प्रश्नकर्ता: एक व्यक्तिगत प्रश्न है कि जैसे-जैसे बात समझ में आती है तो लगता है कि अगर आपको एक सही जीवन जीने की आवश्यकता है तो दुनिया की समझ होना बहुत ज़रूरी है।
तो विज्ञान में रुचि लगती है कि होनी चाहिए, आपको पता होना चाहिए कि दुनिया काम कैसे करती है, सामान्य भौतिकी क्षेत्र का ज्ञान। तो जैसे आपने बोला कि आपका किसी भी तरीके की सूचनाओं या आँकड़ों से ऐसे उठ जाता है। तो क्या ये जो मेरी रुचि है, ये यही दर्शाती है कि अभी ज्ञान उतरा नहीं, अभी भी मुझे दुनिया में ही रुचि है?
आचार्य प्रशांत: जिस भी चीज़ की तुम्हें रुचि है, अगर उसका उद्देश्य अपने भीतर के भ्रम को काटना है, तो ठीक है। जो कुछ भी तुम्हारी हस्ती को गलाए, जो भी कुछ तुम्हारी पुरानी धारणाओं को हटाए-मिटाए, वो अच्छा है तुम्हारे लिए।
ज्ञान का उद्देश्य इस दुनिया में बढ़िया जीविकोपार्जन वगैरह नहीं होता — हालाँकि हमने ज्ञान को ऐसा ही बना रखा है। कोई कहेगा, ‘मेरे ज्ञान का उद्देश्य है कि मुझे डिग्री मिल जाए’, कोई कहेगा, ‘पैसा मिल जाए।’
कोई अपनी रुचि की खातिर ज्ञान इकट्ठा करता है कि अखबार पढ़े जा रहा है, पढ़े जा रहा है। क्यों? मुझे राजनीति में रुचि है, तो वो राजनीति की खातिर पढ़ रहा है। कोई डर के मारे टीवी देखे जा रहा है कि अच्छा, महामारी फैली हुई है, कितने और लोग कहाँ मर गये। वो डर के मारे सूचना इकट्ठा कर रहा है।
ये सब जो हम कर रहे हैं ये ज्ञान नहीं कहलाता; ये सबकुछ तो भीतर जाकर के अहंकार का भोजन बनता है। नीयत में ही अंतर है। तुम कुछ जान रहे हो ताकि भीतर जो तुम्हारे अंधेरा है उसको कायम रख सको। समझ रहे हो बात को?
जैसे कोई व्यक्ति दिन में भी सोना चाहता हो। दिन के समय भी तुम सोना चाहते हो, तुम्हारे कमरे में पर्दे लगे हैं। और पर्दे ऐसे हैं कि वो किसी मशीन से चलते हैं, देखे हैं न? बटन दबा दो तो पर्दा लग जाएगा, बटन दबा दो तो पर्दा खुल जाएगा। तुम पता कर रहे हो कि ये पूरा पर्दा कैसे लगा दूँ, सारे पर्दे कैसे बंद कर दूँ।
तुम कुछ जानना ही चाह रहे हो, क्या जानना चाह रहे हो? कि बटन कहाँ है जिससे ये पर्दे संचालित होते हैं। ये भी तुम ज्ञान ही इकट्ठा कर रहे हो न? वो बटन कहाँ है जिससे ये पर्दे संचालित होते हैं और उन बटनों का कैसे उपयोग करते हैं? कौनसा दबाऊँ तो खुलता है, कौनसा दबाऊँ तो बंद होता है?
पर तुम दिन के वक्त सोना चाहते हो तो तुम वो बटन इसलिए खोज रहे हो ताकि उसको दबाकर अपने अंधेरे कमरे को अंधेरा ही रख सको, जबकि बाहर उजाला तैयार है भीतर प्रवेश करने को।
नीयत का फ़र्क हो गया। हम जो कुछ भी जानते हैं, जानना चाहते हैं, उसमें नीयत यही रहती है कि अंधेरी जगह को अंधेरा बनाये रखें। जहाँ अंधेरा है वहाँ अंधेरा ही बना रहे, भले ही बाहर रोशनी तैयार हो।
यही तुम दूसरा काम भी कर सकते हो। दूसरी बात ये है कि अंधेरा बहुत है और तुम जानना चाह रहे हो कि बिजली का बटन कहाँ पर है। कौनसा स्विच दबा दूँ कि रोशनी हो जाए। ये भी तुम ज्ञान इकट्ठा कर रहे हो; नीयत दूसरी है।
समझ रहे हो बात को?
