प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आज कबीर साहब का भजन एक गाना चाहेंगे शुरू में कि
’प्रेम प्याला जो पिए शीश दक्षिणा दे, लोभी शीश ना दे सके नाम प्रेम का ले।’
अभी बीच में हमने वही किया। शीश तो हम नहीं दे पा रहे हैं, प्यार का दावा कर रहे हैं आपसे। यही हमें समझ में आया कि गलती तो हो गई हमसे मोहब्बत में…
आचार्य प्रशांत: नहीं नहीं गलती आपसे पहले मैंने करी होगी। शीश देने में पहले कहीं मुझसे अभी थोड़ी चूक हो जा रही है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन मैं अपनी देख पा रहा हूं कि प्रेम में गलती हुई है मुझसे।
आचार्य प्रशांत: जब मैं आपके सामने बिल्कुल सही उदाहरण रख पाऊंगा तो फिर आप भी करेंगे। अभी कहीं ना कहीं मेरी ओर से ही खोट है। देखता हूं और करूंगा। बस यही था कि इस बात के लिए इन्होंने डांट खाई थी।
प्रश्नकर्ता: प्रश्न मेरा यह है कि जब से हम आपको सुनना शुरू किए हैं। पांच- सात साल से मैं कभी रोया नहीं हूं। अब जब कबीर साहब को गाता हूं कभी जाते रास्ते में तो रोना बहुत आता है। जीवन में और कुछ बदल नहीं पाया हूं। जीवन जो कड़े प्रश्न ले आ रहे हैं सामने दिन प्रतिदिन
आचार्य प्रशांत: पता नहीं चलता ना क्यों रो रहे हैं?
प्रश्नकर्ता: नहीं चलता।
आचार्य प्रशांत: इसका मतलब यह है कि बात वहां जाकर असर कर रही है जहां अंधेरा है। ठीक है? जो मॉडर्न साइकोलॉजी रही है, मॉडर्न माने बिल्कुल पिछले 10-20 साल की नहीं। पिछले 10-20 साल की तो जो है उसके मुद्दे अब थोड़े अलग हो गए हैं। लगभग पिछले 50 से 100 साल की। उसने हमको बताया है कि हमारी जो समस्या है वो वहां है ही नहीं जहां तक हम जानते हैं स्वयं को। लगभग ऐसे कि जैसे यहां पर आज एयर कंडीशनिंग की समस्या थी। गरम-गरम लग रहा था। तो यहां गरम गरम क्यों हो गया था?
आप लोग गरमा गरम है इसलिए नहीं। समस्या यहां थी ही नहीं। अनुभव यहां हो रही थी। समस्या यहां बेसमेंट में कहीं कोई पावर प्लांट है उसमें थी। बेसमेंट में कोई पावर प्लांट है। उसमें समस्या आ गई थी। उसकी वजह से हुआ। अब यहां पर बेहतर हो गया है। अब सब ठीक हो गया है। तो यहां हमने क्या कुछ बदल दिया? कुछ क्या किया आपने? यहां कुछ बदला? तो यहां पर अब कैसे बेहतर हो गया? क्योंकि समस्या जो बेसमेंट में थी वहां सुलझा दी गई तो यहां भी ठीक हो गया। समझ में आ रही है बात?
जो कॉन्शियस माइंड है हमारा वो अधिक से अधिक एक्सपीरियंसर है समस्याओं का। जैसे आप कई बार बोलते हो मूड खराब है। कोई पूछता है क्यों खराब है? आप बता नहीं पाते हो। तो अनुभव तो हो गया ना। एक्सपीरियंस तो हो ही गया कि मूड पर पूछे कि समस्या आ कहां से रही है? क्यों खराब है? तो आप नहीं बता पाते हो। तो वो जो समस्या है ना वो बहुत नीचे रहती है। नीचे रहती है। ठीक है?
