम से दूर हैं।

आचार्य: कि तुम परम से दूर हो। क्योंकि दुनिया तो अंत में तुम्हें एक ही बात बोलेगी, “तू मेरे बाप का हो जा, मैं तेरी हो जाऊँगी। तू मेरे बाप का हो जा, मैं तेरी हो जाऊँगी।“

तो दुनिया अगर तुम्हें नहीं मिल रही है, दुनिया में ठोकरें खाते हो, परेशान रहते हो, तो वजह साफ़ है, तुम दुनिया के बाप के नहीं हुए हो, दुनिया फिर अपने आप तुम्हारी हो जाती, हुई नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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