प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, आध्यात्मिक साहित्य हैं या पढ़ते-पढ़ते आ रहे हैं, उसमें साधु-संत ने कामवासना को ग़लत बताया और नियंत्रण की सलाह दी। तो यदि ये ग़लत है तो ये काम है ही क्यों? और हमें यौनांग मिला ही क्यों?
आचार्य प्रशांत: उसी में एक बात और कहते हैं। कहते हैं, 'भगवान ने क्यों बनाई?' अगर ये चीज़ इतनी बुरी होती तो भगवान इसको बनाते ही क्यों?' मैं भगवान की बात इसलिए ला रहा हूँ क्योंकि किसने बनाई ये जानना ज़रूरी है, ये समझने के लिए कि क्या है।
प्राकृतिक चीज़ है, ये प्रकृति ने दी है; भगवान इत्यादि से नहीं आई है। क्यों है? शरीर को है। तुम सिर्फ़ ये नहीं पूछते न कि क्यों है! तुम कहते हो, 'अगर बुरी है तो मुझमे क्यों है।' तुम में नहीं है, शरीर में है। ग़लती इसमें नहीं है कि वासना वगैरा है। ग़लती इसमें है कि तुम सोच रहे हो कि तुमको है; तुमको नहीं है, शरीर को है।
तुम्हारा प्रश्न ये है कि ये अगर ग़लत चीज़ है तो है ही क्यों। वो अपनेआप में चीज़ ग़लत नहीं है, शरीर के लिए है और शरीर के लिए उपयोगी है क्योंकि शरीर को आगे बढ़ना है। शरीर को आगे बढ़ना है तो उसके लिए उसे वासना चाहिए। शरीर के लिए है और शरीर के लिए ठीक है। तुम्हारे लिए ग़लत है क्योंकि तुम शरीर नहीं हो। और तुम शरीर के चक्करों में जब फँस जाते हो तो दुःख पाते हो।
शरीर तो एक यंत्र है, एक उपकरण है जिसको अपना काम करना है। प्रकृति ने उसको बना दिया है, उसको अपना काम पूरा करना है, काम पूरा करके उसकी एक्सपायरी (ख़त्म होना) हो जानी है। वो बनी-बनाई चीज़ है, प्रकृति की फैक्ट्री से आती है, पहले से ही उसमें एक्सपायरी डेट लिखी होती है और चली जाती है; ये शरीर का काम है।
तुम्हारा प्रश्न ऐसा है कि कोई कहे कि आचार्य जी, क्या हार्न और बम्पर बुरी चीज़ होते हैं। कार के लिए हैं, कार आगे बढती रहे इसमें काम आते हैं। सुरक्षा से, सहुलियत से कार आगे बढ़ती रहे उसके लिए हॉर्न होता है, और बम्पर होता है।
पर तुम अब कार ही बन जाओ, तुम कार से अलग अपना कोई वजूद ही न रख पाओ। और तुम दिनभर क्या करो, जा करके किसी को बम्पर से ठोको और हॉर्न बजाओ। यही तुम्हारी ज़िंदगी बन जाए, दिनभर यही कर रहे हो। बम्पर ठोक रहे हैं फिर हॉर्न बजाया; बम्पर से मारा फिर हॉर्न बजाया। या पहले हॉर्न बजाया जब हटा नहीं तो जाकर बंपर से मार दिया।
तुम यही बन जाओ तो तुमने अपनेआप को ख़राब कर लिया न? तुममें और कार में हमेशा कुछ अंतर होना चाहिए। वैसे तुममें और शरीर में कुछ अंतर होना चाहिए।
शरीर की अपनी एक प्रक्रिया है, वो शरीर की है, तुम इसमें इतने लिप्त मत हो जाओ। तुम उसको इतना महत्व मत देने लगो कि यही तो जीवन है, यही तो जीवन है। शरीर के एक तल के इरादे हैं और तुम्हारा जो इरादा है, केंद्रीय वो बिलकुल दूसरा है।
शरीर के क्या इरादे हैं? शरीर के ये इरादे हैं कि यहाँ पर (सत्र में) आचार्य जी बात भी कर रहे हों तो भी शरीर को जाना मुत्रालय की ओर है; ये तो शरीर के इरादे हैं।
कैसा है शरीर, समझो! शरीर की भी अपनी एक प्री-प्रोग्राम्ड ऑब्जेक्टिव (पूर्व क्रमादेशित) है उसका। शरीर भी कुछ इरादे लेकर के चलता है। और कैसे हैं इरादे समझो न शरीर के। यहाँ कितनी भी ऊँची बात हो रही हो, शरीर को क्या चाहिए? मूत्रालय।
देवालय से उठकर शरीर किधर को भाग गया, मुत्रालय; ये शरीर है। यही किया न उसने? आपका इरादा क्या था, कहाँ बैठने का? देवालय में। और शरीर का क्या इरादा था, चलो मुत्रालय चलो। और उधर मुत्रालय की ओर गया होगा, उधर-उधर कहीं कैंटीन होगी तो उधर को भी ज़रा — जब भोजनालय भी देख लें।
(श्रोतागण हँसते हैं)
और वहाँ कोई चलती-फिरती दिख गई होगी तो स्वप्नालय की ओर भी चल दिया होगा। वो कहाँ अंदर जा रहे हैं? सपनों की दुनिया तो उधर है; ये शरीर है।
ये भेद समझना बहुत ज़रूरी है कि शरीर के इरादे दूसरे हैं, आपके इरादे दूसरे हैं। आप चाह रहे हो कि आपको चेतना की तृप्ति मिले, और शरीर चाह रहा है कि उसको मूत्रालय, शौचालय, भोजनालय ये सब मिले, उधर जाकर के। जिसने ये समझ लिया, वो ये भी जान जाएगा कि कामवासना को जीवन में क्या स्थान देना है।
आप ये भी नहीं कर सकते कि मूत्रालय गए ही नहीं, और थोड़ी देर में लोग यहाँ पर इधर-उधर देख रहे हैं कि कहाँ से आ रही है (दुर्गंध)। तो बीच-बीच में जाना भी पड़ेगा, पर ये भी नहीं कर सकते कि वहीं घर बना लिया।
खाना भी खाना पड़ता है। और ये नहीं कर सकते न कि वही जीवन का उद्देश्य बना लिया, कि क्या कर रहे हो? जी किसलिए रहे हो? खाने के लिए जी रहे हैं। अरे, भाई! वो शरीर की चीज़ है उसको दे दो, आगे बढ़ो!