ठीक वैसे ही जैसे घर की बुनियाद ही कमजोर हो तो ऊपर की मंजिलें हिलती हो। ठीक वैसे जैसे कई बार होता है फर्श के नीचे या दीवार के पीछे दीमक लगी होती है। तो कमरे का जो नेचर होता है वो खराब हो रहा होता है। आप सोचते हो कहां से है? कहां से है? फिर पता चलता है भाई यह अगर ठीक करना है ना तो दीवार ही थोड़ी खुदवानी पड़ेगी। दीमक वहां से आ रही है। पीछे से आ रही है। सीलन देखी होगी कई बार। दीवारों में सीलन है और नीचे से उठ रही है। अब उसमें दीवार की कोई गलती नहीं है। गलती किसकी है? नीचे कुछ है जिसकी गलती है।
यह आंसू वाली बात वही है। आप संतवाणी सुने। आप दोहे गाएं। और आंसू आ जाए और आप पता ना कर पाएं कि आंसू आए क्यों हैं तो इसका मतलब दवाई ने वहां असर करा है जहां तक आपकी दृष्टि जा ही नहीं सकती। आपको वैचारिक तल पर कोई बात समझ में आ गई। मैंने आपको कुछ बताया। मैंने तर्क से बताया। आपको बात समझ में आ गई। अच्छा हुआ। पर मैं आपसे बात कर रहा हूं। चलिए मैं हट गया। आप दोहे गा रहे हैं। और दोहे गाते समय आप जान भी नहीं पा रहे हैं कि आप रो क्यों पड़े? तो बात आपको और ज्यादा समझ में आ गई है। इतनी समझ में आ गई है कि हो सकता है कि आप शब्दों में बता भी ना पाए कि क्या समझ में आया।
तो ये आंसू वाली बात किसी कमजोरी का लक्षण नहीं होती है। ये आंसू वाली बात महज भावुकता भी नहीं होती है। आंसू वृत्ति की अभिव्यक्ति भी हो सकते हैं और वृत्ति का विगलन भी। वृत्ति जब अपने आप को अभिव्यक्त करती है तो भी आंखें बहती हैं और वृत्ति जब पिघलती है ना तो जो पिघल-पिघल कर चीज है वो भी यहां से बहती है।
होठ शब्द ना कही सके नैन देत है रोए… पूरा कौन बताएगा? पूरा लिखिएगा, पूरा क्या है?
प्रीत छुपाए ना छुपे जा घट परगट होए।
आपको पता भी नहीं होता आपको बोलना क्या है। भीतर कुछ है जो पिघलने लग जाता है वही प्रेम का काम है ना। अहंकार को पिघलाना तो वही जो पिघलता है पिघल के फिर बहने लग जाता है। ज़बरदस्ती नहीं करना होता। ग्लिसरीन, नींबू वो वाला हिसाब नहीं है। अच्छा अश्रुओं को महिमामंडित किया जा रहा है। जब तक सत्र खत्म हुआ और वापस गए तो कम्युनिटी पे 18 वीडियो पड़े हुए हैं। ओरी मैं तो प्रेम दीवानी मोरा दर्द ना जाने कोई। मैं नीर भरी दुख की बदरी। ज़बरदस्ती की बात नहीं है।
वह सहज सी बात होती है। उसमें दुख नहीं होता। तो उसके लिए निकटतम शब्द है मेरे पास वो यही है। पिघलना भीतर कुछ था बहुत ठोस ज़िद पकड़े हुए, आग्रही जैसे बंधी मुट्ठी। और वो जो ठोस भीतर था वो अपनी पकड़ अपने ऊपर से छोड़ने लगा, पिघलने लगा। ठीक है?
और आंसू महज कोई किसी विशेष मार्ग की बात नहीं होते। ऐसा नहीं है कि आप सिर्फ भजन में बैठे हैं, कीर्तन में बैठे हैं, मंदिर में बैठे हैं। देव मूर्ति के सामने बैठे हैं। ठीक तभी आप में कुछ संचार हुआ और आपके आंसू बह निकले। प्रेम और ज्ञान तो अभिन्न है ना। ज्ञान बिना प्रेम के हो सकता है क्या? तो यह छवि मत बना लीजिएगा कि साहब यहां तो बात ज्ञान की होती है तो आंसू कहां से आ गए? बिना आंसुओं के कोई ज्ञान नहीं होता। जो रो नहीं सकता उसके भीतर जो ग्लेशियर है वो पिघल रहा नहीं है।
एक जगह पर क्लाइमेट चेंज चाहिए। बाहर नहीं भीतर। यहां कुछ है जिसे इस हिमालय से कोई…
श्रोतागण: कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आचार्य प्रशांत: वो अहंकार का हिमालय है भीतर जमा हुआ पड़ा है सख्त। अच्छा है पिघले, अच्छा है कि जो अकड़ा हुआ था वो थोड़ा नरम पड़े और झुक जाए वो भजनों में भी हो सकता है, श्लोकों में भी हो सकता है। वो चुपचाप बस बैठने से भी हो सकता है, अवलोकन से भी हो सकता है। वो कभी भी हो सकता है।
आंसुओं के साथ भी एक सहज रिश्ता होना चाहिए। बह रहे है तो बह रहे। कौन सी बड़ी बात हो गई? इसमें ये नहीं कि ओ माय गॉड। आई वाज इन टियर्स कोई भूकंप आ गया क्या? आई वाज़ इन टियर्स। ठीक है। रो लिए तो रो लिए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी लेकिन दैनिक जीवन में जो समस्याएं या फिर जीवन जो उत्तर मांगता है मुझसे जो ठसक आप सिखा रहे हैं उस ठसक के साथ उसको उत्तर देना है।
आचार्य प्रशांत: वो उत्तर इसीलिए नहीं दे पाते ना क्योंकि भीतर वही बने रहने का आग्रह जमा है। फ्रोजन है। जो तुम हो अगर तुम वही रहोगे तो कोई उत्तर नहीं रहेगा। फिर उत्तर यही रहेगा कि किसी ने कुछ पूछा हम पीट लिए। हम पीट लिए। अहंकार दुख की गांठ जैसा होता है। उसके पास कोई उत्तर-उत्तर नहीं होता। उसकी सारी ऊर्जा तो बस अपने आप को बचाने में ही लग जाती है। जब अहंकार पिघलता है तो वह भी पिघल गया जिसके पास कोई उत्तर नहीं था। ठीक है? मैं तुम्हें कोई अकड़ने का मार्ग नहीं सिखा रहा हूं। दूसरों के सामने क्या अकड़ोगे? अकड़ने के लिए जो ताकत चाहिए वो भीतर है ही नहीं। जिस ताकत की अध्यात्म में बात होती है मालूम है वो किसकी ताकत होती है?
