उड़ सकती हूँ, पर कहाँ को? || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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उड़ सकती हूँ, पर कहाँ को? || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी! ये मेरा पहला सत्र है आपके साथ में, और पहली बार भी। बात करने का मौक़ा भी मिल गया। तो मैं बहुत खुश हूँ इस बात को ले के। सवाल इस प्रकार जब मैं आयी थी यहाँ पर तो मैं लेकर नहीं आई थी। मेरा एकमात्र उद्देश्य था कि बस एक बार आपसे मुलाकात हो जाए। उसका कारण भी रहा है कि वही होता है ज़िन्दगी चलते-चलते। वो जब अज़ीब सी होने लगती है।

मैं किस तरीक़े से इस परिस्थिति को रखती हूँ आपके आगे। मैं एक अच्छी विद्यार्थी थी, अच्छा बच्चा। उसके बाद शून्य ज्ञान के साथ जैसे आप आगे बढ़ते हैं। लेकिन एक स्वतन्त्र महिला मतलब मैं मान सकती हूँ कि बारहवीं के बाद मैंने कमाई शुरू कर दी तो कोई निर्भरता नहीं थी। परिवार बहुत अच्छा था। बहुत खुला रखा है उन्होंने हमेशा हर चीज़ के लिए। करते-करते ज़िन्दगी में फिर वही शादी-ब्याह, बच्चे — वो ज़िन्दगी जी। और फिर जूता पड़ता है ज़ोर से। वो वाले कथानक हुए।

फिर एक पलटा और ये हमेशा अच्छा पक्ष होता है मतलब मैं उसमें से सकारात्मक ढूँढते हुए आगे बढ़ी। अन्त में मैंने शुरू किया मतलब फिर मैंने नौकरी करी। बहुत सारे खंड मैं कर ली। फिर मैंने व्यापार कर लिया। उसमें शुरू-शुरू में बहुत मज़ा आया। मैं एक अच्छी ऐशो-आराम की ज़िन्दगी जी रही हूँ, सबकुछ हो गया।

अब मुझे कुछ भी पसन्द नहीं है मतलब मुझे जो भी आसपास हो रहा है। या जो मैं कर रही हूँ मुझे एक बहुत सुन्दर जगह दिख रही है मतलब मैं प्रकृति के साथ में हूँ। लेकिन मैं वहाँ भी उस विशेष गतिविधि का आनन्द नहीं ले पा रही हूँ मुझे हर काम अर्थहीन लग रहा है।

और फिर मैंने ये सब जब खुराफात दिमाग में होने लगी। तो मैंने सोचा कि पढ़ते हैं क्योंकि ऐसा भी समय होता है कि कभी आपके आसपास उस स्तर के लोग होते हैं जिनसे आप मार्गदर्शन ले पाते हो। आपको ठीक लगते हैं। आप आगे बढ़ते हो, जैसे चाहे वो मेरी नौकरी से सम्बन्धित रही हो या मेरे व्यापार से सम्बन्धित। लेकिन अन्ततः मैं उस अवस्था पर हूँ जहाँ मुझे किसी का मार्गदर्शन भी बेमतलब लग रहा है।

या मुझे ऐसा लगता कि शायद ये तो मैं करके निकल चुकी हूँ। या इससे कुछ होने नहीं वाला। एक ही समय पर खाली नहीं बैठ सकती तो मैंने अपना दिनचर्या पूरा बदल कर लिया। पिछले दो महीनों से दिनचर्या में सुबह उठना, अपने स्वास्थ्य पर क्योंकि स्वास्थ्य भी बहुत हानि कर चुकी थी साथ में, तो स्वास्थ्य पर ध्यान देना, अपना ख़ुद का नाश्ता, अपने सारे काम ख़ुद करना। और बहुत सारी किताबें खरीदकर आ गयी हूँ। और दैनिक आधार पर मेरा अध्ययन के अलावा कोई दूसरा काम नहीं होता। अनावश्यक बातचीत अगर मुझे लगते हैं कि मुझे अच्छे लग रहे हैं तो शामिल होती हूँ। नहीं तो किसी से बात भी नहीं करती। एक प्रकार का मैं पूर्ण अलगाव में हूँ। उस जगह पर जो लगभग चालीस लोगों से घिरा हुआ है हर दिन के पचास लोग।

यहाँ से आगे की यात्रा में मुझे ये लगा जब मैं और ऑनलाइन चीज़ें देखने लगी कि अब मैं पूछू तो मैं किससे पूछूँ, तो सोशल मीडिया को धन्यवाद आपके शार्ट्स उसमें आये उसमें मुझे एक चीज़ बहुत अच्छी लगी। वो जिस तरीक़े से आप बोलते हैं, जिस तरीक़े से आप डॉंट लगाते हैं मुझे वो इतनी अच्छी लगीं कि मुझे लगा कि हाँ, अगर मुझे इस तरीक़े से कोई डॉंट भी दे, तो शायद मैं वो बनकर निकल सकती हूँ जो एक चरम अपने स्तर का होना चाहिए। लेकिन साथ ही मैं नहीं जानती कि क्या करना चाहिए।

आप मुझे बोलो — ‘डॉक्टर बन जाओ’। मैं कल से पढ़ने लगूँगी। मैं डॉक्टर बन जाऊँगी, पर मुझे वो बनना है। नहीं बनना है, क्यों बनना है? ये सवाल है। मतलब कुछ नहीं करना तो मैं घर पर बैठे ही रह सकती हूँ। वो भी मुझसे नहीं हो रहा। और अगर कुछ करना है तो कहाँ से शुरुआत करूँ। तो मेरी व्यक्तिगत मानसिकता थी कि मैं वेदों को पढ़ लेती हूँ। लेकिन अब कैसे पढ़ूँ? पढ़ने का तरीक़ा तो आपके वाले बहुत सारे थे और उसी दौरान ये सत्र का आयोजन आ गया। मैंने कहा कि अब मैं पहले मिल ही लेती हूँ। और वहीं जाकर के थोड़ी स्पष्टता आयी कि नये तरीक़े से फिर जीवन को देखें।

आचार्य प्रशांत: देखिए, हम जिसको फ्रीडम (स्वतन्त्रता) कहते हैं, या मीनिंग (अर्थ) कहते हैं। मीनिंग इन लाइफ़ (जीवन में अर्थ) फ्रीडम इन लाइफ़ (जीवन में स्वतन्त्रता), मीनिंग इन लाइफ़ (जीवन में अर्थ)। वो आमतौर पर हमेशा रिलेटिव होती है। द्वैतात्मक होती है। एक-एक कदम चलेंगे। जिसका मतलब ये है कि हम जब बन्धन में होते हैं। उसको हटाने के लिए दूसरे तरह के बन्धनों में चले जाते हैं। चूँकि पहले तरह के बन्धन से फ्री (स्वतन्त्र) हो गये तो हमें ये कहने का लगभग जायज़ हक मिल जाता है कि हम फ्री (स्वतन्त्र) हो गये। लेकिन हम फ्री नहीं हुए होते। हमने बस जो पुराने और ज्यादा कष्टप्रद बन्धन होते हैं। उनको छोड़ा होता है। और उनके बदले में?

