“जो यज्ञ करने वालों के लिए सेतु के समान है, उस नाचिकेत अग्नि को, तथा जो भय शून्य है और संसार को पार करने की इच्छा वालों का परम आश्रय है, उस अक्षर ब्रह्म को जानने में हम समर्थ हों।” ~ (कठोपनिषद, प्रथम अध्याय, तृतीय वल्ली, श्लोक २)
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पता कैसे लगे कि यज्ञादि और शुभ कर्म कौन से हैं? जब सब परिस्थितियों में मन विचलित ही रहता हो, तो उचित या शुभ कर्म का पता लगेगा कैसे?
आचार्य प्रशांत: इतना अभागा कोई नहीं होता। ऐसा अन्याय अस्तित्व किसी के साथ नहीं करता कि चौबीसों घंटे और सब जगह सदैव और सर्वत्र वो विचलित ही रहता हो। ऐसा होता नहीं। मन के मौसम बदलते हैं। जैसे ज्येष्ठ मास की गर्मी में भी रात के तीसरे पहर कुछ तो राहत मिल ही जाती है और सावन में भी आकाश सदा मेघाच्छादित नहीं रहता। बीच-बीच में बादल छटते हैं, आसमान साफ हो जाता है। पुनः आ जाते हैं बादल। सावन हो, आषाढ़ हो और पुनः छा जाता है ताप।
यदि ग्रीष्म ऋतु हो तो भी यह भूलना मत कि राहत के, चैन के कुछ पल सदा उपलब्ध होते ही रहते हैं। और उन पलों का विशेष महत्व है। जब आसमान से सूरज कोड़ो की तरह बरस रहा हो, तब साँझ ज़रा पुरवाई चल जाए, तो जो अनुभव मिलता है, वो अन्यथा कभी हवा के चलने पर थोड़े ही मिलता है। देखा है न, जाड़ों की धूप को तुम कैसे याद रखते हो। और जाड़ा जितना हाड़ कँपता हो, धूप का खिलना उतना ही मंगल-उत्सव जैसा बन जाता है। उस धूप में कोई विशेष दम नहीं होता, जाड़ों की धूप है। बस कुछ देर को सहला कर चली जाती है, लेकिन उसकी बड़ी कीमत है। वैसी ही कीमत जैसी रेगिस्तान में पानी की होती है। कितना पानी होता है रेगिस्तान में? थोड़ा सा। आप कहोगे, "थोड़ा सा पानी है इसकी क्या कीमत होगी?" पर उसकी कीमत है ही इसीलिए क्योंकि थोड़ा सा है। अब आप उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।
तुम्हें भी तुम्हारे जीवन में थोड़ा सा तो चैन मिलता होगा। चौबीस घंटे हैं दिन के, उनमें दस-पंद्रह मिनट तो शांत हो पाते होओगे? सैकड़ों लोगों के संपर्क में आते हो, कोई एक-दो तो ऐसे होंगे न जिनके सानिध्य में शांत हो जाते होगे? वहीं से शुरुआत कर लो। उसके अलावा तुम्हारे पास चारा भी क्या है? डूबते को तिनके का सहारा। जो बिलकुल ही अंधेरे में हो उसको तो जहाँ ज़रा सी रोशनी दिखे, उधर ही बढ़ना ही होगा। तुम ये कह कर के रुके नहीं रह सकते कि, "मैं तो मजबूर हूँ, अंधेरा बहुत बड़ा है, बहुत घना, बड़ा व्यापक और रौशनी ज़रा सी है बस टिमटिमाती सी।" जितनी भी है तुम्हें उसी का सहारा लेना पड़ेगा। जाड़े की धूप जितनी भी होती है तुम तो उसी से लाभ ले लेते हो।
जो थोड़ा सा मिल रहा है तुम्हें तुम्हारी वर्तमान अवस्था में उसी की ओर बढ़ो, उसका मिलना भी बढ़ जाएगा। सबसे पहले तो होश और ईमानदारी से ये देखो कि जितनी भी बंधी हुई या गिरी हुई तुम्हारी हालत है अभी, उस हालत में भी मुक्ति और शांति के दो-चार पल तुम्हें कब और कहाँ उपलब्ध होते हैं गौर से देखो।
