प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जिस तरह से दैत्यों की सेना के बारे में बताया है कि करोड़ों की संख्या में और बहुत पावरफुल (शक्तिशाली), बहुत सारे सैनिक हैं तो ये क्या जो हमारी वृत्तियाँ हैं उसकी पावर (शक्ति) के बारे में बताया जा रहा है?
आचार्य प्रशांत: बिलकुल, बिलकुल वही है। बिलकुल वही बात है।
प्र: तो उनकी पावर के आगे देवी ही हैं जो उनका सामना कर सकती हैं, तो देवी के प्रकट होने का क्या मतलब है? जैसे वृत्तियाँ तो हमेशा हमारे अन्दर रहती हैं, तो जब देवी प्रकट हो रही हैं इसका, इसका...
आचार्य: आपके भीतर जो भी अच्छाइयाँ हैं, जो भी सद्गुण हैं उनके ऊपर से ये भार हटाइए कि वो आपके अहंकार की रक्षा करने में प्रयुक्त रहें। उदाहरण के लिए आपके पास बुद्धि है, बुद्धि भी देवी का एक रूप है, देवत्व का एक रूप है। बुद्धि के ऊपर से ये ज़िम्मेदारी बिलकुल हटा दीजिए कि बुद्धि आपके अहंकार की रक्षा करे। बुद्धि का प्रयोग दोनों चीज़ों के लिए हो सकता है न। अहंकार की रक्षा के लिए, सत्य की साधना के लिए या सत्य के शोध के लिए आपके पास धैर्य है, धैर्य के ऊपर से ये कर्तव्य बिलकुल हटा दीजिए कि तुझे मेरे रेत के पुतले को बचाने के लिए प्रयुक्त होना है।
आपके पास जो कुछ भी है उसको बस एक कर्तव्य दीजिए कि तुझे धर्म की, चेतना की, सत्य की जीत के लिए अभियान करना है। तब देवी प्रकट होती हैं। देवी ऐसे ही प्रकट हुई हैं न? सब देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति एकीकृत कर दी तो देवी प्रकट हो गयीं। सब देवताओं ने कहा हमारी व्यक्तिगत सत्ता को बचाने के लिए हमारी शक्ति की कोई ज़रूरत नहीं, हम अपनी ऊँची से ऊँची शक्ति दे रहे हैं किसी निर्वैयक्तिक अभियान के लिए। अब हम पीछे हुए, हमारा अभियान आगे हुआ। हम छोटी चीज़ बने, हमारा काम बड़ी चीज़ हुआ।
तो हम अपनी सारी ताकतों के ऊपर से ये ज़िम्मेदारी हटाते हैं कि वो हमारे रेत के पुतले की रक्षा करें। हम अपनी सारी ताकतों को अब बस एक ज़िम्मेदारी देते हैं। हम अपने ज्ञान को अब ये ज़िम्मेदारी नहीं दे रहे हैं कि हमारा ज्ञान हमारे अहंकार को बचाने के काम आए। हमारे ज्ञान के पास अब बस एक ज़िम्मेदारी है - धर्म को आगे बढ़ाओ। हमारे बल के पास अब ये ज़िम्मेदारी नहीं है कि हमारा अहंकार बचाओ। बल के पास क्या ज़िम्मेदारी है? सत्य की सेवा में नियुक्त रहो। जब आप अपनी सारी शक्तियों को बस एक लक्ष्य के लिए तैनात कर देते हैं, नियुक्त कर देते हैं तो देवी का जन्म हो जाता है।
प्र: आचार्य जी, जो उसमें देवी का युद्ध बताया गया है तो उसमें जो धर्म की रक्षा है उसका मतलब क्या है? वृत्तियों के खिलाफ ही लड़ना या फिर कोई बाहरी चीज़ भी है जैसे ये जो देवियाँ लड़ रही हैं दैत्यों से, तो उसको धर्म की रक्षा बताया गया है। तो वृत्तियों को ही मारना और लड़ना बस वही है या और कुछ भी?
आचार्य: देखिये मूल रूप से तो वही है, वृत्तियों को मारना ही। लेकिन अंदर आपके जो कुछ है उसका सम्बन्ध बाहर से भी होता है। आपके सर पर कोई चढ़ कर बैठा हुआ है जो बलपूर्वक आपसे अधर्म कराता है। अब एक बात तो पहली यही है ही कि अपने भीतर के उस लोभ को या भय को आप मार दें जिसके कारण आपको उस अधर्मी के सामने झुकना पड़ता है। लेकिन भीतर के उस अधर्मी को मारने भर से काम पूरा नहीं हो जाएगा क्योंकि आपने अपने भीतर वाले को मार दिया, चलिये अच्छी बात है,लेकिन वो जो बाहर अधर्मी है वो दूसरों से फिर अधर्म कराएगा।
तो भीतर वाले के साथ-साथ बाहर वाले का भी संहार करना पड़ता है। इन दोनों में सबसे पहले तो निश्चित रूप से भीतर वाला ही है। पहले तो भीतर का जो दैत्य है उसको ही मारना होगा। लेकिन स्थितियाँ वो जीवन में आती हैं जब भीतर के दैत्य के साथ-साथ बाहर के दैत्य का भी संहार करना पड़ता है।