प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे अभी थोड़े ही समय पहले तक इसी बात पर चर्चा हो रही थी कि कैसे जो छोटे कस्बे हैं या शहर हैं हिन्दुस्तान में, उसमें क्योंकि लोगों के पास ठीक काम नहीं है करने को, तो अपने समय बर्बाद करने को वो वही सारे ऐबों में फँस जाते हैं जिन ऐबों में फँसकर आदमी जानवर बनता जाता है और यह बढ़ता ही जा रहा है, बढ़ता ही जा रहा है; इसकी कोई समाप्ति दिख नहीं रही है, बल्कि जैसा आपने बताया था कि पिछले बीस सालों में हैवानियत बढ़ते गयी है छोटे शहरों, गाँवों, कस्बों में। तो इसका इलाज क्या है? इसके लिए क्या किया जा सकता है?
आचार्य प्रशांत: दो वजहें रही हैं, जिसकी वजह से छोटे शहरों और गाँवों में सांस्कृतिक पतन बहुत ज़्यादा हुआ है और बहुत तेज़ी से हुआ है, बीस साल में ही तस्वीर बदल गयी है।
जो पहली वजह है, वो ज़्यादा मूलभूत है। वो ये है कि जो संस्कृति चल रही थी वहाँ पहले से ही—इन बीस वर्षों में नहीं, इससे बहुत पहले से ही—वो संस्कृति अपनेआप में बहुत वज़न नहीं रखती थी, बहुत ठोस नहीं थी, खोखलापन था एक। रस्में थीं, प्रथाएँ हैं, परम्पराएँ हैं, रूढ़ियाँ; लोग उनका पालन कर रहे हैं या कुछ मूल्य थे, एक वैल्यू सिस्टम् (मूल्य व्यवस्था) था, लोग उसका भी पालन कर रहे हैं।
पर न तो ये पता है कि किसी मूल्य परम्परा पर चल रहे हैं तो क्यों चल रहे हैं, किसी को मूल्य देते हैं तो क्यों देते हैं; न आपको ये पता है कि आप किसी प्रथा का पालन कर रहे हैं तो क्यों कर रहे हैं, उस प्रथा के केन्द्र में क्या रखा हुआ है।
तो उन चीज़ों को (पर) लोग बहुत दिनों से चले आ रहे थे, चले आ रहे थे और ऐसा लगता था कि इस चीज़ में बहुत दम होगा इसलिए दिनों से चल रही है।
पर बात ऐसी थी जैसे कोई खोखला पेड़ हो। वो खोखला पेड़ खड़ा रह सकता है, खड़ा रह सकता है बहुत लम्बे समय तक और आपको ऐसा लग सकता है, वो बाहर से देखकर के कि अरे! ये तो अभी बड़े आकार का है, इसमें अन्दर ताक़त भी होगी। अन्दर से वो खोखला है, एक दिन आँधी आती है, वो गिर जाता है। कहते हो, ‘अरे! अचानक गिर गया। आँधी आयी, अचानक गिर गया।’, वो अचानक नहीं गिर गया, वो बहुत लम्बे समय से खोखला था, बस जैसे वो आँधी का इन्तज़ार कर रहा था कि कोई आए, उतनी ज़ोर का धक्का दे और मैं गिर जाऊँ, तो वो हो रहा है।
तो पहले ही जो हमारी सांस्कृतिक परम्परा थी, वो बहुत हद तक जीर्ण-शीर्ण, पुरानी, रोगी, खोखली हो चुकी थी। अब फिर इस बीस साल में क्या हो गया? इस बीस साल में ये हो गया कि पहले टेलिविज़न् और फिर मोबाइल् डेटा का ज़बर्दस्त प्रहार। ठीक है?
नब्बे के दशक से, खासतौर पर सन् दो हज़ार के बाद घर-घर में डिश्-टीवी (छतरी वाला दूरदर्शन) पहुँच गया। आप जाइए तो एकदम छोटे घर होंगे, हो सकता है एकदम पक्के घर भी न हों अभी वो, हो सकता है उनके पास पैसा भी न हो लेकिन वो छतरी जो है, छत पर लगी रहती है, टीवी देखने के लिए।
तो ये चीज़ बीस साल पहले से शुरू हो गयी थी, अब घर-घर में वो जो शहरी कचड़ा है, वो गाँव में पहुँचना शुरू हो गया, वो डिश्-टीवी वगैरह के माध्यम से।
फिर अभी पिछले आठ-दस साल से डेटा सस्ता हो गया तो डेटा पहुँचना शुरू हो गया है। अब चाहे टीवी हो और जो सौ-दो सौ चैनल् हैं टीवी पर, ये टीवी वाले चैनल् हों और चाहे ये जो इन्टर्नेट् से चीज़ पहुँच रही लोगों के घरों में; दोनों में एक साझी बात क्या है? दोनों में साझी बात यह है कि जो भी लोग उन टीवी चैनल्स (दूरदर्शन सरणियों) या इन्टर्नेट् के माध्यम से आपको मसाला परोस रहे हैं, वो आपको कुछ ऐसा परोसना चाहते हैं, जो आपको बड़ा आकर्षक लगे और आप जिसके कारण उनका चैनल् बार-बार देखते रहो।
तो इन्होंने गन्दगी परोसनी शुरू करी। अब गाँव का जो चित्त होता है, वो शहर कि अपेक्षा थोड़ा-सा मासूम होता है; थोड़ा मासूम भी होता है और उसने बहुत दुनिया नहीं देखी होती, माने उसने शहरी दुनिया नहीं देखी होती, शहरी एक्सपोज़र् (सामना) उसका होता नहीं है।
अब आप जब उसे ये दिखाओगे अपने टीवी सीरियल् (दूरदर्शन धारावाहिक) के माध्यम से या अपने यूट्यूब चैनल् के माध्यम से कि देखो! शहरों में तो लोग इस-इस तरीक़े की मौज कर रहे हैं और यही मौज तो ज़िन्दगी का लक्ष्य है, तो उस व्यक्ति में फिर एक भीतर कामना जगती है, भीषण! वो कहता है, ‘ये सब मुझे भी चाहिए!’
और सिर्फ़ दिखाया ही नहीं जाता, ग्लोरीफ़ाई (महिमामण्डित) किया जाता है न कि ये चीज़ें हैं और ज़िन्दगी में होनी चाहिए और अगर तुम्हारे पास नहीं हैं तो तुम्हारी ज़िन्दगी तो समझ लो कि व्यर्थ चली गई!