मैंने आरंभ में ही कहा कि इतना अभाग किसी का नहीं होता कि उसका संताप सदा एक सा रहे और चरम पर रहे। राहत के क्षण आते ज़रूर हैं और उन्हीं क्षणों में मौका है तुम्हारा, चूको मत उनसे। कारागार में कैदी एक बंद है और बंधन तोड़ कर भागना चाहता है। सामने उसके सिपाही पहरा दे रहे हैं। कहाँ है मौका उसके लिए? वह कहता है, "चौबीस घंटे में कुछ क्षण तो ऐसे आते हैं न जब पहरा टूटता है। लगे हैं ये सारे सिपाही मेरे इर्द-गिर्द बंधन बुनने में। मैं जहाँ कैद हूँ वहाँ का चक्कर लगाते ही रहते हैं, लगाते ही रहते हैं। पर बीच-बीच में क्षण आते हैं जब इनका चक्र टूटता है। वो क्षण बहुत छोटे से होते हैं। क्षणभर को ऐसा होता है कि मेरे सामने से मेरे बंधनों का रक्षक गुज़र गया और उसकी पीठ है मेरी ओर अभी, उसका ध्यान नहीं मुझ पर। अगले ही क्षण दूसरा संतरी आ जाएगा गश्त पर, पर पहला बाएँ को गुज़रा और दाएँ की दिशा में दूसरा आया गश्त पर, उसके बीच में एक क्षण है ऐसा जिसमें मेरे लिए आशा है।" उसी एक क्षण को परमात्मा की भाँति पकड़ लो। ये मत कह देना कि, "मेरी कैद बहुत गहरी है, बेड़ियाँ बहुत मजबूत हैं, सलाखें बहुत मोटी हैं और आज़ादी के लिए जो पल मिला है वो पल बहुत छोटा है।" ये मत कह देना। ये कहकर के तुम अपनी मुक्ति की संभावना को दरकिनार कर रहे हो, तुम मुक्ति की संभावना का अपमान कर रहे हो। वो जो क्षीणतम, न्यूनतम अवसर मिला है उसको भुनाओ। बहाने बना कर मत गँवाओ।
तो सबसे पहले तो यह कहने से बाज़ आओ कि मन तुम्हारा सब परिस्थितियों में ही विचलित रहता है। नहीं, ये बात झूठ है, ऐसा हो नहीं सकती। मन तुम्हारा यदि सब परिस्थितियों में ही विचलित रहता होता तो तुम यह प्रश्न भी सीधे-सीधे लिख नहीं पाते, यह प्रश्न भी विचलित हो जाता। इस प्रश्न की मौजूदगी बताती है कि अभी तुम पर परम सत्ता की अनुकंपा शेष है। अभी पूरी तरह से ही विचलित, विक्षिप्त, पागल नहीं हो गए तुम।
गौर करो, अपने समय पर और अपने संसार पर, किसी-न-किसी समय और संसार के किसी-न-किसी कोने में तुमने आज़ादी का अनुभव किया ज़रूर होगा। उसको क्यों भुला देते हो? गौर करो और याद करो जब भी और जहाँ भी तुमने पंख पसारे थे, वही तो जगह थी तुम्हारी। उस जगह पर तुम्हें उड़ान मिली थी, पर तुम बड़े बेअदब निकले। तुम उस उड़ान का दुरुपयोग करके उस जगह से ही दूर उड़ गए। जिस जगह तुमने पंख पाए, तुम उन्हीं पंखों पर सवार होकर उस जगह से ही छूमंतर हो गए। तुम कहीं ऐसी जगह पहुँच गए जहाँ अब जाड़ों में धूप खिलती नहीं। ऐसे घोर रेगिस्तान में जहाँ पीने को अब एक बूंद पानी नहीं। “पानी में मीन प्यासी।” किसी कवि ने कहा है, "वाटर वाटर एवरीव्हेयर बट नॉट अ ड्राप टू ड्रिंक” (हर तरफ़ पानी-ही-पानी लेकिन पीने के लिए एक बूंद भी नहीं) ऐसी गहरी तृष्णा, असीम पानी के मध्य असीम प्यास।
ये तुमने अपने ऊपर आमंत्रित किया है, पर अभी भी जहाँ हो वो जगह पूर्णरूपेण तुम्हारे लिए एक कारा नहीं बन पाई, प्रमाण है उसका यह प्रश्न। तुम्हारे मन को अगर पूरे तरीके से कैद ही कर लिया गया होता तो तुम मुक्ति की बात भी नहीं पूछ पाते। तुम्हारे मन को अगर पूरे तरीके से जकड़ कर यंत्रवत संस्कारित ही कर दिया गया होता तो तुम कैसे पूछ पाते कि, "बताइए उचित कर्म क्या?"
