उत्कृष्टता कैसे लाएँ जीवन में?

Acharya Prashant

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उत्कृष्टता कैसे लाएँ जीवन में?

आचार्य प्रशांत: बिना सोचे रिफ्लेक्शन (अवलोकन) लिखना, देखना लिख पाते हो कि नहीं। बस जब लिखा जा रहा हो तो रोक न देना उसको कि साबित करने के लिए कि लिखा ही नहीं जा सकता।

दुनिया की एक-एक कविता ऐसे ही लिखी गयी है। कवि हाथ को ढीला छोड़ देता है और कविता फिर उतरने लगती है। ऊँची कविताएँ होती हैं उनका इलहाम होता है, उतरी हैं – उपनिषद्, गीता, क़ुरान। यह कैसे आती हैं? ऐसे ही तो आती हैं। तुमने छोड़ दिया, वो उतर आयीं। तुम लिखोगे तो कुछ भद्दा सा लिख दोगे, उतरती है तो कुछ चीज़ दूसरी होती है।

जानते हो, मैं अपनी कोई किताब नहीं पढ़ता। सभी किताबों में बड़ी त्रुटियाँ हैं। मैं उनको पढूँ तो उन्हें ठीक भी कर सकता हूँ पर मैं उनको पढ़ता ही नहीं। इसी तरीक़े से मैं अपने वीडियो नहीं देखता, कभी भी नहीं, कभी भी नहीं। बड़ा दुःसाहस हो जाएगा, बड़ी बेअदबी हो जाएगी। जो चीज़ मेरी है नहीं उसके ऊपर ऐसे नज़र डालना जैसे कि मेरी हो, बड़ी बदतमीज़ी है। तो मन ही नहीं करता।

तुम कह रहे हो कि तुम नहीं लिखोगे तो आधे पन्ने का रिफ्लेक्शन नहीं आएगा। यहाँ तीन हज़ार वीडियो आ गये, बिना बोले। वैसे यह है बड़ी नाइंसाफी, चीज़ अपनी है नहीं और कष्ट अपने को झेलना पड़ता है। बोल के उठो तो मुँह अपना सूख रहा होता है, प्यास ख़ुद को लग रही होती है। सरोगेट मदर (प्रतिनियुक्त माता) जैसा हिसाब- किताब है। बच्चा किसी और का और हम ढो रहे हैं।

हममें से ज़्यादातर लोग ज़िंदगी में किसी भी तरह की ऊँचाई से इसीलिए वंचित रह जाते हैं क्योंकि हम अपनेआप को कस के पकड़े रहते हैं। जब तक आप अपनेआप से बड़े जुड़े हुए हैं, तब तक एक्सीलेंस (उत्कृष्टता) नहीं आ सकती आपके जीवन में। एक्सीलेंस तो एक ही जगह से आती है कि आप हटिए, फिर जो काम होगा एक्सीलेंट होगा, उत्कृष्ट होगा। आप हटते नहीं हैं, काम ऐसे सा ही रहता है।

प्रश्नकर्ता: हटने में डर लगता है।

आचार्य प्रशांत: हटने में डर लगता है। हमारे सारे काम मझौले (औसत) स्तर के रहते हैं, औसत स्तर के। जैसे कोई औरत हो और उसका कोई बच्चा और उसको पता है कि वो उस बच्चे के लिए ख़ुद कोई अच्छी शिक्षक नहीं हो सकती, लेकिन वो बच्चे से इतना जुड़ी हुई हो कि कहे कि भले बच्चे का नुकसान हो जाए पर मैं इसे किसी और को नहीं सौपूँगी, मैं रास्ते से नहीं हटूँगी।

आप जिस से जुड़ जाते हो आप उसकी प्रगति रोक देते हो। जब आप अपनेआप से जुड़ जाते हो तो आप अपनी ही प्रगति रोक देते हो।