अब कमरे की बात जहाँ हो रही है वहाँ कमरे का मतलब समझना, कमरा क्या है? तुम्हारा मन। बिलकुल ऐसा हो सकता है कि ज्ञान तुम्हारे पास आए और तुम्हारे अंधेरे को और अंधेरा कर जाए। हो सकता नहीं है, निन्यानबे दसमलव नौ(९९.९%) प्रतिशत ज्ञान ऐसा ही होता है। उसमें ज्ञान का दोष नहीं ज़्यादा; ज़्यादा दोष नीयत का है।
कुछ भी जानने निकलो तो उससे पहले पूछो, ‘क्यों जानना है मुझे?’ ठीक वैसे जैसे कुछ भी करने से पहले, कुछ चुनने से पहले पूछते हैं न, क्यों करना है, क्यों चुनना है, क्यों चाहिए? वैसे ही, क्यों जानना है? क्यों जानना है?
इसी तरीके से जो बातें तुम्हें नहीं पता हैं, उनमें अपने आप से पूछो, ‘क्यों नहीं जाना आज तक और अभी भी क्यों नहीं जानना है?’ खतरनाक सवाल! हिल जाओगे!
जितनी कोशिश हमारी रहती है न कि कुछ जान लें इधर-उधर, हम कहते हैं न कि मन चंचल है, इधर-उधर कुछ-न-कुछ सामग्री ढूँढ़ने के लिए फुदकता रहता है? हम बहुत अधूरी बात बोलते हैं।
मन इधर-उधर जानकारी और सामग्री ढूँढ़ने के लिए फुदकता-सो-फुदकता है, वो इससे ज़्यादा इधर-उधर भागता है सच्ची जानकारी से बचने के लिए। झूठे ज्ञान को इकट्ठा करने के लिए आप जितने आग्रही होते हैं, उससे ज़्यादा चिंता आपको ये होती है कि कहीं असली ज्ञान धोखे-ब-धोखे आपको मिल न जाए।
असली ज्ञान ज्ञाता के साथ क्या करता है? गड़बड़ कर देता है, चिथड़े उड़ा देता है। समझ में आ रही है बात? नहीं तो सत्य दूर नहीं होता, जो वास्तव में जानने लायक़ चीज़ है वो तो हमारे बहुत निकट होती है न। क्योंकि वो हमारे कामों में, विचारों में, निर्णयों में, भावनाओं में, सबमें परिलक्षित होती है। तुरंत पता चल जाता है कि चीज़ क्या हैं हम। और पता चल जाता है चीज़ क्या हैं हम, तो बदल भी जाते हैं, मिट भी जाते हैं।
पर हमारी घोर रुचि है, न जानने में। बड़ी चिंता रहती है कहीं पता न चल जाए। इसीलिए जो चीज़ बिलकुल सम्मुख होती है, एकदम प्रत्यक्ष, हमें वो भी पता लगने पाती नहीं।
फिर कोई चाहिए होता है जो हमारा गला पकड़कर हमसे बोले, ‘देख, ये अभी किया तूने, क्या किया? क्या तू इसका अर्थ नहीं समझता? तू क्या कर रहा है?’
ये ऐसा कैसे है कि कोई और आकर के आपका गला पकड़कर के बता रहा है? तब आप अचानक झटके में आकर कहते हैं, ‘अरे! मैंने ही तो ऐसा किया, मैंने ऐसा कैसे किया!’