(हाथों से बल/शक्ति प्रदर्शन करते हुए)— इसकी नहीं
प्रश्नकर्ता: आत्मा की।
आचार्य प्रशांत: आत्मा क्या होती है?
प्रश्नकर्ता: जो माया नहीं है।
आचार्य प्रशांत: जो माया नहीं है। (चिढ़ाते हुए।)
जो नहीं है। जो नहीं है वो है आत्मा।
तो भीतर की जो ताकत होती है वो इसकी ताकत नहीं होती (हाथों से बल/शक्ति प्रदर्शन करते हुए।) वो इसकी ताकत नहीं होती (हाथों से बल/शक्ति प्रदर्शन करते हुए।)
वो उसकी ताकत होती है जो नहीं है।
ए भाई आप ये कैमरा इनको दीजिए थोड़ा। पकड़ो भाई। पकड़ लो पकड़ लो। अब मैं खड़ा हूं और पीछे इधर आओ। यहां से उछल के आओ। और मुझ पे चढ़ जाओ। उछल के आओ। आओ तो।
चढ़ गए। ठीक है। थोड़ा जोर से। आओ चलो। तो इनका प्रयास सफल रहा। इनका प्रयास सफल है। अब साल भर हो गए साहब के साथ भजन गाते हुए। अब मैं तो आंसू में पिघल-पिघल के बह गया। मैं हूं ही नहीं। तुम वही हो? मैं यहां मैं अब यहां हूं ही नहीं। जो नहीं है उसको ही आत्मा बोलते हैं। उसकी ताकत देखना। पर यह तो ख्वाबों में जी रहे हैं। इनको लग रहा है मैं अभी भी यहां पर हूं।
जाओ जरा कूद के इस पर चढ़ो। ऐसे इतना ही होगा? तुम्हारे देखे यहां कोई है। उतनी ताकत से उस पे कूद के चढ़ो। देखो क्या होगा अभी। अहंकार अभी बहुत है।
(ऊपर वाक्यांश को एक नाटकीय दृश्य के ज़रिये से समझाते हैं।)
(सब प्रशंसा कर ताली बजाते हैं।)
क्या होगा? गिर जाएंगे। यह आत्मा की ताकत होती है। आत्मा की ताकत यह नहीं होती। (हाथों से बल/शक्ति प्रदर्शन करते हुए।)
आत्मा की ताकत ताकत यह होती है कि तुम तलवार चला रहे हो। चलाओ। हम कट ही नहीं सकते क्योंकि हम हैं ही नहीं। यह आत्मा की ताकत होती है। हम कहां गए? हम आंसुओं में बह गए। हम बह गए। हम है ही नहीं। अब तुम हम पर तलवार चलाओगे तुम्हें ही चोट लगेगी।
बॉक्सिंग में किसी को पंच मारने से पहले यह जरूरी होता है कि उसको पंच मारने दिया जाए और उसका पंच बेकार जाए। इससे वो क्या होता है? डिस्टेबलाइज हो जाता है। आप किसी को पंच मारे अगर उसके मुंह पे लग गया तो वो आपको भी स्टेबिलिटी दे देता है। पर आपने किसी को मारा वो डॉज कर गया और आपका पूरा घूम गया तो क्या होगा? आप गिर जाओगे। आप लड़खड़ा जाओगे। और आपका जो लड़खड़ाना है वही मौका होता है जब आपको घूंसा मारा जा सकता है।
