वास्तव में जागना तब हुआ जब कृष्ण दिखने लगें || श्रीमद्भगवदगीता पर (2020)

Acharya Prashant

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वास्तव में जागना तब हुआ जब कृष्ण दिखने लगें || श्रीमद्भगवदगीता पर (2020)

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:।।

जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है, वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ६९

प्रश्नकर्ता: जब मुनि जागता है, तब संसार सोता है और जब संसार जागता है, तब मुनि सोता है। इसका अर्थ मुझे गहराई से समझ नहीं आ रहा।

आचार्य प्रशांत: जिसको आप जगना और सोना कहते हो, वो दोनों ही एक प्रकार का सोना है। एक अंधेरा वह है जो तब छाता है, जब हम आँख बंद कर लेते हैं, आँख बंद कर लेते हो तो अंधेरा-ही-अंधेरा है और दूसरा अंधेरा वह है जो तब छाता है, जब हम आँख खोल लेते हैं, भले ही बाहर सौ सूर्यों का प्रकाश हो। आदमी भेद तो करता है पर ग़लत जगह भेद कर लेता है।

आदमी कहता है, "सोए हम तब हैं, जब आँख बंद है और जगे हम तब हैं, जब आँख खुली है।" अध्यात्म भी भेद करता है, पर वो कहता हैं, "ना! आँख खुली है, तुम तब भी सोए हुए हो और आँख बंद है, तुम तब भी सोए हुए हो।" जगे तुम सिर्फ़ तब जब कोई और आँख खुली हो। क्योंकि ये जो तुम्हारीं दो आँखें हैं, ये तो बाहर की ओर ही देखती हैं, ये खुली हों या बंद हों, तुम सो ही रहे हो। बल्कि जगी आँखों से जो तुम नींद लेते हो, वो ज़्यादा ख़तरनाक नींद है। सोते समय तुममें कम-से-कम इतनी तो विनम्रता है कि कह देते हो कि, "अभी मैं अज्ञान में हूँ, मैं सोया हुआ हूँ, अंधेरे में हूँ।" आँख खोल लेते हो तो फिर तो दर्प (गर्व) से भर जाते हो बिलकुल, कहते हो, “अभी तो मैं जगा हुआ हूँ, मुझे सब समझ में आ रहा है, मेरी आँखें खुली हुई हैं, मैं होश में हूँ।”

अध्यात्म कहता है – आँख बंद, आँख खुली, तुम हो बेहोश ही दोनों हालत में। जगे तुम सिर्फ़ तब हो जब भीतर की ओर जो आँख देखती है, वो खुल जाए। उसी का प्रतीक फिर बनाई गई तीसरी आँख। तीसरी आँख कुछ होती नहीं है। यहाँ नहीं होती है (भौहों के बीच में इशारा करते हुए)। कोई सोचे कि यहाँ रगड़ोगे तो तीसरी आँख खुल जाएगी, यहाँ कोई तीसरी आँख नहीं है। यह मत करने लग जाना, कई लोग करते हैं, वो यहाँ घिसना-विसना शुरू कर देते हैं।

यह ऐसी ही बात है कि आप चुनाव में वोट देने जाओ और आपकी उँगली पर, नाखून पर स्याही का निशान बनाया जाए, और फिर आप घर आओ, आपका बच्चा आपसे पूछे कि, "जनतंत्र दिखाओ, समझाओ।" तो आप उँगली पर लगा हुआ निशान दिखाते हुए बोलो कि, "यह होता है जनतंत्र।" अरे! यह क्या है, यह निशान भर है, यह जनतंत्र थोड़े ही है।

तो वैसे ही इस माथे में यहाँ कोई आँख नहीं खुल जानी है, न वहाँ रगड़कर कुछ मिल जाना है। वो प्रतीक है यह बताने के लिए कि तुम्हारी ये दोनों आँखें नाकाफ़ी हैं, इन आँखों से तुम्हें संसार भर दिखता है; संसार को देखने वाला नहीं दिखता है। ये दोनों आँखें नाकाफ़ी हैं, यह बताने के लिए तीसरी आँख के प्रतीक का निर्माण किया गया। बात समझ में आ रही है?

तो ‘जब पूरी दुनिया सो रही है, तब संयमी जगा हुआ है’, इसका मतलब यह नहीं है कि वो रात्रि जागरण करता है। मुझे लोग मिले हैं जो यह अर्थ भी लगाते हैं, बोलते हैं, “इसका अर्थ तो रात्रि साधना से है न, कि जब सब भूतों के लिए अर्थात् सारे जगत के लिए रात होती है, तब संयमी जगता है। ज़रूर इसका मतलब यही है कि रात भर जागना चाहिए।” नहीं, बाबा! कृष्ण इससे बहुत आगे की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, “तुम जगो, चाहे तुम सोओ, तुम सोए ही हुए हो; बल्कि जब तुम जगा हुआ समझ रहे हो अपने-आपको, तब तुम्हारी नींद और ज़्यादा बुरी है, और गहरी है।” वास्तव में जग जाओ। वास्तव में जगना किसको कहते हैं? वास्तव में जगना उस स्थिति को कहते हैं जिस स्थिति की ओर कृष्ण अर्जुन को ले जा रहे हैं।

वास्तव में जगना तब है, जब तुम्हें कृष्ण दिखाई देने लग जाएँ।

वहाँ कुरुक्षेत्र में वो जो हज़ारों, लाखों योद्धा खड़े हुए हैं, सैनिक इत्यादि, उनकी आँखें सबकी खुली हैं कि बंद हैं? ये दोनों (अपनी आँखों की ओर इशारा करते हुए) चेहरे वाली आँखें खुली हैं न, पर उन्हें कृष्ण दिख रहे हैं क्या? दिखकर भी नहीं दिख रहे। तो तीसरी आँख का खुलने का अर्थ होता है कि तुम्हें कृष्ण दिखने लग जाएँ, तब हुआ तीसरी आँख का खुलना।

चाहे दुर्योधन हो, चाहे भीम हों, दोनों को ही कृष्ण वास्तव में दिख रहे हैं क्या? नहीं दिख रहे न? तीसरी आँख खुलने का मतलब है कि तुम्हें कृष्ण दिखने लग गए। और कृष्ण साफ़-साफ़ कहते हैं सातवें या आठवें अध्याय में कि “ज़्यादातर लोग तो मुझे पहचान ही नहीं सकते, वे मुझे भी यही समझते हैं कि मैं उन्हीं के जैसा कोई साधारण मनुष्य हूँ”, और उसी का प्रमाण है रणक्षेत्र। सामने कृष्ण हैं और सब यही सोच रहे हैं कि, "कृष्ण भी तो हमारे जैसे कोई साधारण मनुष्य हैं", सामने हैं लेकिन दिखाई नहीं दे रहे।

और संयम का क्या अर्थ है?

संयम का अर्थ धैर्य नहीं है, अध्यात्म की भाषा में संयम का अर्थ ध्यान होता है। अगर पतंजलि का योगसूत्र पढ़ोगे तो वहाँ साफ़ समझ में आएगा कि संयम किसको कहते हैं, वो समझाते हैं कि संयम का अर्थ है – सही विषय पर पूरी तरह केंद्रित हो जाना। यह संयम कहलाता है।

अध्यात्म कहता है कि एक ही वस्तु है, एक ही विषय है जिस पर संयम किया जा सकता है, और वह क्या है? सच्चाई, गीता की भाषा में 'कृष्ण'। उनके अलावा किसी पर संयम करना व्यर्थ है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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