उसकी बुराई पर नहीं, अपनी ताकत पर ध्यान दो

Acharya Prashant

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उसकी बुराई पर नहीं, अपनी ताकत पर ध्यान दो

प्रश्नकर्ता: बाइबल का यह बोध वाक्य कहता है कि, “ध्यान रखो कि तुम इन छोटों में से किसी को तुच्छ दृष्टि से न देखो।” और सूफ़ी ग्रंथों का वचन है कि, “बुराई से नफ़रत करो, बुरे से नहीं।” इन वचनों को मैं पूरे दिल से सदैव अपनाना चाहता हूँ, लेकिन ज्यों ही इन वाक्यों को जीवन में परखने का समय आता है, तो थोड़ी सफलता बाद ही पाता हूँ कि फिर बुरे से नफ़रत शुरू हो गई, तादात्म्य हो गया, और पाता हूँ कि फिर मात हो गई है। माफ़ी माँगता हूँ, तौबा करता हूँ लेकिन फिर तादात्म्य बैठा लेता हूँ।

सूफ़ी संत शम्स तबरेज़ जी का एक बोध वाक्य है कि, “अगर कोई काफ़िर सौ साल भी बोलता रहे तो भी मैं विरोध नहीं करता, न ही मुझे कोई थकान होती है क्योंकि जो थकता है और विरोध करता है, मैंने उसे मार डाला है और तुम लोग शौचालय में बैठे हुए कहते हो कि मुझे जन्नत की सुगंध से तरोताज़ा कर दो।”

मूलभूत शैतानी कहाँ छुपी पड़ी है? बुराई और बुरा, तुच्छ और तुच्छता, क्या ऐसे विभाजन करना उचित हैं? अगर है तो उचित कदम क्या है? कृपया समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: बाहर की कोई भी बुराई हो, है तुम्हारे ही परिप्रेक्ष्य में। अभी आजकल में, इंडोनेशिया में सुनामी आई, सैकड़ों लोग उसमें मारे गए। किसी भूकंप से उठी थी वो सुनामी। कितने लोग उसमें प्रभावित हुए। जानते हो, इस पृथ्वी पर कोई क्षण नहीं जब भूमि का कम्पन न हो रहा हो। भू तो लगातार कम्पित हो ही रही है। अभी मैं यहाँ बैठा हूँ, मेरे क़दमों के नीचे की ज़मीन काँप रही है, और तुम जहाँ बैठे हो, वहाँ भी तुम्हारे पैरों के नीचे की ज़मीन कम्पित हो रही है। पर उसको तुम भूकंप मानते ही नहीं, क्यों नहीं मानते? तीव्रता, तीव्रता नहीं है और उससे कुछ खतरा नहीं है। तो तुम ये भी नहीं कहते कि, “भूकंप बहुत मंद है,” तुम कहते हो, “भूकंप है ही नहीं।” और वही तीव्रता जब बढ़ जाती है, तो वो होता है जो आज इंडोनेशिया में हुआ। और किसी तरीके से अगर मनुष्य में और मनुष्य की इमारतों में ये ताक़त होती कि रिक्टर स्केल (भूकम्पमापी यंत्र) पर आठ तीव्रता का भूकंप भी वो झेल जाते, तो आज इंडोनेशिया में भी जो हुआ क्या उसको वो भूकंप मानते? नहीं मानते न? तो अब मुझे बताओ बुराई क्या है? मैंने कहा था, बुराई तुम्हारे ही सन्दर्भ में होती है सदा, तुम्हारे ही परिप्रेक्ष्य में।

जो तुमको कम्पित कर जाए, जो तुमको प्रभावित कर जाए वो बुराई, अन्यथा वो कुछ नहीं, अन्यथा ऐसे ही चल रहा है सबकुछ। अन्यथा यूँही है, चल रहा है।

तो बुराई सिर्फ तब है जब तुम बुरे हो गए, अन्यथा कोई बुराई नहीं है। भूकंप सिर्फ तब है जब तुम कम्पित हो गए, इसीलिए भूकंप शब्द ही गलत है क्योंकि भू तो लगातार काँप रही है। कहना चाहिए, 'जीव-कम्प', तुम जिसको भूकंप कहते हो उसकी असली परिभाषा है; जब जीव काँपने लग जाए तब है जीव-कम्प, भू तो लगातार काँप रही है। भू जब तुम्हें कँपा दे तब तुम कहते हो, “अरे! भूकंप आया, भूकंप आया”, नहीं तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता। समझ में आ रही है बात?

