प्रश्न: यहाँ तक तो ठीक है कि मैं जानूँ कि दुनिया कैसी है? मेरे भाई कैसे हैं? मेरा दोस्त कैसा है? मेरी संगति कैसी है? समाज कैसा है? यहाँ तक तो मेरा मन अनुमति देता है पर जब बात आती है अपने को भीतर से जानने की तब बहुत डर लगता है, मन बाधा खड़ी करता है| खुद को क्यों जानू? ये बाधा क्यों खड़ी होती है? मुझे क्या करना चाहिए?
वक्ता: कोई ठोस विधायक अस्तित्वमान इकाई नही है “मैं” जिसे जानना है| अभी बैठे हो यहाँ पर तुम्हें तुम्हारे शरीर का पता सिर्फ स्पर्श से चल सकता है और जब पता चलता है तब स्पर्श का और शरीर का एक साथ चलता है| तुम्हारे पास शरीर है ही नहीं यदि उसे बाहर से कुछ स्पर्श न कर रहा हो|
तुम्हें तुम्हारा पता बाहरी के माध्यम से ही चलता है| तुम्हारे पास कान है, इसका प्रमाण क्या है तुम्हरे पास? इसका प्रमाण सिर्फ यही है की कुछ बाहरी है जिसे तुम सुन पाते हो और जब तुम सुनते हो तो तुम्हें बाहरी के और अपने कान के होने का पता एक साथ चलता है अलग-अलग नहीं| तो दृश्यों का और आँखों का होना एक साथ है, स्वाद का और जीभ का होना एक साथ है, संसार का और जीव का होना एक साथ है| संसार का और जीव का होना एक साथ है|
तुम अपने आप को जानते हो दुनिया के सन्दर्भ में| एक रेखा हम खींच देते हैं पर विभाजन कृत्रिम है| हम कहते हैं, “रेखा के उस पार दुनिया और रेखा के इस पार मैं|” पर ये विभाजन कृत्रिम है क्योंकि तुम्हें जब भी पता लगा है अपना, तो अपना और दुनिया का एक साथ लगा है और तुमने जब भी बात की है दुनिया की अपने ही सन्दर्भ में की है, कुछ हो कर के की है| दुनिया तुम्हारे लिये कोई ऑब्जेक्टिव कोई अव्यक्तिगत सत्य नहीं है|
दोनों बिलकुल जुड़े हुए है दुनिया और तुम, संसार और जीवन| मैं दोहरा रहा हूँ दुनिया की बिलकुल भी कोई वस्तुनिष्ठ सत्ता नहीं है| कोई ये न सोचे कि ऑब्जेक्ट और सब्जेक्ट को अलग अलग जाना जा सकता है या उनकी अलग अलग सत्ता है| जो खुद को जानने निकलता है वो दुनिया को जान जाता है| ये वैसा ही है कि कोई देह को जानने निकले और स्पर्श को जान जाए| और जो दुनिया को जानने निकलता है वो खुद को जान जाता है ये ऐसा ही है की कोई स्पर्श को जानने निकले और देह को जान जाए| याद रखना देह और स्पर्श दोनों क्योंकि एक दूसरे पर निर्भर है इसलिए है दोनों ही नहीं|
दोनों की कोई अपनी स्वतंत्र हस्ती है ही नहीं| इसी को तो द्वैत कहते है| तो तुम्हें अगर अड़चन होती है कि अपने आप को कैसे जानूँ तो कोई बात नहीं अपने-अपने मन की स्थिति होती है, संस्कार होते है, किसी को दिक्कत हो सकती है अंतर करने में, कम से कम आरम्भ में तो ऐसी दिक्कत हो ही सकती है| तो तुम दुनिया को ही देखो पर ईमानदारी से देखो, ईमानदारी से दुनिया को देखोगे तो दुनिया के बारे में तुम्हारे भ्रम टूटेंगे, “ये क्या हो गया?” देख किस को रहे थे? दुनिया को| और भ्रम किसके टूट गये? तुम्हारे|