आत्मा की और मुक्ति की लौ जल रही है। संसार की कोई ताकत इतनी बड़ी नहीं कि उसको पूर्णतया बुझा दे, किसी के भी अंदर। तुममें भी जल रही है, सब में जल रही है। इंसान और इंसान में फर्क बस इतना होता है कि किसी की लौ लपट बनकर निखरती है, एक पूर्णरूपेण अभिव्यक्त महाज्वाला, और किसी की बस टिमटिमाती रह जाती है।
और एक तीसरी श्रेणी के भी होते हैं जिनके प्रकाश के इर्द-गिर्द इतनी प्रकार की धूलें और राखें इकट्ठी हो जाती हैं कि उनका प्रकाश मृतवत ही प्रतीत होता है कि जैसे अब टिमटिमाने को भी कुछ शेष ना बचा हो। पर ऐसा होता कोई नहीं जिसका प्रकाश मर गया हो। यह संभव नहीं है। वो कितना अभिव्यक्त है इसमें अंतर हो सकता है। तुमने उसका कितना समर्थन किया है इसमें अंतर हो सकता है। अपनी ही आत्मा, अपनी ही आज़ादी, अपनी ही मुक्त अभिव्यक्ति के सामने तुमने कितने अवरोध खड़े किए हैं इसमें अंतर हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि आग बुझ गई हो और आग यदि है अभी तो उसे भड़ककर फैलते कितनी देर लगेगी। छोटी सी चिंगारी तत्काल महादाह बन जाएगी, सब जला देगी।
वो चिंगारी है अभी, उसका समर्थन करो, उसके सामने झुको, उसके साथ चलो, उसकी सुनो, उसकी उपेक्षा मत करो, उसे प्रेम दो, आदर दो। रौशनी छोटी सी हो जाती है तो अंधेरे की सत्ता हो जाती है। हम सत्ता के सामने झुकने वाले लोग हैं। सत्ता के साथ रहने में बड़ी सुविधाएँ हैं। वो सुविधाएँ अगर तुम्हें इतनी ही भा रही होतीं, तो तुमने क्यों पूछा होता कि, "शुभ क्या है और उचित क्या है?" फिर तो अंधेरे से जो आराम मिला है, अंधकार से जो सुविधा मिली है वही शुभ है, वही उचित है। तुमने उस सत्ता के साथ हो कर के देख लिया है, कई बार देखा है। वो ललचाती है, लुभाती है, ज़रा चैन का, आराम का एहसास कराती है, और फिर धोखा दे जाती है। धोखे खाने से बाज़ आओ।
उन क्षणों को पकड़ लो, जिन क्षणों में तुम्हें आश्वस्ति है कि, "अभी धोखा नहीं खा रहा हूँ।" कह दो, "मिल गया घर, यही है मंज़िल! अगर यहाँ धोखा नहीं खा रहा तो कहीं और क्यों जाना?" पकड़ लो वैसे ही जैसे बंदरिया का बच्चा माँ को पकड़े रहता है। वो देख ही नहीं रहा, वो जाँच ही नहीं रहा कि माँ जा कहाँ रही है और कर क्या रही है। उसे बस पकड़ने से मतलब है। माँ जो करती हो वही शुभ, माँ जहाँ जाती हो, वही उचित। मुझे यह विचार करना ही नहीं है कि मेरा क्या होगा। मेरा जो होता हो वही उचित, जब तक मैंने पकड़ रखा है माँ को। वो पकड़े रहना बड़ा आवश्यक है।
