त्यौहारों के प्रति झूठा आकर्षण

Acharya Prashant

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त्यौहारों के प्रति झूठा आकर्षण

आचार्य प्रशांतः तरुणा कह रही है कि, "दीवाली का जब से माहौल बना है तब से सी.आई.आर. (संस्था के अंतर्गत होने वाले मासिक कोर्स) अटेंड (भाग लेना) करना और मुश्किल हो गया है। कह रहीं हैं कि जब से सीरीज शुरू हुई थी तब से ही कुछ आंतरिक बाधा सी थी पर जब से ये त्यौहारों का मौसम आया है तब से तो बड़ा मुश्किल है। तो कृपया प्रकाश डालें।"

प्रकाश क्या डालूँ, प्रकाश ही प्रकाश है। इतनी मोमबत्तियाँ, इतनी झालरें, इतने दिये; घर जगमग है मैं क्या प्रकाश डालूँ? जिसे नकली रौशनी में जीना हो, जिसकी बाध्यता हो, मजबूरी हो नकली रौशनी में जीने की, उसे असली रौशनी से तो मुँह चुराना ही पड़ेगा न, तरुणा?

जैसे हमारे त्यौहार होते हैं, जिन तरीकों से हम उन्हें मनाते हैं, उनमें सब कुछ कुत्सित, गर्हित और नारकीय होता है। वो हमारी चेतना को और ज़्यादा तामसिक बना देते हैं। हमारे सबसे भद्दे चेहरे हमारे त्यौहारों में निकल कर आते हैं।

बड़ा दुर्भाग्य है हमारा कि भगवान के नाम पर हम जो कुछ करते हैं उसमें भगवत्ता ज़रा भी नहीं होती। अब अगर आपके चारों ओर वही सब माहौल बन रहा होगा, और बनता ही है – समाज, कुटुंब, परिवार सब मिलकर के वो माहौल रचते हैं। तो आपको बड़ी दिक्कत हो रही होगी मेरी बातें सुनने में।

कहाँ तो टीवी आपको लगातार बता रहा होगा कि दीवाली पर खुशियाँ घर लाइए और यहाँ ये आदमी बैठा हुआ कुर्ता पहन कर (अपनी ओर इशारा करते हुए), वो आपसे कह रहा है कि (व्यंग करते हुए), “खुशियाँ...”

(सभाजन हँसते हैं)

तो झंझट हो गया न? आप फँस गई। अब या तो टीवी बंद करो या मुझे बंद करो। टीवी तुम बंद कर नहीं पाओगे क्योंकि घर में बहुत लोग हैं जो तुम्हें टीवी बंद करने नहीं देंगे तो एक ही विकल्प है - मुझे बंद कर दो। देर-सवेर तुम्हें मुझे बंद करना ही पड़ेगा।

"क्या चल रहा है घर में आजकल?"

"धनतेरस आ रही है!"

"क्या खरीदने का इरादा है?"

और यहाँ ये सफेद दाढ़ी (अपनी दाढ़ी की ओर इशारा करते हुए) तुम्हें बता रहा है कि क्या खरीदोगे तुम, खरीदने से बेहतर है बिक जाओ।

बड़ी दिक्कत हो जाएगी न हार खरीदने में, हो गई न दिक्कत? और नई-नई चीजें लानी होती हैं दीवाली पर घर। क्वांटम मैकेनिक्स पर आधारित नई वाशिंग मशीन बनी है, ये देखो (पीछे से वाशिंग मशीन के चलने की आवाज़ की ओर इशारा करते हुए)। वो तुम्हें घर लानी हैं।

अब आफत हुई जा रही है, "कैसे करें?"

नई गाड़ी उतरी है बाज़ार में, डिस्काउंट भी मिल रहा है। ऑडी के बिलकुल ताजा-तरीन मॉडल की टेस्टिंग (परीक्षण) चल रही है अभी, दीवाली पर ही लॉन्च (प्रक्षेपण) होगा। और यहाँ कबीर के भजन गाए जाते हैं, ‘चार कहार मोर पालकी उठावे’, यहाँ इस गाड़ी को चलाया जा रहा है। चार पहिए वाली गाड़ी नहीं है ये, जानते हैं कौन सी गाड़ी है? चार आदमी लेकर चलते हैं उस गाड़ी की बात होती है यहाँ पर, अब बड़ी दिक्कत है!