अरे, पर तुम्हारा अपने से तो कोई लेना देना ही नहीं था, तुम तो अपने को बचा के अपने को सुरक्षित रख के किस को देखने निकले थे? दुनिया को| तुमनें कहा था ना अपने को तो बचाना है क्योंकि अपने को देखने में डर लगता है, “कुछ हिल न जाए, कुछ टूट न जाए, कुछ गल न जाए, तो हम तो नज़र बाहर की ओर रखेंगे, दुनिया को देख्नेगे| देखने किसको निकले दुनिया को और दुनिया को देखा तो टूट कौन गया? ये ‘मैं’ टूट गया|क्योंकि दुनिया तुम्हारे अतरिक्त है कहाँ? देखा दुनिया को, भ्रम अपना टूट गया; देखा दुनिया को, पता अपना चल गया|
शर्त बस उसी ईमानदारी की है, चाहे भीतर देखो, चाहे बाहर| भीतर देखने के लिए जितनी ईमानदारी चाहिए, उतनी ही ईमानदारी बाहर देखने के लिए भी चाहिए| तो कोई दिक्कत नहीं तुम दुनिया को देखो, अपने भाईयों को देखो, समाज को देखो पर जब देखो तो जरा पैनी नज़र से, तीव्र बुद्धि से, और शांत ध्यान से देखो| हम सब अलग अलग थोड़ी है| दुनिया का मन बहुत कुछ एक सा है| हमारे मस्तिष्क एक साथ विकसित हुए हैं और उनके मूलभूत संस्कार एक ही हैं| जो बाहर हो रहा है वही भीतर हो रहा है, जो जगत की कहानी है वही तुम्हारे घर की कहानी है|
तुम्हारी ज़िन्दगी में ऐसा है क्या जो दुनिया से निराला हो| वही सारे आदिम खेल, वही सारी गहरी वृतियाँ, वही जन्मना-मरना, वही आकर्षण-विकर्षण, वही पसंद-नापसंद, वही उत्तेजनाएँ और उदासियाँ| थोड़े बहुत नाम अदल-बदल हो सकते है, पर कुछ नया है क्या तुम्हारे पास? अब ये बात भी लेकिन मेरे बताने की नहीं है| मेरे पास कुछ नया नहीं है बताने को, ये जानना कोई असाधारण उपलब्धि नहीं है| रहते तो हम सब इसी गलत फहमी में है कि मैं कुछ अनूठा ही हूँ| “मैं बिलकुल बासी, पुराना और सौ बार प्रयुक्त हूँ” ये खोज भी दुनिया को देख कर ही होती है वरना तो हम इसी ठसक में जीये जाते हैं कि हम कुछ विशेष हैं, हमारे साथ जो हो रहा है वो दुनिया में पहली बार घट रहा है|
दुनिया को देखो तो पता चलता है कि तुम तो बिलकुल ही घिसी हुई सी.डी हो जो करोड़ों साल से बज रही है तुमसे बीस पीढ़ी पहले वालों ने क्या किया उससे अलग तुम कुछ नहीं कर रहे हो और तुमसे बीस पीढ़ी पहले वालो ने अपने से दो सौ पीढ़ी पहले वालों से भिन्न कुछ नहीं किया| देखो दुनिया को ध्यान से, तुम्हें अपना ही प्रतिबिम्ब दिखायी देगा| रहते तो हम इस इसी गलत फहमी में है ना कि मैं कुछ अनूठा हूँ| तुम्हारे मन में आकर्षण उठता है, तुम्हें लगता है प्रेम है, और तुम बौरा जाते हो कि कुछ खास हो गया|
चले जाओ किसी पब्लिक पार्क में दुनिया को ही देखना चाहते हो ना, देखो जा कर के| जाओ किसी पब्लिक पार्क में और जिन लोगो को नया नया प्रेम का चस्का लगा हो उनके लिए तो यह बिलकुल ही आवश्यक है, देखिये दुनिया को| और मैं तो कहता हूँ कि लुक छुप के सुन भी लिया कीजिये उनकी बातों को| कोई अनैतिक बात नहीं हो गयी क्योंकि कोई नयी बात नहीं हो गयी|