तो ग्लोरिफ़िकेशन् ऑफ़् नॉन्सेन्स (निरर्थक का महिमामण्डन) और ग्लोरिफ़िकेशन् ऑफ़् कन्ज़म्प्शन् (उपभोग का महिमामण्डन) हुआ है।
घर-घर में यह बात पहुँचा दी गयी है गाँव में कि शहर वाले लोग इन-इन तरीक़ों से ऐश करते हैं, शहर में सबके पास बड़ी गाड़ियाँ हैं और शहर ही स्वर्ग है और स्वर्ग किसलिए है? इसलिए नहीं कि वहाँ बेहतर लोग रहते हैं या वहाँ बेहतर मूल्य है, इसलिए है क्योंकि वहाँ हर आदमी ‘ऐश’ कर रहा है। तो ये जो ‘ऐश’ का कॉन्सेप्ट (सिद्धान्त) है, ये गाँव में भी पहुँच गया।
और ऐश में क्या आता है? कि पैसा बहुत है, कन्जम्प्शन् (भोग) बहुत है और सेक्स (सम्भोग) बहुत है। अब वो चीज़ गाँव वाले को भी चाहिए। भले ही वो चीज़ शहर में ही नहीं पायी जाती पर वो गाँव वाले को चाहिए अब, क्योंकि उसको ये बता दिया गया है कि ये चीज़ शहर में प्रचुरता से हो रही है। हो शहर में भी नहीं रही; किस्सा है, कहानी है पर अब गाँववाले को चाहिए।
और मैं ये बात कितनी बार पहले बोल चुका हूँ कि गन्दगी हमेशा ज़्यादा तेज़ी से फैलती है। आप कोई अच्छी चीज़ दिखाएँगे तो आपका टीवी चैनल् या आपका सोशल् मीडिया नहीं चलेगा उतनी अच्छी से, उतनी तेज़ी से नहीं फैलेगा। लेकिन आप जब गन्दगी दिखाते हैं तो आपका टीआरपी (दूरदर्शन लोकप्रियता अंक) भी बढ़ जाता है, आपके सब्सक्राइबर् (उपभोक्ता) भी बढ़ जाते हैं। आप टीवी चैनल् के ओनर् (स्वामी) हैं, आपको टीआरपी बढ़ाना है, आप गन्दगी परोसेंगे; आप कोई यूट्यूब चैनल् चलाते हैं, आप गन्दगी परोसिए, आपके सब्सक्राइबर् तुरन्त मिलियन (दस लाखों) में भागेंगे। आप एक अच्छा चैनल् चलाइए, आप कोई ढंग की बात करिए, लोग आएँगे नहीं आपकी तरफ़।
ये आज की बात नहीं है, सदा का नियम है न! हम हमेशा गन्दगी की ओर ही तो ज़्यादा तेज़ी से आकर्षित होते हैं, सच्चाई को तो बड़ी मेहनत करनी पड़ती है अपनेआप को किसी तरह लोगों तक पहुँचाने के लिए और अपनेआप को स्वीकार्य बनाने के लिए।
विशेषकर सस्ते डेटा ने ये करा कि गन्दगी को तेज़ी से फैलने का एकदम मौका दे दिया।
प्र: टिक्टॉक् या मौज या फिर जितने भी ये मंच थे, इन्होंने जो किया है।
आचार्य: हाँ-हाँ! उन्होंने गन्दगी को फिर फैलने का बहुत तेज़ी से मौका दे दिया कि हर आदमी जो वैसे तो किसी काम का नहीं है पर जिसमें भीतर कामना दहक रही है कि मुझे भी पैसा मिल जाए, मैं भी फ़ेमस् (प्रसिद्ध) हो जाऊँ, वो फिर जल्दी से अपनी कोई घटिया-सी, गन्दी-सी चीज़ बनाएगा और वो भी कुछ थोड़ी बहुत प्रसिद्धि पा जाएगा। तो ये हुआ है।
ये नहीं हो पाता, अगर जो पहली समस्या थी मूलभूत, वही न होती। हमने क्या कहा था, पहली मूलभूत समस्या क्या थी?
प्र: कि जो संस्कृति है..
आचार्य: हाँ! कि जो सांस्कृतिक आधार था, पहले से वही बहुत खोखला था। वो इतना खोखला था कि उसपर टीआरपी की और सब्सक्राइबर्स की चोट पड़ी और वो ऐसे बीस साल के अन्दर ध्वस्त हो गया सबकुछ।
प्र: आचार्य जी मेरा एक सवाल यहाँ से उठ रहा है, वो यह है कि जिस चीज़ को प्रसारित किया जा रहा है कि यह तुम्हारे जीवन में कमी है, तुम्हारे जीवन में भोग नहीं है; वो तो अभी भी नहीं है! तो फिर आदमी को उसको पाने के लिए तो और मेहनती होना चाहिए था! होना तो यह चाहिए था?
