तामसिक, राजसिक और सात्विक अहंकार || तत्वबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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तामसिक, राजसिक और सात्विक अहंकार || तत्वबोध पर (2019)

प्रश्नकर्ता: क्या अहंकार भी सात्विक, राजसिक, तामसिक होता है? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: होता है। अहम् के साथ भी तुम इन तीनों गुणों को जोड़कर देख सकते हो। प्रकृति के गुण हैं, अहम् पर ही लागू होते हैं।

तामसिक अहंकार क्या है?

जिसने धारणा बना ली है कि, "मैं जहाँ हूँ, जैसा हूँ, ठीक हूँ, पूर्ण हूँ, स्वस्थ हूँ", उससे तुम पूछो, “क्या हालचाल?”

“बहुत बढ़िया, हमसे बढ़िया कौन हो सकता है!”

तामसिक अहंकार वो जिसे छटपटाहट अनुभव होनी बहुत कम हो गई है। कैसे कम हो गई है? वैसे कम हो गई है जैसे एक बेहोश आदमी को छटपटाहट नहीं महसूस होती। जैसे एक आदमी जिसे दर्द बहुत हो रहा हो और उसे तुम नींद का इंजेक्शन दे देते हो, उसकी छटपटाहट कम हो जाती है, तमसा ऐसी ही है। बेहोशी के काले अँधेरे को कहते हैं 'तमसा'। चेतनाहीनता के तिमिर का नाम है 'तमसा'।

तमसा का उपयोग है अहंकार के लिए। क्या उपयोग है?

अँधेरी रात है, और हमारी आँखों में नशा है, बेहोशी है, नींद है, हमें कुछ दिखाई देगा ही नहीं। जब कुछ दिखाई देगा ही नहीं तो हमें ये कौन जताएगा कि हम नर्क में हैं? तमसा में सुविधा हो जाती है ख़ुद को ये प्रवंचना दिए रहने में कि सब ठीक चल रहा है।

तामसिक आदमी जहाँ है, वो वहीं ठहर गया है, वो भाग नहीं रहा है। ठहर तो वो गया है, पर वो ग़लत जगह ठहर गया है। और वो ऐसा ठहरा है कि अब हिलने-डुलने में उसकी रुचि नहीं। प्रमाद और आलस उसकी पहचान बन गए हैं। उसमें अब कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं, उससे तुम कहोगे कि “कुछ चाहिए? दुनियादारी की कोई चीज़ चाहिए?” तो कहेगा, “नहीं, सोने दो बस। हम जैसे हैं, ठीक हैं। कहाँ है हमारा वो फटा-पुराना गद्दा और मैली चादर? लाओ उसी पर सो जाएँ।”

जैसे किसी नशेड़ी से पूछो, “क्या चाहिए?” तो कहेगा, “चिलम दे दो बस, बाकी तुम अपनी सब सुख-सुविधा, धन-वैभव, यश-प्रतिष्ठा ख़ुद रखो। हमें तो क्या चाहिए…?”

श्रोतागण: “चिलम।”

आचार्य: “हम बड़े संतोषी जीव हैं, हम ज़्यादा कुछ माँगते ही नहीं। तुम्हारी बादशाहत तुम्हें मुबारक हो। हमें तो ला दो बस थोड़ा-सा नशा।” ये तमसा है।

तमसा के पास कोई महत्वाकांक्षा, ऐम्बिशन , कुछ नहीं। उसे ज़िंदगी में कहीं नहीं जाना। वो जहाँ है, उसे वहीं पड़े रहना है, और यही नहीं, उसका दावा ये है कि वो जहाँ है, वहीं ठीक है। उसे कोई ग्लानि भी नहीं, उसे कोई बैचेनी नहीं उठती। उसने अपने-आपसे इतना गहरा झूठ बोल दिया है कि उसने मान ही लिया है कि वो जहाँ है, जैसा है, ठीक है। ये तामसिक आदमी है।

राजसिक अहम् क्या हुआ?

कि जग गया, पता चला कि “अरे! कहाँ अटके हुए हैं, कहाँ फँसे हुए हैं।" और जगकर बहुत घबराया, ये कहाँ फँसे हुए थे, नरक में जी रहे हैं। और घबराकर इतना उतावला हुआ कि इतना भी पूछने के लिए नहीं रुका कि नर्क में फँस कैसे गए। ज़रा भी जिज्ञासा नहीं करी, ज़रा भी संयम नहीं दिखाया। बस घबराकर, बिलकुल बैचेन होकर, अकबकाकर भाग चला। ऐसा जो घात हुआ हो, झटका लगा हो भीतर कि विचार की और बोध की शक्ति ही समाप्त हो गई हो। उसको अब बस किसी तरीके से कहीं पहुँचना है।

और उसके भीतर बड़ी ग्लानि है, बड़ी हीनभावना है कि हम तो बड़े अरसे तक नारकीय रहे हैं। नर्क से अब उसको द्वेष भी है और डर भी। द्वेष ये है कि इतने दिनों तक नर्क में क्यों पड़े रहे और डर ये है कि पुनः नर्क में ना पड़ जाएँ। उसको लगातार यही लग रहा है कि नर्क उसका पीछा कर रहा है। तो नर्क से बचने के लिए वो लगातार भागता है, लगातार भागता है। ये भागदौड़, ये गति ही राजसिक अहम् की पहचान है।