प्र: दूसरे ले।

आचार्य: दूसरे बन्धन जो हैं वो पकड़ लिए होते हैं। अब जो एक तरह के बन्धनों की आदत डाल चुका है। एक तरह के बन्धनों से एडजस्ट वो समायोजित हो गया है। उसको कई बार ये सलाह देनी पड़ती है। मैं भी देता हूँ कि तुम्हारे अभी के जो बन्धन हैं उनको छोड़ कर के तुम आगे बढ़ो। फ्रीडम (स्वतन्त्रता) की ओर जाओ। और शब्द भी मैं वही इस्तेमाल करता हूँ, फ्रीडम की ओर जाओ। लेकिन मुझे भी पता होता है कि फ्रीडम माने मुक्ति इतनी हल्की, इतनी सस्ती चीज़ नहीं है कि आप बस अभी जैसे आपके बन्धन हैं, जो आपके अनुभव क्षेत्र के बन्धन हैं। आप उनको काट दोगे तो फ्री हो जाओगे।

हमारे असली बन्धन जो हैं वो तो हमें नहीं पता होते न। हमें तो वही पता होते हैं जो हमें अनुभव हो रहे हैं। तो एक महिला होने के नाते जैसे आपने ख़ुद ही उल्लेख करा कि फैमिली (परिवार) अच्छी थी। आपको स्वतन्त्र रहने की पूरी सुविधा, पूरी छूट मिली है। आप स्वयं अपनी आय अर्जित करती थीं। आपने पढ़ाई-लिखाई करी। फिर आपने एक तरह का जीवन बिताया। और वो सब। तो ये बिलकुल एक फ्री लाइफ़ (मुक्त जीवन) हो सकती है। जब मैं इसकी तुलना करूँगा किसी ऐसी लड़की की ज़िन्दगी से जो बेचारी किसी छोटे शहर में है। उसके घर वाले रूढ़िवादी हैं, और उसको महत्व नहीं दे रहे हैं। पढ़ाई नहीं करवा रहे उसकी, उसको काम नहीं करने दे रहे।

साधारण तरह की भी जो आज़ादी होती है ज़िन्दगी की वो उसको नहीं दे, रहे तो मैं उसको बिलकुल ये कहूँगा; बल्कि आपके जीवन को मैं उस लड़की के सामने एक तरह के आदर्श की तरह भी रख सकता हूँ। मैं कहूँगा देखो, तुम जैसी हो तुम वैसी ही रहना चाहती हो। क्या तुम नहीं चाहती कि तुम कुछ दशकों बाद ऐसे ही रहो? ये मैं करूँगा क्योंकि ऐसा करना व्यवहारिक रूप से उपयोगी है। लेकिन ये करते हुए भी मुझे ये पता होगा कि मैं उसको बस एक तरह के बन्धन से उठा कर के?

प्र: दूसरे में,

आचार्य: लेकिन ये बन्धन उपयोगी है। ये जो मूवमेंट (आन्दोलन) है ये उपयोगी है क्योंकि मैं सीधे-सीधे ये नहीं कह सकता उसको कि तुम अपनी अहम वृति का ही त्याग कर दो देवी। वो मैं किसी से नहीं कह सकता। वो मैं ख़ुद को भी नहीं बोल सकता। है न, हम तो, हम तो शरीर के जीव हैं; शरीर माने द्वैत। हम तो शरीर के जीव हैं और द्वैत में तो ऐसे गति की जाती है।

उसी का मतलब होता है समय। जहाँ एक के बाद दूसरी चीज़। दूसरी चीज़ है न, एक कदम, दूसरा कदम; यही घड़ी की सुई है वो ऐसे एक कदम, दूसरे कदम चलती है घड़ी। तो एक अर्थ में वो हो पाना जैसे आप हो पायीं उपयोगी होता है। एब्सोल्यूट सेंस (पूर्ण भाव) में उपयोगी नहीं होता। क्योंकि आपका जो पूरा मूवमेंट (आन्दोलन) है वो विदिन डुआलिटी (द्वंद्व के भीतर) ही है। पर फिर भी वो उपयोगी है। ठीक है, तो हमें क्या करना होता है? हमें ये करना होता है कि हम, हम साफ-साफ देख पाएँ कि हम जिसको फ्रीडम (मुक्ति) बोलते हैं; या हम जिसको मीनिंग (अर्थ) बोलते हैं, या हम जिसको गुडनेस (अच्छाई) बोलते हैं, वो लिमिटेड (सीमित) है।

और जैसे ही आप ये देख पाते हो, फिर आपका उससे मोहभंग होता है। है न, जब तक कोई चीज़ आपको एब्सोल्यूट (पूर्ण भाव) के आसपास की लग रही है, एब्सोल्यूट के घर खानदान की लग रही है, तब तक वो प्यारी लगेगी। जब आपको दिखाई देता है कि वो ऐबसोल्यूट (पूर्ण भाव) के आस पास की नहीं है तो फिर आपका उससे थोड़ा सा हटो बेकार है। कुछ नहीं रखा। है ना, आपको अब ये देखना पड़ेगा। ये हटा कर के कि भारत में बाकी महिलाओं का कैसा रहता है? वो कैसा जीवन जीती हैं?