आचार्य: नहीं, अगर उसे आप ये दिखा दे कि मेहनती होने कि ज़रूरत नहीं है तो? एक टीवी सीरीयल् आता है, उसमें वो ये थोड़ी दिखाते हैं कि जो लोग ऐश कर रहे हों, वो बड़े मेहनती हैं।
आप एक टीवी सीरीयल् देखते हो, उसमें हर कोई ऐश कर रहा होता है। ग़रीबी दिखाना तो आउट् ऑफ़् फ़ैशन् (प्रचलन से बाहर) हो गया है, ग़रीबी तो अब दिखायी जाती नहीं; चाहे सिनेमा का पर्दा हो, चाहे टीवी का पर्दा हो, चाहे सोशल् मीडिया हो; हर आदमी को ऐश करते दिखाया जा रहा है। और ये कोई नहीं बता रहा वो ऐश कर कहाँ से रहा है या ऐश कर भी रहा है तो उसके औने-पौने साधन उपलब्ध करा दिये गये हैं।
अब जैसे ये निकला है कि मोटीवेशन् (प्रेरणा) की स्पीच् (भाषण) दो और लोगों को उदाहरण के लिए मल्टीलेवल् मार्केटिंग (बहुस्तरीय विपणन) में एन्रोल् (सम्मिलित) कर लो और उनको दिखाओ कि पैसा-पैसा-पैसा-पैसा या कि नये लड़के हों, जो कुछ जानते नहीं हैं फ़ाइनेन्स (वित्त) के बारे में, स्टॉक् मार्केट् (शेयर बाज़ार) के बारे में, इन्वेस्ट्मेन्ट्स (निवेशों) के बारे में, उनको लालच दिखाओ कि देखो, अगर तुम फ़लानी जगह पर पैसा लगा दोगे तो तुमको ज़बरदस्त तरीक़े से लाभ हो जाएगा, क्रिप्टो (विकेन्द्रीकृत मुद्रा) में पैसा लगा दो। उससे दो-चार को लाभ हो भी जाता है लेकिन दो-चार को मुनाफ़ा होता है, उसके पीछे कोई ये नहीं बताता कि दो हज़ार - चार हज़ार बर्बाद हो गये, लाशें पड़ी हुईं हैं, वो कोई नहीं बताता है।
तो जो सन्देश दिया जा रहा है, वो ये है कि एक अय्याशी कि ज़िन्दगी सम्भव है बिना मेहनत करे और आज हर आदमी इस विचारधारा को पकड़ चुका है कि मुझे अय्याशी करनी है और वो अय्याशी मुझे बिना मेहनत के करनी है या मेहनत भी थोड़ी बहुत कर ली और उसके बाद तो जीवन में मुझे अय्याशी ही चाहिए है।
और मैं सोचता हूँ कि गीता का निष्काम कर्म कहाँ चला गया, जिसमें कहा जाता है कि तुम जो सही काम है, वो करो; उसमें से क्या मिलेगा - क्या नहीं मिलेगा, सोचो मत। उस चीज़ से तो हम बहुत-बहुत दूर आ गये।
असल में हम उस चीज़ के करीब कभी थे भी नहीं, अगर करीब होते तो इतनी जल्दी हमें उखाड़ नहीं दिया जाता। उस चीज़ को भारत ने कभी ठीक से पकड़ा ही नहीं था इसीलिए तो जब उल्टी-पुल्टी ताकतें आयीं तो इन्होंने हमें एकदम ध्वस्त कर दिया।
तो आज का जो आदर्श है, वो यही है कि आप एक स्मार्ट (होशियार) बन्दे हैं, जो अपनी स्मार्टनेस् (होशियारी) के माध्यम से—मेहनत के माध्यम से नहीं, अपनी स्मार्टनेस् के माध्यम से—घर बैठे लाखों कमाता है महीने के और उसके बाद ऐश करता है।
और बहुत बेशर्मी के साथ लगातार हर तरह के मीडिया (माध्यमों) से आपको सन्देश भी यही दिया जा रहा है। यूट्यूब पर इन्फ़्लूएन्सर्स (प्रभावकारी लोग) हैं, वो आते हैं बताने के लिए कि देखो तुम ऐसे पैसा कमाओ, वैसे पैसा कमाओ। ये वो हैं, जो ख़ुद कभी पैसा नहीं कमा पाये; ये ख़ुद ही यूट्यूब से पैसा कमा रहे हैं। ये ज़िन्दगी में कुछ भी करके कभी पैसा नहीं कमा पाये। हर काम में असफल हैं।
और आप देखिए तो आज हर आदमी यूट्यूब पर फ़ाइनेन्शियल् एड्वाइज़र् (वित्तीय सलाहकार) बना हुआ है और वो अपने थम्ब्नेल् (चलचित्र का संक्षिप्त विवरण देते लघुचित्र) लगाते हैं और थम्ब्नेल् में ऐसे अपने नोटों की गड्डियाँ दिखाते हैं कि देखो। कुछ ऐसे हैं जो अपना बैंक स्टेटमेन्ट (वित्तसूची) दिखा रहे होते हैं अपनी वीडियो में कि मैंने पाँच करोड़ कमा लिये, तुम भी कमा सकते हो।
इसमें कोई नहीं कमा रहा है, इसमें बस जो वो दिखा रहा है कि मैंने इतने कमा लिये, वो कमा रहा है; वो भी थोड़ा बहुत जो यूट्यूब से पैसा आ गया। उतने-से के लिए ये लोग पूरे देश को, विशेषकर जो बेचारे ग्रामीण इलाकों के, छोटे कस्बों के बच्चे हैं, उनको बर्बाद करे दे रहे हैं।
प्र: लेकिन आचार्य जी तथ्यगत रूप से एक ग्रामीण लड़के को हाथ में कुछ मिल नहीं रहा तो फिर वो उस उम्मीद के साथ टिका कैसे है?क्या उसको अगर चलो एक बार, दो बार खा लिया, तीन बार खा लिया; लेकिन उसके बाद तो आदमी को चेत जाना चाहिए न?
आचार्य: आप कामना का फिर स्वरूप समझते नहीं हैं, वो आपको चालीस बार एक ही गड्ढे में गिरा सकती है और उसके बाद इकतालीसवीं बार आप फिर उस गड्ढे में गिरने को तैयार होंगे, कामना वो चीज़ है।
आपमें बस कामना जगा दी जाए, आप एक ही ग़लती को पाँच-सौ बार करेंगे।
ये जो कहते हैं, ‘दूध का जला छाँछ भी फूँक-फूँककर पीता है’, ये बात विवेकवान् लोगों के लिए है कि एक बार जल गया तो फिर दोबारा सतर्क रहेगा।
न, जो आदमी अन्धी कामना से ग्रस्त हो गया, मैं कह रहा हूँ, वो एक ही ग़लती पन्द्रह बार करेगा और आप उससे पच्चीस बार और करवा सकते हो। वो करेगा, आप बस लालच दिखाते रहो उसको।
इसीलिए तो मैंने शुरुआत करी थी सांस्कृतिक आधार की बात से। जो अच्छा सांस्कृतिक आधार होता है, वो आध्यात्मिक होता है वास्तव में। अच्छी संस्कृति कौनसी है? अच्छी संस्कृति वो है, जो पूरी तरह आध्यात्मिक है।