ऐसा नहीं कि बहुत कोई कठिन या जटिल बात थी जो आपको पता नहीं लग सकती थी, बस आपकी नीयत खराब है। नीयत यही है कि कहीं सच्चाई पता न लग जाए। ज़्यादातर हमारा ज्ञान इसीलिए ज्ञान नहीं है क्योंकि वो गलत नीयत से इस्तेमाल हो रहा है, इकट्ठा ही गलत नीयत से किया गया था।
और उस पर तुर्रा ये कि हम अपने आप को ज्ञानी और परमात्मा को सर्वज्ञानी बोलते हैं। हमने अपने ही जैसा बना लिया उसको भी।
हम कहते हैं न कि ये पाँच इन्द्रियाँ तो झूठ दिखाती हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ सब झूठ हैं। ‘सच देखना है तो दो आँखों से नहीं, तीसरी आँख चाहिए होगी।’ कहते हैं न ये सब? और हम कहते हैं, ‘कानों से सच सुनाई नहीं देता, सच तो मौन में है, शब्द में नहीं।’ कहते हैं? वास्तव में वो बातें भी अतिश्योक्ति जैसी हैं। इन्हीं दो आँखों से सच दिखाई देता है, इन्हीं दो कानों से सच सुनाई भी देता है।
अनहद इन्हीं दो कानों से सुनोगे, नीयत होनी चाहिए। इतनी कमज़ोर भी नहीं है आँखें। गन्दी हैं कमज़ोर नहीं, ढँकी हैं कमज़ोर नहीं, आच्छादित हैं असक्त नहीं।
श्रीकृष्ण कहते हैं, “निर्मल इन्द्रिय होना ज़रूरी है।” निर्मल इन्द्रिय समझते हो? आँखों का मल हटाना ज़रूरी है। आँखों का मल क्या है? बदनीयती। इन्हीं आँखों से सच दिख जाएगा अगर आँखों के पीछे जो बैठा है उसकी मंशा, उसका इरादा, उसका उद्देश्य शुद्ध हो।
इन्हीं आँखों से दिख जाएगा। और सच दिख जाएगा, माने क्या? परमात्मा दिख जाएगा? परमात्मा तो निराकार है, वो आँखों से क्या दिखेगा; माया दिख जाएगी।
जिसने माया को देख लिया, वो समझ लो माया से अलग हो गया। जो माया से अलग हो गया उसे सत्य कह देना अतिश्योक्ति नहीं है। जो माया को देखने लग गया वो माया का साक्षी हो गया। और जो साक्षी हो गया उसको आत्मा कह देना गलत नहीं है।
तो इन्हीं दो आँखों से सच दिखेगा क्योंकि इन्हीं दो आँखों से कम-से-कम माया को तो देख सकते हो न। पर हमें माया भी नहीं दिखती इन दो आँखों से। इरादा ही नहीं है माया को देख लेने का।
हमारा तो इरादा माया से लिपटा-चिपटी करने का है, माया को भोगने का है। और तुम भोगी और साक्षी एक साथ हो नहीं सकते। तो जब भोग रहे होते हो माया को, तो माया को कभी देख नहीं पाते।
फिर कहते हो, ‘अरे! हम क्या करें हम तो साधारण जीव हैं, इन दो आँखों से कहाँ सच दिखाई पड़ता है?’ चलो सच नहीं दिखाई पड़ता, माया तो दिखती, वो भी नहीं देख पाए? इरादा, मंशा, उद्देश्य, नीयत खराब है, बहुत ज़्यादा खराब है।
ऐसा नहीं कि अलार्म बज नहीं रहा, ऐसा भी नहीं कि अलार्म सुनाई नहीं दे रहा, उठने का इरादा नहीं है। अब कहते हो कि इन कानों से हमें कहाँ सच सुनाई देगा? ‘अरे, सच नहीं सुनाई देता, अलार्म तो सुनाई देता है? या बहरे हो? उठ जाओ।
मन निर्गुण-निराकार को नहीं पकड़ सकता, पर जो सगुण-साकार माया घूम रही है उसको तो पकड़ सकता है। उसको काहे न पकड़ा? और उसको न पकड़ने के लिए बढ़िया आध्यात्मिक दलील तैयार करी है, क्या? ‘मन कहाँ सत्य के दर्शन कर सकता है!’ क्या आध्यात्मिक दलील तैयार करी है!
