इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।
देवता यज्ञ से सेवित होकर और उन्नति को प्राप्त होकर तुम्हें अभीष्ट भोग्य वस्तु देंगे। जो देवताओं को दिया जाना चाहिए, वो देवताओं को न देकर जो ख़ुद ही उसका भोग कर लेता है, वह निश्चित रूप से चोर ही है, अर्जुन।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक १२
आचार्य प्रशांत: 'देवता यज्ञ से सेवित होकर और उन्नति को प्राप्त होकर तुम्हें अभीष्ट भोग्य वस्तु देंगे।‘ देवता को जब तुम पोषित करोगे, महत्व दोगे, तो वो तुमको वो सबकुछ दे देगा जो जीवन में वास्तव में पाने लायक है; उसी को आनंद कहते हैं, उसी को रस कहते हैं, उसी को मुक्ति कहते हैं।
‘जो देवताओं को दिया जाना चाहिए, वो देवताओं को न देकर जो ख़ुद ही उसका भोग कर लेता है, वह निश्चित रूप से चोर ही है अर्जुन।‘ ‘जो वस्तु यज्ञ में अर्पित कर देनी चाहिए थी, उसको तुमने देवता को नहीं दिया, ख़ुद ही उसको खा गए, तो अर्जुन, ऐसा व्यक्ति चोर ही है।‘
ख़ुद ही खा गए माने किसको खिला दिया? भीतर के दानव को खिला दिया। आप जो भी भोग करते हो अपने लिए, आप कहते हो, ‘ये मेरे अपने लिए कन्ज़म्पशन है', वो वास्तव में आप थोड़े ही खा रहे हो, वो आपके भीतर का दानव खा रहा है। जो कुछ वास्तव में देवता का अधिकार था, मिलना चाहिए था देवता को, लेकिन देवता को देने की जगह उसको आपने ही खा-पीकर उड़ा दिया, वो आपने दानव को खिला दिया। और जो ऐसा कर रहा है, कृष्ण सीधे उसको कह रहे हैं कि वह चोर ही है – ‘स्तेन', चोर।
तो प्रतीकात्मक अर्थ भी नहीं है, ये तो सीधे-सीधे शाब्दिक अर्थ है – ‘स्तेन’। इसकी धातु भी वही है जहाँ से स्टीलिंग आया है, वहीं से आता है। ‘अस्तेय’ सुना है न, अस्तेय माने क्या होता है? – चोरी न करना। ‘स्तेन' माने कौन? – ये चोरी ही है। तो चोरी सिर्फ़ तब नहीं है जब तुम किसी और का माल हड़प लो। कृष्ण कह रहे हैं – सबसे बड़ी चोरी तब है जब तुम अपना ही माल अपने भोग में खर्च कर दो।
अब चोरी की ऐसी कोई कानूनी परिभाषा नहीं है, और ऐसी चोरी की कानून में कोई सज़ा भी नहीं है। आप कहोगे, ‘मेरा माल था, मैं उसका कुछ भी करूँ!‘ कृष्ण कहते हैं, ‘न! तुमने अपना माल भी अगर अपने भोग में लगा दिया, तो ये चोरी करी है तुमने, सज़ा मिलेगी।‘
तुम्हारे पास जो कुछ भी है – बल, श्रम, बुद्धि, ज्ञान, अनुभव, सारे संसाधन – उनको अर्पित करो अपने भोग को नहीं, अपने देवता को। और देवता माने क्या? ये नहीं कहा जा रहा है कि किसी मंदिर में जाकर के वहाँ पर दानपात्र में डाल आए! ये भीतर के देवत्व की बात हो रही है। अपने समय, अपनी ऊर्जा, ज्ञान, बुद्धि, बल, अनुभव, अपने संसाधनों का, अपने पैसे का भी सही उपयोग करना सीखो।
असल में इस पर तो बहुत तरह का मार्गदर्शन उपलब्ध हो जाता है कि कमाना कैसे है; कृष्ण आपको सिखा रहे हैं कि खर्चना कैसे है। कमाने-कमाने की बात तो सभी करते हैं न! खूब जगहें हैं, डिग्री , कोर्सेज़ ही हैं, जो आपको सिखा रहे हैं कि कैसे कमाना है। कृष्ण बता रहे हैं कहाँ खर्चना है, और खर्च माने क्या, और खर्च का उद्देश्य क्या होना चाहिए। खर्च आहुति की तरह होना चाहिए, भोग की तरह नहीं। जब खर्चो तो बोलो, ‘स्वाहा,' ‘आहा’ नहीं। ‘मैंने दिया', जब खर्चा तो मैंने दिया, ‘स्वाहा।‘ और जब भोगते हो तो बोलते हो, ‘आहा।’ ये राक्षस का काम है, कि खर्चा और बोला, ‘आहा।‘
भोग में वही भड़कीला सुख है बस, ‘भोग लिया!‘ हम जिस सूक्ष्म आनंद की बात कर रहे थे वो अर्पित करने में है। उसमें तुरंत उफनता हुआ मज़ा नहीं आएगा, उसमें सूक्ष्म आनंद आता है, जब कहते हो, ‘स्वाहा!‘ और भीतर का दानव तब चिल्लाएगा बहुत ज़ोर से, बोलेगा, ‘ये जो अभी-अभी तुमने आहुति दे दी, इसमें तुमको क्या मिला, तुमको क्या मिला?’ उसको क्या बोलना है? ‘श्श्श्श, चुप!’