आप नया क्या सुन लोगे? वो वही कह रहे हैं जो उनके परदादों ने कहा था, वो वही कर रहे है जो उनके परदादों ने किया| उनकी बातें नदियों और पहाड़ो जितनी पुरानी हैं| हाँ, नदी और पहाड़ अपनी एक निर्दोषिता रखे रहते है| उनमे एक बहाव रहता है और यहाँ मनुष्य में बहाव नहीं मात्र दोहराव रहता है| जो तुम से उम्र में छोटे हैं, तुम्हारे भाई, जाओ उनके पास और देखो कि कैसे उन्हें वही सब चिंताएँ सता रही है जो तुम्हे सताती थीं जब तुम उनकी उम्र के थे और देखो की कैसे उन्हें वही सब उत्तेजनाएँ आकर्षित कर रही है जो तुम्हे करती थीं जब तुम उनकी उम्र के थे और समझो कि इशारा किधर को है|
पर ईमानदारी चाहिए, उनको देख कर के तुरंत ये कह देना कि ‘आज कल की दुनिया बहुत ख़राब हो गयी है’ – जो जरा सा पकने लगता है उम्र में ये उसका पसंदीदा वाक्य हो जाता है| “आज कल जमाना बहुत खराब आ गया है”, जैसे की कुछ बदलता हो| इंसान वही, इंसान की वृत्ति वही| हाँ, समय बदलता है, समय के उत्पाद बदल जाते है, ज्ञान और तकनीक बदल जाती है पर मनुष्य का जो मूलभूत ढाँचा है वो तो वैसे का वैसा ही है ना, उसमे कहाँ कोई तत्व बदले|
किसी को जन्मते देखो तो अपना जन्म याद कर लो, तुम भी ऐसे ही जन्मे थे| आज तुम किसी का जन्मोत्सव देखते हो तुम्हे देर नहीं लगती है ये कहने में कि “ये देखो झूठे के घर झूठा आया” और तुम्हे देर नहीं लगती कहने में कि “ये देखो अनाड़ी माँ-बाप हैं, बच्चा पैदा कर दिया और तुम्हे देर नहीं लगती कहने में कि देखो कैसा नकली उत्सव मना रहे है| इनकी शक्लो पर लिखा है अज्ञान, इनकी शक्लो पर लिखा है लालच और उम्मीद|” ठीक है, तुम्हे यह दिख रहा है| आज एक बच्चा पैदा होता है, उसके घर में उत्सव होता है, ये बात तुम्हें दिख रही है| पर जब ये देखो तो ये बात ईमानदारी से स्वीकार करो कि तुम भी ऐसे ही पैदा हुए थे| आज जो बच्चा पैदा हो रहा है, बस उसी भर के माँ-बाप नही अनाड़ी हैं, माँ-बाप होते ही अनाड़ी हैं, नहीं तो बच्चा कहाँ से आ जाते| ठीक है तुम्हें अच्छा लगता है कबीर को भजना कि “झूठे के घर झूठा आया” पर आज ही नहीं आया और पड़ोसी के ही घर नहीं आया तुम्हारे भी घर आया, तुम ही वो झूठे हो|
किसी को मरते देखो तो आँसू भर बहा के काम मत चला लेना कि बड़ा बुरा हुआ किसी के घर में मौत हो गयी| किसी को मरते देखो तो इतना ही कह कर रोष मत प्रकट कर लेना कि इंसान जब तक जीता है इतनी सुविधाओ में जीता है बदन में खरोच भी नहीं लगने देता है और अन्ततः उसको एक साधारण से, कई बार गंदे से घाट पर ले जाकर जला दिया जाता है| उसकी राख कुछ मिट्टी में मिलती है कुछ पानी में जाती है कुछ उड़ती है और कई बार जानवरों के पाँव के नीचे आती है| वो कोई और नहीं जो मरा है तुम अपनी ही मृत्यु देख के आए हो – इतनी ईमानदारी रखना|