निराशा अपने ऊपर इतनी हावी मत हो जाने दो कि बीच-बीच में प्रकाश और मुक्ति के जो अवसर आएँ तुम उनको भी निराशा में अनदेखा कर दो। ये हम करते हैं। हम हथियार ही डाल देते हैं। हम गलत जगह घुटने टेक देते हैं। फिर कोई सहारा भी देने आता है तो हम कहते हैं कोई फायदा नहीं, हमारा खेल खत्म हो चुका है, अब सहारा देकर क्या होगा। जैसे तुम्हारा पुराना, सच्चा, गहरा पर खोया हुआ प्रेमी एक दिन तुमसे मिलने आए और तुम कहो, "अब क्या फायदा, मेरा तो विवाह किसी और से हो गया।" किसी और से तुम्हारा विवाह हो ही नहीं सकता, हुआ है तो झूठा है। इतने भी निराश मत हो जाओ। मुक्ति का मौका, मुक्ति का पल जब सामने आए तो कोई बहाना मत बनाओ, अपनी स्थितियों का रोना मत रोओ। ये सब बातें छोड़ो कि, "अब बहुत देर हो गई, अब तो हम बहुत फँस गए!" अगर मौका सामने खड़ा है तो देर कैसे हो गई? क्या विक्षिप्तों जैसी बात करते हो। जीवन यदि सामने खड़ा है तो तुम्हारी मौत कैसे हो गई? तुम डूब रहे हो, किसी ने बचाने के लिए हाथ बढ़ा रखा है और तुम कह रहे हो, "अब रहने दो बहुत देर हो गई।" ये कैसी बात है? तुम यदि कह रहे हो अभी, कुछ भी, तो अर्थ यही है कि अभी तुममें प्राण शेष है। और यदि तुममें प्राण शेष है तो प्राणों को बचाने के लिए जो हाथ सामने बढ़ा है उसे थामते क्यों नहीं।
निराशा, अश्रद्धा का दूसरा नाम है। श्रद्धा रखो कि मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है और तुम्हारी नियति। तो कोई-न-कोई आएगा ही बचाने। भीतर से तुम्हारे प्रेरणा उठेगी ही बचने की। तुम प्रकाशित होना भी चाहोगे और प्रकाशित होने के अवसर भी कहीं-न-कहीं से आएँगे। ये श्रद्धा है कि जो अनिवार्य है, वो तो होगा न। अनहोनी होनी नहीं।
ये अनहोनी है कि तुम अपनी अपरिहार्य नियति से चूक जाओ, ये होगा नहीं। तो तुम सदा तैयार रहो। आज़ादी का मौका, मुक्ति का मसीहा कभी भी आ सकता है। उसे आना ही है। क्योंकि मुक्ति तुम्हें मिलनी ही है। दुर्भाग्य ये नहीं होगा कि वो आया नहीं, दुर्भाग्य ये होगा कि वो आया और तुमने उसे पहचाना नहीं। तुम अपने ही अवसाद में इतने डूबे बैठे थे कि तुमने मौका जाने दिया। तैयार रहो, वो कभी भी आ सकता है। हो सकता है, वो मौका प्रस्तुत ही हो, अभी हो, सामने हो, तुम सजग रहो। बार-बार चूके हो अब मत चूक जाना।