आचार्य प्रशांत: उत्तराखंड को बर्बाद करके उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल बच लेंगे क्या? क्यों नहीं बचेंगे? एक छोटा सा नाम है, गंगा। आपने गंगोत्री का जो हाल कर दिया है, उसके बाद ये आवश्यक नहीं है कि बाढ़ ही आए। जब ग्लेशियर नहीं रहेगा, तो गंगा जी कहाँ से रहेंगी? और वो बन गया पर्यटन स्थल, और पर्यटन का मतलब ही होता है "भोगना।"
वहाँ जा किसलिए रहा हूँ पैसा वसूलने के लिए। काहे कि जाना महँगा होता है भाई, तो वहाँ जाएँगे तो पूरा वसूल के आएँगे। और वसूलने का मतलब ही होता है कि पर्वत का बलात्कार करके आएँगे पूरा, गँवार किस्म का टूरिज़्म — चिप्स के पैकेट, बिसलेरी की बोतलें। कितने ही झरने हैं, वहाँ तो हर 200 मीटर पर कोई झरना होता है। ख़ास तौर पर बरसाती झरना, वैसे सूख जाता है, बरसात में बहता है।
आप देखिएगा ग़ौर से वो कितने ही झरने हैं जो सिर्फ़ प्लास्टिक के कारण अवरुद्ध हो गए हैं, वो बह ही नहीं सकते अब, प्लास्टिक ने उनको रोक लिया है। और रुकता जाता है पानी, रुकता जाता है — ऊपर से तो आ ही रहा है, बर्फ़ पिघल रही है। रुकेगा, रुकेगा, फिर क्या करेगा? फिर तोड़फोड़ मचाएगा या फिर जहाँ रुक रहा है वहाँ की चट्टान को वो घोल देगा। जब घोल देगा तो क्या होगा? सब कुछ नीचे आ जाएगा।
तीर्थ यात्रा के लिए हेलीकॉप्टर हैं, और पूरे रोपवे बना दिए गए हैं। उड़न खटोले पर बैठकर के वहाँ जाओगे महादेव के पास, उनके सिर के ऊपर से उड़ के आओगे? तीर्थ वहाँ स्थापित किया गया था, किसी वजह से स्थापित किया गया था न कि जा सकते हो अगर, तो पैरों पर चलकर जाओ।
तो पहली हमने बेईमानी ये करी कि घोड़े और खच्चर लगा दिए। उसके बारे में मैंने बोला है, कि भाई घोड़ों को क्यों तीर्थ यात्रा करा रहे हो? उनकी जान काहे लिए ले रहे हो? उन्होंने कब कहा है? वो तो पशुपति के वैसे ही प्रिय हैं सारे पशु। उन्हें ये करना ही नहीं है कि दिन में तीन बार ऊपर, तीन बार नीचे और तुम उनको मारे डाल रहे हो। वहाँ लाशें पड़ी रहती हैं। ये कुल मिला कर के वही है — द एन.आर.आई. ड्रीम। "मेरा तीर्थ है ना, तो बिल्कुल फाइव स्टार तीर्थ होना चाहिए। खट से गाड़ी निकले दिल्ली से, और खट से जाकर के सीधे केदारनाथ में खड़ी हो जाए, 'साएँ.. साएँ.. साएँ।'
वहाँ तो अभी आवश्यकता ये है कि जो रिलिजियस टूरिज़्म भी होता है, उसको भी रेगुलेट किया जाए। कौन-सा ये सब के सब वहाँ पर जा रहे हैं महादेव के प्रेम में, ज़्यादातर लोगों को तो शिवत्व का कुछ पता भी नहीं है। ये तो वहाँ पर जाते हैं एक बॉक्स को टिक करने, कि हाँ भाई तीर्थ भी कर लिया। तीर्थ भी कर लिया, अब उसकी फ़ोटो लेंगे फेसबुक पर लगाएँगे और शेखी बघारेंगे, कि मैं तो होकर आया हूँ अभी-अभी बदरी-केदार। जिनकी ज़िंदगी में शिव कहीं नहीं है, वो पहाड़ चल के शिव को पा जाएँगे क्या? उन्हें शिव से कोई प्रेम भी है? खच्चर-घोड़े पर अत्याचार करके तुम वहाँ तक जाते हो। ये पशुपति के प्रेम का प्रतीक है, पशुओं पर अत्याचार?