उनको हटाइए, अपने आप को एक इंसान, चेतना की तरह देखिए और पूछिए अपने आप से। ये जो अभी मेरा ऑर्बिट (कक्षा) है, इससे अगला क्या हो सकता है? ये कहना पर्याप्त नहीं है कि मैं नीचे के जो तीन ऑर्बिट (कक्षा) हैं उनसे तो ऊपर हूँ न। ऑर्बिट तो ऑर्बिट होता है। ऑर्बिट तो ऑर्बिट है। ऑर्बिट माने फ्रीडम (मुक्ति) नहीं होता। जो पहले ऑर्बिट में है वो भी बंधा तो उसी नाभिक से है। पचासवें में भी जो बैठा है वो भी चक्कर तो उसी का काट रहा है। वो थोडा ज़्यादा बड़ा चक्कर काट रहा है। सर्किल बहुत बड़ा हो जाए, और उसको आप जुमिन करके देखो तो लगता है स्ट्रेट लाइन (सरल रेखा) है।

लेकिन है तो वो भी ऐसे वृत्ति, एक वर्तुल, तो वो सबकुछ, जो आपको मीनिंगफुल (अर्थपूर्ण) लगता रहा है वो सबकुछ जो आपको फ्रीडम (मुक्ति) का पर्याय लगता रहा है। उसको देख कर के उससे हटना पड़ेगा। वही बॉन्डेज (बन्धन) है। वो, वो बॉन्डेज (बन्धन) शायद तब नहीं रही होगी जब आप पन्द्रह साल की थीं। पर वो आज की बाॅन्डेज है, उससे हटना पड़ेगा। उससे हट के वापस वहाँ नहीं जाना है जहाँ पन्द्रह साल वाले थे। क्योंकि जैसे ही बोलूँ कि हटना पड़ेगा तो विकल्प के तौर पर बन्धन याद आते हैं पुराने। नहीं, ए न्यूअर फ्रीडम (एक नयी आज़ादी) जिसके बारे में आप अभी कुछ जान नहीं सकतीं।

लेकिन इतना ज़रूर कह सकतीं हैं कि इट विल नॉट हैव द कलर्स एंड कैरेक्टरस्टिक्स ऑफ द एग्जिस्टिंग लाइफ़ (इसमें मौजूदा जीवन के रंग और विशेषताएँ नहीं होंगी)। है ना, जैसी ज़िन्दगी अभी चल रही है उसमें जो कुछ भी है आपके पास। जो भी आप कह रही थीं। विवरण आप ही जानती होंगी। सुख-सुविधा, पैसा या जो भी चीज़ें हैं आपके पास। वो आपको अब और आगे नहीं ले जा सकतीं। बस हो गया। और अगर आगे नहीं ले जा सकती हैं तो उनको श्रेय देना बन्द करना पड़ेगा।

उनको इस तरह देखना कि ये मेरे एसेट्स (संपत्ति) हैं, ये मेरे मित्र हैं। उनको ऐसे देखना बन्द करना पड़ेगा। फिर आप रास्ता तलाशते हो कि आगे और क्या हो सकता है? और वो रास्ता पुरानी चीजों को साथ लेकर आप नहीं तलाश पाओगे। कोई किसी छोटे शहर, गॉंव, कस्बे की लड़की हो वो कहे कि मुझे हायरएजुकेशन (उच्च शिक्षा) लेनी है। छोटे गाँव का नाम बताओ, कुछ भी रामगढ़। लेकिन वहीं बैठ के लेनी है तो वो तो नहीं हो सकता न। आगे जाना है तो जो पीछे है उसको पीछे ही छोड़ना पड़ता है। तो आपके पास अभी जो कुछ है वो पीछे छूटेगा।

लेकिन नहीं छूट सकता अगर उसको साथ लिए-लिए आगे बढ़ने की बात करेंगे तो।

प्र: नहीं, ये मुझे इतनी मुझे क्लैरिटी (स्पष्टता) है। मुझे इसमें कोई इशूज़ (समस्याएँ) भी नहीं है। लेकिन आगे जाऊँ कहाँ?

आचार्य: नहीं आगे, आगे का रास्ता।

प्र: हाँ।

आचार्य: ‘मैं घोड़ा हूँ।’

प्र: अच्छा,

आचार्य: आगे का रास्ता क्या है? इसको क्या बोलते हैं? टनल विजन (संकीर्ण दृष्टिकोण), ये हम होते हैं। ये हमारी लिमिटेड फ्रीडम (सीमित मुक्ति) होती है। क्या मुझे बिलकुल नहीं दिख रहा?

प्र: नहीं दिख रहा है।

आचार्य: पर मुझे कितना दिख रहा है?

प्र: थोड़ा सा।

आचार्य: तो मैं आगे जाऊँ कहाँ? इसका उत्तर तो आपको मिल ही जाएगा। कहाँ जाओ?

प्र: सीधा।

आचार्य: और सीधे जाओगे तो वैसे ही बने रह जाओगे। जैसे

प्र: अभी हैं।

आचार्य: जो सीधे का रास्ता है, वो उसी ने तैयार कर रखा है। जिसने आपको ये पहनाया है। जिसने ये पहनाया, उसी ने आगे का रास्ता भी तैयार कर दिया है। तो आप ये कहें कि मुझे दिख रहा है पर मैं सीधे जाऊँगा नहीं।

प्र: नहीं।

आचार्य: आप जहाँ है वहाँ आपने ये जो पहन रखा है पहले ये, फिर दिख जाएगा कहाँ जाना है? नहीं तो आप सीधे चले तो जाओगे पर सीधे ही चले जावोगे, सीधे ही चले जाओगे।

तो जो एग्जिस्टिंग परस्पेक्टिव (मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य) है लाइफ़ (जीवन) का उसको बदलना पड़ेगा। उसको चैलेंज (चुनौती) करना पड़ेगा। आपको ये समस्या बिलकुल नहीं आने वाली है कि मैं नेक्स्ट (आगे) क्या करूँ? मैं आपको बिलकुल आश्वासन दे रहा हूँ। आप मेरी सुनें, न सुने आप कुछ और कर लें। दो, तीन महीने बाद आप पाएँगी कि आप कुछ न कुछ नया कर रही हैं। अगला काम करने में किसी इनसान को कभी दिक्कत नहीं आती। बस वो अगला काम ऐसे होता है।

प्र: नहीं, वो नहीं करना है ना। वही तो नहीं करना है।

आचार्य: तो फिर हटाना पड़ेगा और ये वो सबकुछ है जो अभी ज़िन्दगी है, ये ज़िन्दगी है। ये वो सबकुछ है। हमारे विचार हमारे माहौल से प्रभावित होते हैं न। और माहौल माने वो सबकुछ जो हमारे अनुभव में आता है। जो हमारी आइडेंटिटी (पहचान) है। जिसमें हम जीते हैं, खाते हैं, पीते हैं, वो जब तक वैसा ही रहेगा जैसा है, ये भी वैसा ही रहेगा जैसा है। और अगर ये ऐसे का ऐसा है तो आगे भी आप वहीं जाएँगी जहाँ ये आपको लेकर जा रहा है।

प्र: ये तो करना ही नहीं है।

आचार्य: यहाँ ये नहीं करना है तो अभी वो सब चीज़ें मैंने कहा जो हमें इम्पोर्टेंट (महत्वपूर्ण) लगती हैं। एसेट्स (संपत्ति) जैसी लगती हैं। उनको फ्रीडम (मुक्ति) की जगह अब कंस्ट्रेंट (प्रतिबंध) मानना पड़ेगा। वो सबकुछ जो मुझे लगता है। देखिए, ऐसे शुरू कर लीजिए। तो ड्रॉप (छोड़ना) करना पड़ेगा। ड्रॉप करना पड़ेगा। अभी आपको कुछ चीज़ें हैं जो नापसन्द हैं। जिनको आप कह रही हैं कि इशूज़ (समस्याएँ) हैं, कुछ चीज़ें हैं जो आपको पसन्द हैं न?