फिर तमाम तरह के हम करते हैं, पाखंड। जिन कानों से तुम कभी सुने जा रहे शब्दों की — चाहे वो दूसरों के शब्द हो, चाहे अपने हो — सच्चाई नहीं पकड़ पाए, उन कानों से तुम कहते हो कि तुम्हें अनहद नाद सुनाई दे रहा है! वाह बेटा! वाह!
अभी-अभी कोई आकर के तुमसे साफ़ झूठ बोलकर के गया है और तुम उसका झूठ पकड़ नहीं पाये क्योंकि पकड़ने की मंशा नहीं थी। क्योंकि झूठ पकड़ लेते तो तुम्हें सुविधाओं पर कुछ दिक्कत आती।
तुम्हारे इन्हीं कानों से सुने जा रहे शब्दों का झूठ पकड़ा नहीं गया और तुम कह रहे हो, तुमने इन्हीं कानों से कोई विशेष आध्यात्मिक विधि लगाकर के अनहद नाद सुन लिया! तुम तो… ! जिन आँखों से सामने दिखाई दे रहे दृश्यों का तुम्हें कभी व्यर्थता बोध नहीं हुआ, उन आँखों से तुम कहते हो, ‘अभी-अभी मैं बिलकुल अलौकिक शरीरों के दर्शन करके आ रहा हूँ!’
जो मन सामने दिखाई दे रहे तथ्य को कभी जाँच-परख नहीं पाया, वो मन अपनी कल्पनाओं में परमात्मा को देखने लग गया! जो चीज़ प्रत्यक्ष है उसमें सच्चाई कभी टटोली नहीं गयी और कहते हो, ‘हम आँख बंद करके ध्यान में बैठते हैं तो कल्पना में हमको ईश्वर दिखाई देते हैं।’
आँख खुली थी तब तो कुछ दिखाई दिया नहीं, आँख बंद करके कल्पनाओं में सच दिख गया तुमको? ये कौन-सी गाड़ी है जिसको चलाने के लिए तुम न्यूट्रल गियर लगाते हो? और कहते हो, ‘चौथे-पाँचवें गियर में कुछ खास हो नहीं रहा था, न्यूट्रल लगाकर के खड़ी कर देते हैं तो गाड़ी उड़ने लगती है।’ गाड़ी नहीं उड़ रही, तुम उड़ रहे हो, गाँजा कम फूँका करो। समझ में आ रही है कुछ बात?
आज धर्म का इतना अपमान दुनिया में इसीलिए है क्योंकि हमने अपने आन्तरिक झूठों को बचाने और बढ़ाने का साधन बना लिया, धर्म को। साधारण आदमी से भी कहीं-कहीं ज़्यादा झूठा तथाकथित धार्मिक आदमी होता है।
साधारण आदमी तो इस दुनिया के सन्दर्भ में ही कुछ झूठ बोल देगा — मान लो गुप्ता जी आये थे, वो बोल देगा, ‘गुप्ता जी नहीं आये।’ साधारण आदमी इससे ज़्यादा झूठ नहीं बोल सकता। धार्मिक आदमी तो यहाँ तक बोल देगा कि गुप्ता जी तो नहीं आये लेकिन गुप्ता जी के दादाजी — जो अस्सी साल पहले मर चुके हैं — वो आये थे। ये धार्मिक आदमी का झूठ है, वो यहाँ तक जाता है।
कोई गणित का शिक्षक हो वो अधिक-से-अधिक आपको बात इतनी गलत बता देगा कि कोई सवाल है, वो उसको हल करेगा नतीज़े में कुछ गलत ले आ देगा। बीच में कहीं उसने समीकरण में कोई गलत मोड़ ले लिया, कोई सूत्र गलत लागू कर दिया तो नतीज़ा गलत आ गया।
लेकिन अध्यात्म का शिक्षक होगा, वो तो आपको बता देगा कि तरंगे थीं और वो तरंगे मेरे सामने एक ठोस रूप लेकर खड़ी हो गयीं एक लंगड़े योगी का। सांसारिक आदमी की बेचारे कि हैसियत ही नहीं कि वो उस कोटि के झूठ बोल सके जिस कोटि के झूठ आध्यात्मिक आदमी बोलता है। अब बताओ धर्म को सम्मान मिलेगी दुनिया में?