भीतर लोकतंत्र मत चला देना, कि देवता और दानव एक बराबर हैं और दोनों को ही बराबर की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। क्योंकि अगर दोनों को दे दी न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जहाँ कहीं भी, वहाँ याद रखना वो जीतेगा जो ज़्यादा ज़ोर से चिल्लाना जानता होगा और जो ज़्यादा घटिया बात करना जानता होगा।
देवता है और दानव है, अगर तुमने दोनों को बराबर की दे दी फ़्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन , तो तुम्हें तो लग रहा है तुमने बराबरी का काम कर दिया है, समतामूलक काम कर दिया है – अब ये समतामूलक काम नहीं है, क्योंकि देवता की आत्मा है मौन, उसका ढंग चुप्पी का है, सूक्ष्मता का है, और दानव की वृत्ति है शोर मचाने की। दोनों को ही तुमने कह दिया कि ‘दोनों बोल सकते हो और दोनों की बात सुनी जाएगी’, तो कौन जीतेगा? हमेशा दानव ही जीतेगा; देवता की आवाज़ तो वैसे ही रह जाएगी – नक्कारखाने में तूती।
ये टी.वी. डिबेट्स होते हैं, इसमें वास्तव में कोई आ जाए देवता जैसा, वो मुँह भी खोलने को पाएगा क्या? ये राक्षस उसको बोलने देंगे? तो वो जो भीतर वाला है न, ये मत कह देना कि ‘देखिए, हम उसकी भी आवाज़ सुनते हैं।‘ उसकी सुन लोगे तो बस सुन ही लोगे, उसको बस चुप करा दो – ‘तेरी सुन ही नहीं रहे।‘ उसकी सुननी शुरू की नहीं, कि वो तुमको बहा ले जाएगा।
जो कहावत चलती है, लोकोक्ति, कि ‘सुनो सबकी, करो अपनी’, वो व्यावहारिक नहीं है। वजह समझिएगा। वो जो दानव होता है, वो बस इसी फ़िराक में रहता है कि एक बार सुन लो मेरी। तुमने उसकी सुननी शुरू की, उसके बाद तुम असहाय हो जाते हो, उसके बाद चुनाव का विकल्प ही नहीं बचता, बह जाते हो। उससे बचने का एक ही तरीका है – उसको सुनने की शुरुआत ही मत करो।
जीवन में कुछ काम ऐसे हैं जो शुरू ही नहीं करना चाहिए; एक बार शुरू हो गए, फिर रोक नहीं पाओगे। जानते हो न? जानते हो न किन कामों की बात हो रही है? हाँ, तो उन्हीं कामों में राक्षस है। राक्षस वैसा ही है, वो कहता है, ‘बस एक मिनट दे दो मुझको।‘ उस एक मिनट के बाद खेला रुकता कहाँ है! 'बस एक बार, एक बार, एक बार।' आज तक रुका है एक बार के बाद? रुका है क्या?