तुम उसे कभी स्थिर, संयमित नहीं पाओगे; वो सदा भागता नज़र आएगा। उसके पीछे नर्क है, और आगे? दुविधा। पीछे नर्क है और आगे एक के बाद एक चौराहे, इसीलिए वो हमेशा द्वंद में भी रहता है। राजसिक आदमी का ये लक्षण भी तुम ज़रूर देखोगे − उसके सामने सदा एक के बाद एक विकल्प रहते हैं और उसका खोपड़ा घूमता ही रहता है कि अब किस दिशा जाऊँ। और किस दिशा जाना है, ये कभी उसको पूरी तरह समझ में नहीं आता। लेकिन उसे जाना ज़रूर है, उसे कुछ-न-कुछ करना ज़रूर है, क्योंकि उसके पीछे नर्क है।

वो बहुत घबराया हुआ है कि अगर वो पल भर को भी रुक गया तो नर्क उसे गिरफ़्त में ले लेगा। तो वो रुकना नहीं चाहता, बस भागना चाहता है, एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल, एक चौराहे से दूसरे चौराहे। उससे पूछो, “जीवन किसलिए है?”

तो कहेगा, “जीवन उपलब्धियों के लिए है, जीवन इसलिए है कि कुछ-न-कुछ हासिल करते रहो।”

कहो, “ठीक, अच्छी बात, कुछ हासिल करते रहो।” क्या हासिल करना है, ये वो नहीं बता पाएगा। वो बस यही कहेगा, “हासिल ही करना है।”

फिर पूछोगे, “क्या हासिल करना है?”

ये वो नहीं बता पाएगा। ये राजसिक मन है। ये दौड़ता तो ख़ूब है, भागता तो ख़ूब है, पहुँचता कहीं नहीं। पर तामसिक मन से ये फिर भी श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें इतनी तो ईमानदारी है कि ये मानता है कि ये नर्क में फँस सकता है और इसे नर्क से बचना है। तामसिक मन तो ये भी नहीं मानता कि वो नर्क में फँसा हुआ है। तामसिक मन ने तो नर्क को ही स्वर्ग का नाम दे रखा है। तो इसीलिए शास्त्रों ने राजसिक होने को तामसिक होने से बेहतर बताया है।

फिर आती है सात्विक अहंता की स्थिति। वो क्या है?

भटकते-भटकते अंततः ये राजसिक मन थककर, चोट खा-खाकर और दैवीय अनुकम्पा से कहीं ठहर ही जाता है। कोई मिल जाता है इसे जो इससे पूछ बैठता है कि “इतना भटका तू, तूने पाया क्या?” या तो गुरु मिल जाता है, या तो जीवन ही उसे बाध्य कर देता है उसे अपने-आपसे ये प्रश्न पूछने के लिए, “इतना भटके, इतना श्रम किया, मिला क्या?”

अब ये मन आत्म-जिज्ञासा में प्रवृत्त हो जाता है। लक्ष्य इसके पास भी है, पर अब इसका लक्ष्य संसार नहीं है।

राजसिक आदमी स्वर्ग खोज रहा है संसार में, वो संसार में चारों तरफ़ भटका-भटका फिर रहा है। सात्विक मन अपने भीतर प्रवेश कर जाता है। वो खोजने लग जाता है अपने भीतर कि इस दौड़ का कारण क्या है, कौन है जो दौड़ रहा है। वो साधना में लग जाता है। उसकी पहचान ये है कि वो दुनिया से अपेक्षाएँ और उम्मीदें रखना छोड़ देता है। वो साफ़ समझ जाता है कि उसे जो चाहिए, वो दुनिया में तो नहीं मिलेगा। वो कहता है, “मुझे जो चाहिए, वो भीतर ही कहीं मिलेगा।” ये सात्विकता हुई।

ये आदमी अब ज्ञान की तलाश में है। लेकिन एक बात इसने भी अभी पकड़ रखी है, क्या? कि ये कोई है और इसे कुछ चाहिए। राजसिक आदमी को भी कुछ चाहिए था, उसने कहा, “संसार में मिलेगा।” सात्विक आदमी को भी कुछ चाहिए था, उसने कहा, “भीतर मिलेगा, ज्ञान में मिलेगा।”

और सात्विकता अगर तुम्हारी गहरी और सच्ची है, तो एक बिंदु आता है जब तुम इस प्रश्न से, इस बोझ से भी मुक्त हो जाते हो कि, "मुझे कुछ चाहिए।" अब तुम गुणातीत हो गए, अब तुमने सात्विकता का भी उल्लंघन कर दिया। सात्विकता भी तुम्हारे लिए तभी तक है जब तक तुम कुछ हो और तुम्हें कुछ चाहिए।

एक बिंदु आता है जब तुम कहते हो, “बूँद समानी समुंद में, अब कित हेरत जाइ।” क्या खोजना है! क्या पाना है! अब सात्विकता भी ख़त्म। सात्विकता भी कोई आख़िरी बात नहीं है, सात्विकता भी है तो प्रकृति का ही गुण न। पर वो उच्चतम गुण बताया गया है, क्योंकि वो तुमको प्रकृति से भी मुक्त कर देता है। और जीव हो तुम, जीव हो तो कोई-न-कोई गुण तो प्रभावी रहेगा ही तुम पर। जब कोई-न-कोई गुण प्रभावी रहना ही है, तो हमारे हितैषियों ने हमसे कहा…?

प्र: सात्विक गुण।

आचार्य: कि सात्विक जीवन जियो, क्योंकि सात्विक जीवन जियोगे तो प्रकृति के चक्र से मुक्त हो सकते हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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