प्र: मुझे उस जगह मतलब मैं अभी जहाँ पर हूँ वहाँ पर सिर्फ़ मुझे नेचर पसन्द है। उसके अलावा मुझे वहाँ कुछ नहीं पसन्द है।

आचार्य: वो जो नेचर (प्रकृति) है।

प्र: इवन आई डोंट लाइक पीपल अराउंड (यहाँ तक कि मुझे आसपास के लोग भी पसन्द नहीं हैं)।

आचार्य: ला रहा हूँ। क्या वो इस देश के आम आदमी को मिल पाता है?

प्र: नहीं।

आचार्य: क्यों नहीं मिल पाता?

प्र: क्योंकि वो शायद देख भी नहीं पाता होगा उस तरीक़े से।

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है।

प्र: नहीं, ऐसे पैसे की वहाँ इतनी! अच्छा, क्षमा कीजिए।

आचार्य: आम आदमी को क्यों नहीं मिल पाता वो नेचर (प्रकृति) और देखिए इतनी ज़ल्दी वो कैसे समझ गये। वो जो नेचर है वो सिर्फ़ नेचर नहीं है ना। कहने को तो नेचर ऐसी चीज़ है कि प्रकृति मात्र है, पेड़ होगा। कुछ बाग़-बग़ीचा होगा, शायद आस पास कोई नदी बह रही होगी। हवा साफ़ होगा। आम आदमी को सब मिल पाता है क्या?

प्र: नहीं।

आचार्य: क्यों नहीं मिल पाता। प्रकृति तो प्रकृति है। मुफ़्त आनी चाहिए। आम आदमी को मुफ़्त की चीज़ भी क्यों नहीं मिल पाती? पैसा नहीं होता न, तो वो सब भी जो आपको पसन्द है। देखिए, कि वो चीज़ क्या है? कुछ चीज़ें नापसन्द हैं वो ठीक है। नापसन्दगी की वज़ह से हम परिवर्तन चाहते हैं। बहुत अच्छी बात है परिवर्तन। पर कुछ चीज़ें पसन्द भी तो हैं न, जो पसन्द है उसमें आपको इसको देखना पड़ेगा। जो पसन्द है, उसमें ये निहित है।

जो पसन्द है वो आपको टनल विजन देगा (संकीर्ण दृष्टिकोण)। आप परिवर्तन तो कर ले जाएँगी पर परिवर्तन वैसा ही हुआ कि एन ऐज़ इक्वल टू (एक बराबर दो) से एन ऐज़ इक्वल थ्री (एक बराबर तीन) वाले ऑर्बिट (कक्षा) में आ गये, परिवर्तन हो जाएगा। और ऑर्बिट्स अनलिमिटेड (परिक्रमा असीमित) होते हैं तो आप अपनी पूरी ज़िन्दगी अगले ऑर्बिट हो जाते हुए गुज़ार सकती हैं। बहुत बुरा भी नहीं लगेगा।

प्र: क्योंकि, नहीं मैंने वास्तव में वो बचपन की कहानी वहाँ से यहाँ तक इसलिए बताई क्योंकि वो उसी तरीक़े के सर्कल्स (मंडलियाँ) थे और वो एकदम से टूटते हैं। और फिर नए सर्किल (मंडली) में टूट रहा है। नए सर्किल (मंडली) पर और अब टूट रहा है और अभी मुझे नेक्स्ट सर्कल (अगली मंडली) का इशू (समस्या) है। क्यूंकि कुछ तो करेगा, अगर ज़िन्दा हैं तो कुछ तो करेंगे। और वो कुछ अगर मीनिंगफुल (अर्थपूर्ण) नहीं है तो उसकी क्या? उसका क्या फ़ायदा? फिर तो यहीं रहो जहाँ हैं।

आचार्य: मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। आप इतनी सिनसेरिटी (ईमानदारी) से सारे जो सर्किल्स (घेरे) हैं, उनको तोड़ना चाहती हैं। और एक से आगे बढ़ रही हैं। उसके लिए फिर आपको उतना ही रुथलेस (क्रूर) होना पड़ेगा। अगर मीनिंगलेस (अर्थहीन) नहीं चाहिए जीवन, तो रूथलेस (क्रूर) होना पड़ेगा। और रूथलेस होने का मतलब यही होगा कि जिन चीज़ों को आप बुरा मानती हैं सिर्फ़ उनसे फ्री होने की मत सोचिए। जिन चीज़ों को आप भला मानती हैं न कि ये तो है ही, उनका इन्वेस्टिगेशन (जाँच-पड़ताल) करिए।

और जब उनका इन्वेस्टिगेशन (जाँच पड़ताल) करेंगे तो वहाँ पर आपको बॉंडेज (बन्धन) के सीड्स (बीज) दिखाई देंगे। फिर आसान हो जाता है आगे बढ़ जाना। कौनसी चीज़ है जो अच्छी लग रही है? और जो चीज़ अच्छी लग रही है वो क्यों अच्छी लग रही है? उसमें कम्फर्ट इनक्लूडेड (आराम शामिल है) है क्या? उसमें कहीं लिमिट्स (सीमा) भी बँधी हुई हैं क्या साथ में? ये सब पूछना पड़ता है। जैसे-जैसे आप पूछोगे वैसे-वैसे रास्ता कठिन तो दिखेगा पर कम-से-कम दिखेगा। दिखना तो शुरू होगा। बहुत ज़ल्दी से नेक्स्ट ऑर्बिट (अगली कक्षा) की तलाश मत करिए।

प्र: नहीं, मैं नहीं कर रही हूँ।

आचार्य: बहुत ज़ल्दी से मत करिए। क्योंकि मिल जाएगा।

प्र: ये बेहतर है कि ढूँढने में समय निकाला जाए। रात-दिन करना शुरू हो जाए।

आचार्य: और ढूँढना जब हो डोंट लुक फॉर, लुक नियर। ओके? लुकिंग फॉर सिम्पली मीन्स लुकिंग एट द स्टार्स विथ दिस (दूर मत देखो, पास देखो। ठीक है? ढूँढने का सीधा सा अर्थ है इसके द्वारा तारों को देखना)। बहुत दूर देख रहे हैं लेकिन बिलकुल पास में देखिए। पास देखेंगे तो ये दिखाई देंगे।