देवता बेचारे का मामला उल्टा है। पहली बात तो उसकी वृत्ति नहीं है ज़्यादा बोलने की, और उसे बोलना बहुत पड़ता है, क्योंकि वो बहुत भी बोल ले तो भी तुम्हें समझ में बहुत कम आता है। देखो राक्षस के पक्ष में पलड़ा कितना झुका हुआ है, वो थोड़ा-सा बोल दे, बह जाओगे; और वो है ही बोलने में दक्ष, बोलने को आतुर।
जो देवता है भीतर का, उसका स्वरूप मौन है, वो बहुत बोलना नहीं चाहता, और यदि वो बोल भी दे तो उसकी बात पसंद नहीं आती। तो वो बोलना नहीं चाहता पर उसे बहुत बोलना पड़ता है, और वो बहुत भी बोल लेता है तो उसकी बात हमसे ग्रहण की नहीं जाती; क्योंकि उसकी बात रसीली नहीं है, मसालेदार नहीं है, इंद्रिय-सुख नहीं देती। हाँ, कोई उच्चतर सुख ज़रूर देती है जिसको आनंद बोलते हैं। पर अगर लत लगी हो इंद्रिय-सुख की, तो आदमी वही माँगता है।
समझ में आ रही है बात?
कुछ चीज़ों को ज़िंदगी से एकदम लॉक कर दो, ताला लगा दो, कि ‘ये कभी प्रवेश नहीं कर सकते।‘ अपने ऊपर इतना भरोसा मत करो, कि ‘इन्हें बीच-बीच में आने देंगे तो भी हमारा बिगड़ क्या जाएगा!’ इतना तो अपना बिगड़वा लिया, अभी और बिगड़वाना चाहते हो?
ये सब सेल्समैन होते हैं, ये कभी आपसे ये बोलते हैं, ‘हमें आपका बस आधा घंटा चाहिए'? आप घूम रहे होते हैं, कोई आकर सेल्समैन आपको पकड़ लेता है, वो क्या बोलता है, कितना समय चाहिए आपका? वो यही बोलता है, ‘एक मिनट चाहिए', और उसके बाद हो गया खेला।
अभी इस तरह की समस्याएँ बहुत आने लग गईं हैं, कि ‘समय बहुत ख़राब होता है। रात में मोबाइल पर बैठ जाता हूँ और दो-दो, तीन-तीन घंटे बीत जाते हैं और उसी से खेलता रहता हूँ।‘ शुरुआत कैसे होती है इसकी? ‘कोई एक चीज़ देखनी है एक मिनट में’, और फिर क्या होता है? (स्क्रोलिंग का इशारा करते हुए) वो होता ही जाता है, होता ही जाता है – ये राक्षस का तरीका है। वो दलदल जैसा है, उसमें एक बार घुस गए तो धँसते ही जाओगे, धँसते ही जाओगे, धँसते ही जाओगे।
फिर धँसी हुई हालत में आकर बोलते हो, ‘आचार्य जी, अब क्या करें?’ मुझे भी बड़ी लाचारगी लगती है, ‘क्या करो? घुसा काहे के लिए था? अब तो तू इतना ही कर दे कि औरों को मत घुसने दे, तेरा तो अब जय राम जी की।‘
ऐसी ही अवस्था से त्रस्त होकर के शायद पुनर्जन्म की अवधारणा गढ़ी गई होगी, कि ‘बेटा देखो अब अगले जन्म में तुमको बहुत बढ़िया कुछ हो जाएगा; अभी तो जो है सो है।‘ ये है पुनर्जन्म की मान्यता का मूल स्रोत – गृहस्थों की दुर्दशा। चालीस-पचास की उम्र में उनकी जो हालत होती है, कहते हैं, 'अब क्या करें, जिएँ कैसे?' तो उनको कहा जाता है, ‘अगला जन्म, डोंट वरी। अभी बस किसी तरह बीस-तीस साल, अब जो भी बचे हैं, उनको बस काट लो, काट लो। अगला वाला बहुत बढ़िया होगा।‘ तो इससे वो बेचारे फिर किसी तरह से ज़िन्दा रह पाते हैं, कि ‘आगे अब ठीक रहेगा, अब तो कुछ हो नहीं सकता, आगे होगा।‘