अगर संस्कृति ऐसी हो गयी, जिसमें बस ऊपरी साज-सज्जा है, ऊपर-ऊपर की बातें हैं, समझ रहे हो? ये रस्में हैं, ये रिवायत है, ऐसा कर लो, ऐसा कर लो; इस नदी की पूजा, वो पेड़ के पास चले गये या बड़ों को प्रणाम कर लिया और ये सब जो हो रहा है, इसका कभी अर्थ नहीं बता रही है आपको वो संस्कृति। आप परिचित ही नहीं हैं कि इन प्रतीकों के माध्यम से संस्कृति आपको सन्देश क्या देना चाह रही है, तब हम कहते हैं कि संस्कृति अब जरा-जीर्ण हो गयी है। जरा माने बूढ़ी और खोखली, जरा-जीर्ण हो गयी है। अब उसमें कोई दम नहीं है। अब कोई आएगा बाहर वाला और इस संस्कृति को धराशायी कर देगा और वही हुआ है।
प्र: जी, पहले भी संस्कृति में मूल्यव्यवस्था लोगों तक पहुँचाने के लिए साहित्य की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी।
लेकिन आज के समय पर यदि हमारी शीर्ष पाँच या दस किताबें देखें; पुस्तकों की दुकानों में भी, ऑनलाइन भी; तो उसमें से दो या तीन तो जितना पूरा मार्केटिंग , फ़ाइनेन्स या इसी से सम्बन्धित रहता है। तो पूरी जो मूल्यव्यव्यस्था है, उसका इतना पतन हो चुका है कि वो अब इन किताबों में भी अस्तित्व में नहीं है।
आचार्य: और उसमें, इसमें दो बातें हैं, देखो। एक तो ये कि चलो साहित्य का पतन हो गया, कविता कहीं नहीं है, उत्कृष्ट लेखन नहीं है, गद्य नहीं है, पद्य नहीं है, ये सब उड़ गया; लेख, निबन्ध तो बहुत दूर की बात है। समीक्षा, आलोचना जैसी कोई चीज़ बची ही नहीं। किताबें क्या आ रही हैं? जैसा आपने कहा कि यही कि पैसा और कैसे कमा लोगे, जल्दी से ये कर लो तो पैसा आ जाएगा, ऐसा-वैसा। यही सब है।
एक तो गन्दगी इस तल पर है और दूसरी जानते हैं कि किस तल पर है? दूसरी इस तल पर है कि वो जो कह रहे हैं कि ऐसे पैसा आ जाएगा, वैसे आएगा भी नहीं।
पहली गन्दगी तो ये है कि आपने बाक़ी सबकुछ छोड़कर के बस यही कहना शुरू कर दिया, यही लिखना और यही पढ़ना शुरू कर दिया कि पैसा-पैसा-पैसा। एक तो ये गन्दगी हो गयी।
और दूसरी गन्दगी ये है कि ये जो किताबें आ रही हैं, जो आपको क्विक मनी, ईज़ी मनी (शीघ्र व आसान कमाई) के तरीक़े बता रही हैं, इनमें से किसी भी किताब को पढ़कर के आप पाँच रुपये नहीं कमा सकते है। हाँ, इन किताबों की बिक्री ज़रूर हो जाती है, ये बता करके कि देखो, द शॉर्टकट् टू सक्सेस् इज़् हियर (सफलता का शीघ्र रास्ता यहाँ है)।
तो ये तो सब देखो जवान पीढ़ी को बेवकूफ़ बनाने वाली बाते हैं। भारत एक युवा देश है, हमारी सबसे बड़ी जो आबादी है, वो है अभी यही पन्द्रह से लेकर के तीस-पैंतीस तक के आयु वर्ग में। तो जिसको जो कुछ भी बेचना है, उसको जवान लोगों को बेचना पड़ेगा क्योंकि आबादी में जवान लोग ही सबसे ज़्यादा हैं। तो यही वजह है कि जवान लोगों को लक्ष्य बनाकर के उनका शिकार करने के लिए आज हर आदमी तत्पर है। चाहे वो एक राइटर् (लेखक) हो, चाहे मार्केटर् (व्यापारी) हो और राइटर् ही मार्केटर् है, मार्केटर् ही राइटर् बन गया है। तो ये सब हो रहा है।
देखो, पैसा कमाना अपनेआप में एक अच्छा लक्ष्य भी हो सकता है, क्यों इनकार करें इस बात से! और पैसा आपके शारीरिक निर्वाह के लिए और दैनिक आवश्यकताओं और इन चीज़ों के लिए ज़रूरी भी है। तो पैसा कमाना होता है लेकिन जिस तरीक़े से ये बता रहे हैं पैसा कमाना है, ऐसे तो मैं निश्चित रूप से बता सकता हूँ, कोई नहीं कमा सकता।
भई, आप अगर जानना ही चाहते हो शेयर् मार्केट् (शेयर बाज़ार) के बारे में तो उसकी किताबें हैं, वो पढ़ो और उसमे एक रिगरस् मैथेमैटिकल् मॉडलिंग (कठोर गणितीय प्रतिरूपण) होती है।
कॉमेडियन् (विदूषक) आकर के फ़ाइनेन्शियल् एक्सपर्ट (वित्तीय विशेषज्ञ) बने हुए हैं, जिस आदमी को ख़ुद न पता हो कि क्या करना है, क्या नहीं करना है, वो आ रहे हैं और माहौल कुछ ऐसा बनाया जा रहा है, जैसे कि बहुत आसान है और एक जादू की चीज़ है ‘क्रिप्टो’, उसमें जो भी जाकर लगा देगा पैसा, उसका भाग्य खुल जाएगा।
और जब लोग डूबते हैं और लोगों के इसमें हज़ारों, लाखों, कई बार करोड़ों बर्बाद होते हैं, तब ये सब फ़ाइनेन्शियल् एनलिस्ट (वित्तीय विश्लेषक) और ये सब, ये कहीं जवाब देने नहीं आते हैं।
फ़ाइनेन्शियल् एनलिस्ट भी कई स्तरों के होते हैं, ऊँची कोटी के, हाई लेवल् (ऊँचे तल) के सीरियस् एनलिस्ट (गम्भीर विश्लेषक) भी होते हैं, पर उनको आप पढ़ोगे नहीं। स्टॉक् मार्केट् पर रिसर्च रिपोर्ट्स (शोधपत्र) आती हैं, इनवेस्टमेंट (निवेश) पर पेपर (पत्र) होते हैं, वो आप पढ़ोगे नहीं।
एक आकर के ड्रामेबाज जैसा कोई होगा, जो स्क्रीन पर एक्टिंग (अभिनय) कर रहा है और आपको बोल रहा है, ‘देखो, ऐसा होगा, वैसा कर लो। अब ये है न, ऐसे पैसा बन जाएगा।’; आप उसको सुन लोगे, तो ऐसे तो पैसा भी नहीं बनेगा न!