इनके मध्य से दूर देखने का प्रयास बहुत फल नहीं देगा। बिलकुल पास देखिए। एक दम पास कि जिन चीज़ों को मैं अपना समझती हूँ, जिन चीज़ों को मैं स्ट्रेंज (अज़ीब) समझती हूँ, या जिन चीज़ों को मैं नॉन निगोशिएबल (बातचीत करने योग्य नहीं) समझती हूँ; कहीं वही तो मुझे फ्रीडम (मुक्ति) से और मीनिंग (अर्थ) से वंचित नहीं रख रहे। तो वो उन चीज़ों पर आप जैसे-जैसे विचार करेंगी वैसे-वैसे एक नयी मीनिंग (नया अर्थ) खुलेगी। और फ्रीडम तो ब्लिस (परम आनन्द) होती ही है।

इट कॉल्स बट द रियल थिंग इज टू लीव इट (ये कॉल करता है लेकिन असली बात इसे छोड़ना है) और उसके लिए जो प्राइज पे (क़ीमत अदा) करना पड़े कम है। उसकी कॉलिंग भी थोड़ा प्लेज़र (आनन्द) दे देती है। ईवन इफ ए डिफिकल्ट प्लेज़र, ईवन इफ ए पेनफुल प्लेज़र (भले ही एक कठिन आनन्द, भले ही कष्टदायक सुख हो) पर वो चीज़ अट्रैक्ट (आकर्षित) कर रही है। ये चीज़ भी बहुत अच्छी लगती है कि अभी ज़िन्दा हैं, तो वो जब ज़िन्दगी में आ जाती है तो उसका तो कोई द जॉय इट रेंडर्स (ये जो आनन्द प्रदान करता है) उसका तो कोई अन्त नहीं होता।

जब आप ये याद रखोगे तो इट विल बी ईजी टू मेक डिफ़िकल्ट चॉइसेज़, द सेम प्रिन्सिपल अप्लाइज़ टू एवरीवन (कठिन चुनाव करना आसान होगा। यही सिद्धांत हर किसी पर लागू होता है) आप अगर आगे नहीं बढ़ पा रहे हो तो वज़ह कभी भी ये नहीं होती है कि जो आगे का क्षेत्र है, वो आपके लिए निषिद्ध है या आपके पास सामर्थ्य नहीं है आगे जाने की। आगे हम इसीलिए नहीं बढ़ पा रहे होते क्योंकि अभी हम कहाँ हैं? पहली बात हमने उसको ठीक से जाना नहीं, दूसरी बात अभी हमारे पास कुछ ऐसा होता है हम जिसको लिए-लिए आगे बढ़ना चाहते हैं। लिए-लिए आगे बढ़ना चाहते हैं। वो नहीं हो पाता।

आप मंदिर में जाएँ और आपके ज़ेब में कोई वेपन (हथियार) है एंट्री (प्रवेश) नहीं मिलती न! तो कुछ जगहों पर जाने के लिए कुछ चीज़ें जो आप अपना एसेट (संपत्ति) समझते हो, अपना वेपन ही समझते हो उसको पहले छोड़ना पड़ता है। नाउ दैट वेपन माइट हैव बीन यूजफुल टू ब्रिंग यू टू द टेंपल (अब वो हथियार तुम्हें मंदिर तक लाने में काम आ सकता था)। आप बिलकुल एक ऐसे मवाली इलाके से निकल के आ रहे हो। वो टेम्पल (मंदिर) ही ऐसी जगह हो सकता है तो मंदिर तक लाने में उसकी बन्दूक की, पिस्तौल की उपयोगिता थी, आज तक थी।

वही हमने कहा वी मूव फ्रॉम वन फ्रीडम टू अदर इट्स ऑल रिलेटिव (हम एक स्वतन्त्रता से दूसरी स्वतन्त्रता की ओर बढ़ते हैं, ये सब सापेक्ष है)। जो चीज़ आपको यहाँ तक लाने में उपयोगी थी। आगे जाने में वही बाधा बन रही है। जो चीज़ आपको जहाँ आप पहुँची हैं वहाँ तक लायी। उसका धन्यवाद दीजिए। वहॉं तक लायी। लेकिन आगे अब आपको मंदिर में प्रवेश करना है। वहाँ पर वो पिस्तौल ही बाधा बनेगी। उसको छोड़ना पड़ेगा।

द सेम काइंड ऑफ थॉट, एटिट्यूड, एनर्जी, एसेट्स, रिलेशनशिप्स एवरीथिंग दैट यू ब्रॉट टू दिस स्टेज (उसी तरह का विचार, नज़रिया, ऊर्जा, संपत्ति, सम्बन्ध वो सबकुछ जो आप इस स्तर पर लाए हैं) आगे हो सकता है, उसकी बहुत उपयोगिता न हो। नहीं ही होती है।

प्र: नहीं ही है। वो ही लग रहा है।

आचार्य: तो फिर उनको फिर विसर्जित भी करना पड़ेगा। जहाँ वो प्रकट दिखाई पड़ रहें हों कि ये मेरे लिए महत्वपूर्ण है वहाँ भी। और जहाँ वो अप्रकट हो वहाँ भी। तो थोडी सी ख़ोजबीन भी करनी पड़ेगी। किस-किस तरीक़े से कौनसी चीज़ें हैं? जो मुझे सिर्फ़ इधर को ही भेजेंगी। इधर-उधर नहीं जाने देंगी। उनसे थोड़ा सा और वो कोई भी करे उसको चुनौतीपूर्ण लगता है। आपको भी लगेगा। पर उसे मिलता है उसकी बात दूसरी है। आपने अभी-अभी शार्ट्स देखे हैं न सिर्फ़?