अब कृष्ण गाली-गलौज तो कर नहीं सकते थे, जो अधिकतम बोल सकते थे उन्होंने बोल दिया – ‘चोर।‘ उसके आगे जो आपको बोला जाना चाहिए, वो आप स्वयं ही कल्पना कर लें। सबकुछ कृष्ण पर ही डाल देंगे क्या? इतनी तकलीफ़ अब ख़ुद ही कर लें।
उन्होंने कह दिया, ‘जो भीतर के देवता को न खिलाकर के ख़ुद ही खाता रहता हो, वो चोर है।‘ ये भी नहीं कह रहे हैं वो चोर है, कह रहे हैं – वो चोर ‘ही' है। ‘ही’ क्यों जोड़ा है उन्होंने, ‘एव’ को जोड़ने से क्या लाभ है? कि चोर के अतिरिक्त उसे कुछ मत मान लेना, उसे ज़रा भी रियायत मत दे देना, उसको ज़रा भी ये छूट मत दे देना कि वो चोर के अतिरिक्त अपने-आप को कुछ और मान ले।
तो कह रहे हैं, ‘वो चोर ही है, और कुछ भी नहीं, चोर माने चोर।' अब और ज़्यादा अलंकृत शब्द आप स्वयं सोचिए, ‘चोट्टा’... बाकी आप (देख लें)... मंच की गरिमा का ख्याल रखते हुए मैं इस ‘चकार’ को और आगे नहीं बढ़ाऊँगा।
‘किसको खिला रहे हो?’ ये सवाल भी अगर गूँजने लग जाए न – खासतौर पर उनके कानों में जो अच्छा कमाते हैं, क्योंकि अच्छा कमाते हैं तो अच्छा खर्चते भी होंगे – ये सवाल भी अगर गूँजने लग जाए, ‘किसको खिला रहे हो, खर्च कहाँ कर रहे हो?’, तो जीवन बदल जाएगा।
जिम्मी चू; वो पैसा नहीं उड़ाया है, वो जीवन उड़ रहा है धुँआ-धुँआ होकर। और कितना अच्छा लगता है न, ‘आज मैं इतना कमा रहा हूँ कि मैं उड़ा पाता हूँ। इसी दिन के लिए तो मैं जिया था, इसी दिन का सपना तो मेरे माँ-बाप ने देखा था, एक दिन ऐसा आएगा जब मैं दानवों को भोज करा पाऊँगा, भीतर राक्षस की ऐश करा पाऊँगा।‘ इसी दिन के लिए तो हम जीते हैं, और यही तो हमारे रोल मॉडल्स हैं जो ऐश करते हैं।
ऊँचे-से-ऊँचा सपना क्या है हर आदमी का, आम-आदमी का, सबका, हमारा-आपका; क्या है? ‘ऐश करेंगे।‘ ऐश ही तो है न! न होता आपका ऐश का सपना, मान लीजिए आप ऐश नहीं भी कर रहे हैं, तो ईमानदारी से अपनेआप को पूछिएगा, ऐश करने वालों को देखकर भीतर ज़रा-सी ईर्ष्या नहीं उठती क्या? उठती है न? वो ईर्ष्या ही बताती है कि आप स्वयं भी ऐश करना चाहते हैं। और कृष्ण आज से तीन हज़ार साल पहले बता गए, ‘बेटा, वो ऐश नहीं है, ‘ए-एस-एच’ (राख) है। क्या जला रहे हो? जीवन है तुम्हारा।‘
लोग बड़े गौरव के साथ बताते हैं, ‘एक दिन था जब मेरे पास पहनने के लिए एक ढंग की शर्ट भी नहीं थी, और अब मैं दुबई जाता हूँ और मैं बीस-बीस हज़ार की शर्ट अफ़ोर्ड कर पाता हूँ, और ये मेरे लिए बड़े गर्व की बात है।‘ इसे कहते हैं एक बेहोश ज़िंदगी, बेहोश बातें, ख़ुद का जीवन नर्क करके दुनिया को भी ख़राब करने वाले लोग। अब ये दुबई से बीस हज़ार की शर्ट लाकर के सबको यही बता रहे हैं, 'देखो एक दिन था जब मैं एक टी-शर्ट नहीं ख़रीद पाता था दो सौ की, आज मैं इसको अफ़ोर्ड कर पाता हूँ।' और बाकी सब देख रहे हैं, कह रहे हैं, ‘हम्म, हम्म।‘
फिर ऐसे लोग घर-परिवार, समाज, सब जगह छा जाते हैं, मीडिया में ये इन्फ़्लुएन्सर बन जाते हैं। और इस तरह की कहानियाँ जब वो बताते हैं कि ‘ये देखो, ये मेरा पैसा आज, देखो, देखो’, तो पूरी जनता को ऐसा लगता है जैसे जीवन का यही तो उद्देश्य है कि एक दिन आप बीस हज़ार की शर्ट अफ़ोर्ड कर पाएँ; सबको लगने लगता है।