इसीलिए दुनिया घोर रूप से अधार्मिक हुई जा रही है, पतन में गिरी जा रही है क्योंकि तथाकथित धार्मिक लोगों ने धर्म की आड़ में झूठ का जितना खेल खेला है उसका कोई अंत ही नहीं।
भौतिकी का कोई शिक्षक होगा, उसको बोला जाए कि एक तरंग है वो पिछली दो तरंगों को इस तरीके से जोड़ करके बनी है। ठीक है। दो तरंगें थीं, उनका कंस्ट्रक्टिव इंटरफ्रेंस (निर्माण कार्य हस्ताक्षेप) हुआ और एक तीसरी तैयार हो गयी ऐसे-ऐसे, तो बताओ भाई इसका?
हो सकता है वो उसकी आवृत्ति की गणना कुछ गलत निकाल दे, उससे गणना में भूल हो गयी। पर अभी कोई आध्यात्मिक गुरुजी आएँगे, वो तुम्हें ऐसे-ऐसे वाइब्रेशन (तरंग) बता देंगे जो है ही नहीं। कहेंगे, ‘मैं तुमको देखता हूँ, मेरे देखने भर से मेरे और तुम्हारे बीच का स्पेस आयोनाईज्ड (आयनित) हो जाता है। और फिर मैं यहाँ से चार्ज फेंककर मारता हूँ। मैं चाहूँ तो उससे तुमको अभी तत्काल एनलाइटेनमेंट (प्रबोधन) भी दे सकता हूँ और मैं चाहूँ तो अभी मैं तुम्हें मौत दे सकता हूँ।’
ये नतीज़ा निकलता है संसार में झूठे रहकर किसी आध्यात्मिक सच की बात करने का। आध्यात्मिक सच बहुत आखिर की चीज़ है, पहली चीज़ है सांसारिक सच। संसार में सच्चे होना सीखो। संसार की हालत और अपनी हालत दोनों के प्रति किसी गलतफ़हमी में मत रहो, ये अध्यात्म है।
यही अध्यात्म है — अपने मन को जानो, अपने क्रियाकलापों को जानो, अपने भावों-संवेगों को जानो और दुनिया के चाल-चरित्र को जानो। समझ में आ रहा है? बस यही है अध्यात्म।
पचास तरह की कल्पनाएँ और कहानियाँ, वितंडावाद, भूत-प्रेत और आत्माओं के किस्से, औरा, वाइब्रेशन ये अध्यात्म नहीं होता। किसी औरा, किसी वाइब्रेशन का अध्यात्म से कोई दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं है।
अध्यात्म सच का अनुसन्धान है, कपोल कल्पनाओं का नहीं। दुनिया के बारे में जानना क्यों ज़रूरी है? हमने कहा था, तीन तल होते हैं — धारणा, तथ्य और सबसे ऊपर? ज्ञान। दुनिया का तथ्य जानना इसलिए ज़रूरी है ताकि तुम्हारी धारणा कट सके।
समझ में आ रही बात?
जो अपनी धारणाओं को काटकर तैयार है, कम-से-कम काटने के लिए तैयार है, फिर उसके लिए हैं उपनिषद् के वचन। जो अपनी धारणाओं को संरक्षण देने पर उतारू है, उपनिषद् उसके लिए हैं ही नहीं।
उपनिषद् उसके लिए हैं जो आत्म-आहूति देने आया है। जिसकी रुचि आत्म-प्रवंचना में या आत्म-संरक्षण में है, उपनिषद् उसके लिए बिलकुल नहीं है। समझ में आ रही है बात?