ये तो जो चार धाम 'टूरिज़्म' है, ये तो 'रेगुलेट' होना चाहिए। चार-चार महीने की 'वेटिंग' लगनी चाहिए, ताकि वही लोग जाएँ जो सचमुच गंभीर हों।
ऐसे नहीं कि किसी का भी मुँह उठाया और बोला, "चलो डार्लिंग, हनीमून मनाने ऊपर चलते पहाड़ों पर। इधर गर्मी बहुत हो रही है, क्लाइमेट चेंज हो गया। चार डिग्री औसत से ज़्यादा तापमान है दिल्ली में, चलो केदारनाथ चलते हैं मजा आएगा।" और केदारनाथ के रास्ते में और भी सब चीज़ें हैं, उनके भी मजे लेते हुए चलेंगे। पहले ऋषिकेश रुकेंगे, फिर आगे काणाताल है उसमें रुकेंगे। केदारनाथ के पास चोपता है, वहाँ मजे मारेंगे। चलो डार्लिंग!
चार-चार, छः-छः महीने की वेटिंग लगे, और एकदम सीमित संख्या में वाहनों को जाने दिया जाए। एक से एक बड़े मांसाहारी, अत्याचारी, भ्रष्टाचारी — ये वहाँ चढ़े जा रहे हैं पर्वत पर। इनके पाप नहीं साफ़ होंगे पर्वत पर चढ़ के, हाँ पर्वत ज़रूर गंदा हो जाएगा इनके चढ़ने से।
ये मत करो कि सड़क इतनी चौड़ी कर दी है कि ज़माने भर की गाड़ियाँ पर्वत पर चढ़ जाएँ। सड़क तो और पतली रखो, ताकि वही जाए जो सचमुच जाने लायक है। जिनमें इतना संयम है, इतनी पात्रता है और इतना प्रेम है कि वो कहेंगे कि “हम इंतजार करेंगे। मेरा नंबर छः महीने बाद भी आएगा, मैं तो भी प्रतीक्षा करूँगा — मैं तब जाऊँगा।” ऐसे थोड़ी कि गुड़गांव के रईस हैं और उठाई अपनी फॉर्च्यूनर, और चढ़ गए झट से वहाँ पर, और बहुत खुश हुए कि “वाह! रोड अब कितनी चौड़ी हो गई है, मज़ा आ रहा है! बीच-बीच में चिकन टिक्का भी मिल रहा है!” गलत बोल रहा हूँ तो बताइए।
पहाड़ों पर प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण कौन लोग हैं? क्या स्थानीय निवासी? क्या स्थानीय निवासी पहाडों को गंदा करते हैं? नहीं। स्थानीयों में तो फिर भी पर्वत के प्रति कुछ प्रेम होता है। पर्वतों को बर्बाद तो ये पर्यटक करते हैं, और इन्हीं पर्यटकों को आप और ज़्यादा और ज़्यादा वहाँ बुला रहे हो, काहे के लिए भाई?
कहेंगे, “अर्थव्यवस्था के लिए। पहाड़ों के लोगों को भी तो पैसा मिलना चाहिए।” तो एक काम कर लो, पहाड़ों के लोगों को सब्सिडाइज़ कर दो, वो कहीं बेहतर है। उन्हें सौ तरह की सब्सिडीज़ दे दो। अगर आप यही चाहते हो कि पहाड़ के लोगों के हाथ में कुछ पैसा आए। तो उसके लिए पहाड़ को क्यों बर्बाद कर रहे हो? पहाड़ के लोगों को सब्सिडीज़ दो, बहुत अच्छी बात है, पूरा देश तैयार हो जाएगा। भाई पूरा देश जो टैक्स भरता है, उसका आधे से ज़्यादा तो तुम खा जाते हो अपने भ्रष्टाचार में। ठीक?