सबकी एक सी होती है मृत्यु, तुम कोई बिरले नहीं पैदा हुए हो, पर धोखा हम सबको यही है कि हम विशिस्ट हैं| जो दुनिया के साथ हो रहा है वो हमारे साथ थोड़ी होगा| कहीँ न कहीँ हम सबको ये भी उम्मीद है कि हम कभी मरेंगे ही नहीं| अपने आप से पूछ कर देखो? मूर्खता की हद है| एक ओर तो दिन रात मृत्यु का भय है और दूसरी और उस भय के मध्य जीने के लिए एक हलकी सी आशा की किरण है कि मेरी तो मृत्यु अभी नहीं आ रही है और ये अभी खिंचता जाये खिंचता जाए अनंत काल तक खिंचता जाए|
जन्म देखो तो अपना देखो, मृत्यु देखो तो अपनी देखो| दुनिया को प्रेम में झूमता देखो तो अपने चित्त का ध्यान करो और दुनिया में कलह और कलेश देखो, तो भी अपना ही ध्यान करो|
कितना तो मजा आता है ना जब किसी और के घर में द्वेष देखते हो, द्वन्द देखते हो, मुस्कुरा ही पड़ते हो, “देखो क्या गृहयुद्ध मचा हुआ है, अच्छी महाभारत है|” उस समय तुम्हें अपना घर नहीं याद आता| उस समय तुम्हें अपना परिवार अपने दोस्त यार नहीं याद आते उस समय बड़ी सुविधा-पूर्वक तुम उन सब क्षणो को दरकिनार कर देते हो जब तुम भी उतने ही गरिमाहीन तरीके से बेचैन थे|
इज्ज़तदारों को देखो तो अपने आप को देखो, वो और कुछ नहीं है, वो प्रतिनिधि हैं तुम्हारी ही इस इच्छा के कि तुम्हें सम्मान मिलना चाहिए| याद रखना वो सम्माननीय हैं, तुम्हारे समाज में, तुम्हारे द्वारा वो सम्माननीय है क्योंकि वो और तुम दोनों सम्मान को मूल्य देते हो, वो सम्माननीय कैसे होते यदि तुम सम्मान को मूल्य न देते होते, सम्मान तो उन्हें तुम ही देते हो ना| तो जब उन्हें देखो तो अपनी ही याद कर लो कि मैं भी बिलकुल इनके ही जैसा हूँ ये भी इज्जत को कीमत देते हैं और मैं भी|
प्रधानमंत्रियों को और राष्ट्रपतिओं को देखो तो भी अपना ही ध्यान कर लो| ये उसी सत्ता पर कायम हैं, ये उसी पदवी पर बैठे हैं, ये उसी ताकत के दीवाने हैं जिन के पीछे मैं भी भाग रहा हूँ| तभी तो तुम उनके बारे में जानना चाहते हो, तभी तो दिन रात तुम अखबार में उन्हीं को पढ़ते हो, तभी तो दिन रात पूरा मीडिया उन्हीं की खबरें प्रसारित करता है| तुमनें कभी सोचा है कि तुम क्यों सभी राष्ट्रपतिओं को और धनपतियों को ही जानना चाहते हो, क्यों तुम उन्हीं की खबरें पढ़ते हो क्योंकि तुम वो हो| जो हसरत उन्हें उस गद्दी तक ले कर के गयी, वो हसरत तुम्हारे दिल में भी मचल रही है| तुम में ख्वाइश यही है की तुम भी वही हो जाओ| वो गद्दी तुम्हे भी आकर्षित करती है|
और तुम देश के सिंहासन पर चढ़ के नहीं बैठ पाते तो तुम अपने घर के सिंहासन पर चढ़ के बैठ जाते हो , “वो राष्ट्रपति होंगे, मैं कुलपति हूँ| वो देश के मुखिया होंगे मैं कम से कम घर का मुखिया तो हो सकता हूँ ना? यहाँ सारे निर्णय मेरी मर्जी से होंगे|” दुनिया में जो कुछ भी घट रहा है, चाहे दो देश एक दूसरे से लड़ रहे हों, चाहे मनुष्य दूसरे गृह और आकाश गंगा तक पहुँचने की कोशिश कर रहा हों, चाहे पशु-पक्षी विलुप्त हो रहे हों, चाहे दुनिया का पूरा मौसम, ऋतुओं का सारा चक्र बदल जा रहा हो, चाहे जाति, धर्म, नस्ल के आधार पे मनुष्यता विभाजित हो – ये सारी घटनाएँ बाहर नहीं घट रही हैं, ये सारी घटनाएँ तुम्हारे ही मन का दर्पण है|
