तुम बस कृष्ण को चुन लो, बाकी वो चुन लेंगे || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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तुम बस कृष्ण को चुन लो, बाकी वो चुन लेंगे || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक २२

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ करते हुए मुझे यह प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं हूँ वह मेरा ही चुनाव है। पहले मुझे लगता था कि जब सारे विकल्पों का मुझे पता ही नहीं तो चुनाव किस बात का। पर अब दिखता है कि चुनाव तो मेरा ही है। लेकिन मैं इंद्रियगत बुद्धि के अनुसार ही चुनाव करता हूँ। क्या कोई उपाय है बुद्धिगत छवि, स्मृतियों से पार जाने का और फिर उन विकल्पों को जीवन में उतारने का? या फिर बुद्धि को ही गहन बनाने की कोशिश करते रहना है?

आचार्य प्रशांत: पार के समाचारों से संबंध रखा करो। जो पार की ख़बर बार-बार सुनता रहता है, उसका संसार बड़ा निर्मल हो जाता है। बुद्धि फिर साफ़ करनी नहीं पड़ती, बुद्धि पार में तुम्हारे सम्मिलन के सह-उत्पाद के रूप में स्वयं ही स्वच्छ हो जाती है।

देखो, बुद्धि की सफ़ाई की अगर तुम कोशिश करोगे भी तो अपनी बुद्धि के अनुसार ही करोगे न? तो बुद्धि ही बुद्धि की सफ़ाई कर रही है, और बुद्धि ही अगर गड़बड़ है तो क्या सफ़ाई करेगी अपनी? जैसे कि कोई पागल आदमी अपने पागलपन का इलाज अपनी पागल बुद्धि के अनुसार करना चाहता हो। कैसा चलेगा इलाज? वह पागल आदमी पूरी मानवता है।

हमें कष्ट तो प्रतीत होता है पर अहंकारवश हम यह मानने को तैयार नहीं कि हम पागल हैं। तो पागलपन के फलस्वरुप हमें जो कष्ट प्रतीत होता है, उस कष्ट का इलाज हम अपनी पागल बुद्धि का ही प्रयोग करके करना चाहते हैं। वह कष्ट दूर होता नहीं, ज़ाहिर सी बात है।

बुद्धि फिर विक्षिप्त अवस्था से वापस कैसे आती है? इलाज क्या है? इलाज यह है कि तुम बुद्धि की बात छोड़ो। इलाज यह है कि तुम वहाँ के हाल-चाल लेते रहा करो, उस देश के। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि कैसे तुम्हारी बुद्धि निर्मल हो गई। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि कैसे तुमने जीवन में सही चुनाव करने शुरू कर दिए। हाँ, तुम सही चुनाव का कोई प्रशिक्षण लेने जाओगे तो उसमें तुम्हें ऐसा लगेगा कि, “हाँ, देखो, मैं सीख रहा हूँ, कैसे सही चुनाव करने चाहिए, कैसे ग़लत चुनाव।“ लेकिन ले-देकर तुम रह वहीं जाओगे जहाँ तुम हो, ढाक के तीन पात।

संसार में उत्कृष्टता आध्यात्मिक मन को प्रसाद स्वरूप मिल जाती है। वह गया तो होता है बोध माँगने, भक्ति माँगने और योग माँगने और उसको मिल जाती है संसार में प्रवीणता, उत्कृष्टता।

वह गया तो होता है कि, “कृष्ण, और कुछ नहीं चाहिए बस आप चाहिए”, मगर उसको वरदान में, प्रसाद में मिल जाती है संसार की सारी सत्ता। अब यह बात अजीब है, सुदामा जैसी बात है। सुदामा क्या माँगने गया था, पर सब माँगना भूल गया। वहाँ रहा, कृष्ण का सानिध्य ही ऐसा भरपूर था कि कुछ माँगा ही नहीं। लेकिन जब वापस आया तो पाया कि संसार में जो कुछ भी माँगा जा सकता है या पाया जा सकता है उसको मिल गया।

यही बात हर आध्यात्मिक मन पर और साधक पर लागू होती है। उसे संसार से कुछ चाहिए नहीं और उसे संसार में जो उच्चतम संभव है, वह मिल जाता है। उसे संसार में कुछ नहीं चाहिए। वह तो उधर का हालचाल ले रहा है लगातार। वो संसार से बहुत सरोकार ही नहीं रख रहा। वह लगा हुआ है वहाँ का हाल लेने में। और चमत्कार होता है, वहाँ का हाल लेते-लेते उसको यहाँ का राज्य मिल जाता है, और यहाँ का राज्य उसको चाहिए था नहीं। माँग ही नहीं रहा था पर मिल जाता है।

तुम अपने निर्णय कैसे ठीक करो? तुम अपने विकल्पों में, चुनावों में उत्कृष्टता कैसे लाओ? उसका तरीका यही है कि चुनावों पर उतना ध्यान ही मत दो।

जो सही चुनाव है, उसको एक बार कर लो और उसी में रमे रहो। तो बाकी सब पीछे के छोटे-मोटे चुनाव अपने-आप ठीक होते चले जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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