जिस भी वजह से – भले ही वो एक सामाजिक, सांस्कृतिक या नैतिक मान्यता-भर हो – पहले पैसे का खुला, नग्न, भद्दा प्रदर्शन थोड़ा ओछा माना जाता था। अब तो लोगों का बस चले तो अपना बैंक स्टेटमेंट अपने दरवाज़े पर चिपका दें – 'आओ, देखो मेरे पास कितना है।' गीता न पढ़ने से ये होता है, बहुत जल्दी ऐसे स्टेटमेंट वहाँ चिपके हुए होंगे, आपका काम होगा उसके नीचे बस गीता का ये श्लोक लिख देना। चिंता मत करिए, बुरा नहीं मानेंगे, उन्हें नहीं समझ में आएगा, आप सुरक्षित रहेंगे। उन्हें समझ में आता होता तो वैसे क्यों हो गए होते?
फिर वहाँ से, जैसा कृष्ण ने कहा, कि आप जब देवता को पोषण देते हो तो देवता आपको पोषण देता है, ठीक उसी तरह से जब आप दानव को पोषण देते हो तो दानव और बलशाली हो जाता है आपको खाने के लिए।
अच्छा बताओ, दुबई से तुम बीस हज़ार की शर्ट लेकर के आए, उसकी वास्तविक लागत क्या है? कितनी है?
श्रोता: एक हज़ार।
आचार्य: ठीक? वो जो बाकी पैसा है वो किनके हाथ में जा रहा है? किनके हाथ में जा रहा है? क्योंकि कपड़ा तो आप जानते हो कितने का था, वो जो बाकी पैसा है वो किनके हाथ में गया? वो कैसे लोग हैं जिनके हाथ में गया, और अब वो उस पैसे का क्या करेंगे? वो उस पैसे का इस्तेमाल करेंगे इस पृथ्वी को और बड़ा नर्क बनाने के लिए।
यही चीज़ कृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम दानव को खिलाओगे, दानव तुम्हारी ही खिलाई हुई चीज़ का इस्तेमाल करके तुमको खा जाएगा।‘ अब वो तुम्हारे ही पैसे का इस्तेमाल करके तुम्हारी ज़िंदगी और नर्क बना देंगे। वो अब तुम्हारे दिए हुए पैसे का इस्तेमाल करके अब और विज्ञापन चलाएँगे; जब और विज्ञापन चलाएँगे, तो वो समाज को और ये जता देंगे कि ‘जीवन का उद्देश्य यही है – बीस हज़ार की शर्ट।‘ और भी जो कुछ लोग होते जो गीता की तरफ़ आ पाते, अब वो गीता की तरफ़ नहीं आ पाएँगे।
आपने बस अपना पैसा बर्बाद नहीं करा है, आपने पूरे समाज को बर्बाद कर दिया है ग़लत लोगों के हाथों में पैसा सौंपकर के। क्या ये बात आप देख पा रहे हैं? आपने जब किसी के हाथ में अपना बहुत सारा पैसा रख दिया, कि बीस हज़ार की शर्ट ले ली है, तो ये भी तो पूछिए कि आपका वो पैसा अब कौन इस्तेमाल करने वाला है और उसका वो क्या इस्तेमाल करेगा। उसका वो इस्तेमाल आपको ही और कष्ट देने के लिए, आपको ही और बर्बाद करने के लिए करेगा।
पर ये पता नहीं चलता न! जब आप बिलिंग करा रहे होते हैं तो ये खयाल ही नहीं आता कि आपका पैसा किसके हाथ में गया है, ये नहीं आता न उस वक़्त ख्याल? तब तो आप काउंटर पर खड़े हो जाते हो, और बड़ा अच्छा लगता है, कार्ड निकाला, दिया, उसने स्वाइप करा और आपने कहा, ‘मैं अफ़ोर्ड कर सकता हूँ।‘ ये सोचा ही नहीं कि वो पैसा किसको गया। जिसको गया, उसका आपको नाम नहीं पता, आप उसका चेहरा नहीं जानते, नहीं जानते न?