दो देश नहीं लड़ते, हिंसा सर्वप्रथम मनुष्य के मन में जन्म लेती है| बड़े से बड़े बम की जो उर्जा है वो भौतिक उर्जा नहीं है वो मानसिक उर्जा है| तुम ये मत समझ लेना कि परमाणु हथियार भौतिक उर्जा से चलता है, वो मानसिक उर्जा से चलता है| दिखती भौतिक है, तुम उसे नाप सकते हो तुम कह सकते हो कि इतने मेगा टन का विस्फोट था इतनी जूल ऊर्जा इसमें से निकली, किसी भी तरीके से नाप सकते हो पर ध्यान से देखोगे तो समझ आएगा कि वो उर्जा तुम्हारी घृणा की है| वो उर्जा यूरेनियम की या प्लूटोनियम की बाद में है सर्वप्रथम वो उर्जा तुम्हारी घृणा की उर्जा है|
हिरोशिमा और नागासाकी पर पदार्थ नहीं गिरे, घृणा गिरी थी| वही घृणा जो तुम्हारे मन में भी लहरा रही है| बड़े-बड़े राष्ट्राध्यक्षों को मिलते देखो उनको समझौतों पर दस्तखत करते देखो तो जानो कि ये जो सारी शालीनता है, ये जो सारा रंगरोंगन है, ये जो सारी कृत्रिम शांति है, इसके पीछे मात्र स्वार्थ है| दो राष्ट्राध्यक्ष मिले है और मुस्कुरा के एक दूसरे से हाथ मिला रहे है, गले भी मिल रहे है| क्यों गले मिल रहे है? क्योंकि पारस्परिक व्यापार बढ़ाने के समझौते पर हस्ताक्षर होने जा रहे हैं, या तो दोनों ने तय किया है कि, दोनों का शत्रु एक ही है| तो ये मुस्कुराहट व्यापार से निकल रही है प्यार से नहीं|
उनको देखो और अपना स्मरण कर लो तुम भी क्या कभी किसी और वजह से मुस्कुराए हो, कभी कसी और वजह से गले भी मिले हो, हाथ भी मिलाया है|कुछ मिल रहा होता है ,कुछ पाने की उम्मीद| और न होने पाने की उम्मीद और स्पस्ट हो जाये कि यहाँ तो कुछ हासिल होना नहीं है तो क्षण भर में वो सारी विभूति, वो सारा आयोजन, वो सारी गरिमा विलुप्त हो जानी है, गाली गलौज की नौबत आ जानी है|
वैसे ही जैसे किसी बड़े होटल में जाओ और बड़े आदर से दरबान तुमको भीतर को बिठाए और वेटर मेनू ले कर के आये और तभी वहा तुम जेबें झाड़ दो, “मेरे पास तो पौने तीन रूपये है” और वो बड़े अदब से झुक-झुक के बात कर रहा था और वो हर वाक्य में तुमको पाँच बार सर बोल रहा था| मुस्कुरा-मुस्कुरा के, ऐसा लगे की पाँव ही छू लेगा तुम्हारे| पर तुमनें जेबे झाड़ी और उसने तुम्हे झाड़ दिया| अभी झु-झुक के बात कर रहा था, अब झुक-झुक के… कहाँ गयी सारी प्रतिष्ठाएँ कहाँ गईं सारी मुस्कुराहटें| और मुस्कुराने वाले लोग होटल में और बाजारों में ही नहीं मिलते वो तुम्हारे घरों में भी मौजूद है|
