तुम दूसरों से कितने अलग हो? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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तुम दूसरों से कितने अलग हो? || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: परम की याद भी परम ही दिलाता है, फिर ऐसा क्यों कि यह याद कुछ ही लोगों को आती है? जीवन में जो कुछ भी घट रहा है, वह उसी के हाथ में है, वह खुदी अपने पास बुलाता है परन्तु यह सबके साथ क्यों नहीं होता? यदि मैं अभी यहाँ हूँ, तो मैं ही क्यों हूँ?

वक्ता: बातें अधूरी हैं| तुमने लिखा कि परम की याद भी परम ही दिलाता है| फिर तुमने लिखा कि यह याद कुछ ही लोगों को क्यों आती है? इतना तो समझ रहें है कि परम की याद परम ही दिलाता है, पर यह भूल गई कि परम की याद परम ही दिलाता है और सिर्फ़ परम को ही दिलाता है| और किसी को अपनी याद वो नहीं दिला सकता| इसी तरह तुमने लिखा कि यह याद कुछ ही लोगों को क्यों आती है?

किसी भी व्यक्ति को नहीं आती याद| किन्हीं भी लोगों को नहीं आती है याद| ’ उसको’ ही उसकी याद आती है और किसी को नहीं आती|

‘आप’ ही बुलाता है, और ‘आप’ को ही बुलाता है| अपने अतिरिक्त वह और किसी को बुलाता ही नहीं क्योंकि उसके अतिरिक्त जो कुछ है, वह झूठ है| उसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, तो अपने अतिरिक्त और किसको बुलाएगा?

तो यह कहना कि परम की याद भी परम ही दिलाता है, इसमें अहंकार छुपा बैठा है क्योंकि तुमने यह नहीं बताया कि किसको दिलाता है? तुमने ऐसा सोच लिया कि जैसे परम अपनी याद उसको दिला देगा, जो तुम अपने आप को माने बैठी हो| तुम जो अपने आप को माने बैठी हो, तुम्हें कोई याद नहीं दिलाई जाती है| तुम्हें कोई कुछ याद दिला ही नहीं सकता और जिनको उसकी याद आती है उनको व्यक्ति कहना बड़े से बड़ा धोखा है| तुम क्योंकि अपने आप को व्यक्ति मानती हो, इसलिए तुम्हें चारों ओर व्यक्ति ही व्यक्ति दिखाई देते हैं| तुम क्योंकि अपने आप को शरीर से, तन-मन से अलग कुछ जानती ही नहीं इसलिए तुम्हें चारों ओर सिर्फ़ तन-मन ही दिखाई देते हैं| तुमने यह तय कर लिया है कि, पदार्थ ही सब कुछ है| तुमने मान लिया है कि जिनको याद आ रही है, वो शरीर हैं| तो फिर शरीरों को याद आनी चाहिए न, पर शरीरों को याद आती तो हमनें देखी नहीं| शरीर अपनी प्रकृति पर चलता है, मन अपनी प्रकृति पर चलता है| शरीर और मन में कहाँ सम्भावना है परम की?

जब तक तुम अपने आप को शरीर मानोगी, तब तक कुछ समझ नहीं पाओगी और अपने आप को शरीर मानने से भी बड़ी धृष्टता तुम यह कर रही हो कि तुम यह सोच रही हो कि जिन्हें उसकी याद आती है, वो भी शरीर ही हैं| शरीरों को नहीं याद आती| जब तक तुम्हें चारों ओर लोग दिखाई दे रहे हैं, तुम धोखे में हो| फिर तुम्हें कहाँ कोई याद आई है? यह सवाल तुमने इस भाव से पूछा है कि सबके साथ क्यों नहीं होता? कहीं न कहीं अहंकार छिपा हुआ है कि, ‘’मेरे साथ हो रहा है| कि मैं असाधारण हूँ| कि मेरे साथ कुछ विशेष धटना घट रही है| मैं यहाँ हूँ, तो मैं यहाँ हूँ, बाकि लोग तो नहीं हैं|’’ यही पूछा है तुमने, ‘’यदि मैं अभी यहाँ हूँ तो ‘मैं’ ही क्यों यहाँ हूँ?’’ तुमने यह नहीं पूछा कि, ‘’मैं ‘यहाँ ही’ क्यों हूँ?’’ तुमने पूछा है कि, ‘’’मैं’ ही क्यों यहाँ हूँ?’’ ‘मैं ही यहाँ क्यों हूँ’ का आशय होता है ‘मैं ही क्यों हूँ? अरे! दूसरे क्यों नहीं आए?’ तुम यदि यहाँ होतीं, तो तुम्हारे भीतर यह भाव कहाँ रह जाता कि, ‘’मैं हूँ और दूसरे नहीं हैं|’’ ‘मैं’ भी जाता और ‘दूसरे’ भी जाते| तुम यहाँ नहीं हो| भ्रम है| जो होता है, उसे अपने का और दूसरे का कोई बोध नहीं रह जाता|