ना होना बहुत बड़ा अस्त्र होता है। तुम जहां मुझे खोज रहे हो। मैं हूं ही नहीं। तुम हवा में तलवार चला रहे हो। तुम थक थक के मरोगे मेरे खिलाफ। तुम हवा में तलवार चला रहे हो। तुम थक थक के मरोगे। मैं हूं ही नहीं। ये आत्मा की ताकत है। मैं हूं ही नहीं। मैं था। मैं बंधी गांठ जैसा था। मैं फ्रोजन आइस जैसा था। मेरा क्या हुआ? मैं पिघल के बह गया। वही होता है।
जब आप सत्र सुनते समय या भजन गाते समय रो पड़ते हो आपको नहीं पता चलेगा आप क्यों रो पड़े हो क्योंकि वो जो काम है वो मन के तहखाने में चल रहा है जहां तक आपकी नजर जाती नहीं पर काम हो रहा है काम हो रहा है लगभग वैसे ही जैसे आपको बुखार चढ़ा हुआ है और आपने गोली खा ली बुखार की और आपको जम के पसीना आया। क्या आपको पता है कि पसीना क्यों आ रहा है? आप नहीं जानते। पर अगर पसीना आ गया तो इसका मतलब गोली ने काम कर दिया।
अगर बुखार के दरमियान जोर से पसीना आ जाए तो इसका क्या मतलब होता है? आमतौर पर बुखार अब उतरेगा। आपने गोली खाई पसीना आ गया। आंसू वैसे ही है। अध्यात्म की गोली ने अपना काम कर दिया है। आंखों से पसीना आ गया है। काम हो रहा है भीतर। आपको पता नहीं चलेगा क्या काम हो रहा है। पर काम हो रहा है। समझ में आ रही है बात?
लेकिन यह अज्ञान में नहीं घट सकती घटना। मैंने कहा यह ज्ञानातीत है और ज्ञान के अतीत जाने का अर्थ अज्ञान को प्रश्रय देना नहीं होता। पहले तो आपने भजन को जितना हो सके समझा ही है। जो सचेत मन है, चेतन मन है। उसको जो करना था उसने पूरा-पूरा कर डाला। अब उसके बाद उसके आगे की घटना घट रही है तो मेरी बात का कृपया यह अर्थ नहीं निकाल लीजिएगा कि किसी ने बहुत मीठे स्वर में और तुक में धुन में गा दिया और आप सुर सिर्फ स्वर लहरियों पर भावुक हो गए तो भजन ने अपना काम कर दिया। यह नहीं होने वाला।
पहले आपको जी जान लगा के परिश्रम करना होगा। चेतना अपना काम कर ले फिर चेतना से आगे का काम होगा। चेतना ने अपना काम नहीं करा तो उसके बाद अगर आप रो भी रहे हो तो व्यर्थ का रोना है फिर वो ऐसा होगा कि जैसे बाबा बुल्ले शाह की काफिया है जहां पर वो उस प्रियतम को पुकार रहे हैं और आप उसको सुनकर के अपने उस प्रियतम की याद कर रहे हो और रो रहे हो।
बहुतों का ऐसा होता है। फिल्मों में। तो जितनी भी संतों की प्रेमवाणी है उसका इस्तेमाल किसके लिए किया जाता है? आदमी औरत का ही तो रिश्ता दिखाने के लिए किया जाता है। जबकि संतों ने जब भी कभी प्रियवर की बिलवेड की बात करी है तो उसमें जो बिलवेड है वह कौन है? वो कह लो (आकाश की ओर इशारा करते हुए), यह कह लो, (ह्रदय की ओर इशारा करते हुए) जैसे कहना है। है ना?