प्र: नहीं सर, मैं फिर आपके वीडियोज भी देखने लगी हूँ। और यूट्यूब वीडियोज भी देखी हूँ। अब सिर्फ़ बुक्स (क़िताबें) पर आना रह गया है। मतलब वो गाइडेंस (मार्गदर्शन) मैं पर्सनली (व्यक्तिगत रूप से) आकर मिलकर एक बार बातचीत हो जाए कि किस तरह की किताबें। क्योंकि मैं किसी से बात नहीं कर पाती।

आचार्य: शॉर्टस मत देखिएगा आगे। मैं ख़ुद इनसे परेशान रहता हूँ। कुछ भी निकालकर कुछ भी दिखाते हैं। देखिएगा तो पूरा देखिएगा।

प्र: नहीं, मैं पूरा देखती हूँ।

आचार्य: बहुत अच्छा विचार है कि क़िताब ही पढ़ ली जाए है, तो जहाँ गहराई मिल रही है उधर को जाइए।

प्र: नहीं, ऐसा नहीं है कि शॉर्टस में कुछ दिखा। वो मैंने पूरे ही सुने। वो अर्थपूर्ण लगा। उसके बाद ही मैं आगे यूट्यूब तक पहुँची हूँ।

आचार्य: हाँ, बट रिमेम्बर देयर आर ऑर्बिट्स ऑफ़ मीनिंग्स। (लेकिन याद रखें कि अर्थों की कक्षाएँ हैं) एक चीज़ में भी मीनिंगफुल (अर्थपूर्ण) लग रही है। वही चीज़ किसी अर्थ में मीनिंग को रोक भी रही है। ये डुअल नेचर (दोहरा स्वभाव) है न दुनिया में हर चीज़ का? जो इधर का रास्ता है, जो दरवाज़ा इधर से आपको बाहर को निकालता है, वही दरवाज़ा किसी को प्रोहिबेट (प्रतिबन्धित) भी करता है। तो जो चीज़ एक लेवल (स्तर) पर फ्रीडम (स्वतन्त्रता) दे रही है वहीं दूसरे लेवल (स्तर) पर फ्रीडम (स्वतन्त्रता) को रोकती भी है।

तो पूरा वीडियो, पूरी क़िताब एंड गो फॉर मीनिंग, गो फॉर डेप्थ, क्विक ट्रूथ्स ( (और अर्थ के लिए जाइए, गहराई में जाइए, त्वरित सत्य) आसानी से सैटिस्फाइ (संतुष्ट) कर देते हैं। लेकिन उस पर रुकिएगा नहीं।

प्र२: प्रणाम आचार्य जी! आचार्य जी! जैसे मैम ने पूछा था अभी कि ऑर्बिट (कक्षा) की बात चल रही थी, कि आप अपने ऑर्बिट को क्लियर (साफ़) करो तो मैं ये पूछना चाहता था कि ऑर्बिट क्या घर, परिवार, व्यापार इससे सम्बन्धित है कि आंतरिक जो ऑर्बिट्स हम लोग सोचते हैं उनसे सम्बन्धित है?

आचार्य: दोनों, ऑर्बिट माने क्या? जो आपको चलने तो देता हो पर लॉंघने न देता हो। ऑर्बिट , कक्षा। कक्षा में क्या आपकी गति को शून्य कर दिया जाता है? तो ऑर्बिट माने जो आपको चलने तो देता है बल्कि जहाँ आवश्यक होता है चलना। अगर कोई प्लैनेट (ग्रह) या कोई इलेक्ट्रॉन अपने ऑर्बिट में चलना बन्द कर दे तो तत्काल क्या होगा? अरे पृथ्वी चलना बन्द कर दे तो जाकर सीधे सूर्य में घुस जाएगी।

चूँकि घूम रही है इसीलिए सूर्य से बची हुई है। तो चलना आवश्यक होता है ऑर्बिट में। लेकिन ऑर्बिट ही आपको ऑर्बिट का उल्लंघन नहीं करने देता। ये ऑर्बिट की परिभाषा है। ऐसे अपनी ज़िन्दगी में ऑर्बिट को पकड़ना पड़ता है। ये न सिर्फ़ मुझे चलने देता है बल्कि चलने को मजबूर भी करता है कि चलो रे! नहीं तो प्रलय हो जाएगी। पृथ्वी जाकर के सूर्य में घुस गयी। इलेक्ट्रॉन जाकर न्यूक्लियस (नाभिक) में घुस गया। प्रलय हो गयी। सब ख़त्म हो गया।

न्यूक्लियस (नाभिक) भी बर्बाद हो गया, सब ख़त्म हो गया। तो चलना तो पड़ेगा नहीं तो सब बर्बाद हो जाएगा। लेकिन चल-चलकर भी कहीं पहुँचना नहीं है, कक्षा है। ऐसे गोल-गोल, गोल-गोल घूमते रहो उसमें। वो ऑर्बिट होता है। देख लीजिए आपकी ज़िन्दगी में ऑर्बिट कहाँ मौज़ूद है?

प्र२: एक सवाल और है आचार्य जी!

आचार्य: एक मिनट रुक जाइए। थम जाइए। ऑर्बिट की परिभाषा स्पष्ट हुई है सबको? हाँ, किसको लॉंघना है? ये डिग्रीज़ ऑफ़ फ्रीडम (स्वतन्त्रता की कोटियाँ) की बात कर रहे थे न हम? यहाँ से यहाँ, यहाँ से यहाँ, जो कुछ भी आप के जीवन में ऐसा है जो आपको गति करने की न सिर्फ़ अनुमति देता है बल्कि विवशता भी देता है कि गति तो करनी ही पड़ेगी, लेकिन गति करो एक दायरे के अन्दर ही अन्दर, दायरे के अन्दर ही अन्दर करोगे। और वो आपकी गति सीमा भी निर्धारित कर देता है।

किसी वजह से ये जो इलेक्ट्रॉन (नाभिक) हैं आप इसकी वेलोसिटी (वेग) बढ़ा दीजिए तो क्या होता है? तो ऑर्बिट ये भी तय कर देता है कि स्पीड (गति) न तो कम होगी। कम होगी तो अन्दर आ जाओगे और ज़्यादा होगी तो भग जाओगे। तो सबकुछ तय करके रखता है। कहता है, ‘बेटा, काम करते चलो। उससे कुछ याद आ रहा है। कोई जानवर, कोल्हू का बैल वो ऑर्बिट में होता है। इससे बैल को क्या मिल रहा है? (श्रोता उत्तर देते हैं)

बस उतनी, बहुत बढ़िया। ये मत बोलिए कुछ नहीं, कुछ नहीं बोलते तो लगता है कि निष्काम हो गया। बस भोजन मिल रहा है, वो ऑर्बिट है। ऑर्बिट माने बैल हो जाना। ऐसा नहीं उसमें कुछ नहीं मिल रहा। पर जो मिल रहा है वो बिलकुल न्यून दर्ज़े का है। उसको बोलते हैं ऑर्बिट। अब देख पा रहे हैं अपनी ज़िन्दगी की ऑर्बिट्स को?