प्रश्नकर्ता: जैसे आप कह रहे थे कि ख़ुद की पुस्तकें मैं ख़ुद नहीं पढ़ता क्योंकि करेक्शन (शुद्धि) करने लग जाऊँगा। तो ऐसा ही कुछ लगता है कि वहाँ से निकलेगा तो ग़लत भी हो सकता है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, मैं ख़ुद का इसीलिए नहीं पढ़ता कि करेक्शन करने लग जाऊँगा; वो बात दूसरी थी। तार्किक तौर पर देखें तो ज़रूरत है कि मैं उन किताबों को पढूँ क्योंकि उनमें जब ट्रांसक्रिप्शन (अनुलेखन) वगैरह सब हुआ है तो त्रुटियाँ हैं। तो तार्किक तौर पर, बौद्धिक तौर पर ज़रुरत है कि कोई बैठे और उन सबको ठीक करे, लेकिन फिर भी मैं उनको देखता नहीं हूँ।

उनको देखना, जज (आकलन) करना बदतमीज़ी हो जाएगी न क्योंकि आप देखोगे तो भीतर यह ख़याल भी उठेगा न कि अच्छा इस बात को ऐसे बोल देते, वैसे बोल देते। यह क्यों कहा? अब वो ठीक नहीं है।

प्रश्नकर्ता: कई बार ऐसा ख़याल आता है कि वहाँ से स्पॉन्टेनियसली (अनायास) हो जो भी निकले। फिर ऐसा लगता है कि यह वाक़ई स्पॉन्टेनियसली निकल रहा है या मैं ख़ुद को धोखा दे रहा हूँ।

आचार्य प्रशांत: हमारे पास स्पॉनटेनिटी की भी तो छवि है न। स्पॉनटेनिटी को लेकर भी हमारे पास ख़याल है कि दिस इज कॉल्ड स्पॉनटेनिटी (यह स्पॉनटैनिटी है)। स्पॉनटेनिटी हो सकता है वैसी होती ही न हो जैसी तुम सोचते हो। स्पॉनटेनिटी का तो शायद तुम कुछ ऐसा मतलब समझते हो कि जैसे बटन दबा दिया है और कुछ भड़ा-भड़, भड़ा-भड़ अकस्मात बहने लग गया।

प्रश्नकर्ता: एक बिना मतलब का डर लगता है कि जैसे जो भी सिखाया गया है, वो फॉलो (अनुकरण) नहीं कर रहे होते उस समय। जैसे आप ने भी जो बोला होगा वो भी मैं फॉलो नहीं कर रहा होऊँगा।

आचार्य प्रशांत: कोई ज़रूरी नहीं है। ऐसा नहीं है कि स्पॉनटेनिटी में तुम कुछ फॉलो नहीं कर रहे होते या दुनिया जैसे एक दम ही पीछे छूट जाती है। इसी को कहा मैंने कि तुम्हारे पास एक इमेज (तस्वीर) है स्पॉनटेनिटी की भी इसीलिए डरते हो। स्पॉनटेनिटी से नहीं, स्पॉनटेनिटी की छवि से डरते हो।

हम चीज़ों की पहले तो छवि बनाते हैं और फिर उन चीज़ों से ख़ुद ही डर जाते हैं। जैसे यह प्रसन्ना बैठा है, यह अपनी हथेली पर पहले तो एक शक्ल बनाए अपनी ही और फिर उस शक्ल को देखकर चीखें मारे कि हाय! यह कौन है। पहली बात तो तुमने बनायी, दूसरी बात अपनी ही शक्ल बनायी, तीसरी बात अपनी ही हथेली पर बनायी और अब डरे बैठे हो कि हाय-हाय! यह कौन आ गया।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप जो स्पॉनटेनिटी शब्द बोल रहे हैं, उसका आपके लिए कुछ अलग अर्थ है और मेरे लिए मैंने कोई अलग छवि बना रखी है, तो वो गैप (रिक्ति) का क्या?