समझना पहले जरूरी है। समझोगे नहीं, तो फिर वो आंसू बस ज़ज्बात के होंगे। और ज़ज्बात वाले आंसुओं से कुछ हासिल नहीं होता। बोध के आंसू दूसरे होते हैं। भावना के आंसू अलग होते हैं। आंसू और आंसू में अंतर होता है। एक आंसू होते हैं मेरे मिटने की निशानी। और दूसरे आंसू होते हैं मेरे जमे रहने का आग्रह।
जैसे मनचाही चीज नहीं मिली बच्चा रो पड़ा। देखा है? और उसमें उसका कोई आध्यात्मिक उन्नयन थोड़ ही हो रहा है या हो रहा है? बच्चा माने 40 साल का बच्चा भी हो सकता है। मनचाही वस्तु नहीं मिली तो ये थोड़ी है कि नैन देत है रोए। आहा हा। बिल्कुल ये निकल गए हैं तुरिया में। ऐसा थोड़ी हो गया है।
तो आंसू और आंसू में अंतर होता है। दोनों का केंद्र अलग-अलग है। एक केंद्र है भावना का और एक केंद्र है बोध का। ठीक वैसे जैसे जब हम हृदय शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हृदय और हृदय में अंतर होता है। लोक संस्कृति में हृदय का मतलब होता है भावनाओं का केंद्र। और वास्तविक धर्म में हृदय का मतलब होता है बोध का केंद्र। एक बार मैंने आपसे कहा था आत्मा दिल है। वो शायरी वाला दिल नहीं है। दिल जानो जिगर तुम निसार किया है। वो वाला दिल नहीं है आत्मा। कौन सा दिल? बोध का केंद्र।
प्रश्नकर्ता: सर मेरा नाम गगन है। मैं अंबाला से बिलोंग करता हूं। सर मैं ये पूछना चाह रहा था कि जो हमारे आसपास जो निखरी चेतना होती है सर वो बहुत कम वक्त तक हमारे साथ रहती हैं। चाहे हमारे श्रीकृष्ण जी हो, हमारे गौतम बुद्ध हो, अर्जुन देव जी हो, भगत सिंह जी हो, जीसस हो, गुरु गोविंद सिंह जी हो। जो प्रकृति के इस जाल से जब निकलते हैं तो प्रकृति को भी झटका लगता है कि यह मेरा बनाया हुआ, यह प्यादा ये राजा कैसे बन गया?
आचार्य प्रशांत: ठीक।
प्रश्नकर्ता: तो सर इतना कम समय हमें उनके साथ रहने को क्यों मिलता है? और अगर ये कम समय है तो अगर वो शिकार होते हैं इस निखरी हुई चेतना का, तब भी कहीं ना कहीं मुझे ये लगता है कि वो शिकार प्रकृति का ही हुए। तब भी जीत प्रकृति की ही हो रही है।
आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया बिल्कुल ठीक।
प्रश्नकर्ता: तो सर इसी श्रेणी में सर आप भी आते हैं।
आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया नहीं।
प्रश्नकर्ता: क्योंकि आप भी प्रकृति को फाड़ के निकले हो। तो आपकी जो चेतना है वो बट हम भी सीख रहे हैं। मैं एक सिंगर हूं। गाने से गीता तक आया हूं। पहले जीने से थोड़ा डर लगता था। अब जी भी धड़क रहा हूं। अब मौत भी टेक इट इजी।
सो अब आपकी बात है सर आप भी इसी श्रेणी में आते हो कि ये जो चेतना है हमारे लिए इतने कम समय में क्यों रहती है? सर और इसका शिकार भी प्रकृति ही करती है कि प्रकृति जीत जाती है आखिरकार। थैंक यू सर।
आचार्य प्रशांत: दो तीन बातें रोचक हैं। पहली बात हां ये बिल्कुल ठीक है कि प्रकृति स्वयं चाहती है कि आप पशुओं की तरह ही जिओ। अधिक से अधिक आप संताने पैदा करो और समाप्त हो जाओ। इससे ज्यादा प्रकृति कुछ नहीं चाहती। बात सुनने में अजीब लगती है पर अब ऐसा है तो है। आपको क्या लगता है? हजार स्त्रियों की ओर आपका आकर्षण क्यों होता है? जिसको हम कहते हैं ना कि पत्नी से बेवफाई करता है। यह सब वो पत्नी से नहीं बेवफाई कर रहा है। वो अपनी प्रकृति मां के आदेशों का पालन कर रहा है। प्रकृति मां कहती है कि तुम अपने डीएनए को अधिक से अधिक जगह पर बिखरा दो। तो चाहता है कि वो अधिक से अधिक महिलाओं को गर्भ स्थापित कर दे। ये कुछ भी नहीं है। बस अपना डीएनए बहुत जगह डालने की तरीका है।
