तुम्हें ज़िन्दगी की पहचान होती तो ऐसे होते तुम? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर(2014)

Acharya Prashant

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तुम्हें ज़िन्दगी की पहचान होती तो ऐसे होते तुम? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर(2014)

मोहे मरने का चाव है, मरूँ तो हरि के द्वार। मत हरि पूछे को है, परा हमारे बार।। ~ कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: ‘मोहे मरने का चाव, मरूँ तो हरि के द्वार’ — धार्मिक हूँ, आध्यात्मिक हूँ, समझ गया हूँ कि समर्पण के सिवा कोई रास्ता नहीं है, समझ गया हूँ कि जिसको मैं अपना होना कहता हूँ, वही सारे दुःखों का कारण है, तो इसलिए मरना चाहता हूँ।

मरने का अर्थ है — पूर्ण विराम, ख़त्म होना। किसका ख़त्म होना? दुःख का ख़त्म होना।

और हरि के द्वार पर ही स्वयं को विसर्जित करना चाहता हूँ, लेकिन जो दूसरी पंक्ति है वो बात को कुछ उलझा देती है —

'मत हरि पूछे को है, परा हमारे बार'

पर हरि हैं कि ध्यान ही नहीं दे रहें हैं, कि ये कौन है जो इतनी कशिश से, इतनी श्रद्धा से आया है, अपने-आपको समर्पित कर देने के लिए, अपनी आहुति चढ़ा देने के लिए।

ऐसा होना ही है। जब भी कभी हरि को विषय बनाया जाएगा, तो पाया जाएगा कि जैसे बाकी सारे विषय निर्जीव हैं, मुर्दा हैं, कठोर हैं, काल्पनिक हैं, वैसे ही हरि भी कठोर, काल्पनिक और निर्जीव हो गए।

जैसे कि कोई दीवार आपसे प्रेम नहीं कर सकती, जैसे कि कोई पत्थर आपके प्रणय निवेदन का उत्तर नहीं दे सकता, ठीक उसी तरीके से आप पाएँगे कि हरि से भी आपको कोई प्रेम नहीं मिल रहा है।

'मत हरि पूछे को है'

हरि ध्यान ही नहीं दे रहे। हरि ध्यान कैसे दें? कोई विषय ध्यान दे सकता है क्या तुम पर? कोई वस्तु ध्यान दे सकती है तुम पर? तुम्हें व्यक्ति से भी प्रेम नहीं मिल सकता क्योंकि वो भी विषय बन जाता है; हरि से कैसे मिलेगा? हरि को विषय बना लिया न।

विषय कैसे बना लिया?

'मोहे मरने का चाव है, मरूँ तो हरि के द्वार।'

जैसे कि हरि का कोई विशिष्ट द्वार होता हो। विशिष्टता जहाँ है, वहीं विषय है। विषय ही विशिष्ट है। विषय का मतलब है कुछ ख़ास, जिसकी सीमा हो।

ध्यान दीजिए!

जो भी कुछ आपका विषय बनता है वो सीमित हो जाता है, वो ख़ास हो जाता है।

आप कहोगे कि, ‘वो पत्थर वहाँ रखा है, वो व्यक्ति वहाँ बैठा है’, अब इनकी एक विशेष स्थिति है और ये वहीं पर हैं, कहीं अन्यथा नहीं हो सकते। हरि निर्विशेष हैं, उनमें कोई विशिष्टता नहीं है। निर्विशेष का अर्थ यही है कि किसी ख़ास जगह पर नहीं पाए जाते, कोई सीमा नहीं है कि सिर्फ़ इधर ही दिखेंगे।

जैसे ही आप ने कह दिया कि ‘मरूँ तो हरि के द्वार’ तो आपने ये भी कह दिया कि कुछ द्वार ऐसे भी हैं जो हरि के नहीं हैं, और आपने हरि को सीमित कर दिया। आपने कह दिया कि 'कुछ दरवाज़े हैं जो हरि के हैं और शायद वो मंदिरों के दरवाज़े होंगे, और बाकी सारे दरवाज़े हरि के नहीं हैं; यानी कि कोई छवि है।'

आपने हरि के आगे समर्पण नहीं किया, आपने किया ये है कि आपने हरि को अपने मन का कोई विषय बना लिया। आपने कहा कि यहाँ-यहाँ हरि पाए जाते हैं, यहाँ-यहाँ उनका घर है, यहाँ-यहाँ वास करते हैं और मैं यहीं जाकर मरूँगा। या कि इन-इन रास्तों पर चलकर ये माना जा सकता है कि ये हरि के रास्ते हैं और मैं इन्ही पर चलूँगा।

बाकी सारे रास्ते हरि के रास्ते नहीं हैं?