पहली बात तो आपने ज़िन्दगी की सारी चीज़ों को छोड़कर के पैसे को दिमाग़ में डाल लिया और दूसरी बात वो जो पैसा आपने ने अपने दिमाग़ में डाल लिया, आपको पैसा भी नहीं मिला। आप बताइए, आप कहाँ के बचे? माया मिली न राम।
प्र: वो फिर कामना आपको अन्दर ही अन्दर खाती रहती है।
आचार्य: कामना खाती रहती है और वो फिर आपसे और कुछ नहीं कराएगी, हर तरह का भ्रष्टाचार कराएगी। आप पैसा कमाने के लिए हर तरह का करप्शन् (भ्रष्टाचार) करोगे और भीतर-ही-भीतर घुटते हुए रहोगे, फ़्रस्टेशन् (कुण्ठा) में रहोगे, जिससे आपको सौ तरह की बीमारियाँ होंगी, डिप्रेशन् (अवसाद) होंगे और भीतर ही भीतर आपके आत्मसम्मान....
प्र: बहुत चोटिल रहता है कि भैया! कुछ हम भी..
आचार्य: दुर्गति हो चुकी होगी कि मैंने ये चाहा, मुझे यह नहीं मिला; मैंने वो चाहा, मुझे वो नहीं मिला। समाधान क्या है इसका?
देखो समाधान..। सबसे पहले तो ये स्वीकार करना होगा कि भारत अभी जैसा है और हमारी जितनी आबादी है; जिस तरीक़े के अरमान हमको चटाये जा रहे हैं, वो अरमान पूरे होने से रहे। अगर आप ये सोच रहे हो कि आपको सुख मिल जाना है, बहुत सारा पैसा कमा करके; तो आपने अपनेआप को सुख से वंचित कर लिया। क्योंकि इतने सारे जवान लोगों को करोड़पति बना देने कि सामर्थ्य हमारी या वैश्विक अर्थव्यवस्था में नहीं है। ये बात साफ़-साफ़ समझ लें, सुनकर चोट लगेगी और अच्छा है कि चोट लग जाए।
जितने जवान लोग भारत में हैं, उन सबके अरमानों को पूरा कर पाने की ताक़त भारतीय अर्थव्यवस्था में तो छोड़ दो, ग्लोबल् इकॉनमी (वैश्विक अर्थव्यवस्था) में भी नहीं है। तो अगर आपके भीतर यह भाव डाल दिया गया है कि बेटा तू भी जल्दी से, झट से पाँच करोड़ कमा करके अय्याशी कर सकता है, तो आप इस सपने को दफ़न कर दें, ऐसा होने से रहा।
सबसे पहले तो जीवन में पैसे के अलावा जो सुख हैं, जो हाइट्स (ऊँचाईयाँ) हैं, जो सम्भावनाएँ हैं; उनको तलाशें। जब जीवन में कुछ और रहता है ऊँचा, तो आदमी पैसे का ही मोहताज नहीं रहता, आदमी ये नहीं कहता कि पैसा है तो सब कुछ है, पैसा नहीं है तो कुछ नहीं है। आपको अपने जीवन के दूसरे आयामों को, डायमेन्शन्स (आयामों) को विकसित करना पड़ेगा, तो आपकी फिर पैसे पर निर्भरता कम होती है।
अगली बात। कितनी भी निर्भरता कम कर लो पैसे पर, पैसा तो फिर भी चाहिए, ज़िन्दगी जीनी है। तो उसके लिए आपको दो चीज़ें चाहिए होंगी, गम्भीर पढ़ाई और गम्भीर मेहनत। आप अगर जिस भी क्षेत्र में काम कर रहे हैं, उसकी गहरी समझ, पकड़ नहीं रखते हैं तो आप उस क्षेत्र के विशेषज्ञ, एक्सपर्ट नहीं बन सकते। और अगर नहीं बन रहे तो आपको पैसा भी नहीं मिलेगा।
तो पहली बात तो जो ओल्ड-फैशन् (पारम्परिक) पढ़ाई है, उसको बिलकुल आप डिस्काउंट (उपेक्षित) मत कर दीजिए कि साहब, ट्रेडिशनल् एजुकेशन् (पारम्परिक शिक्षा) में तो कुछ रखा ही नहीं है। काफ़ी कुछ रखा है।
शेयर् मार्केट् ‘सट्टा बाज़ार’ नहीं है, जुए का खेल नहीं है, थ्रो ऑफ़् डाइस (पासा फेंकना) नहीं है, वो सर्टन् प्रिन्सिपल्स (निश्चित सिद्धान्तों) पर चलता है। एक शेयर् मार्केट् का उदाहरण लेकर बता रहा हूँ।
मार्केटिंग भी ऐसी चीज़ नहीं है कि आप सड़क पर खड़े हो जाओगे और अपनी स्मार्टनेस् दिखा दोगे तो आपका माल बिक जाएगा। वो भी कुछ बहुत गहरे प्रिन्सिपल्स (सिद्धान्तों) पर चलता है। आपको उदाहरण के लिए अगर स्टैटिस्टिकल् एनलिसिस् (सांख्यिकीय विश्लेषण) नहीं आता है तो आप एक अच्छे मार्केटर् नहीं बन पाओगे। एक अच्छे सेल्स्मैन् (विक्रेता) बन सकते हो, अच्छे मार्केटर् नहीं बन पाओगे, अगर आप अच्छा रिगरस् मैथेमेटिकल् एनलिसिस् (कठोर गणितीय विश्लेषण) करना नहीं जानते तो।
और अच्छी मैमेटिकल् फ़ाउन्डेशन् (गणितीय आधार) के बिना आप कभी भी फ़ाइनेन्शियल् इन्सट्रूमेन्ट्स (आर्थिक तन्त्रों) से तो पैसा कमा ही नहीं सकते हो। तुक्का चल जाए, दो-चार बार आपकी लॉटरी लग जाए, वो अलग बात है। पर आप एक सक्सेस्फ़ुल करियर् (सफल आजीविका) नहीं बना सकते लॉन्ग टर्म (लम्बे समय) में।
तो जो बेसिक् एकेडमिक् वर्क (मूलभूत शैक्षणिक कार्य) है, वो करिए और दूसरी बात, उस एकेडमिक् वर्क (शैक्षणिक कार्य) को करने के बाद भी मेहनत के लिए तैयार रहिए कि मेहनत तो करनी ही है जीवनभर।