अब बताओ बुराई फिर कब है? बुराई तब है जब तुम बुरे हो और सारी बुराई फिर है ही इसीलिए, और सारी बुराई फिर है ही इसी कारण कि तुम बुरे हो। अब समझ पाओगे कि कबीर साहब क्या बोल गए थे। क्या बोल गए थे? “बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।” अब समझ में आ रही है बात?

कुछ बुरा है ही नहीं अगर, मैं बुरा नहीं। मैं बुरा नहीं हूँ तो क्या बुरा है? “बुरा न मिलिया कोय”, कुछ है ही नहीं बुरा। “चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटत रहत भुजंग।”

तुम एचआईवी का वायरस (विषाणु) पकड़ लो और उसके बाद तुमको हर तरह की बीमारियाँ लगने लगे, तो बिमारियों का दोष है? तुमने अपनी ये हालत कर ली है कि तुम उन बिमारियों का अब प्रतिरोध कर ही नहीं पा रहे। या तुम ये कहोगे कि दुनिया अब अचानक विषाणुओं से भर गई है, तरह-तरह की बीमारियाँ वातावरण में खड़ी हो गई हैं? वातावरण में खड़ी हो गई हैं वाकई या तुमने अपना प्रतिरक्षा तंत्र बर्बाद कर लिया है? तो अब छोटे से छोटा विषाणु भी आकर तुमपर हावी हो जाता है। तुम्हें ज़ुकाम भी होता है तो ठीक नहीं होता।

जब तक तुम अशक्त हो, जब तक तुम अरक्षित हो, वल्नरेबल (आघात योग्य), तब तक बहुत कुछ है जो बुरा है। वो बुरा क्यों है? क्योंकि वो तुम पर बुरा असर डाल सकता है, अन्यथा क्या बुरा है? कुछ भी बुरा नहीं।

और जब तुम मज़बूत हो गए, जब किसी भी चीज़ ने तुम पर असर डालना छोड़ दिया, तब बाहर जो होता है उसको तुम बुरा बोलना छोड़ देते हो, तुम्हारा व्याकरण बदल जाता है। फिर तुम विरोध की भाषा में बात नहीं करते क्योंकि अगर बुराई है तो उसके प्रति तुम्हारा नज़रिया होगा, विरोध का। बाहर जो कुछ है उसको तुम नाम देते हो दुःख का, माया का, अँधेरे का, अज्ञान का। तुम फिर ये नहीं कहते कि, “फलाना आदमी बुरा है”, फिर तुम कहते हो, “बेचारा अज्ञानी है।” नज़रिया पूरा बदल गया।

पहले जब तुम कह रहे थे कि वो बुरा है, तब तुम उसके ख़िलाफ़ खड़े थे डंडा लेकर। बुराई का सामना करना है न, कह ही तो रहे हो, दो तीन बातें तुमने उद्धृत की, बुरा बुरा है, बुराई बुरी है, उन सब बातों में यही था कि, “बचो रे! खतरा है।” पर जब तुम्हें व्यक्तिगत रूप से किसी भी बुराई से खतरा लगना बंद हो जाता है, तब तुम्हारा रवैया विरोध का नहीं करुणा का होता है। तुम कहते हो, वो दुखी है, वो बुरा नहीं है वो दुखी है। वो बुरा नहीं है वो भ्रमित है और अगर वो भ्रमित है तो मुझे उसका विरोध नहीं करना, मुझे उसे रास्ता दिखाना है। अगर वो दुखी है तो मुझे उसे मार नहीं मारनी, मुझे उसे सहारा देना है। इन दोनों बातों में अंतर समझ रहे हो?