देखिए कि हम बातें भी तो ऐसी ही करते हैं, हम कहते हैं — ‘हे ईश्वर मैं तुम्हारी ओर आ रहा हूँ।'

अच्छा! किधर को जाओगे जब उसकी ओर नहीं जाओगे?

आपको पूजा करनी होती है, तो आप मंदिर की ओर जाते हैं। आपको परमात्मा को पुकारना होता है, तो आप आकाश की ओर सिर उठाते हैं। आपको नमाज़ करनी होती है, तो आप काबा की ओर देखते हैं। पर कोई ऐसी दिशा तो बता दो जहाँ वो न हो?

पर हमने यही किया है, हमने हरि को विषय बना लिया है, हमने उसको भी वस्तु की तरह ही संसार में कहीं स्थापित कर दिया है।

'मरूँ तो हरि के द्वार'

कौन-सा द्वार है जो हरि का द्वार नहीं है?

और जब तुम ये चूक करोगे तो फिर आगे जो कहा जा रहा है, वो होगा ही कि "मत हरि पूछे को है"। जब तुम हरि का द्वार निर्धारित करोगे, तो हरि तुम्हारी कोई पूछ करने नहीं आने वाले। वो कहेंगे, 'जो करना है सो कर लो, तुम ही बड़े आदमी हो। तुम इतने बड़े आदमी हो कि तुमने तय कर दिया कि मेरा कौन-सा द्वार है; मेरा घर-द्वार तो तुम तय कर रहे हो, तो मुझसे बड़े तो तुम हो गए, तो फिर तुम खुद ही अपनी फ़िक्र कर लो।'

सत्य तो सत्य की ही फ़िक्र करता है, सत्य असत्य की फ़िक्र करने तो नहीं आता। सत्य तुम्हारी धारणाओं को बचाने तो नहीं आएगा। तो हरि तुम्हारी कोई खबर लेने नहीं आएँगे।

तुम पड़े रहो, तुम भले ही ये कहकर पड़े रहो कि 'मैं तो हरि का उपासक हूँ।' तुम्हारी दोनों ओर से पिटाई होगी। तुम्हें संसार तो नहीं ही मिलेगा और जिस तथाकथित हरि की तुम उपासना कर रहे हो, वो भी तुम्हारी सुध नहीं लेंगे। तुम दोनों ओर से मारे गए—माया मिली न राम। संसार तो छोड़ा ही, अब हरि भी नहीं मिल रहे हैं, अब उलाहना देते रहो।

'मत हरि पूछे को है, परा हमारे बार।'

तुम पड़े ही रह गए।

और यही हश्र होता है हमारे सामान्य धार्मिक आदमी का। वो किसी विशिष्ट की तलाश करता रह जाता है, बिना ये समझे कि सत्य अविशिष्ट है, कि सत्य निर्विशेष है। उसके लिए कहीं जाना, कहीं पहुँचना नहीं होता, कोई ख़ास उद्यम नहीं करना होता; वो है तो अभी और यहीं पर है।

आप इस क्षण जो कर रहें हैं, यही आध्यात्मिकता का परमोत्कर्ष है, कि इससे ऊँचा मंदिर आपको कोई मिल नहीं सकता, कि इससे महत्वपूर्ण जीवन में कोई हो नहीं सकता।

'मत हरि पूछे को है।'

तुम देते रहो ताने, उलाहना, हरि तो नहीं आएँगे। वो कहानी सुनी है न….