तो मैंने तीन-चार चीज़ें बोलीं। मैंने कहा सबसे पहले तो जल्दी से अमीर हो जाने का लालच आप छोड़ दीजिए; भले ही कोई यूट्यूबर् आपको कितने भी सपने दिखा रहा हो। दूसरी बात, जिस क्षेत्र में आप काम करना चाहते हैं, उसका पूरा ज्ञान हासिल करिए, ज्ञान का कभी कोई विकल्प नहीं होता।
गीता में कृष्ण बोल गये थे, ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’ ज्ञान के सदृश कोई नहीं है, जो कि आपके बन्धनों को जला देता हो। वो बात आज भी लागू होती है, आन्तरिक तौर पर ही नहीं,आर्थिक तौर पर भी कि आर्थिक बन्धन भी अगर काटने हैं तो उसके लिए ज्ञान होना चाहिए, जिस भी क्षेत्र में आप काम कर रहे हैं, उसका। उसका ज्ञान हासिल करिए। ज्ञान हासिल करने के लिए कई बार फ़ॉर्मल् एजुकेशन् (औपचारिक शिक्षा) चाहिए होती है। बाहर पढ़ लो, नहीं तो आज के समय में वो ऑनलाइन् भी मिल जाती है। लेकिन ये नहीं कर पाओगे कि ये आप सोचो कि मैं किसी यूट्यूबर् से वो इन्फ़ॉर्मेशन (जानकारी) हासिल कर लूँगा, वो नहीं हो पाएगा।
हम भी बात करते हैं, हमारा यूट्यूब चैनल् चलता है; उस पर आते हैं लोग, सुनते हैं; कहते हैं कि अच्छा ये है। मैं उनको बार-बार बोलता हूँ, ‘मुझे सुन लिया, अब जाओ और जाकर के जिन किताबों की, पुस्तकों की मैं बात कर रहा हूँ, उनको पढ़ो न! या वीडियो ही भर देख लेने से नहीं होगा, जाओ अब जाकर के अपना होमवर्क करो। जो एक एकेडमिक् डिसिप्लिन् (शैक्षणिक अनुशासन) चाहिए, वो दिखाओ।’ तो वो चाहिए होता है।
और जीवन में रसदायक कई चीज़ों को आप रखें ताकि आपको पैसे पर ही निर्भर न होना पड़े कि पैसा आया तो खुश और पैसा नहीं तो मातम है; ये नहीं होना चाहिए। और भी ऐसी चीज़ें होनी चाहिए, जो आपको प्रसन्न रखें और आपके जीवन में सार्थकता का भाव रखे कि ज़िन्दगी है और ज़िन्दगी में एक उद्देश्य है और मैं अच्छा चल रहा हूँ।
प्र: आचार्य जी, इससे एक सवाल मेरे मन में उठता है, यह एक तरीक़े से कह सकते हैं कि मैंने जो आपने बात कही, उसको अगर सोचूँ कि कोई औसत ग्रामीण इलाके का एक लड़का है, उसने आपको सुना है, तो जैसे आपने बोला कि खोजिए; खोजिए पहले एक उचित लक्ष्य, जिसके ऊपर आप फिर मेहनत कर पाएँ। क्या उसको खोजने के लिए ही पहले उसको आध्यात्मिक शिक्षा की आवश्यक नहीं पड़ेगी?
मतलब जिस हिसाब से फ़िलहाल उसका मन है, क्या उस मन के बूते वो एक सार्थक लक्ष्य ढूँढ सकेगा?
आचार्य: देखो, आध्यात्मिक शिक्षा तो पहले तो ज़रूरी थी, आज दस गुनी और ज़रूरी है। लोगों को लगता है कि वो पुराने समय कि कोई बात है और आज तो उसकी कोई उपयोगिता या रेलेवेन्स (प्रासंगिकता) है नहीं। उल्टी बात है, आज ज़्यादा ज़रूरी है; आज ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि आज हमारी कामनाएँ, इच्छाएँ ज़्यादा दहका दी गयी हैं।
तो आज तो बहुत ज़रुरी है कि बचपन से ही आपको कुछ बहुत मूलभूत बातें समझायी जाएँ क्योंकि नहीं समझा दी गयीं, तो ये जो मार्केट् इकोनॉमी (बाज़ारू अर्थव्यवस्था) है, जो कन्ज़्यूमरिज़्म (उपभोक्तावाद) पर चलती है, ये आपको खा जाएगी तुरन्त।
अगर आपको बचपन से ही नहीं पता है कि भाई, खुशी बाज़ार में जाकर चीज़ें खरीदने-खाने से ही नहीं मिलती है; और भी जगहे हैं, और भी तरीक़े हैं, और भी माध्यम हैं जिनसे खुशी और सेन्स ऑफ़् वेल्नेस् (स्वास्थ्य का आभास) और सार्थकता पायी जा सकती है। अगर आपको ये नहीं पता है तो ये बाज़ार आपको खा जाएगा।
प्र: जैसे आप कहा करते हैं, ‘सूक्ष्म तरीक़े।
आचार्य: सूक्ष्म तरीक़े हैं, हाईयर् ऑर्डर् प्लेज़र्स (ऊँचे सुख) हैं। यही थोड़ी ही है कि पैसा ले लिया और जाकर के कहीं पर बहुत अय्याशी कर दी, बहुत सारी शराब पी ली या और भी जितने भी तरीक़े होते हैं कि भाई, कैसे खुश है भाई तू इतना; मैं वीकेन्ड (सप्ताहान्त) पर पचास हज़ार फूँककर आया हूँ, इसलिए खुश हूँ। ये पहली बात, बहुत महंगी खुशी है; दूसरी बात, ये चलती नहीं है, ये दूर तक नहीं जाती।