देखिए, अगर आपको सीध- ही-सीधे बन्धन में डाल दिया जाए तो आपके लिए सुविधा हो जाएगी, आप विद्रोह कर दोगे। आप सब यहाँ बैठे हुए हो। आपके पास बुद्धि है, क्षमता है, अनुभव है, रुपया पैसा है, विवेक भी है, विचार भी है। आप सब यहाँ बैठे हो। आप सब संसाधनों के पिंड हो बिलकुल। है न? अगर एकदम आपको स्पष्ट कर दिया जाए कि चल जेल के अन्दर। आप देखोगे आपकी ऊर्जा कैसे सक्रिय हो जाती है। आप तुरन्त हाथ-पॉंव चलाना शुरू कर दोगे।

बुद्धि चलाओगे, विचार करोगे, सब करोगे। तो जीवन आपको वैसे नहीं क़ैद में रखता कि चार दीवारी के भीतर। वो आपको देता है? अरे, बोलिए! वो ऑर्बिट्स देता है?

श्रोता: कुछ खाने को भी देता है।

आचार्य: बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक, एकदम ठीक। उसमें और आगे भी जा सकते हैं। हमें ये भी पता है कि एक जो मूविंग चार्ज (गतिशील आवेश) होता है वो अपना मैग्नेटिक फील्ड (चुम्बकीय क्षेत्र) भी तो क्रिएट (निर्माण करना) करता है। तो वो फिर आपको औरों को आकर्षित करने की भी क्षमता देता है। ‘तुम भी आ जाओ, मेरे ही जैसे बन जाओ।’ बात समझ में आ रही है?

आपको कहीं पर क़ैद कर दिया जाए तो लगता है क़ैद हूँ। लेकिन आपको लिमिटेड फ्रीडम (सीमित स्वतन्त्रता) दे दी जाए तो आपको लगता है फ्री (स्वतन्त्र) हूँ। तो इससे आपको बन्धन का स्वरूप पता चल रहा है। बन्धन माने आंशिक मुक्ति। पूर्ण बन्धन कभी नहीं मिलता किसी को। सबको आंशिक मुक्ति मिलती है। आ! ये क्या हो गया? कभी भी किसी को पूर्ण बन्धन नहीं मिलता! सबको सदा और आंशिक मुक्ति ही बन्धन है! ये बात हम समझ नहीं पाते। आंशिक मुक्ति ही बन्धन है। पूर्ण बन्धन आपको मिल गया तो आप बन्धन बिलकुल तोड़-फोड़ दोगे। सारी ताकत है आपके पास। आप एकदम कुपित हो जाओगे जैसे बड़ा भारी अपमान हो गया हो, पूर्ण बन्धन दे दिया।

ये तो नहीं स्वीकार है। लड़ जाओगे तो जिसको आपको बन्धन में रखना होता है वो आपको बन्धन जितना देता है उतनी ही मुक्ति भी देता है ताकि आप खुश रहो। देखो, तुम्हें फ्रीडम है न चलने की यू हैव अनलिमिटेड फ्रीडम टू मूव (आपको घूमने की असीमित स्वतन्त्रता है)। आप कहते हैं, ‘बिलकुल सही बात है। आज, आज में सवा-सौ चक्कर काटे हैं। इतनी फ्रीडम है मुझको।’ फ्रीडम तो ये है ही। इतना देखो कितना चल रहा है? तुम पूरा करो अगर एंड टू पाई आर , पता नहीं कितना चल गया वो!

कितना चल गया! और वो खुश भी हो रहा। वो अपने सीवी में लिख रहा है कि मैंने इतना डिस्टेंस कवर (दूरी तय किया है) करा है। एंड टू पाई आर , अध्यात्म कहता है कि डिस्टेंस (दूरी) नहीं और वो कितना है? डिस्प्लेसमेंट (विस्थापन) एकदम शून्य एकदम शून्य। चले बहुत पहुँचे कहीं नहीं। चले तो बहुत; हाँ, ये। तो ये सब बातें ज़िन्दगी से पूछनी पड़ती हैं। मेरे प्रोफेसर थे आइआइएम में, तो सेकेंड ईयर मैंने अपना पूरा प्लेज़ (नाटक) में ही बिताया। तो सोसाइटी होती थी आई एम एक्ट्स। तो उसके हेड थे प्रोफ़ेसर राकेश बसंत ।

तो स्क्रिप्ट का चयन करना वो बाते हैं, उस पर उनसे मेरी बातें होती थीं। उनकी व्यक्तिगत रुचि भी थी। कुछ वो थोड़ा मुझे मानने लग गये थे। तो रात-रात भर रिहर्सल होती थी। वो लुई कॉन प्लाजा है आइआइएम में वहाँ पर। तो बहुत पुरानी बात हो गयी। अब ये बिलकुल इक्कीस साल पुरानी बात है। तो उस पर रिहर्सल चल रही थी और वो रात में एक-दो बजे आ गये और रातभर चलती थी। तो बहुत ज़ोर-शोर से सब चल रहा था। तो देखते रहे देखते रहे, फिर थोड़ी देर के लिए ब्रेक हुआ तो ब्रेक में पूछते हैं, ‘प्रशांत कैसा चल रहा है?’

मैंने कहा, ’एक्टिव, वी आर फाइटिंग इट आउट (सक्रिय, हम इससे लड़ रहे हैं)! बोले, ‘रुककर देखना ज़रूर’। क्योंकि मैं प्ले (नाटक) में एक्टर (अभिनेता) भी था और डायरेक्टर (निर्देशक) भी था। तो मैं एकदम घुसा हुआ था उसमें। मुझसे बोले, ‘रुककर देखना ज़रूर;। उसके लिए उन्होंने अंग्रेजी में बात हो रही थी तो उन्होंने कहा था टेकिंग स्टॉक। (जायज़ा लेना) बोले, ‘अच्छी बात है कि तुम एकदम उसमें लिप्त हो, घुसे हुए हो लेकिन बाहर आकर के डू टेक स्टॉक (जायज़ा ज़रूर लो)।

सचमुच हो क्या रहा है ये! और उनकी वो बात मुझे बड़ी अर्थपूर्ण लगी थी। मुझे याद है वो चले गये, ब्रेक (विराम) अभी चल ही रहा था। मैं वहीं पर लेट गया। लुई कॉन प्लाजा में मैं ऊपर ऐसे देखने लग गया। ऊपर कुछ चल नहीं रहा था। वहाँ हर चीज़ स्थिर थी। और वो जैसे एपिफिनिक मूमेन्ट न, जब कुछ — ऐसे तो जब गति बहुत चल रही हो उसका स्टॉक (जायज़ा) लेना बहुत ज़रूरी होता है रुक-रुककर बीच में। मेरी किस्मत अच्छी थी कि वो उस दिन उस समय आये थे जब बीच में ब्रेक लिया हुआ था कि जाओ, बीस मिनट बाद आना सब।

वो ब्रेक्स (विराम) बहुत ज़रूरी होते हैं। और अगर वो जो ब्रेक हैं वो कान्करेंट (समवर्ती) हो सके तो उसको विटनेसिंग (साक्षी) बोलते हैं। जो चल रहा है उसके साथ-साथ ही उसका स्टॉक (जायज़ा) भी लिया जा रहा है। ये ही विटनेसिंग (साक्षित्व) है। क्योंकि हमेशा ये सम्भव नहीं हो पाया कि जो चल रहा है उसको रोककर के उसकी विटनेसिंग की जाए। रिहर्सल में तो ठीक है। रिहर्सल चल रही थी, रोकी; फिर आप सोचने लगे, ‘अच्छा, अभी तक क्या हो रहा था?’ पर ज़िन्दगी रोककर के तो ज़िन्दगी का अवलोकन नहीं कर सकते न?