यहाँ पर घर में खुशी-खुशी का माहौल है। सब खुश हैं, पूरा परिवार जश्न मना रहा है, "नई ऑडी !" और यहाँ आते हैं तो पता चलता है कि पिया ने चार कहार भेजे हैं बुलाने के लिए और कहारों के टायर (पहिए) भी नहीं लगे हैं। धीरे-धीरे वो रेंग रहे हैं, पता नहीं कहाँ ले जा रहे हैं।

प्रश्नकर्ताः साज।

आचार्यः ये सब घर में ना भी हो रहा हो तो पड़ोस में तो हो ही रहा है न? लग गई हैं न झालरें? हो रहा है न खुशी का नंगा नाच? हर कोई दिखाना चाह रहा आपको कितना खुश है वो कि आज राम घर लौटे थे, "माइ गॉड!"

(सब हँसने लगते हैं)

‘राम!’

‘राम!’

पूरा हिंदुस्तान पगला जाता है, इतनी खुशी फैलती है कि राम घर लौटे थे! (व्यंग करते हुए) देखिए न, साल भर सब का जीवन कितना राममय रहता है, तो दीवाली पर तो हर्ष स्वाभाविक है कि राम घर लौटे थे। और जब तक वनवास में थे तब तक लोग उपवास कर रहे थे। तो अब जब वो घर लौटे हैं तो मिठाइयों के दौर चल रहे हैं, क्यों? अगर राम के घर लौटने पर तुम इतने पकवान पका रहे हो, तो जब राम वनवास कर रहे थे, तो तुम उपवास भी कर रहे होओगे? पर नहीं, एक बहता हुआ झूठ है जो पीढ़ियों से बहता हुआ चला आ रहा है और तुम्हें उसे बहाए रखना है, बहाओ!

इस पूरे तमाशे का राम से कुछ लेना-देना है? राम का लेना-देना जानती हो किससे हैं? राम का लेना देना हमसे है; हमसे। हमारे हाथ में है योगवशिष्ठ, हम बात कर रहे हैं कि वशिष्ठ ने क्या कहा राम से, दीवाली हम मना रहे हैं। ये है दीवाली। अब चुनो तुम, तुम्हें कौन सी दीवाली मनानी है। वो वाली - झालर, चीनी झालर, सस्ती; मिठाई वाली, गुजिया वाली, टीवी वाली, एलजी और व्हर्लपूल वाली, ऑडी वाली, या योगवशिष्ठ वाली? कौनसा राम चाहिए तुम्हें, बोलो?

मैं कितना भी चिल्ला लूँ, करोगे वही तुम जो पीढ़ियों से करते आए हो। मैं कोई पहला हूँ जो तुमसे बोल रहा है? न पहला हूँ और न आखिरी हूँ। मेरे जैसे बहुत आए थे, मेरे बाद भी आते रहेंगे, दुनिया को वही करना है जो वो करेगी, दीवालियाँ ऐसे ही मनेंगी। कोई नहीं समझेगा राम का मर्म। कोई नहीं पूछना चाहेगा कि, "राम वास्तव में हैं कौन?" लोग रावण जलाएँगे, लोग पटाखे बजाएँगे।

उन्नीस तारीख की दीवाली है। मैंने उस दिन भी स्टूडियो कबीर का सत्र रखा था। हम मिलते शाम को और दुनिया जब शोर में और धुएँ में और प्रपंच में और माया में मशगूल होती, उस वक्त हम कबीर गाते, उस वक्त हम कबीर के राम को गाते। वो होती दीवाली। वो सत्र स्थगित करना पड़ा क्योंकि लोगों के घर हैं। लोगों को घर वाली दीवाली मनानी है। लोगों को बर्फी और हल्दीराम वाली दीवाली मनानी है।

अगर कोई एक दिन होता है न साल का जिस दिन राम झुँझला जाते होंगे, जिस दिन रावण जीत जाता है तो वो दिन दीवाली का है, हम जिताते हैं रावण को। दशहरे के दिन भी रावण जीतता है, जैसा दशहरा हम मनाते हैं और दीवाली के दिन राम निर्वासित होते हैं, जैसी दीवाली हम मनाते हैं।

कोई बात नहीं, मनाओ! राम को क्या फर्क पड़ता है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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