एक साधक होता है, सीधा-सीधा बोलने की उसकी आदत होती है। वो वही बात बोलने लगता है, जो मैं अभी आपसे कह रहा हूँ कि मंदिरों-मस्जिदों में हरि नहीं मिलेगा, वहाँ है ही नहीं। तो वो यही बात बोल रहा होता है, और चूँकि ये बात बोलने के लिए सबसे अच्छी जगह मंदिर ही है। क्योंकि मंदिरों में ही वो लोग पाए जाते हैं, जिनका मंदिरों में यकीन है। तो वो मंदिरों में ही बोल रहा होता है।

तो वहाँ के सब पंडित-पुजारी लोग उसकी पिटाई करते हैं और उसको वहाँ से निकाल देते हैं। वो दोबारा घुसता है, फिर उसकी पिटाई होती है और फिर निकाल देते हैं। और इस बार उसको वर्जित कर दिया जाता है कि तुम जीवन भर मंदिरों में नहीं घुसोगे।

वो भी जिद्दी था, तो उसने कहा कि मैं तो घुसूंगा। तो वो ऐसे ही एक शनिवार की रात, आधी रात के बाद घुसने के कोशिश कर रहा होता है और कहता है कि, 'कल रविवार है और सुबह बहुत सारे लोग आएँगे, तो मैं पहले से ही घुस के बैठ जाता हूँ और प्रतिमा के पीछे से बोलूँगा। दिन में तो मुझे घुसने नहीं देंगे, इन्होंने वर्जित कर रखा है, तो मैं रात में ही घुसकर बैठ जाऊँगा।'

तो वो रात में ऐसे ही दीवार फाँदने की कोशिश कर रहा होता है, और देखता है कि एक और है जो दीवार फाँदने की कोशिश कर रहा है, तो उससे पूछता है कि तुम कौन हो? तुम चोर हो क्या? क्या चुराने के लिए घुस रहे हो?

वह दूसरा आदमी बोलता है कि, 'मैं हरि हूँ, मुझे भी निकाल रखा है इन लोगों ने। जिस दिन तुम्हें निकला था, तुमसे पहले इन्होंने मुझे मंदिर से निकाल दिया था। अब मैं भी इसी कोशिश में हूँ कि मैं किसी तरह वापस घुस जाऊँ, पर मुझे भी घुसने नहीं देते ये लोग। मैं बाकी हर जगह मिल सकता हूँ पर मंदिरों में नहीं मिल सकता, क्योंकि इन लोगों ने आयोजन करके सबसे पहले मुझे ही निकाला है यहाँ से।'

वो साधक फिर मंदिर में घुसने की कोशिश त्याग देता है। वो कहता है कि 'जब तुम ही नहीं हो तो किसकी खातिर यहाँ पर घुसूं? छोड़ो! मैं भी नहीं जाता।'

हरि की कोई विशिष्ट जगह नहीं है, वो अनिकेत कहलाते हैं।

अनिकेत माने — जिसका कोई घर नहीं होता। वो घरों में नहीं पाया जाता; आपके, हमारे घरों में। और न उसका कोई ख़ास घर होता है।

'मोहे मरने का चाव है, मरूँ तो हरि के द्वार।'

ये अहंकार है कि मरूँगा तो कहीं नदी-नाले में नहीं मरूँगा, कहीं अनजानी मौत नहीं मरूँगा, हरि के द्वार मरूँगा।

अपनी कुरबानी तो देंगे, पर उसके सामने जो हमारी कुरबानी का सबसे ज़्यादा भाव लगाता हो।

मरेंगे तो, पर जता-जता के मरेंगे। तुम्हारे लिए ही तो मर रहें हैं सनम! तुम्हें तो खबर होनी चाहिए।

प्राण प्यारे! मेरे प्रीतम! तुम्हारे लिए जान दे रहीं हूँ, तो तुम्हारे द्वार पर ही तो दूँगी।

तो अब ताज़्जुब क्यों हो रहा है कि ‘मत हरि पूछे को है?' यही तुम्हारी सज़ा है कि मर भी गए और हरि ने पूछा भी नहीं।

अब पड़े रहो मरकर, व्यर्थ गई कुरबानी। अब कोसते रहो किस्मत को, कि क्या हो गया ये? बड़ा एहसान फ़रामोश हरि है; हम तो अपनी बलि तक दे आए और हरि ने रसीद तक नहीं दी हमको।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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