ये शिक्षा तो बचपन से ही होनी चाहिए और ये शिक्षा ही भर नहीं है, बच्चे को इस बात का अनुभव कराया जाना चाहिए कि देखो तुमने अभी शनिवार-इतवार को ये करा, इसमें आनन्द आया कि नहीं आया। अब वो क्या हो सकता है? वो पेन्टिंग (चित्रकला) हो सकती है, स्पोर्ट्स (खेल) हो सकते हैं, कहीं पर चला गया, वो ट्रैकिंग (भ्रमण) कर रहा है, वो हो सकती है या वो कहीं चला गया, कोई एन्वायरन्मेन्टल् कैम्पेन् (पर्यावरण रक्षा अभियान) है कि नदी किनारे पॉलिथीन साफ़ कर दिये शनिवार-इतवार को, ये चीज़ हो सकती है।
तो बच्चे को ये सिखाया जाना चाहिए कि ऐसे कामों में भी गहरी खुशी है, जिनका पैसे से बहुत ताल्लुक़ नहीं है। या कि कुछ नहीं करा, उसको सेटर्डे-सन्डे (शनिवार-रविवार) बैठाकर के कोई बहुत अच्छी किताब पढ़ा दी और उसको बिलकुल मज़ा आ गया बच्चे को, तो अब वो समझ गया है न कि मनी ऑल् राइट् लेकिन मनी इज़् नोट् एवरीथिंग (पैसा ठीक है, लेकिन पैसा ही सबकुछ नहीं है)! और ये सिर्फ़ कोई क्लीश (सुनी-सुनायी उक्ति) नहीं, क्लीशे (सुनी-सुनायी बात) नहीं है कि आपको जा करके कह दिया, ‘नहीं, मनी इज़् नॉट् एवरीथिंग.. (पैसा सबकुछ नहीं है..)’ ऐक्चुअली (वास्तव में) पैसा सबकुछ नहीं होता है।
और जो लोग जानने-समझने लग जाते हैं, वो जान जाते हैं कि आपकी आवश्यकताओं वगैरह की पूर्ति के लिए निस्सन्देह पैसा आवश्यक है लेकिन वो एक सीमा से ज़्यादा आपके लिए कुछ नहीं कर सकता और अगर आप ऐसे हैं, ज़िन्दगी आपकी ऐसी है कि आपके लिए सबसे बड़ी खुशी पैसा ही है, तो फिर आपको अपनी ज़िन्दगी पर पुनर्विचार करना चाहिए, कहीं-न-कहीं आपकी ज़िन्दगी में बड़ी गड़बड़ चल रही है।
पैसा भी किसी ऊँची चीज़ को पाने का यदि माध्यम बन रहा हो तो ठीक है। और आपकी ज़िन्दगी में पैसा माध्यम कि जगह अगर एन्ड ऑब्जेक्टिव् (अन्तिम उद्देश्य) बन गया है तो आपको चेत जाना चाहिए, कुछ बहुत गड़बड़ हो रहा है।
प्र: एक और सवाल था मेरा आचार्य जी इसी से सम्बन्धित कि जैसे आपने कहा कि भारत युवाओं का देश है तो यहाँ पर युवा सबसे ज़्यादा अपना समय इन्हीं सारे सोशल् मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर ही व्यतीत करते हैंऔर वहाँ पर जोसामग्री होती है, वो आपको बिलकुल प्रभावित करती है और आपको और ज़्यादा प्रभावित करती है, जब आपका मूल पहले से हीसशक्त नहीं हुआ है।
तो कई बार मैंने यह सवाल लोगों से सुना है इस विषय में भी कि क्योंकि वो बार-बार वही सामग्री सोखते रहते हैं; पैसे के, भोग के इर्द-गिर्द , वहाँ पर चित्र दिख रहे हैं आपको किलोग भोग रहे हैं, लोगों का शायद इतना अच्छा-अच्छा हो रहा है या आज अब अर्थव्यवस्था इतनी आगे बढ़ रही है, सभी लोग पैसा कमा रहे हैं, हम ही हैं जो नहीं कमा पा रहे हैं, हम ही छूट गये बस आगे बढ़ने से। इसके कारण क्या होता है कि जैसा कि मैंने कहा था कि जो शीर्ष दस किताबें हैं, उनमें तीन से चार आपके जो हैं, पैसे के, वित्त के बारे में ही हैं और वित्त के बारे में ऐसा नहीं है कि वो आपको बड़ा मूल कोई वित्त सम्बन्धी ज्ञान समझा देती हैं, वो मूलतः आपको एक होप (उम्मीद) छोड़ जाती है।
आचार्य: होप छोड़ जाती है और भीतर लालच जगा देती है।
प्र: तो यह जो मूल्यव्यव्यस्था है पूरी पैसे के परितः या भोग के परितः—क्योंकि वही अन्तिम उद्देश्य है—वो इतना ज़्यादा सशक्त होता चला जाता है कि विशेषतः युवा के मन का केन्द्रीय मूल्य बनता चला जाता है।
अब उसका परिणाम यह होता है कि एक तरफ़ मुझे वो जो शीर्ष किताबें हैं पैसे के ऊपर, वो रख दी जाएँ सामने और दूसरी तरफ़ मेरे कोई ग्रन्थ रख दिया जाए सामने, ग्रन्थ को देखते ही ऐसा लगता है कि विकर्षण पैदा होता है कि भाई ये तो वो बात मुझे बता ही नहीं रहे हैं, जो मेरी कामना को पूरा करेंगे। और कामना को समझने कि कभी कोई समझ, सीख, शिक्षा कभी ली नहीं कि इसको समझा भी जाता है। तो फिर मतलब ये फिर कौनसी दिशा..
आचार्य: देखिए, ग्रन्थ के लिए यह समस्या हमेशा से रही है। ये जो है, हमेशा एक तरह का अनिक्वल् बैटल (असमान युद्ध) रहा है, जहाँ ग्रन्थों को इस तरह से जूझना पड़ा है।
लेकिन ग्रन्थ जूझते रहे हैं, इस तरह की बातें, इस तरह के विचार, इस तरह की किताबें जो कहती हैं कि भोग सब कुछ है, ‘आओ-आओ, पैसा कमाओ’, ये आते रहे हैं, जाते रहे हैं और ग्रन्थ इनका प्रहार झेलकर, इनकी चुनौतियाँ झेलकर भी ग्रन्थ अपनी जगह यथावत् रहे हैं।
तो पहले भी झेल लिया है, आगे भी झेल लेंगे। ऐसी इसमें कोई बात नहीं है कि आज ऐसा हो गया है कि..