तुम अपने तरीके से अधिक से अधिक यह कह सकती हो कि, ‘’हूँ|’’ दूसरे, अधिक से अधिक यह कह सकती हो कि अपने तरीके से यहाँ हैं| ‘यहाँ’ के अतिरिक्त और कोई कहीं नहीं है, सब यहीं हैं| अपने- अपने तरीके हैं और क्योंकि सब यहीं हैं, इसलिए उनमें भेद करना ठीक नहीं हैं| कोई हो कर है, कोई न हो करके है| कोई प्रकट हो करके है, कोई छुप के है| यहाँ के अलावा और जाओगे कहाँ? और गलती यह हो जाती है कि ‘यहाँ’ का अर्थ तुम लगा लेते हो ‘यह कमरा’। तुम भूल कर रहे हो अगर सोचते हो कि इस कक्ष में बैठे हुए हो| फिर तो वही बात हुई न, ‘मैं शरीर हूँ, मैं एक कमरे में बैठा हुआ हूँ’|

अनुष्का (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) मुरादाबाद से आई है और इस कक्ष में बैठ गई है| कहाँ यह घटना घट रही है?

जो है, वो सब मात्र एक ही जगह है| सारा फैलाव झूठ है| विस्तार जैसा कुछ है नहीं| जो विस्तृत है वही धोखा है| जो अलग-अलग है वही तो भ्रम है|

दो तरीकों से इस भ्रम को कायम रखा जाता है:

‘’मैं औरों से अलग हूँ, मैं नहीं जाऊंगा|’’ ‘’मैं औरों से अलग हूँ , मैं जाउंगी|’’

पर दोनों ही में तुमने एक भावना तो कायम रखी ही, क्या? ‘’मैं औरों से अलग हूँ|’’ कुछ यहाँ, यह कह करके नहीं आते हैं कि, ‘’मैं औरों से अलग हूँ|’’ कहते हैं, ‘’भाई, मेरी मर्ज़ी, मैं नहीं आऊंगा’’ और कुछ यहाँ, यह कह करके आते हैं कि, ‘’मैं आऊंगा क्योंकि मैं औरों से अलग हूँ|’’ बाकि सब बेवकूफ़ हैं, मैं होशियार हूँ इसलिए मैं आ रहा हूँ, मेरी मर्ज़ी| दोनों ही स्थितियों में तुम यह मान रहे हो, कि तुम हो| कि तुम्हारा फैसला है, आना या न आना| तुम अभी भी समझ नहीं पा रहे हो, कि एक पूरी व्यवस्था है, जो अपना काम कर रही है| तुम दाएँ चलो या बाएँ चलो, काम तो व्यवस्था ही कर रही है| होना और न होना तुम्हारा बेईमानी की बातें हैं, इनमें कोई विशेष अंतर है ही नहीं|

परम अपनी याद दिलाता है, — ध्यान से समझना इस बात को — पर जिसको दिलाता है अनुष्का, वो तुम नहीं हो| इस अहंकार में मत पड़ जाना कि अनुष्का जैन में कुछ ख़ास है, इसलिए परम अनुष्का जैन पर महरबान है| तुम अपने आप को जो कुछ जानती हो, उसको कभी भी सत्य की याद नहीं आ सकती| पकड़ लो इस बात को| तुम नहीं आई हो यहाँ पर! और अगर तुम्हें ही यहाँ लाना हो, जैसे तुम अपने आप को जानती हो, तो फिर बड़े आसन रास्ते हैं – क्लोरोफॉर्म सूंघा दों, बेहोश करके ले आ दो| तुम्हें लाना तो इतना आसान है, और तुम्हें लाने के तो यह तरीके काम कर जाएँगे| कि नहीं आ जाओगी?

बेहोश करो, हाथ-पाँव बांधो, गाड़ी में लादो और ला के कमरे में रख दो| आ गई! तुम तो वो हो, जिसको ऐसे भी लाया जा सकता है, परम की क्या ज़रुरत है? क्लोरोफॉर्म ही काफ़ी है| परम का बुलावा काहे के लिए चाहिए, जब हाथ-पाँव बांध के लाया जा सकता है? जो काम इतना तुच्छ है कि बेहोशी में भी हो जाए, उसके लिए परमहोश की क्या आवश्यकता है? तो तुम हो, पर तुम नहीं हो|

बात थोड़ा सा दिल को तोड़ेगी, कि, ‘’मुझे ज़रा भी श्रेय नहीं मिलेगा| मुरादाबाद से चल के आई हूँ, 150 किलोमीटर|’’ नहीं, तुम्हें नहीं मिलेगा क्योंकि इस हाड़-माँस के लाने से हो क्या जाना है? वो जो हैं न, जिसे परम बुलाता है, उसके बारे में तुम यह दावा भी मत करना कि वो तुम्हारे भीतर बैठा है| असल में हमने यह बहुत कहा है, यह हमारे कहने का बड़ा तरीका रहा है कि परमात्मा हमारे भीतर बैठा है, और यह सब बातें| और यह बड़ी अहंकार वाली बात है, तुम इतने बड़े हो गए हो कि परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठ जाएगा? तुम परमात्मा के भीतर हो सकते हो, वो तो ठीक है, परमात्मा तुम्हारे भीतर नहीं हो सकता|