हो जाओ तुम निखट्टू और निक्कमे, रह जाओ उनके लिए किसी काम के नहीं, और फिर देखो तुम्हें क्या मिलता है| जैसे होटल से फेंके जाओगे, उससे ज्यादा अपमान के साथ स्वजनों द्वारा फेंके जाओगे| जो भी कुछ दुनिया में होते देखो उसको अपनी जिंदगी में होते देखो| मैं पुन: कह रहा हूँ दुनिया में ऐसा कुछ नहीं घट रहा जो तुम्हारी जिंदगी में नहीं घट रहा| बाज़ार तुम्हारे मन में है, व्यापर तुम्हारे मन में है, राग तुम्हारे मन में है, विराग तुम्हारे मन में है, युद्ध तुम्हारे मन में चल रहा है, शांति की कोशिश तुम्हारे मन में है, दौड़ तुम्हारे मन में है, ठराव तुम्हारे मन में है, ज्ञान तुम्हारे मन में है, अज्ञान तुम्हारे मन में है| एक पत्ता भी नही हिल रहा बाहर जिसके समद्रश्य कोई घटना तुम्हारे भीतर न घट रही हो|
जब देखो बड़े बड़े राजाओं के महल, किले और स्मारक तो अपनी उस इच्छा का ध्यान कर लो कि मुझे भी तो एक घर बनवाना है| वो जो बाहर की घटना है उसके समकक्ष तुम्हारे भीतर एक घटना घट ही रही है| उनके पास जरा संसाधन ज्यादा थे तो उन्होंने ताजमहल खड़ा कर दिया, तुम्हारे पास जरा कम है तो तुम कहते हो कोई बात नही राजनगर में कोठी, और जरा कम है तो कोई बात नही ग्रेटर नॉएडा में फ्लैट, पर हसरत तो वही है जो शाहजहाँ की थी|
कभी देखा है लोग गाड़ियाँ खरीदते हैं, उसके पीछे अपने बच्चो के नाम लिख देते हैं चिक्की विक्की, कुछ अलग थोड़ी तुम कर रहे हो उसने भी तो मुमताज महल नाम रखा था| चाहे अरबो का ताजमहल हो चाहे अदनी सी कार, खेल तो वही चल रहा है ना? कभी मुमताज महल, कभी मम्मी जी, कभी मिमी, मिक्की|
तो, गौरव कुमार पाल, जो दिखे उसमें खुद को देखना यही शर्त है, तुहारी नजर नही मुड़ रही भीतर की तरफ कोई बात नहीं देखो बाहर पर जो देखना उसमे स्वयंं को देखना|
बाहर जब देखोगे तो शुरुआत तो तुम इन्हीं से करोगे| तुमने लिखा मित्र, समाज, बन्धु, मित्र, यार शुरुआत तो तुम इन्हीं से करोगे करोगे क्योंकि तुमहरा मन व्यक्तियों द्वारा घिरा हुआ है| तो तुम बाहर जब भी देखोगे व्यक्तियों को ही देखोगे| तुम हो ही अभी पूरी तरीके से व्यक्ति द्वारा निर्मित, सामाजिक हो ना| और व्यक्ति को, एक सामाजिक कृति को, मात्र समाज ही दिखता देता है वो जब भी बाहर देखता है समाज ही देखता है|
अभी हम लोग इतने दिन पहाड़ो पर बिता के आये, बीच-बीच में ऐसी जगाहों से गुजरते थे जहाँ पर प्रकृति का सौन्दर्य भी था और कुछ पर्यटक भी मौजूद थे, थोड़ी भीड़-भाड़ होती थी और बड़ी मजेदार बात की पहाड़ उपलब्ध हैं, चाँद उपलब्ध हैं, गंगा उपलब्ध है, लोग इनको नहीं एक दूसरे को देख रहे होते थे| मैंने देखा है पहाड़ो पर भी पर्यटक वहाँ पर इक्कठा होते है जहाँ दूसरे पर्यटक मौजूद हों| पूछते हैं, “और लोग मिलेंगे|” तो अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच भी तुम प्रकृति नहीं देख पाते तुम्हें मनुष्य ही चाहिये क्योंकि तुम हो ही अभी पूरे तरीके से सामाजिक|
लेकिन समाज को ध्यान से देखना शुरू करोगे, अपनी ओर मुड़ना शुरू करोगे तो धीरे धीरे समाज के थोड़ा पार भी निकलोगे| अभी भीतर की और नहीं आये| अभी देख बाहर ही रहे हो पर बाहर फिर तुम्हे मात्र मनुष्य और मनुष्यकर्त चीजे ही नही कुछ और भी दिखायी पड़ेगा| अभी तो देखो ना तुमने पाने सवाल में भी ये लिखा है की दोस्त यार देखना ठीक है, भाई बन्धु देखना ठीक है, समाज देखना ठीक है तुम्हे कहा गया या लगा कि मुझे बाहर की ओर देखना है तो उसमे भी तुमने जो नाम गिनाये वो सारे लोगों के है|