सर्वप्रथम वो हो जाओ जिसके पाँव के नीचे की ज़मीन काँपती नहीं और उसके बाद तुम्हारी दृष्टि पूरी बदल जाएगी। फिर किसी को दोष नहीं दोगे। और देखो दोष तो दिया भी नहीं जा सकता। अधिकांश लोग अपनी परिस्थितियों का ही उत्पाद होते हैं। होते हैं कि नहीं? पहला ज़ुल्म तो उनके साथ ये हो गया कि पैदा हो गए। कहे, "ये क्या अजूबा हो गया, पैदा हो गए।" पैदा हुए बच्चे की, नवजात की शक्ल देखी है? तुम्हें ऐसा लगता है कि जो कुछ हुआ है उसकी मर्ज़ी से हुआ है? तुम्हें ऐसा लगता है कि वो जानी-पहचानी जगह पर आया है, रज़ामंदी से? वो अवाक् है और अगर ज़्यादा देर अवाक् रहे तो उसको पटाक् से पड़ता है कि, "तू अवाक् क्यों है? वाक् निकाल!" और फिर वो वाक् निकालता है तो क्या बोलता है? “अहोभाग्य कि हम पधारे”, ये बोलता है? गिजगिजा पड़ता है बिलकुल, “जे का हो गओ? ये कहाँ आ गए हम?”

पहला ज़ुल्म तो ये कि पैदा हो गए और दूसरा ज़ुल्म ये कि जंगल में नहीं पैदा हुए, समाज में पैदा हुए हो, परिवार में पैदा हुए हो। अब अगर उन्होंने तुम्हारे मन के साथ खिलवाड़ कर दिया, तुम्हारी पहले से ही बेहोश चेतना को और नशे की आदत लगा दी, तो फिर तुम्हें हम किस हद तक कसूरवार ठहराएँ? बताओ, बोलो। करुणा का आधार यही है कि जो बेचारा खुद पीड़ित है, उसको कैसे अपराधी ठहरा दें? अपराधी तो अपराध इसलिए करता है न कि कुछ लाभ होगा? और यहाँ अगर ये पाओ कि जो अपराध कर रहा है, वो बेचारा खुद सबसे ज़्यादा दुखी है, तो उसको सज़ा दे या सहारा?

प्र: सहारा।

आचार्य: करुणा का यही आधार है।

तुमने बात करी बुरे की। मुझे कोई बुरा दिखाना जो आनंद में हो, दिखाओ। एक बुरा आदमी दिखा दो जो मौज़ में हो। अब तुम्हारे दिल से पूछ रहा हूँ, उसको सज़ा देनी है कि सहारा? उसने जो भी करे हैं अपराध, अत्याचार, उसने जो भी गणित किया है, होशियारी लगाई है उस सब के एवज़ में उसे क्या मिला है? और बेचैनी और दुःख। उसको ठसक भले ही ये हो, अहंकार भले ही ये हो, लेकिन उसकी हालत तो देखो न। अब उसको मग़रूर कहोगे कि मजबूर? मग़रूरी उसकी उथली है, मज़बूरी उसकी गहरी है। वो अभी इस क़ाबिल भी नहीं है कि तुम उसे कह सको कि बुरा है। बुरा भी किसी रावण को बोलो तो शोभा देता है, अरे उसमें कुछ दम तो था। अधिकांश लोग तो लिजलिजे होते हैं, अधिकांश बुरे लोग तो वामन जैसे होते हैं, उनको तो बुरा बोलना भी ठीक नहीं है। बुरा बोलकर क्यों तुम उनको व्यर्थ सम्मान देते हो?