ये लगभग वैसा ही है कि जैसे पेड़ों में पराग होता है। जो पॉलेन होता है। जब हवा बहती है तो उड़ जाता है और बहुत जगह पड़ता है। पड़ता है कि नहीं? यह वैसा ही है कि फल के बीच में बीज होता है। वो पक्षी को ललचाने का तरीका है। पक्षी क्या खाने आएगा? फल। और पक्षी फल के साथ क्या खा लेगा? बीज। और पक्षी अब उड़ता है। तो उड़ के जगह-जगह जाएगा। जहां-जहां जाएगा वो विष्ठा करेगा तो बीज जगह-जगह फैल जाएगा।
तो प्रकृति— चाहे पौधा हो, उसका पॉलेन हो, चाहे पक्षी हो, फल हो या चाहे मनुष्य की देह हो। प्रकृति बस एक चीज चाह रही है डीएनए फैले, डीएनए फैले पूरे चारों तरफ और कुछ भी नहीं चल रहा। ये डीएनए फैलाने का ही कार्यक्रम चल रहा है। जब तुम इससे हटकर कुछ करना चाहते हो तो प्रकृति या तो तुम्हारे प्रति उदासीन हो जाती है या कई बार तुम्हारे खिलाफ भी खड़ी हो जाएगी। उदासीन कैसे हो जाती है वो बता देता हूं।
मैंने लड़के लड़कियां देखे हैं जिनके चेहरे बहुत चमकते थे। वो जिम भी जाते थे। अपनी सेहत का ख्याल रखते थे। अपनी खाल का ख्याल रखते थे। वो मेरे पास आ गए। मैं देखता हूं कि उनके चेहरे थोड़े सूखे-सूखे से हो जाते हैं। कई बार लड़कियों को देखूंगा मैं कहूंगा बाल कैसे कर रखे हैं। बाल एकदम ऐसा लगेगा जैसे कोई बीमारी हो गई है। कुछ हो गया है। अब जब तक मामला प्राकृतिक चल रहा था, भीतर डिजायर थी तब तक प्रकृति ही ऐसी कामना पैदा करती थी कि आप अपना ख्याल भी रखते थे। सजना है मुझे सजना के लिए। अब जब वो बात भीतर से निकलने लग जाती है तो शरीर का ख्याल रखने की भी जो वृत्ति होती है प्राकृतिक वो वृत्ति भी हटने लग जाती है। शरीर का ख्याल आप ऐसी थोड़ी रखते हो। बहुत सारे लोग तो जिम जॉइन ही इसीलिए करते हैं क्योंकि उन्हें ब्याह करना है। ब्याह नहीं भी करना है तो लड़कियों को इंप्रेस करना है या लड़कों को इंप्रेस करना है।
जब वो वृत्तियां हटने लग जाती है ना तो कई बार फिर आप शरीर का ख्याल रखना कम कर देते हो। अपने आप हो जाता है। दूसरी बात कुछ अंदरूनी मामला भी होता है। बहुत सारे आपके ऐसे हॉर्मोंस होते हैं जो प्लेजर से रिलेटेड होते हैं। और प्रकृति कहती है खूब प्लेजर लो, खूब प्लेजर लो जिसमें सेंट्रल प्लेजर कौन सा है? सेक्सुअल ही है।
प्रकृति कहती है खूब प्लेजर लो। जब प्लेजर लोगे तो मैं फिर वो चीज सीक्रेट करूंगी। वो जो चीज सीक्रेट होती है वो आपकी ओवरऑल हेल्थ को बनाने में मददगार होती है। इसका मतलब ये नहीं है कि वो हॉर्मोन सिर्फ सेक्स से ही आ सकता है। वो और चीजों से भी आ सकता है। स्पोर्ट्स से भी आ सकता है। पर स्पोर्ट्स मेहनत का काम होता है। सेक्स तो ऐसे ही घर की खेती है। तो वहां ज्यादा तो इस तरीके से होता है कि प्रकृति खुद यह व्यवस्था कर देती है कि अगर आप जानवरों वाला जीवन नहीं जी रहे हो तो शायद आप बीमार पड़ने लग जाओगे।
महिलाओं को कई बीमारियां होती हैं गायनेकॉलोजी संबंधित। डॉक्टर उनका उपचार ये बताते हैं कि आप प्रेग्नेंट हो जाइए आप ठीक हो जाएंगी। आप प्रेग्नेंट हो जाइए आप ठीक हो जाएंगी। और अगर आप प्रेग्नेंट नहीं हो रही हैं तो ये आपकी जो बीमारी है बनी रहेगी। प्रकृति चाहती है कि वो वो प्रकृति उसको सजा दे रही है कि तू क्यों प्रजनन का रास्ता छोड़कर मुक्ति के रास्ते पे चल रही है। समझ में आ रही है बात?