फिर एक बिंदु आएगा जब बाहर शब्द तुम्हारे लिए थोड़ा अलग अर्थ लेगा| अब बाहर का अर्थ ये ही नहीं रह जाएगा कि मैं बाहर निकल के लोगों को देख रहा हूँ| अब बाहर का अर्थ रह जाएगा कि आकाश है, कि चाँद तारे हैं, सूरज है, पक्षी हैं, जानवर है, घास है और नदी है, रेत है| और मैं तुमसे कह रहा हूँ, इनको भी जब ध्यान से देखोगे तो तुम्हें अपने ही होने की याद आएगी, नदी का बहाव होगा या पर्वत की स्थिरता वो भी लेकर के तुम्हें तुम तक ही आएँगे|
जैसे, समाज में ऐसा कुछ नहीं जो तुम्हारे भीतर न घट रहा हो उसी तरह से प्रकृति में भी ऐसा कुछ नहीं जो तुम्हारे भीतर मौजूद न हो| कुछ है तुम्हारे भीतर जो पर्वत की तरह अचल और उसकी चोटी की तरह अनछुआ है, कुछ है तुम्हारे भीतर जो झरने की तरह ही कल कल बह रहा है| कुछ है तुम्हारे भीतर जो सूरज की तरह ही प्रकशित है और कुछ है जो चाँद की तरह शीतल है| वो छोटे-छोटे नन्हे दीप रात में आकाश में ही नहीं जलते, ये तुम्हारे भीतर भी जलते हैं| पर ये जरा आगे की बात है और ये विचारने का मुद्दा नहीं है| ये एकत्व, प्रकृति में अपनी छवि देखना, ये तो सहज बोध है| ये कोई निष्कर्ष नहीं है जिसपर तुम सोच-सोच के पहुँच जाओगे|
यहाँ पर तो बात कुछ ऐसी होगी जो उठेगी भीतर से| जैसे कवियों को उठती है| क्यों उठेगी ये तुम नहीं जान पाओगे उसमे तर्क का और तर्क पूर्ण निष्पत्ति का कोई महत्त्व नहीं है| बस ऐसे ही होगा बस चुप-चाप ऐसे ही बादलो को देखा और कुछ याद आ गया या उगता सूरज तुम्हारे भीतर भी कुछ उगा गया| और तुम्हें पता नहीं चलेगा ककि नदी के किनारे बैठे हो तो क्यों बैठे हो, पर बैठे हो दो घंटे से और उठने का मन नहीं कर रहा है| कोई पूछे तो साफ़ साफ़ कह नही पाओगे की नदी में मुझे मेरा जीवन दिखाई दे रहा है पर हो वही रहा है| सामाजिक मन अब अकेलेपन की ओर बढ़ा है| एक सामजिक भोगी अब कवि जैसा हो रहा है| देखो अभी भी वो बाहर को ही रहा है, पर पहले, पहले मनुष्य के मन को देखता था अब प्रकृति के महत्व मन को देख रहा है| जब ये होना शुरू होगा तो तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व बदलेगा| तुम वही नहीं रह जाओगे जो पहले थे|
*ऑब्ज़रवेशन* , अवलोकन विधियों में परम विधि है| देखने मात्र से तुम बदल जाते हो इतनी ताक़त है इसमें, कुछ करा नहीं, कोई श्रम नहीं, बस देखा और देखने भर से मैं भी बदल गया और दृश्य भी| देखने भर से देखने वाली नजर ही बदल गयी, फिर बाहर देखने की प्रक्रिया अपनी पूर्णतः पर पहुचती है| इंसान जो कुछ बना सकता था सामाज, फैक्ट्री, सड़क, देश, मर्यादाये, नियम, कानून, व्यवस्थाएँ उनमे भी तुमने खुद को देखा और जो कुछ प्रक्तिगत है उसमे भी तुमने खुद को देखा| अब भीतर और बाहर में कोई भेद बचा नही जब समस्ती में तुमने स्वयं को ही देखा तो अब तुम कहाँ सीमा खींचोगे की क्या बाहर और क्या भीतर| जब जो कुछ बाहर है और वो ही भीतर है तो बीच की सीमा मिटने लगती है और इस सीमा का नाम होता है अहंता ‘मैं’| देखा जब बाहर-भीतर सब एक सा तो बीच की सीमा अर्थहीन हो जाती है|