कबीर साहब कहते हैं, 'ये सब जो शारीरिक, वृत्तियाँ होती है न, ये भूखी कुतिया जैसी होती हैं। इसको ऐसे (रोटी फेंकने का अभिनय करते हुए) रोटी फेंक देनी चाहिए, नहीं तो भौंकती बहुत है।' जब भौंकने लग जाए तो इसको ऐसे रोटी फेंक दो बस। लेकिन ये थोड़े ही उसको गोद में बैठा लिया, और उसको लगे चाटने। और दिनभर क्या कर रहे हैं? 'लाडो है, इसको पाल रहे हैं।'
रोटी नहीं फेंकोगे तो भी वो परेशान करेगी। बीच-बीच में उसको फेंक दो, 'ले, रोटी खा, चुप हो जा।' तो एक सम्यक् सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है, शरीर के साथ। क्योंकि वो सम्यक सम्बन्ध नहीं रखोगे तो परेशान भी तुम ही होओगे। तुम अगर चेतना हो तो ये भी जानते हो न, कि चेतना आश्रित तो शरीर पर ही है, शरीर ठीक नहीं रखा तो फिर चेतना ही हाय-हाय करेगी। शरीर टूट जाता है, तो दुख तो तुम्हें होता है न?
ये थोड़े ही कहते हो – शरीर को दुख हो रहा है। क्या कहते हो? 'मैं दुख में हूँ। आज मैं बहुत दुखी हूँ', 'क्यों?' 'पाँव टूट गया।' पाँव टूट गया तो पाव दुखी होता है? कभी कहते हो, आज मेरा पाँव बहुत दुखी है? कभी कहा है? पाँव टूटता है, दुखी कौन होता है? दुखी 'मैं' होता है। शरीर टूटा, दुखी चेतना हुई।
तो इसलिए शरीर को एक जगह देनी ही पड़ेगी। देनी भी है और बहुत ज़्यादा भी नहीं दे देनी है। उसे एक जगह देनी भी है, और बहुत ज़्यादा भी नहीं दे देनी है; सही जगह देनी है। दोनों अर्थों में कि कितनी देनी है और कहाँ देनी है।
तो पहली बात कम देनी है, और निचले तल पर देनी है। कितनी देनी है जगह? कम देनी है। और कहाँ देनी है? निचले तल पर देनी है। निचले तल पर देने से मेरा क्या आशय है? मेरा ये आशय है कि अलार्म बज रहा है परीक्षा देने जाना है। शरीर कह रहा है, 'सो जाओ'; चेतना कह रही है, 'उठ जाओ।'
इन दोनों में नीचे किसकी बात को रखना है? शरीर की बात को। तो शरीर को कहाँ जगह देनी है? नीचे देनी है। शरीर जो बोलेगा वो बात नीचे रखी जाएगी, चेतना जो बोलेगी वो बात ऊपर रखी जाएगी। शरीर तो यही कहता है — 'खाओ-पीओ मौज करो; सो जाओ।' कुछ नहीं करना है और सो जाओ। एक-दो ऐसे भी हुए हैं, धुरंधर वो यहाँ (सत्र में) आकर सो गए। शरीर तो यहाँ भी सुला दे।
कम दो और नीचे दो, लेकिन ये नहीं कर पाओगे कि शून्य जगह दो। अब क्यों उसको जगह देनी है? एक तो हमने ये कहा कि उसको जगह नहीं दोगे तो परेशान करेगा — ये हुआ नकारात्मक कारण। कि वो कुतिया है उसको रोटी नहीं डालोगे, तो भौंकेगी; तो ये नकारात्मक कारण है। एक सकारात्मक कारण भी है, वो क्या है? अगर तुमने उसको ठीक से पाल लिया, तो वो काम भी आएगा।
यही जो शरीर है, ये तुम्हारा सेवक बनकर तुम्हारे लिए बड़े कामों में सहयोगी हो सकता है। तुम ज़िंदगी में अगर कुछ ऊँचा काम करना चाहते हो, तो उसमें ये तुम्हारा अच्छा सेवक बन जाएगा, मित्र बन जाएगा। तुम जो भी कुछ करना चाहते हो, उसमें ये मदद करेगा तुम्हारी। तो इसके साथ ये एक सूक्ष्म बात है कि कैसा रिश्ता रखना है? इसको सिर पर भी नहीं चढ़ा सकते, साथ-ही-साथ इसके साथ एक अच्छा रिश्ता भी रखना है।
समझ में आ रही है बात?
संतों ने जो कामवासना की बुराई करी है, वो उन लोगों के लिए करी है जिन्होंने इसको सिर पर चढ़ा लिया। उनसे कहा गया है, 'ये क्या तुमने कुतिया को सिर पर बैठा लिया है! इसको सिर पर नहीं बैठाते।'