यही काम फिर समाज भी करता है। आप समाज के तौर तरीकों से चल रहे हो तो समाज भी आपको इस प्रकार के इनपुट्स देगा कि आप फिजिकली भी हेल्दी रहोगे और नहीं तो समाज आपको जेल भी दे सकता है और जेल देगा तो क्या आप हेल्दी रहोगे? तो प्रकृति और समाज दोनों आपकी हेल्थ को भी तगड़े तरीके से अफेक्ट करते हैं। जिसने मुक्ति का रास्ता चुन लिया उसकी हेल्थ पर इंपैक्ट आने की संभावना बहुत-बहुत बढ़ जाती है।
और बताता हूं आप जिन महापुरुषों का नाम ले रहे थे वो सब के सब सार्वजनिक क्षेत्र के थे। उन्होंने अपने घर में बैठकर साधना नहीं करी मात्र। वो लोगों के बीच आए। आप लोगों के बीच आते हो ना तो उसमें मुहावरे के तौर पर कहा जाता है कि आप जिनको बंधनों से छुटाने आते हो उनके बंधन आप अपने ऊपर ले लेते हो। और वह चीज शरीर को तोड़ देती है। आप किसी के साथ प्रयास कर रहे हो जगाने का, हिलाने का वो हिलना नहीं चाहता। वो जो बेबसी होती है ना वो सचमुच छाती पर आघात करती है क्योंकि आप अपनी ओर से भरसक भरसक भरसक प्रयास करते रहते हो और कुछ हिलता नहीं, कुछ हिलता नहीं, कुछ हिलता नहीं।
मैं बिल्कुल कतई उन लोगों की श्रेणी में नहीं आता जिनका आपने नाम लिया लेकिन क्योंकि मेरा नाम लिया तो अपने बारे में कुछ बोलता हूं। ये यहां ये वीडियो टीम बैठी हुई है। इनको हर वीडियो से पहले बड़ी समस्या यह रहती है कि इनका मुंह कैसे ठीक करें? मुंह में क्या ठीक करें? भाव नहीं, ये (आँखों के नीचे काले घेरे को दिखाते हुए।)
यह हटाना मुश्किल पड़ जाता है और खासतौर पर तब जब कोई इंटरव्यूअर हो और उसमें भी इंटरव्यूअर जब कोई महिला हो। अब वहां बढ़िया साफ सुथरा चिकना चेहरा है। एकदम समतल और यहां चेहरा ऐसा है। जैसे अभी गिर ही जाएंगे। यह क्यों होता है?
क्योंकि दिन रात आघात होता है। आघात करने वाले को पता भी नहीं होता वो आघात कर रहा है। दिन में मान लीजिए यहां आने से पहले मुझे चिल्लाना पड़ा। मैं जिस पर चिल्लाया हूं लगभग ऐसी बात है कि उसने मेरे मुंह पे पांच घुसे मारे हैं। पर वो यह कभी नहीं मानेगा कि उसने मेरे मुंह पे पांच घुसे मारे हैं क्योंकि इससे उसकी नैतिकता आहत होगी। वो कहेगा अरे आप तो मेरे टीचर है। मैं आपको घुसे कैसे मार सकता हूं। अगर तूने मुझे मजबूर किया 15 मिनट उस पर चिल्लाने के लिए तो तूने मेरे मुंह पे पांच घुसे मारे हैं यहां पे सीधे। बात समझ में आ रही है?
और यहां पे बात एक नहीं है। बात इतने सारे हैं और पूरा गीता ही है और गीता के बाद और तरीके हैं। किताबों में पढ़ने वाले हैं। सोशल मीडिया वाले हैं, वह सब मुझसे संबंधित हैं। और वो दिन-रात मैं जो करना चाह रहा हूं, उसका विरोध करते हैं। वो जो विरोध है, मैं कह रहा हूं सीधे छाती पे आके पड़ता है। अब लंबा जीया जा सकता है लेकिन लंबा जीने के लिए फिर ये काम छोड़ना पड़ेगा।
तो ऐसा नहीं है कि प्रकृति ही उनको अनिवार्यतः मार देती है। कुछ काम प्रकृति का रहता है। और कुछ काम अपने चुनाव से होता है। जीया जा सकता है लंबा। ऐसा नहीं है कि कुछ लोग ऐसे नहीं हुए हैं जो लंबा नहीं जिए। लाओ त्ज़ू को कहते हैं पैदा ही चौरासी 84 की उम्र में हुए थे। अभी कृष्णमूर्ति थे वो नब्बे 90 पार करके जिए। तो कुछ लंबा भी जीते हैं। लेकिन ये बात बिल्कुल ठीक है कि अध्यात्म के क्षेत्र में जल्दी मरने वालों की संख्या, असमय मरने वालों की, अकाल मृत्यु वालों की संख्या अनुपात बहुत ज्यादा रहता है।