अगर आप जान जाएँ उसका नाम, अगर आप जान जाएँ उसका चेहरा, अगर आप जान जाएँ उसकी सारी करतूतें आज तक की, तो आप उसके हाथ में एक रुपया नहीं देना चाहेंगे। आप जिन ब्रांड्स के दीवाने रहते हो, आप जानते भी हो उन ब्रांड्स के मालिक कौन लोग हैं? आप जब पैसा खर्च करते हो, तो आप किसको दे रहे हो वो पैसा, कुछ जानते हो क्या? तो क्यों दे आते हो पैसा? कहीं पैसा देने से पहले ये देखोगे नहीं कि उसका इस्तेमाल क्या होने वाला है?
ये सिर्फ़ श्लोक नहीं है, कि ‘आध्यात्मिक बातें हैं, सुन लो, अच्छी-अच्छी बातें हैं, जय राम जी की।‘ इनका सम्बन्ध आपकी ज़िंदगी की एक-एक घटना से है। ये जीवनशास्त्र है, इसको बस धर्मशास्त्र मत मान लेना!
समझ में आ रही है बात?
अब, अपने लिए कितना रखना है, इसके विषय में कृष्ण कहते हैं तेरहवें श्लोक में।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
यज्ञ से जो बच जाए, उसको प्रसाद रूप से खाने वाला सज्जन पापों से मुक्त हो जाता है। लेकिन जो लोग अपने लिए ही खाते हैं, वो पाप को ही खाते हैं।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक १३
‘यज्ञ से जो बच जाए’, यानी जो यज्ञ का अवशिष्ट है, यानी यज्ञ के अवशेष-रूप में जो बचा है। सही काम में जो अधिकतम लगाया जा सकता था, पहले उसको लगा दिया, वो पहली वरियता है, वहाँ लगा दिया। उसके बाद जो बचा है, ‘उसको प्रसाद रूप से खाने वाला सज्जन पापों से मुक्त हो जाता है।‘
और फिर आगे कृष्ण कह रहे हैं, ‘लेकिन जो लोग अपने लिए ही खाते हैं, वो पाप को ही खाते हैं।‘ जो देवत्व को देने के बाद जो अवशेष बचा, उसका भोग कर लेता है, वो पाप से मुक्त हो जाता है। लेकिन जो देवता को खिलाने से पहले स्वयं ही खा जाता है, वो भोजन को नहीं, संसाधन को नहीं, वो पाप को ही खाता है – पाप की ये व्यावहारिक परिभाषा है।
पाप क्या है? तुम्हारे पास जो कुछ था, उसको सही जगह पर लगाने की जगह तुमने उसका व्यक्तिगत उपयोग कर डाला, यही पाप है। देवता को खिलाने की जगह तुम ख़ुद खा गए, यही पाप है। ख़ुद खा गए माने कौन खा गया? दानव। अब दानव को खिलाने को पाप नहीं कहेंगे तो और क्या है? दानव को खिलाने को पाप नहीं कहें तो क्या कहें? और वो पाप सिर्फ़ व्यक्तिगत तल पर नहीं है; अभी हमने बात करी, जब आप उस दानव को खिलाते हैं तो ये आपका कोई निजी मसला नहीं रह जाता, वो और ताक़तवर होकर के पूरे समाज को खा जाता है।
समझ में आ रही है बात?