सीमा का तो अर्थ ही यही है ना कि इस पार कुछ और , और उस पार कुछ और होना चाहिए; है ही नहीं मेरा ही फैलाव है, काल्पनिक थी सीमा और जैसे ही ये सीमा विलुप्त होने लगती है वैसे वैसे ही देखने वाला भी विलुप्त होना शुरू हो जाता है| क्योंकि देखने वाला देखता तो इसी विचार के साथ था, इसी धारणा के साथ था कि मैं देख रहा हूँ , मैं बाहर की ओर देख रहा हूँ मैं कुछ हूँ और बाहर मुझसे कुछ भिन्न है, मैं बाहर की ओर देख लूँ| देखे क्या बाहर हमारा ही खेल चल रहा है चाहे सड़क पे गाड़ियों की आवा जाहि हो या चाहे सड़क पर कुत्तो का दल बना के लड़ना मैं ही तो हूँ वो और कौन है?
किसी का जन्मदिन मना, मेरा ही तो मना| किसी का दिल टूटा है “अरे मैं ही तो हूँ|” किसी का घर बसा है” मेरा ही तो बस रहा है सीमा नकली थी सीमा जाती है| कुछ ख़ास अब बचा नहीं तुम में देखने वाला ही नकली था जो दुनिया को देखने निकला वो भी जाता है किस आधार पे वो अब वो खुद को खड़ा रखे| तुम्हारे खड़े होने का आधार ही यही होता है की तुम विशिस्ट हो, ख़ास हो, अलग हो| जितना बाहर देखोगे उतना पाओगे की कहाँ कुछ अलग है तुम्हारे पाँव तले की जमीन ही हट जाएगी तुम खड़े कहाँ रहोगे, तुम मिट जाओगे|
मैं दोहरा रहा हूँ ,तुम वो सीमा ही थे और सीमा इसी धारणा पर खड़ी थी कि भेद है भीतर और बाहर में| भेद जब बचा ही नहीं तो मैं नाम की ये सीमा कहाँ से बचेगी? वो सीमा फिर वैसी ही रहेगी जैसे पानी में कोई लकीर खींच दे| बीच पानी में लकीर खींचो जिसके इस पार भी वही उस पार भी वही तो इस लकीर की क्या हैसियत, या की जैसे कोई आकाश में लकीर खींचे|
कुछ नकली है, ये तो जाएगा, इसको गँवा दो इसको| अब उसके बाद कुछ असली मिलेगा या नही मैं नहीं जानता, कुछ बचेगा भी या नहीं ये भी नहींं कह सकता| उसके बाद क्या होगा, या कुछ होगा भी नही मैं तो कुछ कह नही सकता| तुम्हे उत्सुकता हो जान ने की तो देख लो जान के, पर उत्सुकता के बाद देखने वाला भी बचेगा या नहीं मैं कुछ पक्का नहीं कह रहा हूँ पर सुनने में ही आमंत्रण है इन शब्दों में खिंचाव है, तो कर के देख लो| नहीं, गलत कह दिया| देख के देख लो, करना कुछ नहीं है| देख के देख लो क्या पता कुछ दिख जाए या क्या पता देखने वाला मिट ही जाए, भीतर बाहर से फर्क नहीं पड़ता जो लोग भीतर देखने के इच्छुक हों वो जब बाहर देखे तो उन्हें साफ़ दिखाई दे की बाहर जो भी है भीतर की छवि है| जिन्हे बाहर देखने में ज्यादा रूचि हो वो जब बाहर देखें तो उन्हें भीतर की याद आये, एक ही बात है|