आचार्य प्रशांत: यह दुश्वारी तो रहती है। वो गैप तो रहेगा। उसका तो यही है कि छलांग मारो। कुछ चीज़ें तो तभी पता चलती है जब वो होती हैं। उनका वर्णन,उनके बारे में जानकारी तुम्हें ज़्यादा कोई नहीं समझा पाएगा। स्पॉन्टेनिटी में ऐसा नहीं होता कि तुम जितनी स्मृतियाँ, जितना ज्ञान था सब बिलकुल पीछे छोड़ आये। वो रहता भी है और नहीं भी रहता है।

अगर सारा ज्ञान तुम स्पॉनटेनिटी में पीछे छोड़ आओगे तो कुछ भी बोलोगे कैसे? क्योंकि भाषा भी तो ज्ञान है। तो स्पॉन्टेनिटी में ज्ञान रहता भी है और नहीं भी रहता। इतना पक्का है कि तुम ज्ञान के ग़ुलाम नहीं रहते उसमें।

जो किताबें वगैरह तुमने पढ़ी हैं, उन किताबों ने तुम्हें यह आश्वासन दे दिया है, यह भ्रम दे दिया है कि शब्दों से और खोपड़े चला-चला कर शान्ति मिल जानी है। क्योंकि किताब के पास तो और कुछ होता नहीं है। किताब के पास क्या होता है और? तो वो तुम्हें भरोसा भी यही देती है कि इन शब्दों से ही हो जाएगा काम। उनसे होता नहीं है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हमारे लिए हर चीज़ शब्द ही तो है।

आचार्य प्रशांत: पर उससे काम होगा नहीं। एक तो बड़ी भूल यह होती है कि जो बात किसी ने एक दफ़े बोल दी, उसको बार- बार पढ़ा जाए।

जो बात एक दफ़े बोली गयी, वह उस समय किसी एक से, उस क्षण में कही गयी। वहीं उसका जन्म हुआ, वहीं उसकी मौत हो गयी, वहीं उसने अपना काम पूरा कर लिया। अब बाद में तुम उसको बार-बार पढ़ रहे हो तो ऐसा है जैसे किसी की लाश को पढ़ रहे हो।

प्रश्नकर्ता: तो सर फिर आपकी बुक्स (किताबें) पढ़ते हैं तो फिर उसका क्या?

आचार्य प्रशांत: तो तुम्हें यहाँ किस लिए बुलाया है, किताब पढ़ने को? किताब इसीलिए है कि यहाँ आ जाओ। अब आ गये न, तो जाकर पानी में लोट जाओ। किताब का काम हो गया। किताब इसीलिए थोड़ी है कि किताब में डूबे रहो। किताब इसीलिए है कि आकर के पानी में डूब मरो।

किताब का मालूम है कैसा है?

समझ लो ऐसा है कि जैसे प्रेम का मौका हो और तुम किसी से गले लग लिए और चूम-चाम लिया। और उसका वीडियो बनता हो और बाद में तुम वीडियो देख-देख कर काम चला रहे हो। उस क्षण में जितना स्वास्थ्य था, बाद में बार-बार वो विडियो देखना उतनी ही बड़ी बीमारी है। और यहाँ तो तुम वीडियो भी अपना नहीं देख रहे हो, किसी और का देख रहे हो।

कोई दो लोग मिले थे, उनमें प्रेम हुआ था। तुम उसकी रिकॉर्डिंग देख-देख करके सोच रहे हो कि तुम्हें फ़ायदा हो जाएगा। यह करीब-करीब पोर्नोग्राफी है।

किसी गुरु ने किसी शिष्य से प्रेम के क्षण में कुछ बात कही, वो कोई ग्रन्थ बन गया। अब तुम कौन हो जो उस ग्रन्थ में मुँह डाल रहे हो? दो लोगों के प्यार में पनपी बात थी, दो लोगों की सहजता, दो लोगों की समीपता, उससे वो बात उठी थी।

और तुम हो कौन जो तुम उसमें घुसे जा रहे हो और तुम्हें उससे मिल क्या जाएगा? तुम्हें उससे वही मिल जाता है फिर कि मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि नीचे क्या हो रहा था।

अर्जुन है, कृष्ण हैं। अरे भाई! उनका एक अंतरंग सम्बन्ध है। और वो बातचीत कर रहे हैं और उनकी बातचीत ख़त्म हो गयी। उसके हज़ारों साल बाद तुम उसमें मुँह दे रहे हो, तुम्हें क्या मिलना है? या तो तुम अर्जुन हो या तुम्हारा भी कृष्ण से कोई प्रेम का नाता हो। वो सब है नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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