ये प्रतीक हैं सारे। जो इनका अर्थ समझ गया वो जीवन के एक भी पल में कोई ग़लत कदम नहीं बढ़ा सकता, कर्म ग़लत या निर्णय ग़लत नहीं कर सकता।
निष्काम कर्म माने यज्ञ है, जीवन को यज्ञ की तरह जियो। जो आवश्यक है वो करो, उसके बाद भी अगर कुछ बच जाए तो उसको प्रसाद मान लो, कि ‘चलो, अब मिल गया है, इसको ठुकराएँगे नहीं, संयोगवश मिल गया है। हमारी इच्छा नहीं थी कि ये मिले, पर मिल गया है तो चलो भोग लेंगे। कुछ नहीं मिला, तो तृप्त हैं; कुछ मिल गया, तो ठीक है। लेकिन एक बात निश्चित है, हमारे पास जो कुछ भी है, उस पर पहला अधिकार देवता का होगा।‘
और देवता माने क्या? देवता माने आपका ही वो हिस्सा जो आप जानते हैं सत्य की ओर झुका हुआ है, हम उसको देवता कह रहे हैं। ये स्पष्ट है? देवत्व माने क्या? जो सही है, जो सच्चा है, जो जीवनमुखी है आपके भीतर, उसे देवता कहते हैं।
एक पुरानी कहानी है जिसको लेकर के लोगों में बड़ा विस्मय रहता है। चीन में हुआ था ऐसा, मेरे ख्याल से चुआंग ज़ू ने सुनाई है। तो कहानी ये है कि एक बार एक बड़ा अमीर आदमी होता है। एक गाँव है, गाँव में गरीबी फैली हुई है। एक अमीर आदमी है मस्त, और उसकी बड़ी अपनी कोठी-वोठी है, भवन वगैरह है। तो एक चोर आता है और उसके यहाँ चोरी करके चला जाता है। तो वो अमीर आदमी फ़रियाद करता है, चोर पकड़ा जाता है, और ये मामला जाता है, मेरे ख्याल से शायद इसमें चुआंग ज़ू को ही वज़ीर बना देते हैं, वही निर्णय करता है। तो चुआंग ज़ू फ़ैसला सुनाता है कि ये जो चोर है, जो चोरी करके भागा था, इसको पचास कोड़े, और ये जो सेठ है, इसको सौ कोड़े।
चुआंग ज़ू को गीता पता थी, चुआंग ज़ू ने कर्मयोग का श्लोक-क्रमांक बारह पढ़ा हुआ था, चुआंग ज़ू को चोर की वास्तविक परिभाषा पता थी। चुआंग ज़ू ने कहा, ‘कृष्ण बता गए हैं कि वास्तविक चोर कौन है, वास्तविक चोर तो ये सेठ है।‘ चोरी सिर्फ़ इसमें नहीं है कि तुमने किसी का माल हड़प लिया, चोरी इसमें है कि जो माल देवताओं का था वो तुमने हड़प लिया। ये जो सेठ इतनी दौलत इकट्ठा करके बैठा है, और इसको भोगता ही जाता है, भोगता ही जाता है, सबसे बड़ा चोर तो ये है। क्योंकि तुम्हारे पास अगर दौलत है तो तुम उसे ख़ुद भोग क्यों रहे हो? उसको सही जगह लगाओ न!
समझ में आयी बात?
हालाँकि अगर मुझे सही याद है तो इसमें कहानी ये भी है कि जब उसने निर्णय दे दिया तो राजा ने उसको हटा भी दिया, कि ‘ये ऐसे कैसे निर्णय दे रहा है!’ पर बात बिलकुल ठीक थी कि नहीं, ज़्यादा बड़ा चोर कौन था? सेठ। वो जो चुराकर भागा वो भी चोर है, पर वो छोटा चोर है, ज़्यादा बड़ा तो वो है जो सब छुपाए बैठा है, और खाए जा रहा है, खाए जा रहा है। जो खाए जा रहा है, वो सबसे बड़ा चोर है।
“तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।”
जिसके पास जाकर के उस अन्न की, उस धन की सार्थकता है, उसको सौंप दो; उसके बाद कुछ बचे तो उसे प्रसाद-रूप में ग्रहण कर लो, बस।
तुम नहीं खाते, कौन खाता है? दानव खाता है। कैसा लगेगा जब जीवन के किसी बिंदु पर पता चलेगा कि जीवन की कुल उपलब्धि ये है कि दानव-भोज बिछाते थे हम रोज़, कि जीवन-भर क्या किया? ‘राक्षस पाले, और पाल-पाल कर, पोस-पोस कर उनको इतना विकराल कर दिया कि वो पूरी पृथ्वी को खाए जा रहे हैं, ये हमारी उम्र-भर की उपलब्धि है।‘ कैसा लगेगा?