तीन मार्ग- ध्यानयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2014)

Acharya Prashant

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तीन मार्ग- ध्यानयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग || आचार्य प्रशांत, श्रीकृष्ण पर (2014)

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना। अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ||

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय १३ श्लोक २४)

आचार्य प्रशांत: कुछ लोग परमात्मा को ध्यान के द्वारा देखते हैं, कुछ लोग ज्ञान के द्वारा और तीसरे निष्काम कर्मयोग द्वारा। ध्यान, ज्ञान, कर्म। रास्ते और भी हैं, तीन पर गिनती रुक नहीं जाती। तीन की बात कृष्ण ने की है, चौथा, पाँचवा, छठा भी हो सकता है। तीन क्या हैं जो कृष्ण ने बोला हैं? ध्यान, ज्ञान और कर्म।

कृष्ण की ऐसी ही आदत रही है, समझो – वो सबसे पहले उसका नाम लेते हैं जो साफ़ मन के लिए सबसे सरल है, पर प्रदूषित मन के लिए बड़ा मुश्किल है। वस्तुतः जो सबसे सीधा और सरल रास्ता है, कृष्ण वही सदा सबसे पहले बताते हैं। अर्जुन से भी जब बात करनी शुरू की है तो सबसे पहले सांख्य की बात की है क्योंकि वो सबसे साफ़ बात है, सबसे सीधी। वो अगर समझ में आ गई तो फिर किसी और की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। पर जब अर्जुन वहाँ पर मानता नहीं है तो उससे कई और तरीके की बातें होती हैं। अभी भी कृष्ण अगर तीन नाम ले रहे हैं – ध्यान, ज्ञान और कर्म, तो वो इसी क्रम में हैं।

ध्यान का अर्थ हुआ सहज रूप से शांत ही हो जाना। ध्यान का अर्थ हुआ कि ऐसी समस्या अब सामने है ही नहीं जो अशांत कर सके। समस्या नहीं है तो समस्या से निपटने के लिए जो पूरा सोच-विचार चलता है वो भी नहीं है। कुछ है ही नहीं सोचने के लिए तो सोचें क्या? कुछ भी नहीं है सोचने के लिए। सोचें क्या? वो गाना सुना है? “ये आसमान, ये बादल, ये रास्ते, ये हवा – हर एक चीज़ है अपनी जगह ठिकाने से, बड़े दिनों से शिकायत नहीं ज़माने से।”

सब कुछ अपनी जगह ठिकाने पर है, क्या देखें और क्या सोचें? सब ठीक चल रहा है – ये ध्यान है।

ध्यान का अर्थ ही यही है – अपने ठिकाने पर आ जाना। अगर ठिकाने पर हैं, तो सो सकते हैं, विश्राम में है।

जिनके लिए इतनी सहजता से बात नहीं बन पाती, जिनको ये एहसास नहीं हो पाता कि हम ठिकाने पर हैं, जिनका मन ये मान ही नहीं पाता कि कुछ गड़बड़ नहीं है, हमेशा लग ही रहा हो कि कुछ गड़बड़ है; कुछ पाने को है, कुछ कमी है, कुछ खोने का खतरा, जिनको इस तरह की बातें लगी ही रहती हैं – उनके लिए फिर ज्ञान होता है।

ज्ञान, याद रखना, पाने की बात नहीं होती। ज्ञान का अर्थ है ऐसी सूचना, ऐसी जानकारी, ऐसा चिंतन, जो पहले से इकट्ठा सारी जानकारी को काट दे। तुम्हें लग रहा है कि, ‘कोई खतरा है’ – ये क्या है? ये ज्ञान है। ये एक तरह की जानकारी है। ये एक विचार है। हम विचार ही तो करते हैं कि कुछ गड़बड़ है, कुछ हासिल करना है – ये क्या है? ये ज्ञान है। तो अध्यात्मिक रूप से ज्ञान सिर्फ वो है जो पहले से इकट्ठा ज्ञान को काट दे।

सांसारिक रूप से ज्ञान वो है जो दिमाग में जा करके और इकट्ठा हो जाए। तुम किसी संसारी से पूछोगे तो वो कहेगा, “ज्ञान एकत्र करने की चीज़ है, उसका संचय हो, ज्ञान बढ़े।” वो तुम्हें ज्ञानी तब मानेगा जब तुम्हारे पास बहुत सारी सूचना हो, वो तुम्हें ज्ञानी तब मानेगा जब तुम्हारी हार्ड-डिस्क कुछ टीबी (टैराबाइट) की हो। तुम्हारी हार्ड-डिस्क जितनी बड़ी होगी संसारी तुम्हें उतना ज्ञानी मानेगा।