यह भी मत कहना कि, ‘’मेरे दिल में परमात्मा बैठा है, और उसने मुझे यहाँ खींच के बुला लिया|’’ न जो कुछ घट रहा है, वो परमात्मा के भीतर घट रहा है|

परमात्मा तुम्हारे भीतर नहीं है, तुम परमात्मा के भीतर हो|

वो अपना खेल-खेल रहा है, उस खेल में तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है| तुम्हारा उस खेल में पूरा स्वागत है| पर दिक्कत यह है कि वो स्वागत भी किसका करता है? बस अपना ही| अपनी याद किसको दिलाता है वो? अपने आप को| अपने खेल में स्वागत भी किसका करता है? बस अपना ही| अनुष्का के लिए तो ‘*नो एंट्री*‘।‘ तुम्हें घुसने ही नहीं देगा| क्योंकि तुम हो ही नहीं| वो रोक थोड़ी रहा है| तुम्हें घुसने कैसे दे, जब तुम हो ही नहीं? कोई हो, तो उसे घुसने भी दिया जाए| तुम्हें घुसने कैसे दें?

खेल चल रहा है| उसका खेल चल रहा है और वो उसी के लिए है, उसके अतिरिक्त उसमें कोई जगह नहीं है किसी के लिए| जो अपनेआप को, उसके अतिरिक्त कुछ मानता है, वही उस खेल से अछूता रह जाता है| जब तक अपनेआप को उससे अलग और उससे दूर मानोगी, तभी तक यह सवाल उठेगा कि, ‘’मुझे क्यों बुलाया, औरों को क्यों नहीं बुलाया? तुम्हें बुलाया ही नहीं! फालतू चली आ रही हो, तुम्हें कौन बुलाता है?’’

बात समझ में आ रही है? क्या कहा जा रहा है?

द बेस्ट दैट यू आर इज़ नॉट योर पार्ट|

तुममें जो कुछ भी ऐसा है जो महान है, वो तुम्हारा हिस्सा नहीं है, वो तुम्हारी बुनियाद है|

वो तुम नहीं हो, उसका पता तो तुम्हारे मिटने पर चलता है| कभी भी खड़े हो करके यह सवाल न करना| यह सवाल ऐसा लगता है कि बड़े विनय से निकल रहा है कि, ‘’प्रभु, तू मुझ पर ही इतना महरबान क्यों हुआ?’ पर यह बड़े अहंकार से निकल रहा है| वो कहे, तुम पर कब महरबान हुए? (हँसते हुए) तुम पर, और महरबानी? तुम पर कोई मेहरबानी नहीं है| जिस पर मेहरबानी है, तुम उस पर समर्पित हो सको, को कोई बात हुई|

अभी मेरी यह जो बात-चीत है, जो मैं कर रहा हूँ, यह अनुष्का के कभी समझ में आ सकती है? यह तो उसी के समझ में आ सकती है, जिससे करी जा रही है| तुमसे थोड़ी बात कर रहा हूँ| तुम्हें तो वही समझ में आएगा, जो दिन भर करती हो| वो ही फितरत है तुम्हारी, उसके अलावा तुम्हें क्या समझ में आना है? यह जो तुमसे कहा जा रहा अभी, यह तुमसे थोड़ी कहा जा रहा है, यह हाड़-मास यहाँ बैठा हुआ है, इससे थोड़ी कहा जा रहा है| इसको कहाँ से समझ में आ जाना है? बल्कि यह कोशिश करेगा समझने की, तो बाधा बनेगी| तुम्हारी समझने की कोशिश ही बाधा बन जाएगी| तुम नामौजूद हो जाओ, तो बात खुल जाएगी, समझ में आ जाएगी| यूँ समझलो कि जैसे मैं अपने आप से ही बात कर रहा हूँ| तुमसे नहीं बात कर रहा| आत्म-संवाद है| अपने आप से ही बात कर रहा हूँ| तुम, ‘तुम’ रहोगे, तो मुझे सुन नहीं पाओगे| ‘तुम’ होने का मतलब समझते हो क्या है? ‘मैं’ मैं हूँ, और तुम ‘तुम’ हो तो क्या है बीच में? दूरी| तुम्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ेगा| कुछ समझ नहीं आएगा|

सवाल था कि परम की याद कुछ ही लोगों को क्यों आती है? बाकियों को क्यों नहीं आती?

जो जैसा है, उसे उसकी ही याद आती है|

परम की याद परम को ही आती है| तुम अपनेआप को जो माने बैठे हो, तुम्हें उसकी याद आएगी| तुम अपने आप को भ्रम माने बैठे हो, तो तुम्हें दुनिया भर के भ्रमों की याद रहती है|

जो भ्रम, उसको भ्रम| जो परम, उसको परम| छोटी सी बात, छोटा सा मरहम|

मैं ही क्यों यहाँ हूँ? समझ लो ‘मैं’ कौन हूँ?’ और ‘यहाँ’ का क्या अर्थ है| सारी बात खुल जानी है| ‘मैं कौन हूँ’ और ‘यहाँ’ का क्या अर्थ है| सब स्पष्ट हो जाएगा|

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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