ज़िन्दगी तो सतत धारा है बह रही है लगातार। अभ्यास ये करना पड़ता है जो हो रहा है कॉन्क्रेंटली (इसके साथ -साथ) ठीक उसी समय तत्काल जानते भी चलो कि क्या हो रहा है। फिर ऑर्बिट में फँसने से बच जाते हो। नहीं तो गति धोखा है ठीक वैसे जैसे कहते हैं टाइम इज इलूज़न। (समय माया है) ये तो हमें ख़ूब बताया जाता है न? काल धोखा है, काल होता कुछ नहीं, लेकिन इसको हम इस तरह कम व्यक्त करते हैं कि गति धोखा है। गति माने कर्म। कर्म जो आप कर रहे हो उसमें आप कुछ भी नहीं कर रहे हो।

वो सर्कुलर मोशन (गोलाकार गति) है। ऑर्बिटल मोशन (कक्षीय गति) है। कुछ भी नहीं किया रे! कुछ नहीं किया! गोल-गोल घूमे, हुआ कुछ नहीं। टेकिंग स्टॉक (जाइज़ा लेना) सचमुच क्या हुआ? सचमुच कुछ हुआ भी या बस भक, भक,भक, भक! एण्ड इट्स नेवर टू लेट (और कभी भी देर नहीं होती) डरिएगा नहीं कि अगर आज मैंने ईमानदारी से पूछा कि ज़िन्दगी में मैंने क्या किया; और नतीज़ा निकला — सिफ़र। आँ! एकदम, तो ‘हाय! मेरा क्या होगा?’ अरे! होगा क्या? जो नतीज़ा है, वो तो है ही है।

तुम अपने आप को उससे अनभिज्ञ रख लो इससे तुम्हें क्या मिलना है। जान ही लो फिर। असली मूवमेंट (गति) ऑर्बिट (कक्षा) में नहीं होता, वो बाहर होता है। अब इलेक्ट्रॉन बेचारा तो विवश होता है। उसको एनर्जी (ऊर्जा) हमेशा कहाँ से मिलनी है? बाहर से ही मिलनी है, तो उसको अगर आपको उसको ऑर्बिट कुदवाना भी है तो उसको बाहर से ही कहीं से कुछ देना पड़ता है। किसी तरह के रेडिएशन (विकिरण) से दो, हीट (गरम) कुछ करो। हम जो हैं, जो चक्करों में फँसे हुए हैं हमारी ऊर्जा कहाँ से आनी है? हम, हम किस्मत वाले लोग हैं। हमारी ऊर्जा कहाँ से आनी है? (श्रोतागण उत्तार देते हैं)

बहुत बढ़िया! हमारी ऊर्जा बोध से आनी है। भीतर से आनी है। नहीं जान रहे तो चक्रीय व्यवस्था में क़ैद रहोगे। जान भर लो। खट, खट, खट। ऑर्बिट , ऑर्बिट , ऑर्बिट। तो ऑर्बिट देन स्केप (कक्षा — उसके बाद निकास)। जानने से और क्या जानना होता है कि स्केप करने के बाद कौनसा लोक मिलता है? क्या जानना होता है? (श्रोतागण उत्तर देते हैं) बहुत बढ़िया! बहुत अच्छे!

ये नहीं जानना होता है कि वो अन्तिम लोक कौनसा है? जहाँ सब देवी-देवता घूम रहे होंगे? और वो अन्तिम लोक वगैरह वो नहीं जानना होता। क्या जानना है? फिर से बोलो। यही जानना है, जो इसको जान गया वो इससे मुक्त हो जाएगा। निकलने नहीं देते ये दूर की बात है। देखिए, देखिए, देखिए, देखिए; इसको बिलकुल नियम की तरह पकड़िएगा। बन्धन सदा स्वैच्छिक होते हैं। बेबसी आत्म-प्रवंचना है।

ख़ुद को धोखा, सेल्फ डिसेप्शन , सब बन्धन। फिर बोलो — सारी मजबूरियाँ स्वैच्छिक होती हैं। वोलेंटरी (ऐच्छिक)। उसके अलावा और कुछ होता भी नहीं है। देखो, आप और पीछे, पीछे, पीछे, पीछे, पीछे भी चले जाओगे। जहाँ से शुरुआत ही हो रही है। वो शुरुआत ही हो रही है अपने दर्द के अहसास से। मुक्ति की बात जब पहली बार उच्चारित हुई थी तो उसके पीछे एहसास किस का था? दर्द माने बन्धन का न, तो वही तो सेल्फ ऑब्ज़र्वेशन (आत्म अवलोकन) है।

‘मैं बन्धन में हूँ और मुझे बन्धन में नहीं रहना। क्योंकि दर्द हो रहा है न! दर्द ही तो प्रमाण है कि ये मेरी सहज स्थिति नहीं है।’ ये सहज स्थिति होती तो ये चुभती क्यों? ये आज के लिए एक सबके लिए काम हो सकता है। आइडेंटिफाइंग द ऑर्बिट्स (कक्षा की पहचान करना)। कुछ उसमें कुछ आगे-पीछे नहीं ,कोई प्रयोजन नहीं है।

हम नहीं कह रहे कि आइडेंटीफाई द ऑर्बिट्स एंड देन (कक्ष की पहचान करो और फिर); नहीं, कुछ नहीं। कुछ नहीं, जस्ट आइडेंटीफाई (सिर्फ़ पहचानो) जान तो लो। फिर कुछ करना तो करना, नहीं करना तो नहीं करना। हो सकता है फिर जो होता हो अपने आप हो जाए। हो सकता है कि आपको कोई उसमें विशेष श्रम न करना पड़े। हो सकता है जो होता है फिर वो आपके जाने बिना ही हो जाए। श्रम तो हटाओ, श्रम करने की ज़रूरत नहीं रहे। हाँ, पता भी न लगे और हो जाए। ‘श्रम तो नहीं लगा। पता भी नहीं लगा, हो गया!’ जान तो लो।

जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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