पर कृष्ण तुम्हें ज्ञानी तब मानेंगे जब तुम्हारी हार्ड-डिस्क फॉर्मेट हो जाए – फैक्ट्री सेटिंग रीस्टोर्ड – जैसे बन के आए थे वैसे ही हो गए, निर्मल। कुछ भी नहीं है अब, जो बाहर से आया हो और इसमें स्टोर्ड हो। ज्ञान का ये अर्थ है।

अध्यात्मिक सन्दर्भों में ज्ञान को कभी सूचना मत मान लेना। अध्यात्मिक सन्दर्भ में ज्ञान झाड़ू है। मैं उसको कहता हूँ कि, “ज्ञान समझ लो टॉयलेट-क्लीनर है, जो पहले से इकट्ठा तुम्हारी गन्दगी को हटा दे और उसके बाद फ्लश कर दो, तो खुद भी हट जाए।” तो सारी सफाई के बाद ज्ञान तुम्हें वहीं ला कर के रख देता है जहाँ तुम्हें ध्यान रख देता है।

जो बात सीधे-सीधे ही समझ गए, उनके लिए ध्यान; जिन्हें बात सीधे-सीधे समझ में नहीं आई, उनसे बात करनी पड़ी, उन्हें समझाना पड़ा, उन्हें नेति-नेति की तलवार देनी पड़ी कि, ‘देखो जो तुम हासिल करना कहते हो वो बेकार है, देखो तुम जहाँ पहुँचना चाहते हो वो उपलब्ध है’– ये सब ज्ञान है। ये कौन सा ज्ञान है? ये वो ज्ञान है जो पहले से इकट्ठा तुम्हारे ज्ञान पर आक्रमण करता है। ठीक है?

कुछ ऐसे सूरमा हैं जिनको अभी भी समझ में नहीं आता, उनके लिए ज्ञान भी नकाफ़ी है, फिर उनके लिए होता है – कर्म। उनको कहा जाता है कि, ‘तुम्हारे संस्कार इतने गहरे हैं कि तुम जो कर रहे वो करना छोड़ पाओगे नहीं। तुम्हारे बस की नहीं। तुमसे न हो पाएगा। तुम तो जिसमें लग गए हो उससे हट पाना तुम्हारे लिए बड़ा मुश्किल है। तुमने तो एक ढर्रा पकड़ लिया है और तुम उस ढर्रे को वास्तविक माने जा रहे हो। उसी ढर्रे को जीवन माने जा रहे हो। बड़ी देर हो गई तुम्हारे लिए। तो फिर उनसे कहा जाता है कि, ‘तुम एक कम करो – जो कर रहे हो करो पर मन में ये भावना रखो कि करवाने वाला कोई और है, और इसका फल भी पाने वाला कोई और है।’

“न मैं ये कहूँगा कि मैंने ये किया, न मैं इसका कर्ता हूँ, न मैं ये कहूँगा कि मैं इसके फल का भोक्ता हूँ। न मैं करता हूँ, न मैं भोक्ता हूँ। मैं तो कहूँगा करवाया भी कृष्ण ने और फल भी कृष्ण को ही जाए। मैं इसका कोई श्रेय नहीं ले सकता कि मैंने किया।” श्रेय जो है वो कर्तृत्व का फल होता है। पहले करते हो फिर कहते हो, ‘मैंने किया ये’। हम कहेंगे कि, ‘करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है’– ये समझ लो कर्म योग है।

असल में कन्हैया कुछ करते नहीं है, कर तो यही जनाब रहे हैं। पर अब ये कर-कर के फूल न जाएँ तो अच्छा है कि ये यही गाएँ – 'करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है।’ पूरा कर्मयोग इस एक पंक्ति में आ जाता है – “करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है।”

पर ये कर्मयोग, याद रखना, उनके लिए है जो करने के शिकार हैं। जो संसार से बहुत बंधे हुए हैं। कर्म माने संसार। जो संसार से बहुत बंधे हुए हैं। जो कहते हैं कि, “दुकान छोड़ ही नहीं सकते, खानदानी दुकान है और दुकान छोड़ने के नाम से ही हम काँप जाते हैं”, तो उनको कहा जाता है कि, ‘ठीक है, बैठो दुकान पर, पर मानो कि कन्हैया की दुकान है और आमदनी हो जाए शाम को तो ये न कहो कि मैंने कमा लिया, कहो कि प्रसाद मिला है। कृष्ण का प्रसाद है।’ ध्यान-योग, ज्ञान-योग, कर्म-योग यही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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