ज्ञान की एक पूरी श्रृंखला हैं वेद, और उनके केंद्र में ज्ञान मात्र है। किसी एक व्यक्ति द्वारा लिखी गयी वो किताब नहीं है। किसी एक इंसान या इंसानों के एक समूह, या दल, या समुदाय या सम्प्रदाय का वो प्रतिनिधित्व नहीं करती। किसी एक व्यक्ति का नाम उससे जोड़ा नहीं जा सकता। व्यक्ति आए, चले गए। इतने ऋषि उसमें वर्णित हैं, उनमें से कोई ऋषि हो न हो – एक ऋषि, सहस्त्रों ऋषि – वेदों का किसी व्यक्ति विशेष से कोई संबंध नहीं। तो ज्ञान की एक पूरी परंपरा है, ज्ञान की पूजा करते हैं। इसीलिए एक बड़े लंबे, विस्तृत कालखंड में पसरे हुए हैं वेद। एक दिन या दस दिन या सौ वर्षों में भी नहीं लिख दिए गए थे वेद। उनकी हज़ारों वर्षों की यात्रा है और चूँकि उनका संबंध ज्ञान से, बोध से है, व्यक्तियों से नहीं, इसीलिए उनको अपौरुषेय भी कहते हैं। कि किसी मनुष्य की कृति मत मान लेना इनको। मनुष्य मात्र की या मनुष्य विशेष की भी संपदा मत मान लेना इनको।
तो हम कह रहे थे वेदों की एक पूरी यात्रा है, इस यात्रा में बहुत उतार-चढ़ाव आते हैं, लेकिन वो यात्रा है निरंतर ऊर्ध्वगामी ही। वो नीचे से चलती है और एकदम ऊपर तक जाती है, ज्ञान का काम ही यही है।
तो वेदों के आरंभ में आते हैं मंत्र, संहिताएँ जिनमें तमाम देवताओं का पूजन है, उन्हें संतुष्ट करके उनसे वरदान, आशीर्वाद आदि माँगा गया है, शत्रुओं का नाश माँगा गया है, अपने पालतू पशुओं की संख्या, स्वास्थ्य में वृद्धि और रक्षा माँगा गया है। जितनी भी आधिभौतिक और आधिदैविक आपदाएँ हो सकती हैं, उनके विरुद्ध सुरक्षा माँगी गई है और इसमें विशेषरूप से कुछ आध्यात्मिक नहीं है। हालाँकि ऋग्वेद के दशवें मंडल में बहुत कुछ ऐसा है जो आध्यात्मिक काव्य की श्रेणी में रखा जाना चाहिए लेकिन फिर भी कुल मिलाकर के वेदों का जो मंत्र भाग है उसमें प्रकृति पूजन ही अधिक पाया जाता है।
ये जो यात्रा है वेदों की, वो मंत्रों से आगे बढ़ती है। फिर ब्राह्मण आते हैं जो बताते हैं कि यज्ञ आदि में और तमाम तरह के अनुष्ठानों, कर्मकाण्डों में किस तरह की विधियों का और नियमों का पालन करना चाहिए। फिर आरण्यक आते हैं। आरण्यक आते-आते फिर बात और गहराने लगती है। अब जो प्रश्न हैं वो बाहरी संसार से हटकर भीतरी होने लग जाते हैं। और वही यात्रा फिर अपना पूर्ण विकास पाती है और अपना गंतव्य, अपना लक्ष्य भी पाती है उपनिषदों में।
उपनिषदों में अब बात पूरे तरीके से आंतरिक हो गयी है। अब प्रकृति से कोई लेना-देना नहीं रहा। शुरुआत प्रकृति से हुई थी कि इंद्र से कुछ बात की जा रही है, मारुत से कुछ पूछा जा रहा है, वरुण से, अग्नि से कुछ पूछा जा रहा है। प्रकृति की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले ये सब देवता हैं, इनसे वरदान माँगा जा रहा है, इन्हें संबोधित किया जा रहा है और उपनिषदों तक आते-आते ऋषि प्रकृति के प्रति बिल्कुल उदासीन हो जाते हैं, बल्कि यहाँ तक कह देते हैं कि, "सत्य तो प्रकृति से परे है!"
बात इतनी बदल जाती है कि एक ओर तो देवता लोग थे जिन्हें भोग लगाया जा रहा था, खिलाया जा रहा था। उनको अन्न, पत्र, पुष्प यहाँ तक कि पशु की भी भेंट दी जा रही थी और उपनिषदों में ब्रह्म मात्र है जो कभी कुछ खाता ही नहीं। मंत्रों में देवी देवता हैं जो सब साकार हैं, जिन्हें संतुष्ट किया जा सकता है, जिनसे बात की जा सकती है और उपनिषदों में ब्रह्म मात्र है, जिसका कोई आकार नहीं, जिसकी कोई इच्छा नहीं, जिसका कोई संगी-साथी नहीं। जो अचिन्त्य है उससे बात क्या की जाएगी? तो बात इतनी बदल जाती है। लेकिन उपनिषद् हैं पूरे तरीके से वेदों के ही अंदर। वास्तव में वैदिक प्रक्रिया ही विकास लेकर के अन्ततः उपनिषदों तक पहुँचती है। और जहाँ तक मानव के अंतर्जगत की बात है, उपनिषदों के आगे की बात आज तक न सोची गयी है, न कही गयी है।
पूरे विश्व में विचार ने जहाँ कहीं भी ऊँचाइयाँ छुई हैं, उसको उपनिषदों ने किसी-न-किसी तरीके से प्रभावित किया है और भारत में तो स्पष्ट ही है कि जो भी धार्मिक सौंदर्य हम पाते हैं, उसके पीछे उपनिषदों का ही आशीर्वाद है। चाहे फिर वो बौद्ध धारा हो या भक्ति की मिठास, हैं सब उपनिषदों से ही प्रणीत। तो ये हैं उपनिषद्। इसलिए मैं बार-बार वेदान्त के महत्व की बात करता हूँ। वेदान्त में जो तीन इकाईयाँ सम्मिलित मानी जाती हैं, प्रस्थानत्रयी के नाम से उन्हें संबोधित करते हैं।
वो हैं ब्रह्मसूत्र, माने वेदान्त सूत्र, उपनिषद् और भगवद्गीता। इन तीनों में जो प्राचीनतम हैं वो निश्चितरूप से उपनिषद् हैं। और उपनिषद् प्राचीनतम ही नहीं, उपनिषद् वेदान्तसूत्र और भगवद्गीता के आधारभूत भी हैं। उपनिषद् न हों तो वेदान्तसूत्र और भगवद्गीता नहीं हो सकते। तो इसीलिए कई बार वेदान्त को और उपनिषदों को एक ही संबोधन में कह दिया जाता है।
ग़लत नहीं होगा कहना कि उपनिषद् ही वेदान्त हैं।