हमारा, आपका जो टैक्स जाता है, आपको क्या लग रहा है वो विकास के कार्यों पर ख़र्च होता है? हमारा, आपका टैक्स तो यही खा जाते हैं सब, नेता और ब्यूरोक्रेट्स। तुम्हें पहाड़ों की इतनी चिंता है — तो जो हम टैक्स देते हैं, उसी टैक्स का इस्तेमाल करके पहाड़ के लोगों को सब्सिडीज़ दे दो। उनकी ज़िंदगी बेहतर हो जाएगी आर्थिक रूप से भी। लेकिन पहाड़ क्यों बर्बाद कर रहे हो?
ये इतनी अजीब बात है। एक विदेशी आता है जब हमारे पर्वतों पर, तो वो विदेश में मांसाहार करता होगा। भारत आकर के कहता है, “नहीं, मांसाहार छोड़ दो। मैं पशु क्रूरता के उत्पाद — माने दूध, पनीर वग़ैरह भी नहीं छूऊँगा,” ये विदेशियों का हाल रहता है। वो यहाँ पर साधारण कपड़े पहन के घूमते हैं, अपने देश वाले नहीं। वही ऋषिकेश से एक 200-400 का कुर्ता ख़रीद लेंगे, वही डाल लेंगे और वही पहन के अपना घूम रहे हैं। एक फटी चप्पल में अपना वो मज़े कर रहे हैं।
और जब देसी आदमी पहाड़ों पर जाता है, तो वहाँ बकरा चबा आता है। वो कहता है, “हम पहाड़ पर आए किस लिए? बीयर और बारबेक्यू!” विदेशी मांसाहारी है पर वो पहाड़ पर आकर हो जाता है — शाकाहारी, और देसी अपने घर में भले शाकाहारी होगा, लेकिन पहाड़ पर चलकर हो जाता है बलात्कारी — एकदम पूर्ण मांसाहारी। ये हमारी महान संस्कृति है, और वो इसलिए क्योंकि संस्कृति में अध्यात्म कहीं नहीं है, बस संस्कृति भर है। मिठ्ठू बोलो "राम-राम" तो मिठ्ठू "राम-राम" बोल रहा है — तोता-रटंत संस्कृति।
संतों ने इतना समझाया, इतना समझाया कि असली तीर्थ है "आत्मस्नान"। और आत्मस्नान अगर नहीं हो रहा है, तो तुम गंदे ही रह जाओगे। "मीन सदा जल में रहे, धोवे बास न जाए।" तुम कितना गंगा-स्नान कर लो, भीतरी गंदगी नहीं हट रही तो नहीं हट रही। अभी हमारी हालत ये कि भीतरी गंदगी हम और बढ़ा रहे हैं धर्म के नाम पर। और गंगा जी हमें क्या साफ़ करेंगी, हमने गंगा को गंदा कर दिया।
और समझाने वाले कह गए —
"क्यों पानी में मलमल नहाए, मन की मैल छुटा रे प्राणी। गंगा गयो ते मुक्ति नाहीं, सौ-सौ गोते खाए।"
लेकिन जब मन की मैल बचा के रखनी होती है, तो फिर हम गंगा को भी मैला कर देते हैं। और जब भीतर जानवर बैठा होता है ना, तो हम पहाड़ों के जंगलों के सारे जानवर काट डालते हैं।
जब हम भीतर के पशु से मुक्त नहीं होते, तो हम बाहर वाले जितने पशु होते हैं, उनके साथ बड़ा अत्याचार करते हैं।