अंग्रेजी में एक मुहावरा चलता है, “*बैड बुक्स*”(बुरी किताबें) , तुम कहते हो, “समवन इज़ इन माय बैड बुक्स * ”(कोई मेरी बुरी किताबों में है)। अधिकांश बुरे लोग इस लायक भी नहीं होते कि वो तुम्हारी * बैड बुक्स (बुरी किताबों) में आ सकें, क्योंकि बैड बुक्स में भी आने के लिए कुछ काबिलियत तो चाहिए न? वन शुड बी बैड इनफ टू डिज़र्व अ मेंशन इन द बैड बुक ( बुरी किताब में उल्लेखित होने के लिए पर्याप्त बुरा होना ज़रूरी है)।

अधिकांश लोग तो इतने बुरे भी नहीं हो सकते। वो पूरी तरह कुछ भी नहीं हो सकते। अगर वो पूरी तरह बुरे ही हो सकते तो पूरे होकर कब के अच्छे नहीं हो गए होते? तो वो ऐसे ही होते हैं, थोड़े-थोड़े बुरे, थोड़े-थोड़े बुरे। मौका देखा बुराई दिखा दी और फिर दुनिया के सामने जाकर अच्छे भी बन गए।

कोई बुरा देखा है जो एकदम ही बुरा हो? कोई हत्यारा देखा है जो अपने ही बच्चों का माँस खाता हो? कोई रिश्वतखोर देखा है जो अपनी बीवी से रिश्वत माँगता हो? वो दफ़्तर में बुरा है घर में अच्छा बनने के लिए, दफ़्तर में घूस खाता है और घर आकर के उससे गहने बनवाता है। हम तो बहुत बुरे भी नहीं हो सकते, तो क्या किसी को कहें बुरा। आ रही है बात समझ में?

किसी महिषासुर को कहो बुरा, कि जिसके लिए काली को उतरना पड़ा। किसी कंस को कहो बुरा, किसी दुर्योधन को कहो बुरा। अरे, बुरा होने के लिए भी कुछ स्टेटस (ओहदा) होना चाहिए न? बुरा होने के लिए भी कुछ कद होना चाहिए। तुम पिच्छूलाल को बता रहे हो बहुत बुरा आदमी है। उसकी शक्ल देखो। उसकी बुराई ये है कि दूध में पानी मिलाता है। इतने में तुमने उसको बुरा बता दिया। वो क्या है? मजबूर है। क्या है? मजबूर! देखो, मैं बुराई की वक़ालत नहीं कर रहा हूँ, फिर प्रार्थना करता हूँ, अर्थ का अनर्थ मत कर लेना, कि कहो कि, "आचार्य जी ने कहा है कि बुराई तो कुछ होती ही नहीं, जो बुरा करे वो सब बेचारे मजबूर हैं, तो चलो और बुराई करते हैं। कोई दाग, कोई तोहमत नहीं लगेगा और जब कोई कहने आएगा कि क्यों बुराई कर रहे हो? तो हम कहेंगे कि हम तो मजबूर हैं।" इसके लिए नहीं प्रेरित कर रहा हूँ। समझ में आ रही है बात?

याद रख लेना एक दिन वो भी पैदा हुआ था। जैसे कोई भी तुम्हें दिखाता है न, नवजात, तो उसके पास जाते हो और बोलते हो, “गिली-गिली-गिली”, और नाक पकड़ कर बोलते हो, “कीचू-कीचू-कीचू”, तो वैसे ही आज जिसको बता रहे हो कि, “अरे! दुर्दांत राक्षस है।” उसको भी कई लोगों ने जाकर “गिली-गिली-गिली” किया होगा, वो भी तब कैसा मासूम लगता होगा, है न? फिर होते-होते, होते-होते आज वहाँ पहुँच गया है जहाँ तुम कह रहे हो कि ये तो नरपशु है।

क्या करोगे बहुत आरोप इत्यादि लगाकर? उतनी ऊर्जा में किसी की मदद ही कर दो। पर मैंने क्या कहा है? उसकी मदद करने से पहले ऐसे हो जाना कि बुराई जब सामने आए तो तुम काँपने न लगो। तुम अकम्पित, अप्रभावित रहना फिर बुराई तुम्हारे लिए सिर्फ गुणों का खेल है, फिर तुम कह पाओगे कि, “अरे, तमसा ज़रा ज़्यादा है, रजस ज़रा ज़्यादा है। चलो कुछ अगर विधि लगा सकते हों, सहायता बता सकते हों, तो किये देते हैं और अगर कुछ नहीं कर सकते तो इसके लिए प्रार्थना करेंगे, सामने से हट जाते हैं।”

बस बात ख़त्म।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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