वो इसीलिए रहता है क्योंकि हर जगह से आघात होता है। प्रकृति भी नहीं चाहती आप लंबा जियो। समाज भी नहीं चाहता आप लंबा जियो और आप खुद भी अपने शरीर की देख करना कम कर देते हो क्योंकि आपको पता है दूसरी चीजें ज्यादा महत्वपूर्ण है और यह सब कुछ बेहोशी में नहीं हो रहा होता। आप जान रहे होते हो कि यह हो रहा है पर आप इसे रोक पाने में विवश होते हो क्योंकि आप अगर खुद को बचाने की कोशिश करोगे तो फिर वो काम नहीं हो पाएगा जो आप करना चाहते हो।
तो इसलिए देखिए मृत्यु का वरण भी दो तरह का होता है। एक तो यह कि मैंने खुद जाकर के अपनी कुर्बानी चुन ली और वो दिखाई देता है कि धमकी दी जा रही थी। उदाहरण के लिए गुरु को धमकी दी गई धर्म बदल लो, नहीं बदलेंगे कुर्बानी चुन ली। जीसस की हमको पता है। ऐसे कई और है जहां पता चलता है एक तो वो है और बहुत ऊंचे उदाहरण उन्होंने स्थापित करे। एक वो तरीका, एक दूसरा तरीका और भी होता है जिसमें खून बहता नहीं दिखाई देता।
वो दूसरा तरीका ये होता है कि इसको तिल तिल करके मारो डेथ थ्रू अ थाउजेंड कट्स। एक होता है डेथ थ्रू अ सिंगल कट। वो दिखाई पड़ेगा और एक होता है डेथ थ्रू अ थाउजेंड कट्स। दिन भर काटते रहो, काटते रहो, काटते रहो। बंदा मर भी जाएगा और किसी पे इल्जाम भी नहीं आएगा। ये सब चलता रहता है।
अब आपके प्रश्न के दूसरे हिस्से पे आते हैं कि मुझे लेकर के आपका रुख क्या होना चाहिए? अभी मुझसे दो दिन पहले किसी ने पूछा। मैंने वही जवाब दिया जो मैं सैकड़ों बार पहले दे चुका हूं। यूज़ मी। बिल्कुल इतना ही लिख के भेजा। यूज़ मी। ये मत कहो कि लंबा जियो, ये करो, वो करो। वो जो होना है वो आपके कहने से बदलने वाला नहीं है। अभी कहीं था किसी ने पूछा था। मैंने कहा था कि आई विल मीट माय फेट।
और वो जो नियति है वो आपके चाहने से, कहने से बदलनी नहीं है। जितना हूं उतना हूं। हो सकता है 10 साल, हो सकता है 50 साल। पता नहीं कितना? लोग 120 साल भी जीते हैं। हो सकता है। हो सकता है 2 साल। कौन जाने जितना भी है यूज़ मी। पूरा इस्तेमाल कर लो। मेरी परवाह नहीं करो। मेरा इस्तेमाल करो। पूरे तरीके से निचोड़ लो मुझको। और वही मैं चाह रहा हूं।
इसमें कुछ ऐसा नहीं है कि मेरा शोषण हो जाएगा। मैं वही चाह रहा हूं। पूरे तरीके से एक-एक बूंद निचोड़ लो। आ रही है बात? कुछ बचना नहीं चाहिए। शरीर जले तो बस शरीर जले। कुछ बचा नहीं। पहले ही सब निचुड़ गया था। यमाचार्य आके खड़े हुए। उन्हें कुछ मिला ही नहीं। खाली हाथ लौटना पड़ा। कहां गया इसका सारा माल? वो मैंने बांट दिया था। पहले ही बांट दिया था। कुछ नहीं मिलेगा तुमको। खाली हाथ लौटो। आ रही है बात समझ में?
यूज़ मी। और अगर कुछ मुझसे रिश्ता रखते हैं तो आप मेरे प्रति सबसे बड़ा जो अन्याय कर सकते हैं वो यही है कि आप मेरा इस्तेमाल ना करें। इस्तेमाल करने से क्या आशय है? मैं बोल रहा हूं आप मेरा इस्तेमाल नहीं कर रहे। माने आप सुन नहीं रहे। मैं बोल रहा हूं मेरा इस्तेमाल करो। मुझे सुनो। मैं दे रहा हूं। उसका इस्तेमाल करो। उसे खा पी जाओ। पचा लो। जिंदगी बना लो। खून बनाओ। बात आ रही है समझ में?
बाकी इसमें ड्रामेटिक कुछ नहीं है। यहां पे खुदकुशी करने की कोई तैयारी नहीं है। ऐसा कुछ नहीं है कि जानबूझकर के कहीं जा रहे हैं कि अपनी आहुति वगैरह दे। कुछ भी नहीं है वैसा। पर इस काम की प्रकृति ऐसी है कि उसमें आहुति हो जाती है। आप कोई तय करके नहीं देते, पर हो जाता है। आपको दिख रहा होता है हो रहा है पर आप उसे रोक नहीं सकते। ठीक है ना?
उसको मैं आहुति भी क्या बोलूं? इसलिए बोल रहा हूं कि खुदकुशी ऐसी कोई बात नहीं है। पर इट्स अ नेचर ऑफ द गेम। इट हैपेंस। यूज़ मी।