क्योंकि देखो बात सीधे-सीधे सत्य की है। मान लो, ये जो बातें है कि पैसा ही सबकुछ है, मान लो ये बात सब मान भी लेते हैं। ठीक है? एक बार को कल्पना करो कि सबने यह बात मान ली;
अगर सबने यह बात मान ली तो क्या होगा? अगर सबने बात मान ली, तो सब इस बात पर अमल करने लगेंगे और जैसे ही अमल करेंगे तो क्या पाएँगे? कि ये बात झूठी है, तो उन्हें ग्रन्थों के पास लौट के आना पड़ेगा। तो ग्रन्थ तो हारकर भी जीतेंगे, ग्रन्थों को तो हार कर भी जीतना ही है। उसमें कोई ऐसी समस्या आने नहीं वाली है कभी भी।
तो बस इतना है कि ग्रन्थ तो हारकर जीत जाएँगे क्योंकि उन्हें लौट-लौटकर आना है, वो सच्ची चीज़ हैं; लेकिन आपके पास एक ही ज़िन्दगी है, आपको ज़िन्दगी दोबारा नहीं मिलेगी। ठीक है न? गीता तो अमर है लेकिन आप अमर नहीं हो। गीता को आप कितना भी हरा लो, गीता फिर जीत जाएगी। लेकिन आपकी अगर अपनी ज़िन्दगी बर्बाद हो गयी, क्योंकि आपने गीता नहीं पढ़ी, तो आपको ज़िन्दगी दोबारा नहीं मिलेगी।
तो गीता के पास अब इसलिए नहीं जाइए कि गीता बहुत ऊँची है, गीता के पास इसलिए जाइए कि आपको अपनी ज़िन्दगी बचानी है। गीता का कुछ नहीं बिगड़ेगा, अगर आप उसके पास नहीं गये तो।
प्र: ये अपने से प्रेम की बात है।
आचार्य: हाँ, ये तो अपने प्रति प्रेम की बात है। गीता तो हमेशा विजयी रहनी ही है। ये आपको देखना है कि आपको अपनी ज़िन्दगी बचानी है कि नहीं बचानी है। आप गीता को त्याग देंगे, गीता का कुछ नहीं चला जाएगा; पर आपने गीता को त्याग दिया तो आप बर्बाद हो जाएँगे। ठीक है?
तो ग्रन्थों के सामने ये चुनौती हमेशा से रही है और ग्रन्थ इस चुनौती को हमेशा से जीतते आये हैं, हारकर भी जीतते आये हैं। लेकिन जो आज की पीढ़ी है, वो कितनी पीड़ा में जिएगी, वो अपनी ज़िन्दगी की लड़ाई हारेगी या नहीं हारेगी, वो इसपर निर्भर करता है कि वो जो कुछ मूलभूत सत्य हैं जीवन के, जो अध्यात्म में निहित हैं, उन सत्यों की ओर बढ़ती है या नहीं बढ़ती है।
तो अच्छी बात है कि लोग कहें कि पैसा कमाना, ये सब आना; बहुत अच्छी बात है, आप पैसा कमाइए। लेकिन उसके पहले आपको ये पता होना चाहिए कि ज़िन्दगी क्या है और जीने का उद्देश्य क्या होना चाहिए। उसके बाद आप कमाइए पैसा, बहुत अच्छी बात है।
आप ज़िन्दगी को नहीं जानते; आप ख़ुद नहीं जानते तो आप पैसा कमा किसके लिए रहे हो?
ये बहुत अजीब सी बात नहीं है? आप कह रहे हो, पैसा कमा रहे हो। मैं पूछूँ, ‘किसके लिए?’, आप बोलो, ‘अपने लिए।’; मैं पूछूँ, ‘आप हैं कौन?’; आप स्वयं को जानते नहीं, आत्मज्ञान जैसा कुछ है नहीं ज़रा भी और आप पैसा कमा रहे हैं, तो आप पैसा वास्तव में किसके लिए कमा रहे हैं फिर?
प्र: आपकी हालत और उस खरगोश में क्या फ़र्क है, जो अपने लिए गाजर इकट्ठा कर रहा है!
आचार्य: गाजर जो इकट्ठा कर रहा है, उससे तो फिर भी उसकी कम-से-कम एक शारीरिक भूख शान्त होती है। शारीरिक भूख सीमित होती है। आप दो गाजर से ज़्यादा नहीं खा पाओगे, आप खरगोश हो। मानसिक भूख असीमित होती है। असीमित होती है और अनन्त। मतलब समझ रहे हो न?
शारीरिक भूख तो बड़ी मासूम चीज़ होती है; आपको जितना चाहिए, उतना खा लोगे, फिर नहीं खाओगे। मानसिक भूख बड़ी ख़तरनाक चीज़ होती है। अध्यात्म इसलिए है ताकि आप अपनी मानसिक भूख को समझ पाओ। आपका मन भूखा है पर वो किस चीज़ का भूखा है? आप इस चीज़ को जान पाओ, इसी के लिए तो अध्यात्म है!
पैसा कमाना बुरी बात नहीं, लेकिन अपनी ज़िन्दगी को न जानना, अपने बारे में पूरी तरह से अन्धेरे में रहते हुए पैसा कमाना बहुत बेवकूफ़ी की बात है। ठीक है?
तो एक मूलभूत आधार तैयार हो, उसके बाद आप पैसा वगैरह कमाएँ तो ठीक है। तब आपको पता तो होगा न कम-से-कम न कि आप पैसा क्यों कमा रहे हो!
संसाधन है पैसा। संसाधन, रिसोर्स (संसाधन); गाड़ी की तरह है; वो कहीं पहुँचाता है पैसा। कहाँ पहुँचना है, ये पता तो होना चाहिए। आप जानते ही नहीं आपको कहाँ जाना है तो गाड़ी क्या कर लेगी आपके लिए? हो सकता है, उस गाड़ी से आप अपनी ही कब्र तक पहुँच जाओ। ये करोगे उस गाड़ी का इस्तेमाल आप।
लक्ष्य पता हो तो ही गाड़ी काम आती है न? लक्ष्य पहले आता है, गाड़ी बाद में आती है। इसी तरीक़े से दिमाग़ का सुलझना ज़रूरी है, फिर पैसा कमाइए। या दोनों साथ-साथ चलें कम-से-कम कि दिमाग़ का सुलझना और आर्थिक अर्जन, ये दोनों साथ-साथ चलें।
(गाड़ी चलाते हुए चर्चा करते-करते गन्तव्य तक पहुँचने पर)
चलिए साहब! हम तो आ गये एक ऐसी जगह, जहाँ हमारी गाड़ी हमको ले आयी और एक ऐसी जगह आये हैं, जहाँ जाने-आने के लिए भी गाड़ी लगती है और जहाँ अन्दर आकर के पैसा ख़र्च भी करना पड़ता है। ये पिक्चर् आयी है; हमने सुना है, किसी कुत्ते की कहानी है, काफ़ी मार्मिक। ‘ट्रिपल् सेवन् चार्ली’ (७७७ चार्ली) नाम से। तो हम वो देखने आये हैं। अगर अच्छी लगी तो आने वाले किसी समय में उसके बारे में कुछ कहेंगे या तो ऐसे ही रिकॉर्डिंग पर या फिर एपी सर्किल (आचार्य जी का एक ऑनलाइन मंच) में आपको बताएँगे। चलिए।